बिकी हुई एक कलम
(दामिनी यादव की कविताएं)
1 - ताज़ा ख़बरों का बासीपन
अचानक से मुझे सारी जानकारियां
बेमानी सी लगने लगी हैं,
सड़ांध, ऊब और बासीपन से भरी
लगने लगी हैं सारी ख़बरें,
ये ख़बरें या तो धमकी लगती हैं या झूठे सपने,
ये या तो डराती हैं अब
या लगती हैं सच को ढकने,
इन ख़बरों में बस ऐसी ही ख़बरें मिलती हैं,
जिनका वजूद मेरे वजूद के लिए
मायने नहीं रखता है,
चांद पर पानी मिलने से
क्या बदल जाएगा,
मेरी प्यास मोहल्ले के नल में अगर आया
तो वही पानी ही बुझा पाएगा,
रौशन हों भले ही और हज़ारों सूरज ब्रह्मांड में,
मेरे अंधेरे के हिस्से में तो
एक अदद बल्ब का उजाला ही आ पाएगा,
क्या पता खेल में शामिल हो गई है राजनीति
या राजनीति में ही सारे खेल होते हैं,
क्या पता क्या पाने के लिए
लोग अपना ज़मीर खोते हैं,
विदेशी भाषाओं की हमारी जानकारी अब
विदेशियों तक को डराएगी,
तो क्या वह रिश्तों में फैलते
सन्नाटों को भी समझ पाएगी,
दुनिया ख़रीदेगी हमसे अब
तरक्की के साज़ोसामान
तब तो किसानों की लाशें भी अब पक्का
पेड़ों से लटकी नज़र नहीं आएंगी,
औरतें गाड़ देंगी अब कामयाबी के झंडे
नज़र नहीं आएंगे अब उनके जिस्म के
रौंदे, कुचले, मसले दुपट्टे,
ये ख़बरें ही बताती हैं कि आज
न बचपन या बुढ़ापा सुरक्षित है,
न बकरी तक की नस्लें,
धर्म गले नहीं काटेगा किसी के
देगा इंसानों की बगल में इंसान को बसने
ऐसी ही जाने कितनी ख़बरों से
भरा पड़ा है ये अख़बार,
फिर भी मुझे लगने लगा है ये बेमानी-बेकार
बस एक ही जानकारी
मेरे कुछ पल्ले पड़ी है कि
अख़बार और पानी से साफ़ करने पर
आईने चमक जाते हैं,
किरदारों की बात करना तो
मेरे बस में ही नहीं है,
चलिए अख़बार से पाए इस टिप्स की बदौलत
मैं अपने घर के आईनों को ही चमका देती हूं,
इन पर जमी हुई थोड़ी धूल हटा देती हूं
और ख़ुश हो लूंगी कि
अब आईने पर धूल नज़र नहीं आएगी,
अख़बार और पानी के संयुक्त समाधान से
झूठी ख़बरों की सच्चाई कुछ और दिन छिपी रह जाएगी।
***
2 - मेरी अमर कलम
कलम कलम कलम,
ये मेरी कलम,
ये कलम बग़ावत की फसलें रौंप सकती है
ये फ़िज़ा में दोस्ती के रंग भी घोल सकती है
इसकी निभ हल की तरह खेत जोत सकती है,
ये कलम दोस्ती के हाथ बढ़ा सकती है
ये कलम सरहदों की दूरियां मिटा सकती है,
इस कलम का हर्फ़ गूंगों की आवाज़ बन सकता है
इस कलम का यकीन
रेंगते लोगों की परवाज़ बन सकता है,
ये कलम डराने वालों को डरा सकती है
ये कलम डर से झुके सिरों को उठना सिखा सकती है,
नीली, हरी, काली सियाही तो इसमें
पल में सूख जाएगी,
ये कलम तो इस दौर में
लहू की सुर्ख़ी से ही चल पाएगी,
मेरी कलम जब तक कलमदान में है
समझो म्यान में है,
म्यान से बाहर ये कलम ऐसा हथियार है,
जिसके आगे बेबस नंगी तलवार है,
इस कलम की सियाही बनी सुर्ख़ी को जब
सुनहरा करने की कोशिशें की जाती हैं,
ये कलम बिकने की बजाय लड़कर मिट जाती है,
मिटते-मिटते भी ये कलम रक्तबीज उगा जाती है
इसीलिए ये कलम मिट कर भी नहीं मिट पाती है
और जो कुचलकर मार दिए जा रहे हैं
उन्हें हौसले से भरी ज़िंदगी का भरोसा जुटाती है...
