और,, सिद्धार्थ बैरागी हो गया
मीना पाठक
(2)
ताप आज फिर बढ़ने लगा था..देह बथ रहा था पर आज कोई उसकी सुध लेने वाला नहीं था, वह जानती थी | करवट बदल कर सोने की कोशिश करती है | बगीचे में सियार की हूँआ-हूँआ रात के सन्नाटे को चीरती हुयी दूर तक जा रही थी पर उसका मन आतीत के सफर से वापस आ चुका था, आँखें अब भी बह रहीं थीं |
अगले दिन जब वह उठी थी तब मुकेश उसे कहीं नही दिखा था | उसे लगा कि शायद वह अपने किये पर शर्मिंदा था इसीलिये उसके सामने नहीं आ रहा था | वह खुद भी उससे नजर कैसे मिलाएगी ? यही सोच रही थी पर सांझ हो गई, मुकेश नहीं दिखा | धीरे-धीरे दो दिन बीत गए, घर में कोहराम मच गया, सब हीत-रिस्तेदार पूछ लिया गया पर कहीं से कोई खबर नहीं मिली | हार कर तीसरे दिन जब कुछ लोगों के साथ दोनों भाई थाने रिपोर्ट लिखाने जा रहे थे तभी मुकेश का एक साथी रास्ते में मिल गया, उसीने बताया था कि तहसील में मलेटरी की खुली भारती हो रही थी | मुकेश भरती हो गया और वह छँटा गया था | तब से अब तक मुकेश घर नहीं आया था | एकाएक सागर छलक उठा उसकी आँखों से, मुंह अंचरा से दबा कर सिसक पड़ी |
तभी किसी ने उसके कमरे की सांकल बजायी..वह चौंक पड़ी..भोर हो गई थी, रोशनदान से हल्का सा उजाला झाँकने लगा था..कमरे के भीतर अन्धेरा कम होने लगा था पर उसके भीतर जो अमावस की रात बसी थी वह और काली होती जा रही थी |
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उस दिन भोर में जब पुजारी जी भगवान जी को स्नान कराने पहुँचे तो देखा मंदिर के बरामदे में एक साधू बाबा अपना दण्ड-कमण्डल लिए मंदिर खुलने की प्रतीक्षा में बैठे हैं | पुजारी जी ने साधू बाबा को प्रणाम किया और मंदिर के पट खोल दिए | मंदिर बहुत छोटा सा था पर गर्भगृह में पूरे शिव परिवार के साथ ब्रम्हा, विष्णु जी की मूर्तियाँ भी प्रतिष्ठित थीं | पास ही कुएँ से कलशा भर कर पुजारी जी ने सभी मूर्तियों को स्नान कराया उसके बाद फैला हुआ पानी साफ किया और फूल-पत्तियाँ समेट कर मंदिर के पीछे फूलों की क्यारी में डाल दिया | बरामदा धो कर आस-पास की जमीन पर जल छिड़क दिया | भोर का समय, ईशान में आसमान सिंदूरी हो गया था | बगीचे में पक्षियों का कलरव गूँज रहा था | ठण्डी-ठण्डी बयार के झोकों से वृक्षों के पत्ते झूम रहे थे | कच्ची जमीन पर पानी के छींटे पड़ने के कारण वातावरण में मिट्टी की सौंधी खुशबू भर गई थी | बाबा जी किनारे खड़े सब कुछ बड़ी तन्मयता से देख रहे थे | पुजारी जी मंदिर और आस-पास की सफाई कर पास ही खड़े बेल, कनेर, गुड़हल और चमेली के वृक्षों से फूल-पत्तियाँ चुन कर मंदिर में पूजन-अर्चन कर के साधू बाबा के पास आए और बोले -
“कहाँ से पधारे महाराज ?”
