खट्टी मीठी यादों का मेला - 8 Rashmi Ravija द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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खट्टी मीठी यादों का मेला - 8

खट्टी मीठी यादों का मेला

भाग – 8

(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे, अपना पुराना जीवन याद करने लगती हैं. उनकी चार बेटियों और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. दो बेटियों में से एक की शादी गाँव में हुई थी, उसे सब सुख था, पर ससुराल वाले कड़क मिजाज थे. दूसरी की शादी बंबई में हुई थी, घर वाले अच्छे थे पर जीवन कष्टमय था. छोटी बेटी नमिता गाँव में लड़कों की तरह साइकिल चलती, पेड़ पर चढ़ जाती. )

गतांक से आगे

प्रकाश ने इंजीनियरिंग की परीच्छा में बढ़िया नंबर लाये और दूर कलकत्ता के पास खरगपुर में उसको एडमिशन मिल गया. जब कॉलेज और होस्टल के खर्चे की बात उन्होंने सुनी तो उन्हें चक्कर आ गया. इतने पैसे कहाँ से आयेंगे?? वो भी चार साल तक?? पति की अब तक की सारी जमा पूँजी, स्मिता के ब्याह में खर्च हो गयी थी. जमीन जायदाद तो बहुत थी. पर उसे बेचने की बात, सोचना भी जैसे पाप था. पीढ़ियों से इस जमीन जायदाद में कुछ ना कुछ बढ़ोत्तरी ही होती आ रही थी तभी, आज इसका ऐसा रूप था, उसमे इज़ाफ़ा करने के बजाए कुछ कमी करने की सोच कर भी कलेजा मुहँ को आ जाता. ससुर जी को ये जमीन के टुकड़े अपने जिगर के टुकड़े जैसे प्यारे थे. आज भी वो कोई ना कोई जुगत भिड़ाते रहते कि कौन सी जमीन कैसे खरीदी जाए.

फसलों से घर के सारे खर्च.... तीज़-त्योहार... न्योता-व्यवहार.... निकल जाते.. फिर इतने नौकर चाकर... गाय बैल... बीज, खाद... कटाई बुवाई की मजदूरी... ट्यूबवेल... ट्रैक्टर... हज़ारों खर्च थे. पति की तनख्वाह तो कपड़े लत्ते... बच्चों की किताब-कापियाँ, दूसरे खर्चों में ही ख़त्म हो जाती

इस अतिरिक्त खर्च का बोझ कैसे उठाया जाए ?? कुछ समझ नहीं आ रहा था.

पति चिंतित थे. चार दिन इसी उधेड़बुन में गुजर गए. फिर एक शाम बाबू जी ने पति को बुलाया. उन्हें भी आने को कहा. अम्मा जी पहले से ही वहाँ बैठी थीं. बाबू जी ने पूछा,

" का सोचे हो परकास के लिए?"

"हम्म.... " पति चुप थे.

"कुछ इंतजाम बात किए हो.... बेटा इतना कठिन परिच्छा पास किया है... उसे आगे तो पढाना होगा"

"हम्म.. " पति की वैसे भी बाबू जी के सामने आवाज़ नहीं निकलती और आज तो कुछ था भी नहीं बोलने के लिए.

"तुम पता करो केतना पैसा चाहिए... इंतजाम हो जाएगा"

"कईसे.. ??" अब जाकर पति के मुख से बोल फूटा.

"अरे.. दूर दूर जो जमीन सब है.. ऊ सब हटा देंगे... वैसे भी धीरे धीरे झोपडी बाँध के सब कब्ज़ा कर रहें हैं... देखभाल ठीक से हो नहीं पाता... मेरी भी उमर हो रही है... तुम्हे मास्टरी से फुर्सत नहीं है... निकाल देंगे सब. "

"बाबूजी.... " उन्होंने फंसे गले से क्षीण प्रतिवाद किया. उन्हें पता था... बाबू जी को जमीन कितनी प्यारी है. कभी ऐसा करते भी हैं तो बदले में पास की जमीन खरीदने के लिए. 'बेचना' शब्द का उच्चारण तक उनके लिए नागवार था. इसीलिए 'हटा' देंगे... 'निकाल' देंगे जैसे शब्द बोल रहें थे.

"बाबू जी.... मेरा गहना है... उस से अगर... " वे अटकती हुई सी बोलीं... पर इस पर अम्मा जी ने जोर से डांट दिया.

"बहू ई सब, हमारे खानदान में नहीं होता... कि औरत लोग का जेवर लिया जाए... मेरा बेटा तो कमाता भी है.. डूब मरने वाली बात होगी उसके लिए अगर औरत का गहना बेचने तक बात पहुँच जाए"

"ना बहू भगवान ओ दिन कब्भी ना दिखाए..... रामावतार जी को पढ़ाया... दो बेटी का बियाह किया... पर पिलानिंग कर के.... दोनों बेटी की सादी आलू के फसल के बाद की... अब पढ़ाई का सीज़न और फसल का सीज़न तो साथ साथ नहीं चलते ना... कौनो बात नहीं.. सब ठीक हो जाएगा.. तुम चिंता जनी करो.. "

फिर बेटे से बोले "जाओ चा पानी करो.... अईसे मुहँ लटका के मत घूमो.... बेटा पूरे गाँव का नाम रौसन करेगा...... हम त जिंदा रहेंगे नहीं देखने को... पर मेरा पोता तो कहलायेगा, ना. लोग कहेंगे बिसेसर बाबू के पोते ने ये पुल बनवाया है... ये सड़क बनवाई है... ये बिल्डिंग खड़ी की है... हमरा भी तो नाम होगा... ""

"बस इहे असुभ निकालिए मुहँ से.... बेर बखत देखना नहीं है.. सांझ का बखत हो रहा है... और ऐसी असुभ भासा " अम्मा जी एक बार फिर गुस्सायीं.

