मेरा नाम राधा है Saadat Hasan Manto द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मेरा नाम राधा है

मेरा नाम राधा है

ये उस ज़माने का ज़िक्र है जब इस जंग का नाम-ओ-निशान भी नहीं था। ग़ालिबन आठ नौ बरस पहले की बात है। जब ज़िंदगी में हंगामे बड़े सलीक़े से आते थे। आज कल की तरह नहीं। बेहंगम तरीक़े पर पै-दर-पै हादिसे बरपा हो रहे हैं, किसी ठोस वजह के बग़ैर उस वक़्त मैं चालीस रुपया माहवार पर एक फ़िल्म कंपनी में मुलाज़िम था और मेरी ज़िंदगी बड़े हमवार तरीक़े पर उफ़्तां-ओ-ख़ेज़ां गुज़र रही थी। यानी सुबह दस बजे स्टूडीयो गए, नयाज़ मोहम्मद विलेन की बिल्लियों को दो पैसे का दूध पिलाया। चालू फ़िल्म के लिए चालू क़िस्म के मकालमे लिखे। बंगाली ऐक्ट्रस से जो उस ज़माने में बुलबुल-ए-बंगाल कहलाती थी, थोड़ी देर मज़ाक़ किया और दादा गोरे की जो इस अह्द का सब से बड़ा फ़िल्म डायरेक्टर था, थोड़ी सी ख़ुशियामद की और घर चले आए।

जैसा कि मैं अर्ज़ कर चुका हूँ, ज़िंदगी बड़े हमवार तरीक़े पर उफ़्तां-ओ-ख़ेज़ां गुज़र रही थी स्टूडीयो का मालिक “हुरमुज़ जी फ्रॉम जी” जो मोटे मोटे लाल गालों वाला मौजी क़िस्म का ईरानी था, एक उधेड़ उम्र की ख़ोजा ऐक्ट्रस की मोहब्बत में गिरफ़्तार था। हर नौ-वारिद लड़की के पिस्तान टटोल कर देखना उस का शगल था। कलकत्ता के बू बाज़ार की एक मुस्लमान रंडी थी जो अपने डायरेक्टर, साउंड रिकार्डिसट और स्टोरी राईटर तीनों से ब-यक-वक़्त इश्क़ लड़ा रही थी। इस इश्क़ का मतलब ये था कि इन तीनों का इलतिफ़ात उस के लिए खासतौर पर महफ़ूज़ रहे।

“बन की सुंदरी” की शूटिंग चल रही थी। नयाज़ मोहम्मद विलेन की जंगली बिल्लियों को जो उस ने ख़ुदा मालूम स्टूडीयो के लोगों पर किया असर पैदा करने के लिए पाल रखी थीं, दो पैसे का दूध पिला कर मैं हर रोज़ उस बन की सुंदरी के लिए एक ग़ैर मानूस ज़बान में मकालमे लिखा करता था। इस फ़िल्म की कहानी क्या थी, प्लाट कैसा था, इस का इल्म जैसा कि ज़ाहिर है, मुझे बिलकुल नहीं था क्योंकि मैं उस ज़माने में एक मुंशी था जिस का काम सिर्फ़ हुक्म मिलने पर जो कुछ कहा जाये, ख़लत मलत उर्दू में जो डायरेक्टर साहब की समझ में आजाए, पैंसिल से एक काग़ज़ पर लिख कर देना होता था। ख़ैर बन की सुंदरी की शूटिंग चल रही थी और ये अफ़्वाह गर्म थी कि देमप का पार्ट अदा करने के लिए एक नया चेहरा सेठ हुर्मुज़ जी फ्रॉम जी कहीं से ला रहे हैं। हीरो का पार्ट राज किशोर को दिया गया था।

राज किशोर रावलपिंडी का एक ख़ुश शक्ल और सेहत मंद नौ-जवान था। उस के जिस्म के मुताल्लिक़ लोगों का ये ख़याल था कि बहुत मर्दाना और सिडौल है। मैं ने कई मर्तबा उस के मुतअल्लिक़ ग़ौर किया मगर मुझे उस के जिस्म में जो यक़ीनन कसरती और मुतनासिब था, कोई कशिश नज़र न आई। मगर उस की वजह ये भी हो सकती है कि मैं बहुत ही दुबला और मरियल क़िस्म का इंसान हूँ और अपने हम जिंसों के मुतअल्लिक़ सोचने का आदी हूँ।