***
3 - एक फ़ालतू से समय में
किस तरह लिखी जा सकती हैं प्रेम कविताएं उस दौर में
जब प्रेम तो क्या जिस्मानी हरारतें तक उकताने लगे
किस तरह की जा सकती हैं शांति की बातें उस दौर में
जब मुंह में आवाज़ तो क्या ज़ेहन तक सोचने से बचने लगे
मिले तो कैसे मिले आधा आसमान आधी ज़मीन
जब एक लिंग के पांव फैलाने की कोशिश भ्रूण-रूप में ही कटने लगें
कौन सा खेत बचाओगे किस प्यास की बातें करते हो
जब नदियों की प्यास शीतल पेय में बंटने लगे
किस पराजित का हुआ है सगा इतिहास कभी
जब जीते हुओं की नीयत और ईमान तक बंटने लगे
कुत्ते और इंसान जब फुटपाथों पर सोते हों संग
जब किसी ममता की लोरी हलक़ में ही घुटने लगे
आग जब चारों तरफ़ हो मल्हार राग गाए कौन
जिन हाथों में पानी के घड़े हों वे ही पीछे हटने लगे
फाड़ दो सारी किताबें जिनमें लिखे हैं सिद्धांत
इस सदी की वफ़ादारियां पिछवाड़ों से चटने लगे
बात करना ही हो जब बकवास तब मुंह खुले तो क्यों
कुछ भी सुनना कुछ भी कहना बग़ावती जब लगने लगे
क्यों न तारीफ़ें अंधेरों की हों बतलाओ तो ज़रा
जब नंगे सिरों पर आग बरसाने-भर को सूरज उगने लगे
क़लम का सही उपयोग दांत का मैल कुरेदना ही हो जब
तब किसी सत्ता को क़लम से डर क्योंकर लगे
जान देकर भी न जब जानें बचाई जा सकें
ऐसे में फिर बंद दरवाज़ों की सांकल क्यों खुलने लगे
जाओ तुम जनेऊ संभालो, तुम संभालो जानमाज़
मेरे सवाल हैं ख़ुद ही ख़ुद से, चीख़ क्यों तुमको लगे
मैं तो कब से दफ़्न हूं अपनी ही बनाई क़ब्र में
मेरी क्या औक़ात मुझ से क्यों भला डरने लगे
मैं तो बंद घड़ी का समय हूं जो बीत चुका जो मिट चुका
ज़िंदा समय की मुर्दगी में ज़िंदगी कैसे लगे
कुछ भी कहने की एक हद तो होनी चाहिए
ख़ासतौर पर तब ज़रूर जब कुछ भी कहना बेमानी लगने लगे।
***
4 - बिकी हुई एक कलम
बिकी हुई कलम के दाम बहुत होते हैं
पर बिकी हुई कलम के काम भी बहुत होते हैं
बिकी हुई कलम को कीचड़ को कमल कहना पड़ता है
बिकी हुई कलम को क़ातिल को सनम कहना पड़ता है
बिकी हुई कलम को मौक़े पर ख़ामोश रहना होता है
और बेमौक़े ‘सरकार की जय’ कहना होता है
बिकी हुई कलम एक खूंटे से बंधी होती है
बिकी हुई कलम की सियाही जमी होती है
बिकी हुई कलम रोती नहीं, सिर्फ़ गाती है
बिकी हुई कलम से सच की आवाज़ नहीं आती है
बिकी हुई कलम शाहों के तख़्त नहीं हिला पाती है
बिकी हुई कलम सिर्फ़ चरण-पादुका बन जाती है
बिकी हुई कलम से आंधियां नहीं उठती हैं
बिकी हुई कलम से सिर्फ़ लार टपकती है
बिकी हुई कलम एक वेश्या होती है
जो अनचाहे जिस्मों को हंसके अपने जिस्म पे सहती है
बिकी हुई कलम की कोख बंजर होती है
बिकी हुई कलम अपनों ही की पीठ में घुसाया हुआ ख़ंजर होती है
बिकी हुई कलम से लिखा इतिहास सिर्फ़ कालिख पुता कागज़-भर होता है
बिकी हुई कलम का कांधा सिर्फ़ अपने शब्दों का जनाज़ा ढोता है
बिकी हुई कलम और जो चाहे बन जाती है
पर बिकी हुई कलम सिर्फ़ कलम ही नहीं रह पाती है
बिकी हुई कलम सिर्फ़ कलम नहीं रह पाती है...
***
5 - यूज़ एंड थ्रो वाला भगवान
मैं कूड़े-कचरे के ढेर पर
पड़ा हुआ भगवान हूं
मैं ही तो तुम्हारे मंदिर की
बीती हुई शान हूं
जिस के नाम पर कर देते हो तुम
बेघर कितनों ही को
देखो इस बेरंग खंडित मूर्ति को
जिसमें देखा था मेरा अंश तुम्हीं ने
फिर पुराना पड़ते ही ठुकराया तुम्हीं ने
फेंक दिया मुझको कचरे के ढेर पे
तुम्हीं से बदनाम-बेबस हुआ
मैं वही उपेक्षित हुआ राम हूं ..…
***
6 - आत्ममुग्ध शिखर के नाम
शाख़ वही अच्छी,
जिसे शाख़ होने पे ग़ुरूर न हो,
शाख़ बनी रहने को,
जो अपनी ही जड़ों से दूर न हो,
शाख़ होके जो थाम सके आसमां भी,
ज़मीन होना भी जिसकी नज़र में क़ुसूर न हो,
शाख़ ऐसी हो जो सायेबां भी लगे,
शाख़ को शिखर कहलाने का फ़ितूर न हो।
***
7 - अधर में लटके हुए विश्वासों के लिए आधार
अभी उमस बहुत ज़्यादा है
हवाएं भी हैं थमी हुई,
आसमान की तरफ़ मत देखो
उसपे अभी राख है जमी हुई