"त तुम का बैठी रहोगी??... जिसकी बेटी बियाह कर लाये हैं... उसका हीला लगा कर ही जायेंगे"

“हम त परकास की सादी देख के... गोदी में पर पोता खेलाने के बाद ही, ई दुनिया से जाएंगे "

वे मुहँ पर पल्ला रख कर हंसी दबाती हुई चली गयीं वहाँ से. ऐसी नोक झोंक चलती रहती थी, सास ससुर के बीच में. अगर किसी दिन ससुर जी ने कह दिया, "बुढ़िया कहाँ हैं?"

बस अम्मा जी का गुस्सा सातवें आसमान पर "हमरा बुढ़िया उढ़िया मत कहा करें.. कह दे रहें हैं... हाँ" :

"काहे अभी बूढ़ायी नहीं हो... परनाती खेला ली गोदी में " और उनलोगों की लम्बी नोंक झोंक चल पड़ती.

पर वे चाय बनाती हुई सोच रही थीं. पति ज्यादा बाबू जी के सामने पड़ते भी नहीं. लगता था बाप- बेटा दोनों एक दूसरे के लिए अजनबी हैं. पर बाबू जी, बेटे के दिल की परेसानी एकदम से भांप गए. इसका मतलब नज़र रहती है उनके अपने बेटे की एक एक बात पर.

पति को चाय का कप पकडाया तो इतना ही बोले.. "अच्छा है प्रकाश नानीघर गया हुआ है... वरना ये सब उसके कान में पड़ता तो अच्छा नहीं होता "

पर अब वे सोचती हैं, अच्छा होता कि उसे पता चल जाता कि उसकी पढ़ाई के लिए किस तरह पैसों का इंतज़ाम होता था. उन पैसों की कीमत पता चलती. वरना उसे तो, यही लगता रहा कि.. पैसों की तो कोई कमी ही नहीं है.

प्रकाश नए बुशर्ट पैंट पहन, नए जूते मोजों से लैस दूर शहर में पढने चला गया. उन्होंने ढेर सारे निमकी, खजूर, बेसन के लड्डू बाँध दिए साथ में. क्या पता वहाँ क्या मिले खाने को. बीच में भूख लगे तो किस से बोलेगा, "जरा सूजी का हलुआ बना कर दो"

प्रकाश के जाते समय उनका दिल दो टूक हो गया. बेटियों के विदा के समय तो बिलख बिलख का रो ली थीं. पर यहाँ आँसू जैसे छाती में जम गए थे और सांस लेना भारी पड़ रहा था. अट्ठारह साल का बेटा, जिसकी बस हलकी हलकी मूंछें आई थीं, यूँ अकेला इतनी दूर नए शहर में कैसे रहेगा? बेटियों को विदा करते समय इतनी आश्वस्त तो थीं कि किसी समर्थ हाथों में सौंप रही हैं, जो उनका ख़याल रखेगा. पर बेटे का ख़याल कौन रखेगा. जिस बेटे ने एक रूमाल तक नहीं धोया कभी उसे अपने सारे कपड़े फींचने पड़ेंगे. और आँसू ढरक पड़े, उनके.

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प्रभी मैट्रिक में जिला भर में तो नहीं... पर आस-पास के बीसों गाँव में सबसे ज्यादा नंबर लाया. वह भी प्रकाश की तरह, पास के शहर में पढने चला गया. छुट्टियों में प्रकाश आता तो उसकी बातों से, उसकी चिट्ठियों से प्रमोद इतना प्रभावित होता कि कमर कस लेता, उसे भी बहुत मेहनत करनी है और इस छोटे से शहर से निकल बड़े शहर में जाना है. वह अपने बड़े भाई से दो कदम आगे ही रहना चाहता था. और उस पर डाक्टरी पढने का भूत सवार हो गया था. इतनी पढ़ाई की कि उसकी तबियत खराब हो गयी. पूरे साल में एकाध बार शहर आने वाली उन्हें. प्रमोद की देखभाल के लिए शहर में उसके पास आ कर रहना पड़ा. और अपने बेटे को इस तरह पढ़ते देख, वे भी चिंता में पड़ जातीं. कहीं उसकी तबियत फिर से ना खराब हो जाए. रात के दो बजे भी उठकर उसके पीछे जाकर खड़ी हो जातीं, तो उसे पता नहीं चलता. और वह पढता रहता. "बेटा दूध ला दें... सर में तेल लगा दें?

"ना माँ कुछ नहीं चाहिए तुम जा कर सो जाओ... और वो फिर किसी मोटी सी किताब पर झुक जाता.

पर नींद आती कहाँ से? गाँव का इतना बड़ा घर, इस कमरे से उस कमरे... आँगन.. छत करते ही थक जातीं. यहाँ दो कमरे के घर में बिना चले तो लगता जैसे पैर ही अकड गए हैं. वे तहाए हुए कपड़े फिर से तहाने लगतीं. एक जगह से चीज़ें उठा दूसरी जगह रख देतीं. पर उस से क्या थकान होती. नींद आँखों से कोसों दूर रहतीं. सुन कर विश्वास नहीं हुआ था. लोग शहरों में नींद लाने को भी गोलियाँ खाते हैं. अब लगता है, खाना ही पड़ता होगा.

(क्रमशः )