“भ्रमण पर निकला हूँ..जहाँ ठौर मिल जाय वहीं थोड़ा ठहर लेता हूँ..इधर से गुज़र रहा था..मंदिर देख कर रुक गया..सोचा कुछ दिन यहीं ठहर कर आगे बढूँगा |” बाबा जी बोले | सुन कर पुजारी जी खुश हो गए |
“हमरे गाँव का भाग खुल गया..जो आप पधारे..मैं अभी आप के विश्राम की व्यवस्था करता हूँ..|” कह कर पुजारी जी गाँव की ओर तेज कदमों से चल दिए |
थोड़ी देर बाद ही एक लकड़ी का तखत, दरी, चादर, गगरी, लोटा आदि सामान लिए गाँव के लोग आ पहुँचे | मंदिर के बरामदे में तख़त रख कर के उस पर दरी-चादर बिछा दिया गया | साधू बाबा ने अपना दण्ड-कमण्डल तख़्त पर रख दिया तभी पुजारी जी भी आ गए, उन्होंने हाथ जोड़ कर कहा -
“आप कउनों बाति की चिंता ना करें महाराज..आप की सुविधा का हम पूरा खयाल रखेंगे ..आप का भोजन भी गाँव से आ जाएगा |”
“नहीं..अब मुझे कुछ नहीं चाहिए और भोजन मैं भिक्षा मांग कर स्वयं पकाऊंगा...आप लोग परेशान ना हों |”
“जैसी आप की इच्छा महाराज |” कह कर सभी लोग बाबा जी को प्रणाम कर चले गए |
बाबा जी ने गगरी के कण्ठ में रस्सी बाँध कर पानी खींचा और कुएँ की जगत के पास ही बने चबूतरे पर स्नान किया फिर मंदिर में पूजन कर के ध्यान में बैठ गए |
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गाँव के बाहर बगीचे में आम. अमरुद, कटहल, जामुन आदि के अनेकों वृक्ष थे | सबसे ज्यादा संख्या मिठउआ आम का था | इस विशाल और घने बागीचे के किनारे शंकर जी का मंदिर था | पास ही कुआँ और पम्पिंगसेट था जिससे खेतों की सिचाई होती थी | भोर में गाँव से आ कर पुजारी जी रोज मंदिर के पट खोलते, पूजा-पाठ कर पट की जंजीर कुंडे में फँसा कर चले जाते ताकि गाँव के लोग भी पूजन कर सकें और संध्या के समय दीपक आरती के बाद पट बंद कर देते | ये उनके पुरुखों का बनाया हुआ मंदिर था इस लिए रोज सुबह की पहली और शाम की आख़री आरती वही करते थे | उसी मंदिर में बाबाजी पधारे थे |
साधू बाबा की उम्र करीब पैंतीस या चालीस की होगी | गठा हुआ शरीर, चौड़ा कंधा, गले में रुद्राक्ष की माला, बड़ी-बड़ी आँखे, बढ़े हुए केश और घनी दाढ़ी से ढाका हुआ चेहरा, रंग गोरा उस पर गेरुआ वस्त्र ! साधू बाबा के चेहरे पर एक अलौकिक तेज था | पूरा गाँव उनके स्वागत सत्कार में बिछा जाता परन्तु बाबा किसी से कोई सेवा नहीं लेते | वह एक समय भोजन करते वह भी गाँव में जा कर स्वयं किसी एक घर से भिक्षा मांग कर लौट आते | वहीं बगीचे से सूखी टहनियाँ तोड़ते और उसे जला कर भोजन पकाते और वही ग्रहण करते |
शिव मंदिर में एक साधू बाबा ने डेरा डाला है | ये बात पूरे गाँव ही नहीं आस-पास के गाँवों में भी जंगल के आग की तरह फ़ैल गई थी और बाबा के दर्शनों के लिए लोगों का ताँता लगने लगा था | सभी आते, दर्शन करते और बाबाजी का आशीर्वाद लेते | उन्हें आये हुए धीरे-धीरे दिन व्यतीत हो रहे थे परन्तु सुन्दरी अभी तक स्वामी जी के दर्शनों से वंचित थी | कारण घर के कार्यों में उनकी व्यस्तता | उम्र होगी तीस-पैंतीस की पर देखने में उम्र से बड़ी दिखती थी | भरा पूरा बड़ा परिवार था | तीन देवरानी जिठानियों में वह छोटी थी | दोनों बड़ी जिठानियों में अपने अधिकारों को ले कर हमेशा तना-तनी रहती | अगर बड़ी ने मनिहारिन से कुछ खरीद लिया है तो अगले ही दिन दूसरी मनिहारिन से मझली जनी उनसे ज्यादा सौदा खरीदतीं फिर पहन कर एक दूसरे को दिखातीं और बोल-ठोल करतीं | कोई भी मेला हाट नहीं छूटता | जब-तब मर्दों से छुप कर गहने बनवातीं और एक दूसरे को दिखा-दिखा जलातीं, यही उनका काम था | बाकी का सारा काम सुन्दरी के हिस्से था पर सुन्दरी ने कभी कोई शिकायत नहीं की | पति के ना रहने पर भी वह यहीं अपने ससुराल में ही दिन बिता रहीं थी |