करो इंतज़ार कि अभी ज़मीन
जितनी तपिश सह पाए,
करो इंतज़ार कि आसमान
कुछ तो बरसाए,
पर अब जो ज़मीन से फूटेगा
वो शर्तिया लावा ही होगा,
अब जो आसमान से बरसेगा
वो शर्तिया लहू ही होगा,
तुम मत देखो ज़मीन की तरफ़
तुम मत देखो आसमान की तरफ़,
तुम निहारो सिर्फ़ मेरी आंखों में,
ज़मीन और आसमान को अपना काम करने दो,
तुम अपनी उम्मीद और यकीन के कुचले अंकुर
मेरी आंखों की नमी से उतरकर
मेरे दिल की ज़मीन पर जमने दो…
***
8 - तयशुदा नतीजों के नाम
सदियों इस तारीख़ पर,
तारीख़ें सवाल उठाएंगी,
सदियों जवाब होंगे मौजूद
लेकिन ज़बानें सवाल भूल जाएंगी,
सदियों हम इतना सोएंगे
कि अब मौत ही जगाएगी,
सदियों के बाद आई है ये सदी,
जो सदियों तक ठहर जाएगी,
सदियों के बाद समझेंगी सदियां
कि अब कोई सदी नहीं आएगी…
***
9 - इज्जत
यह बात इतनी खास भी नहीं
मगर इतनी आम भी नहीं,
बताती हूं आपको
यह किस्सा-ए-मुख्तसर
आपने भी देखा होगा ये अक्सर,
सड़क के किनारे या झाड़ियों-पेड़ तले मुंह किए
या किसी दीवार की तरफ चेहरा छिपाए
बहुत से मर्द करते रहते हैं
लघु शंकाओं के दीर्घ निवारण।
कभी बेचारे तन्हा खड़े हो जाते हैं,
कभी दो-तीन मिलकर
पेंच-से-पेंच लड़ाते हैं,
बिना म्यूनिसिपालिटी की देखरेख के ही
सारे पेड़-झाड़ियां हरे-भरे नजर आते हैं,
क्योंकि इन्हें सींचने का ठेका
बड़ी जिम्मेदारी से सिर्फ पुरुष ही उठाते हैं।
बिना बरसात ही दीवारें धुल-पुछ जाती हैं,
क्योंकि पुरुषों की लघुशंकाएं रुक नहीं पाती हैं।
क्या पुरुषों की इज्जत नहीं होती?
बीच-चैराहे से मौहल्ले-चैपाल तक
भरे बाजार से लेकर अपने घर-ससुराल तक
जब देखो ‘वहां’ खुजाते रहते हैं,
क्या यह इस तरह से बार-बार
अपने पुरुषत्व का भरोसा जुटाते रहते हैं?
और झिझकते भी नहीं!
क्या पुरुषों की इज्जत नहीं होती?
हम औरतों की लघुश्ंाकाएं
बस शंकाएं बनी रह जाती हैं।
अक्सर आसानी से नहीं मिलता
कोई ‘सुलभ’ ठीया, कोई मुकाम
और सब्र बांधे हो जाती है
सुबह से शाम, क्योंकि
सब कहते हैं
औरतों की इज्जत होती है।
ओ पुरुषो! है हिम्मत तो दिखाओ
रोक कर पांच-सात घंटे अपनी ‘नेचर काॅल’
जानो-समझो क्या होती है उसे रोकने की तकलीफ
कैसे बजते हैं पेट में नगाड़े-ढोल
किस तरह पड़ता है उसका
सेहत पर असर
ये जान पाओगे सिर्फ औरत होकर
अगर हम जींस पहनें
तो किसी काॅलेज में,
बैन लगवा लेती हैं,
स्कर्ट-स्लीव्लेस में
‘आइटम’, ‘माल’ कहला लेती हैं,
नाइट शिफ्ट से लौटें तो
कुल्टा बन जाती हैं,
इस घर से उस घर तक की
पगड़ी का मान जुटाती हैं,
कर लें अगर प्यार या मनमानी कभी
तो बीच चैराहे-चैपाल
बेसूत कर दी जाती हैं।
चलो, आपने समझाया
और हमने समझा
कि सारी मर्यादाएं और मान
हम माँ, बहन, बीवी, बेटियों
से ही होती हैं और
इनके ठींकरें भी
हमीं ढोती हैं, पर
क्या पुरुषों की इज्जत
वाकई नहीं होती?
***
10 - लाल बत्ती
सुनो सेठजी,
लाल बत्ती पर खड़ी मैं वही भिखारिन हूं,
जिसकी फैली हथेली पर तुम्हारी दयालुता
कुछ सिक्के या नोट थमा जाती है,
और हे पुण्यात्मा,
एहसास है मुझे कि क्यों तुम्हारी हथेली
छिप कर मेरी हथेली को दबाती है,
इस गुप्तदान की रसीद तुम्हें
गुप्त तरीके से ही चाहिए न,
कुछ ऐसा ही उन पलों में
लपलपाती सी लपटों सरीखी भूख
तुम्हारी आंखों में नज़र आती है,
तुम साफ़-सुथरे, गाड़ी में बैठे साहब,
क्या मेरे शरीर का मटमैलापन और गंदगी
उस समय तुम्हें नज़र नहीं आती है,
कैसे कर लेते हो तुम ये परीक्षण की,
मेरे पहने चिथड़ों से भी तुम्हारी नज़र,
मेरे शरीर के ओर-छोर को बींध जाती है,
मेरे स्तनों में दिखते हैं तुम्हें
भींचने-झिंझोड़ने भर को दो मांस के लोथड़े,
क्यों उनमें तुम्हें मेरे बच्चे की
भूख नज़र नहीं आती है,
मैं भिखारिन तुम्हारे शहर की समृद्धि-वैभव पर
एक अवांछित कलंक सरीखी हूं,
फिर भी मेरी जांघों के बीच गिरने को
तुम्हारी घिनौनी तृष्णा कितनी बिलबिलाती है,
इस लालबत्ती पर मेरी स्थिति तो
सिर्फ़ मेरी भूख से बिलबिलाती है,
मगर मेरी ख़ामोश मजबूरी को
