Khatti Mithi yadon ka mela - 22 books and stories free download online pdf in Hindi

खट्टी मीठी यादों का मेला - 22

खट्टी मीठी यादों का मेला

भाग – 22

(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे, अपना पुराना जीवन याद करने लगती हैं. उनकी चार बेटियों और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी दो बेटियों की शादी हो गयी थी. बड़ा बेटा इंजिनियर और छोटा बेटा डॉक्टर था. तीसरी बेटी ने विजातीय लडकी से शादी कर घर छोड़ दिया था. सबसे छोटी मीरा अपने भाई के यहाँ रहकर एम. बी. ए. कर रही थी. )

गतांक से आगे ---

वे कुछ सोचकर नहीं आई थीं कि कब लौटेंगी... पति से कहा भी था , मन लग जायेगा तो कुछ दिन रह जाएंगे बेटा बहू, पोते-पोती, बेटी सब तो हैं वहाँ... गाँव में यूँ भी सूनी दीवारें तकते बीतते हैं दिन औ रात.

पर अब चार दिन में ही मन ऊब गया था. अपनी फूल सी बच्ची की ऐसी कठोर दिनचर्या देखी नहीं जा रही थी. मीरा ने उनके जाने की बात सुनी तो उदास हो गयी. उन्होंने बता ही दिया... "इस तरह उसका काम करना नहीं देखा जा रहा... "

मीरा ने बड़े बूढों की तरह समझाया... " सिर्फ दो साल की तो बात है, माँ.... पढ़ाई पूरी हो जाएगी... नौकरी लग जाएगी.. फिर मैं यहाँ थोड़े ही रहूंगी..... अब जब रहती हूँ तो काम तो करना ही पड़ेगा, ना... मुफ्त में किसी का अहसान क्यूँ लूँ?"

"बेटा.. प्रकाश तेरा भाई है... कोई कैसे हो गया?"

"माँ, भैया ने बहुत मदद की है.... उनके भरोसे ही तो पढ़ रही हूँ.... फीस बैंक से लों लेकर भर दी है पर और खर्चे भी तो हैं. किताबें, लैपटॉप प्रोजेक्ट... भैया की कमाई पर तो भाभी का हक़ है... उन्हें शायद अच्छा ना लगे, उनके पैसों का यूँ बँटना... इसलिए अच्छा है... थोड़ा खुश रखो... किसी का मन मैला ना होने दो.... थोड़ा काम ही तो करना पड़ता है बस...... भाभी भी अच्छा व्यवहार करती हैं, माँ... कभी उल्टा-सीधा कुछ नहीं बोला"

उन्होंने गहरी सांस ली... उन्हें इस नई पीढ़ी का हिसाब-किताब समझ नहीं आता... उन्हें तो इतना पता है, बड़ा भाई, बाप की जगह होता है.... क्या प्रकाश बिना फीस दिए ही इंजिनियर बन गया... आज अगर अपनी बहन को पढ़ा रहा है... तो कोई अहसान तो नहीं कर रहा... जिसे बहन उसके घर नौकरों की तरह खटकर चुकाए. और बहू किस बात पर मन मैला करेगी.... घर बच्चों की तरफ से एकदम निश्चिन्त है. रात में भी देखती... अपने साथ बिठाकर मीरा ही पढ़ाती उन्हें. बहू तो कोई सीरियल देखती रहती, अपने कमरे में. प्रकाश भी सब समझता होगा, पर घर में शान्ति रहें इसलिए चुप रहता होगा.

ये नए ज़माने का घर, नए जमाने की बातें... उनके गले नहीं उतरतीं और उन्होंने पति से सीधा कह दिया... "सामान संभाल रही हूँ... कल चलेंगे यहाँ से"

पति चौंके... वे तो पूरा दिन बाहर वाले कमरे में ही बैठे रहते... अखबार पढ़ते.. टी. वी. देखते और शाम को टहलने निकल जाते. दरवाजे पर भारी पर्दा पड़ा था... घर के अंदर क्या चल रहा है, उन्हें कुछ पता ही नहीं चलता. और उन्हें कुछ बताने का मन भी नहीं हुआ... वे... समझेंगे ही नहीं, ये बातें. और समझ भी जाएँ तो उसे मानेंगे नहीं.... सौ तरह से उसे सही ठहराने की कोशिश करेंगे और कहेंगे ये सब उनका वहम है.

घर वापस आ गयीं, पर मन नहीं लगता... सुबह पति को फूलों की क्यारियाँ ठीक करते देखतीं और मस्तिष्क में मीरा का तेजी से रसोई में काम करना दिखता रहता... दोपहर को आराम करने को लेटतीं और लगता वो कॉलेज में भूखे पेट पढाई कर रही होगी, रात देर तक नींद नहीं आती, किताबों पर झुका मीरा का थका चेहरा दिखाई देता रहता.