जब से स्वामी जी के आने की बात सुनी थी, उसका भी जी कर रहा था कि वह भी महात्मा के दर्शन कर आती पर उसका स्वास्थ्य आज-कल साथ नहीं दे रहा था, ऊपर से घर के सौ काम | इस लिए वह मंदिर तक नहीं जा पा रही थी |
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स्वामी जी आज पूजा अर्चना के बाद ध्यान में बैठे थे | जो भी आता शांति से हाथ जोड़ कर बैठ जाता | ताकि स्वामी जी के ध्यान में कोई विघ्न ना पड़े पर स्वामी जी का ध्यान आज भटक रहा था | बार-बार वह अपने मन को वश में करते पर मन था कि आवारा बादल सा उड़ा जा रहा था, वश में ही नहीं आ रहा था | एक-एक कर के दिन बीतते जा रहे थे | ना तो वह उस द्वार तक पहुँच पा रहे थे ना ही अभी ‘वो’ उन तक आई थी | गाँव के बहुत से चेहरे वह पहचान रहे थे और बहुत से चेहरे उनकी पहचान में नहीं आ रहे थे | ‘वो’ भी तो अब ना जाने कैसी दिखती होगी ? क्या पता आ कर चली भी गई हो, मैंने पहचाना ही ना हो या वह यहाँ हो ही ना| आखिर क्यों होगी वह यहाँ ? नहीं-नहीं ऐसा कैसे हो सकता है ! मैं जरुर पहचान लूँगा उसे और वह यहीं है, मेरा दिल कहता है | अंतर्मन में उठ रहे विचारों के ज्वार से घबराकर अचानक उन्होंने आँखे खोल दी | सभी बाबा की जयजयकार करने लगे, बाबा ने सभी को दोनों हाथ उठा कर शान्त कराया | अचानक उनकी दृष्टि सामने बैठे दो व्यक्तियों पर पड़ी ऐसा लगा जैसे वह दौड़ कर उनको हृदय से लगा लेगें पर उन्होंने अपनी भावनाओं को नियंत्रित रखा तभी उनमे से एक हाथ जोड़ कर बोला “बाबा जी ! किसी दिन हमारा दुआर भी पवितर कीजिये |”
बाबा जी ने अपने होठ भींच लिए, मुट्ठियाँ कस लीं और अपने दोनों पैरों को आसन में और जोर से जकड़ लिया फिर सिर हिला कर हामी भरी और अपनी आँखे बंद कर ली | उन्हें डर था कि कहीं होठ उन्हें पुकार ना लें..आँखें बरस ना जाएँ..बाँहें उन्हें गले लगाने के लिए फैल ना जाएँ और पाँव उनकी ओर दौड़ ना लगा दें..इस लिए उन्होंने अपने पूरे वजूद को कस के बाँध रखा था पर मन कहाँ बंधन में रहता है..उसने कब बंधन में रहना स्वीकार किया है ..वह मचल उठा बचपन में इनके साथ की ना जाने कितनी बदमाशियाँ बंद आँखों के सामने नाच गयीं, गोली..गिल्ली-डंडा..ओल्हापाती..आँधी में बगीचे से आम बीनना..बाइस्कोप देखना..चोरी से अमरुद चुराना और पकड़े जाने पर माँ से मार खाना | अनायास ही स्वामी जी के होठों पर मुस्कान तैर गई..हृदय में स्नेह का सागर उमड़ पडा..आँखे खोल ली उन्होंने | उनके सामने बैठे दोनों व्यक्ति जा चुके थे | उन्हें ना पा कर मन कराह उठा | गेरुए वस्त्र में स्वयं को और अच्छे से लपेट लेते है जैसे उन वस्त्रों की अग्नि में अपनी सारी वेदना स्वाहा कर देना चाहते हों |
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