बिन कहे समझ जाती है ये लालबत्ती
और तुरंत हरी होकर
तुम्हें आगे भाग लेने को उंगली दिखाती है,
ओ गाड़ी वाले सेठजी
आगे फूट लेने से पहले सुनिए,
मेरी चिथड़ों से ढकने की कोशिश में लिपटी
फिर भी अधनंगी सी होती ये देह
मुझे मेरी नहीं,
तुम्हें तुम्हारी नंगी सफ़ेदपोशी की औक़ात बताती है…
***
11 - भविष्य की मौत
ये जो दहक रही हैं चिताएं
यहां से वहां तक, वहां से यहां तक
देखते हैं ये वक़्त
ले जाएगा हमको कहां तक,
मांस का लोथड़ा-भर है
अभी मुंह में ज़बान
कुछ न कहने का जारी किया है
आक़ा ने फ़रमान
कटी जबानों से भी
कुछ लोग बड़बड़ा रहे हैं
लहू से रंगी हत्यारी कटारों की
खिल्ली उड़ा रहे हैं,
देखते रहो अभी खामोशी से कि
आक़ा के हाथी के पांव तले
ये सब के सब कुचल दिए जाएंगे
पर ज़िद ऐसी है कि
सर फिर भी नहीं झुकाएंगे,
उधेड़ दो खाल इनकी हंटरों से
चाहे उखाड़ लो इनके नाखून
सड़ा दो यूं इनकी लाशों को
कि उनसे आए बदबू,
पर अजीब है ये नौजवां कौम
अजीब है ये नस्लें
कटे हाथों से भी उगा रहे हैं
खेतों में उम्मीद की फसलें,
लाशों पे रखके कुर्सी
बैठा है आज जो आक़ा
डाल रहा है आज जो
मुल्क़ के हर घर में डाका,
कितने घर, कितनी बस्तियां
ये अभी और जलाएंगे
आख़िर तो जाके उनके पांव
खुद बहाए लहू की कीचड़ में धंस जाएंगे,
कांपेगी इनकी भी रूह
मौत का डर इनके सर पर भी मंडराएगा
तब इनके लहू से सूरज धोकर ही
ये आज का कुचला वर्ग नया सवेरा लाएगा,
तब तक सर्द पड़ा है जिनका लहू
उसे पिघलने दो,
जलने दो ये चिताएं अभी
यहां से वहां तक,
वहां से यहां तक जलने दो.
***
12 - ईद मुबारक
वजह भी जानती हूँ कि
आज इस ईद में मिठास क्यों कम है
पर देख मेरी जानिब दोस्त
आज आँख मेरी भी तो नम है
मत फेरना नजरें तू
कि कुछ लोग यही चाहते हैं
हमें क्या, जो आज खुद तक को
नहीं पहचानते हैं
उन्हें उनके हिस्से के पछतावे का
अभी इंतजार करने दे.
तेरी ज़बां शीरीं, मेरे अश्क नमकीन
गंगा-जमुनी तहज़ीब का
अभी तो यही रंग चढ़ने दे
आ लग जा गले
कि खुली हैं मेरी बांहें
जो लड़ रहे हैं अपनी ही परछाइयों से
उन्हें लड़ने दे.
मुझे तो मेरे हिस्से के एहसास
इस दिन में भरने दे
ईद मुबारक कहने दे यार मुझे
ईद मुबारक कहने दे…
***
13 - 8 मार्च के नाम
टुकडा क्यों लूं
सारा जहान मेरा है
पतंग क्यों बनूँ
मैं तेरे हाथों की
मेरे पास है
परवाज हौसले की
ये जमीं है मेरी भी
ये सारा आसमान मेरा है
धूप सलामत रहे
तेरे हिस्से की
छांव पर हक हो मेरा भी
सलामत तू भी रहे
सलामत मैं भी रहूं
यही दिलो- दिमाग से दिया
बयान मेरा है
समझती आई हूँ
अहमियत तेरी हमेशा मैं
बस तू भी मान ले अब
क्या मुकाम मेरा है
टुकडा क्यों लूं
सारा जहान मेरा है ..
***
14 - अर्थ
अर्थ ही अर्थ भरे शब्दों के शोर से
कुछ इतने हैं हम अघाए
काश कुछ शब्द हो के अर्थों से परे,
कानों में ऐसे उतर जाएं,
जो निकले हों कुछ टूटे, कुछ उगते
दांतों वाली मासूमियत भरे मुख से,
जिनसे बस अल्ड़ता खिलखिलाए,
उस नादानी भरी ज़बान से
बस दूध की ही महक आए,
जो न समझता हो किसी भी शब्द को
सिर्फ अर्थ ही समझे, अर्थ ही समझाए,
शायद ऐसे ही किसी मुंह में हमें
फिर से ब्रह्मांड दिख जाए
***
15 - क्षतिपूर्ति
किसी को बता नहीं पाती हूं,
सब से बचाती, छिपाती हूं
कि आजकल मैं रोज़ रात के पिछले पहर
चौंककर उठ जाती हूं,
मेरे ख़ाली बिस्तर पर
रोज़ रात को कौन चला आता है
महकते दूध भीगे होंठों से
कुछ निंदाया सा बुदबुदा कर मुझे बुलाता है
हाथ-पांव पटकता, किलकारता है,
कभी खिलखिलाता है, चिल्लाता है
और इसी दौरान न जाने कब
मेरी कसी-कुंवारी छातियों में दूध उतर आता है
मैं उसे उठाकर सीने से लगा लेने को
अपने बिस्तर में बाज़ू में हाथ फिराती हूं,
कुछ भी तो नहीं,
कोई भी तो नहीं,
सब तरह सब कुछ सूखा ही तो पड़ा है
मेरे बिस्तर और आंचल को किसी ने भी
गीला नहीं किया है
किसी ने भी रोकर मुझे नहीं जगाया है
मैं जाग रही हूं सन्नाटों की आवाज़ से
क्या है यह एहसास?