छः महीने बाद मीरा घर आई और उन्होंने उसे एक ग्लास पानी भी लेकर पीने नहीं दिया. कलावती की बेटी छुटकी को ताकीद कर दी थी कि मीरा के आस-पास ही बनी रहें, ध्यान रहें कि एक बार उसे हैण्ड-पम्प भी ना चलना पड़े. मीरा हंसती रहती,

"माँ मेरी आदतें खराब कर रही हो"

वे उसे डांट देती, "चेहरा देख जरा... कैसा मुरझाया सा हो गया है... कोई रौनक ही नहीं. जबतक छुट्टी है, सिर्फ खाना खा और आराम कर "

"अउर नहीं त का.... सहर जाके अईसा चेहरा बना लिया है कि दमाद बाबू को पसंद नहीं आया तो?? अब सादी-बियाह होगा... जरा धियान रखो अपना... "

"काकी तुम्हे सादी-बियाह के अलावा कुछ और सूझता है?... "

"लो कल्लो बात... इस उम्र में तुम्हारी माँ, तीन बच्चे की माँ बन गयी थी. "

"मैं जा रही हूँ बाहर पढने ".. मीरा सचमुच नाराज़ हो कोई भारी भरकम किताब ले बाहर चल देती.

कभी कुआँ के जगत पर बैठी पढ़ती होती.. कभी हनुमान जी के चबूतरे पर तो कभी... अमरुद के पेड़ की छाँव पे. दिन दुनिया से बेखबर. पता नहीं क्या सारा-दिन लिखती पढ़ती रहती.

पर उसकी यह मेहनत रंग लाई और फ़ाइनल रिजल्ट आने से पहले ही उसे एक अच्छी सी नौकरी मिल गयी. पति प्रकाश, प्रमोद की नौकरी लगने पर भी इतने खुश नहीं हुए थे, जितना अपनी छोटी बेटी मीरा की नौकरी लगने की खबर से. हुए. बिलकुल बाबूजी की तरह बाहर कुर्सी लगा बैठे होते और हर आने-जाने वालों को यह खबर सुनाते. "अरे जो मैं साल भर में कमाता था, मेरी बेटी के एक महीने की कमाई है.. क्या ज़माना आ गया है... पर बच्चे मेहनत भी तो कितना करते हैं, कितनी सारी पढ़ाई करते हैं" उन्हें लगता पति की तरफ, अब बुढ़ापा तेजी से बढ़ता आ रहा है. बुढापे में सबलोग एक जैसी ही बातें और एक जैसा ही व्यवहार करते हैं.

मीरा की नौकरी दूसरे शहर में लगी और वे परेशान हो गयीं, अकेली कहाँ रहेगी कैसे जाएगी? उन्होंने प्रकाश से कहा साथ जाने को, मीरा मना करती रही पर उनकी बात माँ, प्रकाश साथ गया. मीरा को उसकी नई नौकरी पर छोड़ उसे आश्वस्त किया, "माँ उसके साथ और भी लडकियाँ हैं, एक हफ्ते तो ऑफिस के गेस्ट हाउस में रुकेंगी सब फिर मिलकर एक फ़्लैट ले लेंगी, मीरा समझदार है, तुम चिंता मत करो"

कह देना आसान है, चिंता मत करो. इतने बड़े शहर में लड़की अकेली है, आगे नाथ ना पीछे पगहा.... और कहता है चिंता मत करो. नाराज़ होकर बोलीं, "अब तू उसके लिया अच्छा सा लड़का देख, अब तो पढ़ भी ली, नौकरी भी लग गयी, अब तो हो गयी तुम भाई-बहन के मन की"

"अच्छा माँ.... देखता हूँ.. " प्रकाश ने हँसते हुए कहा और फोन रख दिया.

यह हंसी में उड़ाने वाली बात है कहीं? लड़की इत्ते बड़े शहर में अकेली है और भाई हंस रहा है. अब वे पति के पीछे पड़ीं, लड़का देखिए मीरा के लिए. पति ने गंभीरता से कहा, "अब कहाँ उसके लायक लड़का मैं खोज पाउँगा? अगर उसे कोई पसंद आ जाता है तो कह देना कोई मनाही नहीं है मेरी तरफ से"

वे आवाक मुहँ देखती रह गयीं. ये वही पति कह रहें हैं? जिन्होंने नमिता के हाथ-पैर तोड़ घर बैठाने की धमकी दी थी. और इनकी वजह से आज वे बेटी का मुहँ देखने को तरस गयी हैं.

आश्चर्य से बोलीं, " ये आप कह रहें हैं.... नमिता के समय तो... "

" उसकी बात अलग थी, वो गाँव की लड़की थी... तुम नहीं समझोगी... जाओ खाना लगाओ... "

हाँ, जब मुश्किल में पड़ जाओ, सवालों से घिर जाओ... तो बस... "नहीं समझोगी.. खाना लगाओ... "

वे वहाँ से चली तो गयीं, पर मीरा के लिए सचमुच चिंतित हो उठीं.