क्यों है ये एहसास?
क्या ये बंद आंखों का कोई सपना है
या ब्रह्म मुहूर्त में देखा कोई कड़वा सच,
इस मुहूर्त में देखे सभी सपने
सुना है ज़रूर सच हो जाते हैं,
इसीलिए नहीं भीगता है रातों को मेरा बिस्तर
भीगती हैं तो सिर्फ़ सूखी छाती, सूनी आंखें
मैं साफ़-सूखे बिस्तर पर
ही सो जाती हूं
कभी कभी थपथपा लेती हूं इसे ही
सिसकी भीगे होंठों में ही कुछ लोरियां बुदबुदाती हूं
संघर्ष भरे दिन और इंतज़ार भरी रातों की कीमत
सपनों से ख़ाली आंखों से चुकाती हूं,
नहीं दे पाती ख़ुद को ‘मां’ का संबोधन
इसीलिए अनाथाश्रम में चंदा भर दे आती हूं…
***
16 - भविष्य की मौत
ये जो दहक रही हैं चिताएं
यहां से वहां तक, वहां से यहां तक
देखते हैं ये वक़्त
ले जाएगा हमको कहां तक,
मांस का लोथड़ा-भर है
अभी मुंह में ज़बान
कुछ न कहने का जारी किया है
आक़ा ने फ़रमान
कटी जबानों से भी
कुछ लोग बड़बड़ा रहे हैं
लहू से रंगी हत्यारी कटारों की
खिल्ली उड़ा रहे हैं,
देखते रहो अभी खामोशी से कि
आक़ा के हाथी के पांव तले
ये सब के सब कुचल दिए जाएंगे
पर ज़िद ऐसी है कि
सर फिर भी नहीं झुकाएंगे,
उधेड़ दो खाल इनकी हंटरों से
चाहे उखाड़ लो इनके नाखून
सड़ा दो यूं इनकी लाशों को
कि उनसे आए बदबू,
पर अजीब है ये नौजवां कौम
अजीब है ये नस्लें
कटे हाथों से भी उगा रहे हैं
खेतों में उम्मीद की फसलें,
लाशों पे रखके कुर्सी
बैठा है आज जो आक़ा
डाल रहा है आज जो
मुल्क़ के हर घर में डाका,
कितने घर, कितनी बस्तियां
ये अभी और जलाएंगे
आख़िर तो जाके उनके पांव
खुद बहाए लहू की कीचड़ में धंस जाएंगे,
कांपेगी इनकी भी रूह
मौत का डर इनके सर पर भी मंडराएगा
तब इनके लहू से सूरज धोकर ही
ये आज का कुचला वर्ग नया सवेरा लाएगा,
तब तक सर्द पड़ा है जिनका लहू
उसे पिघलने दो,
जलने दो ये चिताएं अभी
यहां से वहां तक,
वहां से यहां तक जलने दो.
***
17 - ग़द्दार कुत्ते
आवारा कुत्ते ख़तरनाक बहुत होते हैं
पालतू कुत्ते के दांत नहीं होते हैं
दुम होती है,
दुम भी टांगों के बीच दबी होती है
दरअसल पालतू कुत्ते की धुरी ही दुम होती है
वो आक़ा के सामने दुम हिलाते हैं
और उसी हिलती दुम की रोटी खाते हैं,
आवारा कुत्ते दुम हिलाना नहीं
सिर्फ़ गुर्राना जानते हैं,
जब उनमें भूख जागती है
वो भूख अपना हर हक़ मांगती है
उनकी भूख का निवाला सिर्फ़ रोटी नहीं होती है
वो निवाला घर होता है
खेत होता है, छप्पर होता है
उस भूख की तृप्ति कुचला नहीं
अपना उठा हुआ सर होता है,
इन हक़ों की आवाज़
उन्हें आवारा घोषित करवा देती है
और ये घोषणा उन्हें ये सबक सिखा देती है
कि मांग के हक़ नहीं, सिर्फ़ भीख मिला करती है
इसीलिए पालतू कुत्तों की दुम निरंतर हिला करती है,
उनका यही रूप व्यवस्था को भी भाता है
सो उन्हें हर वक़्त चुपड़ा निवाला
चांदी के वर्क में लपेट बिना नागा मिल जाता है,
बदले में व्यवस्था उनसे तलवे चटवाती है
और बीच-बीच में उन्हें भी सहलाती जाती है,
आवारा कुत्ते उन्हें डराते हैं
वो पट्टे भी नहीं बंधवाते हैं,
इसीलिए चल रही हैं कोशिशें तमाम
कि इन कुत्तों को गद्दार और आवारा घोषित कर दो
और इनके जिस्म में गोलियां भर दो,
अपनी सत्ता वो ऐसे ही बचा पाएंगे
चुपड़े निवालों के लालच में
हर उठती आवाज़ को पट्टा पहनाएंगे,
हक के लिए उठती हर आवाज का
घोंट देंगे गला
और पालतू कुत्तों की देके मिसाल
सबसे तलवे ही चटवाना चाहेंगे,
सिर्फ़ पालतू कुत्ते ही मिसाल होंगे वफ़ादारी की
आवारा कुत्ते सज़ा पाएंगे थोपी हुई ग़द्दारी की,
ज़माना इन्हें नहीं अपनाएगा
पर इनके नाम से ज़रूर थर्राएगा,
हो जाओ सावधान,
सत्ता और व्यवस्था के ठेकेदारो,
कि जब ये आवारा कुत्ते अपने जबड़ों से
लार नहीं लहू टपकाएंगे
तब ओ सत्ताधीशो वो तुम्हारी सत्ता की
नींव हिला जाएंगे
और इस नींव की हर ईंट चबा जाएंगे,
ये जीते-जी कभी नहीं बनेंगे पालतू तुम्हारे
और मरकर भी आवारा ही सही
मगर आज़ाद कहलाएंगे, आज़ाद कहलाएंगे.
***
18 - बिकाऊ तिरंगे
ख़रीद लो
ख़रीद लो कि बिक रहे हैं तिरंगे चौराहों पर
कुछ मासूमों के काले-गंदे-खुरदुरे हाथों में,
शायद उन तिरंगों से तुम्हें
अपनी गाड़ी या दफ़्तर सजाना हो,
शायद बिके तिरंगों की कीमत से उन्हें
उस दिन अपने घर का चूल्हा जलाना हो,
ख़रीद लो तिरंगे
कि तिरंगे बेचने वालों में शायद
कई ऐसे हाथ भी शामिल हों
जो व्यवस्था से लड़कर आगे तो आए
मगर इस व्यवस्था की व्यवस्था से
खुद को बचा नहीं पाए
इनकी कामयाबी पर तो
सीना ठोककर हिंद भी नाज़ करता है
मगर सड़क किनारे जनमते और मरते इन बदनसीबों को
अक्सर कफ़न तक नहीं मिलता है, इसलिए
ख़रीद लो तिरंगे इनसे
कि तुम इन्हें तो क्या बचा पाओगे
इनका मुकद्दर तो क्या बदल पाओगे,
बस इनकी एक सर्द शाम को भूखा रहने से बचा लो
कीमत चुका दो आज इन तिरंगों की और
खुरदुरे हाथों से ख़रीदे इन रेशमी तिरंगों को
शान से आसमान में फहरा लो.
***
19 - जद्दोजेहद
मेरे बचपन ने काठ के हाथी-घोड़े
नहीं मांगे थे,
वक़्त की सवारी गांठना सीखने में
छिलवाए है घुटने मैंने,
मैंने गुड़ियों के मंडप
नहीं सजाये कभी,
खुद को किसी बाज़ार की गुडिया
बनने से बचाने को
किये हैं हाथ ज़ख़्मी,
मैं नहीं जानती,
आसीस देते हाथ कैसे लगते हैं,
मैं दिखा सकती हूँ,
पीठ पर सरकने को बेचेन कई हाथों पर
अपने दांतों का पैनापन,
मुझे नहीं मालूम ,
घुटी सिसकियाँ क्या होती हैं,
खूंखार गुर्राहटों को अपने हलक में पाला है मैंने,
मेरे तीखे पंजों ने दूर रक्खा है,
सच्चे रिश्तों का झूठ,
अपने भीतर के जानवर को.
दिन-रात जगाया है मैंने,
तब कहीं जा के,
इंसा बन के
जिंदा रहने का हक पाया है मैंने.
***
20 - एक औरत, दूसरी औरत
ओ शहरी औरत!
तुम मुझे हैरानी से क्यों देख रही हो?
हां,
मैंने भवें नहीं नुचवाई है,
वैक्स भी नहीं कराई हैं,
मेरे चेहरे पर ब्लीच की दमक नहीं है
फेशियल की चमक भी नहीं है
फिर भी स्त्री तो मैं भी हूं
आज की स्त्री।
तुम मुझे हैरानी से देख रही हो
देहाती-गंवार समझ
मैं मजबूत हूं तुमसे कई गुना,
क्योंकि मैं झेल सकती हूं धूप की तपिश
बिना सनस्क्रीन के
और मैं करियाऊंगी भी नहीं
लाल-तांबई रंगों की धमक उठेगी मुझसे।
मैं ईंट-गारा ढोती
या खेतों में फसल बोती
मिलूंगी कहीं तुम्हें,
या कहीं पीठ पर बच्चा और
सिर पर गट्ठा ढोते पाओगी तुम मुझे।
मैं मज़बूत हूं तुमसे कई गुना,
क्योंकि मैं रात-बिरात भी
निकल पड़ती हूं अकेले,
बिना आदमखोरों या मादाखोरों के डर के।
मुझे मर्दों से डर नहीं लगता है
मेरा कांधा रोज उनके कांधे से भिड़ता है।
मैं लो वेस्ट, स्लीवलैस या बैकलैस तो नहीं जानती,
पर शहरों में भी मैं तुम्हें
किसी उठती इमारत की बुनियाद तले
धोती या लहंगा लापरवाही से खोंसे दिख जाऊंगी।
आओ जंगलों में तो
मेरे आंचल का फेंटा ही मेरी चोली पाओगी।
मैं तुम्हारी तरह शिक्षा के संकोच से
इंच-भर नहीं मुस्कराऊंगी
मारूंगी पुट्ठे पर हाथ और
ज़ोर से ठट्ठा लगा खिलखिलाऊंगी,
हैरान हो तो हो जाओ मुझे देख
क्योंकि जिस वक़्त तुम अपने सवालों की तलाश में
अपने अस्तित्व को खंगालती भटक जाओगी,
मुझ अनपढ़ की बेबाक दुनिया में ही
आज की औरत की सच्ची परिभाषा गढ़ी हुई पाओगी।
***
21 - अबॉर्शन
अभी तो तुम्हारे आने का
आभास-भर हुआ था
अभी तो मेरी कोख को तुमने
छुआ-भर था
कि सब जान गए,
तुम्हारे वजूद की आहट
पहचान गए,
नहीं, तुम्हारा वजूद
नहीं है कुबुल
लड़कियों का जन्म होता है
सेक्स की भूल,
ये भूल इस परिवार में
कोई नहीं अपनाएगा।
कल मुझे अस्पताल
ले जाया जाएगा
मेरी जाग्रति को
एनेस्थीसिया सुंघाया जाएगा,
मैं भी नहीं करूंगी प्रतिकार
अनसुनी कर दूंगी तुम्हारी
अनसुनी पुकार,
डॉक्टर डालेगी मेरी योनि में
लोहे के औज़ार
उन के स्पर्श से तुम
मेरी कोख में
घबरा के सिमट जाओगी।
शायद किसी अनचीन्ही आवाज़ में
मुझे चीत्कार कर बुलाओगी,
पर अपने नन्हे-नरम
हाथ, पांव, गर्दन, सीने को
उन औज़ारों की कांट-छांट से
बचा नहीं पाओगी,
क्योंकि लेने लगे हैं वो आकार,
ओ कन्या!