मीरा रोज फोन करती. अपने हाल-चाल के प्रति आश्वस्त कराती उन्हें. अब तीन लड़कियों ने मिलकर घर भी ले लिया था. कहती काम भी अच्छा लग रहा है. जैसे ही छुट्टी मिलेगी, घर आऊँगी.

पर छुट्टी मिलने में उसे चार महीने लग गए. जब आई तो दो बड़े बड़े बैग भरे हुए थे. पता नहीं क्या क्या लेकर आई थी. अपने पापाजी के लिए कई सेट कपड़े, उनके लिए साड़ियाँ, अपने रामजस चाचा के लिए भी कुरता पायजामा, घर के लिए भी तमाम तरह के सामान. सिवनाथ माएँ के लिए साड़ी, कलावती के लिए कपड़े और सुन्दर सी चप्पल, उसकी बिटिया के लिए फ्रॉक और गुड़िया.

पर ये उपहार उसके सामने कुछ भी नहीं थे जो उसने अपने पापा जी को दिए. रात में खाना खाने के बाद जब पति अखबार की छूटी ख़बरें ढूंढ ढूंढ कर पढ़ रहें थे तभी मीरा गयी और एक मोटा सा लिफाफा उनकी गोद में रख दिया.

पति चौंके, " ये क्या है?"

हिचकते हुए बोली मीरा, "पापाजी, वो बाग़ जो गिरवी रखा था, ना कृष्णभोग आम के पेड़ वाला, उसे वापस ले लीजिये"

पति ने वो लिफाफा छुआ भी नहीं. बोले, "पहले इसे उठाओ. "

"पापाजी... "

"पहले इसे उठाओ... फिर समझाता हूँ" थोड़ा जोर से बोले वह.

मीरा ने उनकी तरफ देखा, उन्होंने आँखों से इशारा किया... मीरा ने बड़े बेमन से वो लिफाफा वापस ले लिया.

पति उसे समझाते रहें, अब घर में है कौन आम खाने वाला? तुम सबलोग बाहर हो. हम बुड्ढे- बुढ़िया क्या खायेंगे इस उम्र में. इस उम्र में तो परहेज ही जरूरी है. जिसके पास है वह बगान, कम से कम खा तो रहा है. यह सब भूल जाओ. इतना कुछ लाया तुमने, मैने कुछ बोला? आराम से रहो, इतनी मेहनत की है, उसका फायदा उठाओ.... ये सब भूल जाओ... " और अखबार रख वे सोने चले गए.

पर मीरा भी धुन की पक्की थी. उसने कब गुप-चुप रामजस जी से बात की और वे मान गए, उन दोनों को खबर भी नहीं हुई. सारा कागज़ पत्तर तैयार करवा जब पति से हस्ताक्षर करने को बोला. तो वे एक बार फिर चौंके. पर रामजस जी ने समझाया, "बिटिया का इतना मन है, तो कर दीजिये ना... कितने बाल-बच्चे इतना सोचते हैं??... वह सोच रही है तो उसे करने दीजिये. अब तो उनके बाल-बच्चे हैं वरना शम्भू बाबू जिंदा होते तो ऐसे ही बगान वापस कर देते. वे सिर्फ लोगों की मदद के विचार से गिरवी रखते थे, "

हस्ताक्षर करते पति की आँखों में आँसू आ गए जिसे छुपाने को वे हस्ताक्षर कर झट से बाहर चले गए.

मीरा ने पति के जाने के बाद कहा, "देखो मैं कैसे सारे खेत, बगीचे वापस लाती हूँ. और उनकी चिंता और बढ़ गयी, जल्दी से अब इसकी शादी हो जाए और वो यहाँ की चिंता छोड़, अपना घर-बार संभाले.

चार-दिन रहकर, मीरा चली गयी. पर कहती गयी अब इस बार मैं नहीं आऊँगी, तुमलोगों को आना पड़ेगा. एक फ़्लैट ढूंढती हूँ. फिर मेरे साथ ही रहना... और पता है हवाई जहाज में चढ़ कर आना आप दोनों लोग"

"तेरा दिमाग तो ठीक है... हवाई जहाज में और मैं?? डर से मर ही जाउंगी... "

"अभी नहीं माँ... एकाध साल रुक जाओ बस.... थोड़े पैसे जमा कर लूँ... फिर देखना... हवाई जहाज में ही सफ़र करोगी.. "

"चल-चल खयाली पुलाव ना बना.... मुझे लड्डू बनाने दे. " वे ढेर सारा नाश्ता बना रही थीं बेटी और उसकी सहेलियों के लिए. उन्हें पता है काम से कितना थक जाती होंगी सब. कुछ घर का बना बनाया खाने को तो मिले.

(क्रमशः )

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