इस दुनिया में आज भी
तुम नहीं हो स्वीकार।
तुम्हारे वजूद के टुकड़ों को
नालियों में बहा आऊंगी
और इस तरह मैं भी
लड़की जनने के संकट से
छुटकारा पा जाऊंगी,
वरना इस दुनिया में मैं तुम्हें
किस-किस से बचाऊंगी।
अगर बचा सकी अपना ही वजूद,
तभी तो क्रांति लाऊंगी,
मिट जाएगी मेरी पीढ़ी शायद
करते-करते प्रयास,
तब जाकर कहीं मैं इस दुनिया को
तुम्हारे लायक कर पाऊंगी
पर अभी तो ओ बिटिया!
तुम्हें मैं,
जनम नहीं दे पाऊंगी,
जनम नहीं दे पाऊंगी,
जनम नहीं दे पाऊंगी,
***
22 - प्रेम कविता की मौत पर
जब मैं प्रेम कविताएं लिखती हूं
तुम कहते हो मुझमें दर्द नहीं ह,ै
जब मैं दर्द को नंगा करती हूं
तुम कहते हो मुझ में शर्म नहीं है,
जब मैं शर्म से बोझिल पलकें
उठा तक नहीं पाती हूँ,
तुम कहते हो मुझे अभी जमाना देखना है
जब मैं जमाने को देखकर
तुम्हें दुनिया दिखाती हूं,
तुम कहते हो
मुझे प्रेम करने की जरूरत है,
पर मेरी शर्म से झुकी पलकें
जो तुमने जबर्दस्ती उठवाईं
खुली आँखों में जो तुमने
अपनी नंगी सच्चाइयां घुसाईं
वो देखती हैं सड़क पर जन्मते
जन्मकर मरते किसी इंसान के बीज को
वो ठिठक जाती हैं,
बलात्कार से उधड़े शरीर पर,
वो देखती हैं सबका पेट पालने वाले
भूख से बिलबिलाते मरते किसान को,
भूख की कीमत पर आबरू का
सौदा करवाते किसी धनवान को,
ढाबे पर चाय बांट-बांट बुढ़ाते
किसी बचपन को,
अपने हक की आवाज से
अपराधी की श्रेणी में आते किसी नक्सल को,
ये कड़वी सच्चाइयां हैं परत-दर-परत
नहीं है इनका कोई समाधान, कोई हद,
मुझे अब फूल-पत्ती, चुंबन-आलिंगन
नदियां-सागर, इंद्रधनुष-बादल
नजर नहीं आते हैं,
सिर्फ खामोश चीखें और दर्द ही
मेरे कान तक पहुंच पाते हैं,
फिर भी सुना तो यही है
दुनिया गोल है
और घूम भी रही है अपनी धुरी पर निरंतर
मैं इंतजार में हूं शायद
कभी पहुंच ही जाऊं उस बिंदु पर दोबारा
जब मैं फिर लिख पाऊँ प्रेम कविताएं,
पर तब ना कहना
कि मुझमें दर्द नहीं रहता है,
देख सको तो देखो
मुझमें अब दर्द का लावा बहता है,
अब मैं शरमाऊंगी भी नहीं
तुम्हें ही शर्मसार कर दूंगी,
क्योंकि मैं अब जान गई हूं
तुम्हारा भी राज कि
कपड़ों के नीचे सबकी तरह
तुम्हारा जिस्म भी नंगा रहता है,
तुम्हारी जबान कुछ कहती है
तुम्हारा जिस्म कुछ और कहता है,
इसीलिए तो देखो
तुम्हारी दोगली समझदारी का ठीकरा
अब मेरे ठेंगे पे रहता है।
***
23 - जंगली
सिर्फ जिंदगियां ही जंगलों में रह गई हैं
जानवर सब शहरों में बस गए हैं,
खुद ही गढ़े थे इंसानों ने
इंसानी तहजीब और सभ्यता के पैमाने जो
उसी की कीचड़
उसी की दलदल में सब धंस गए हैं,
जानवर लूट-मार नहीं करते
अपनी जेब भरने के नाम पर
वो किसी दूसरे को कंगाल नहीं करते
बलात्कार के नाम पर शरीरों की
दरिंदगी से चीर-फाड़ नहीं करते,
उनमें हवस नहीं
सिर्फ एक भूख होती है
जो जेहन से ‘जिस्म’ तक आती है
और जिस्म से गुजरकर फिर
वापस जिस्म में ही कहीं खामोशी से सो जाती है
शहरों में जो सांस
हर सांस पर घुट जाती-सी लगती है,
जंगलों की सरहद में दाखिल होते ही
वो हर सांस ताजगी से लौट आती-सी लगती है
जंगल में सिर्फ पेट की
भूख का कानून चलता है,
पर एक की भूख से
दूसरे का निवाला नहीं छिनता है,
जंगल में आसमान ही होता है आशियाना सबका
नहीं मारता कोई, किसी और के घोंसले पर झपट्टा,
जंगली होना गाली नहीं होता है
ये वर्ग तो, शहरी गलतियों का बोझ ढोता है
इनकी जड़ें जमीन में गहरे उतर जाती हैं
शहरों की हर बारिश में, रंगत बदल जाती है
यहां जिंदगी, जिंदगी का नाम है
शहरों में चलते-फिरते जिस्म, कितने बेजान हैं
क्या मिला इंसानों को इंसान होने में
हर कांधा लगा है खुद अपना सलीब ढोने में
काश कि तोड़ दें हम झूठे मुखौटे सब
काश कि देख सकें हम इंसान, इंसानों में ही रब
काश कि हर सरहद से सरहद मिटा दें
काश कि हम एक दूजे के हक लौटा दें
काश कि फाड़ दें हम सभ्यता पर लिखी हर किताब
काश कि हम शहरों में लागू होने दें जंगलराज सा हिसाब
काश कि हम इन जंगली हवाओं को शहरों में आने दें
काश कि हम इंसान खुद को जंगली
और शहर को जंगल बन जाने दें।
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24 - माहवारी
आज मेरी माहवारी का
दूसरा दिन है।
पैरों में चलने की ताक़त नहीं है,
जांघों में जैसे पत्थर की सिल भरी है।
पेट की अंतड़ियां
दर्द से खिंची हुई हैं।
इस दर्द से उठती रूलाई
जबड़ों की सख़्ती में भिंची हुई है।
कल जब मैं उस दुकान में
‘व्हीस्पर’ पैड का नाम ले फुसफुसाई थी,
सारे लोगों की जमी हुई नज़रों के बीच,
दुकानदार ने काली थैली में लपेट
मुझे ‘वो’ चीज़ लगभग छिपाते हुए पकड़ाई थी।
आज तो पूरा बदन ही
दर्द से ऐंठा जाता है।
ऑफिस में कुर्सी पर देर तलक भी
बैठा नहीं जाता है।
क्या करूं कि हर महीने के
इस पांच दिवसीय झंझट में,
छुट्टी ले के भी तो
लेटा नहीं जाता है।
मेरा सहयोगी कनखियों से मुझे देख,
बार-बार मुस्कुराता है,
बात करता है दूसरों से,
पर घुमा-फिरा के मुझे ही
निशाना बनाता है।
मैं अपने काम में दक्ष हूं,
पर कल से दर्द की वजह से पस्त हूं।
अचानक मेरा बॉस मुझे केबिन में बुलवाता है,
कल के अधूरे काम पर डांट पिलाता है।
काम में चुस्ती बरतने का
देते हुए सुझाव,
मेरे पच्चीस दिनों का लगातार
ओवरटाइम भूल जाता है।
अचानक उसकी निगाह,
मेरे चेहरे के पीलेपन, थकान
और शरीर की सुस्ती-कमज़ोरी पर जाती है,
और मेरी स्थिति शायद उसे
व्हीस्पर के देखे किसी ऐड की याद दिलाती है।
अपने स्वर की सख्ती को अस्सी प्रतिशत दबाकर,
कहता है, ‘‘काम को कर लेना,
दो-चार दिन में दिल लगाकर।’’
केबिन के बाहर जाते
मेरे मन में तेजी से असहजता की
एक लहर उमड़ आई थी।
नहीं, यह चिंता नहीं थी
पीछे कुर्ते पर कोई ‘धब्बा’
उभर आने की।
यहां राहत थी
अस्सी रुपये में खरीदे आठ पैड की बदौलत
‘हैव ए हैप्पी पीरियड’ जुटाने की।
मैं असहज थी क्योंकि
मेरी पीठ पर अब तक, उसकी निगाहें गढ़ी थीं,
और कानों में हल्की-सी
खिलखिलाहट पड़ी थी
‘‘इन औरतों का बराबरी का
झंडा नहीं झुकता है,
जबकि हर महीने
अपना शरीर ही नहीं संभलता है।
शुक्र है हम मर्द इनके
ये ‘नाज़-नख़रे’ सह लेते हैं
और हंसकर इन औरतों को
बराबरी करने के मौके देते हैं।’’
ओ पुरुषो!
मैं क्या करूं
तुम्हारी इस सोच पर,
कैसे हैरानी ना जताऊं?
और ना ही समझ पाती हूं
कि कैसे तुम्हें समझाऊं!
मैं आज जो रक्त-मांस
सेनेटरी नैपकिन या नालियों में बहाती हूं,
उसी मांस-लोथड़े से कभी वक्त आने पर,
तुम्हारे वजूद के लिए,
‘कच्चा माल’ जुटाती हूं।
और इसी माहवारी के दर्द से
मैं वो अभ्यास पाती हूं,
जब अपनी जान पर खेल
नौ महीने बाद तुम्हें दुनिया में लाती हूं।
इसलिए अरे ओ मर्दो!
ना हंसो मुझ पर कि जब मैं
इस दर्द से छटपटाती हूं,
क्योंकि इसी माहवारी की बदौलत मैं तुम्हें
‘भ्रूण’ से इंसान बनाती हूं।
***