मुझे राज किशोर से नफ़रत नहीं थी, इस लिए कि मैं ने अपनी उम्र में शाज़-ओ-नादिर ही किसी इंसान से नफ़रत की है, मगर वो मुझे कुछ ज़्यादा पसंद नहीं था। इस की वजह मैं आहिस्ता आहिस्ता आप से बयान करूंगा।

राज किशोर की ज़बान इस का लब-ओ-लहजा जो ठेट रावलपिंडी का था। मुझे बेहद पसंद था। मेरा ख़याल है कि पंजाबी ज़बान में अगर कहीं ख़ूबसूरत क़िस्म की शीरीनी मिलती है तो रावलपिंडी की ज़बान ही में आप को मिल सकती है। इस शहर की ज़बान में एक अजीब क़िस्म की मर्दाना निसाइयत है जिस में ब-यक-वक़्त मिठास और घुलावट है। अगर रावलपिंडी की कोई औरत आप से बात करे तो ऐसा लगता है कि लज़ीज़ आम का रस आप के मुँह में चुवाया जा रहा है। मगर मैं आमों की नहीं राज किशोर की बात कर रहा हूँ जो मुझे आम से बहुत कम अज़ीज़ था।

राज किशोर जैसा कि मैं अर्ज़ कर चुका हूँ एक ख़ुश शक्ल और सेहत-मंद नौजवान था। यहां तक बात ख़त्म हो जाती तो मुझे कोई एतराज़ न होता मगर मुसीबत ये है कि उसे यानी किशोर को ख़ुद अपनी सेहत और अपने ख़ुश शक्ल होने का एहसास था। ऐसा एहसास जो कम अज़ कम मेरे लिए नाक़ाबिल-ए-क़बूल था।

सेहत मंद होना बड़ी अच्छी चीज़ है मगर दूसरों पर अपनी सेहत को बीमारी बना कर आइद करना बिलकुल दूसरी चीज़ है। राज किशोर को यही मर्ज़ लाहक़ था कि वो अपनी सेहत अपनी तंदुरुस्ती, अपने मुतनासिब और सिडौल आज़ा की ग़ैर ज़रूरी नुमाइश के ज़रीये हमेशा दूसरे लोगों को जो उस से कम सेहत-मंद थे, मरऊब करने की कोशिश में मसरूफ़ रहता था।

इस में कोई शक नहीं कि मैं दाइमी मरीज़ हूँ, कमज़ोर हूँ, मेरे एक फेफड़े में हवा खींचने की ताक़त बहुत कम है मगर ख़ुदा वाहिद शाहिद है कि मैं ने आज तक इस कमज़ोरी का कभी प्रोपेगंडा नहीं किया, हालाँकि मुझे इस का पूरी तरह इल्म है कि इंसान अपनी कमज़ोरीयों से उसी तरह फ़ायदा उठा सकता है जिस तरह कि अपनी ताक़तों से उठा सकता है मगर ईमान है कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए।

ख़ूबसूरती मेरे नज़दीक वो ख़ूबसूरती है जिस की दूसरे बुलंद आवाज़ में नहीं बल्कि दिल ही दिल में तारीफ़ करें।

मैं उस सेहत को बीमारी समझता हूँ जो निगाहों के साथ पत्थर बन कर टकराती रहे। राज किशोर में वो तमाम ख़ूबसूरतियाँ मौजूद थीं जो एक नौ-जवान मर्द में होनी चाहिऐं। मगर अफ़सोस है कि उसे इन ख़ूबसूरतियों का निहायत ही भोंडा मुज़ाहिरा करने की आदत थी। आप से बात कररहा है और अपने एक बाज़ू के पट्ठे अकड़ा रहा है, और ख़ुद ही दाद दे रहा है। निहायत ही अहम गुफ़्तुगू हो रही है यानी स्वराज का मसला छिड़ा है और वो अपने खादी के कुर्ते के बटन खोल कर अपने सीने की चौड़ाई का अंदाज़ा कर रहा है।

मैं ने खादी के कुरते का ज़िक्र किया तो मुझे याद आया कि राज किशोर पक्का कांग्रेसी था, हो सकता है वो इसी वजह से खादी के कपड़े पहनता हो, मगर मेरे दिल में हमेशा इस बात की खटक रही है कि उसे अपने वतन से इतना प्यार नहीं था जितना कि उसे अपनी ज़ात से था।

बहुत लोगों का ख़याल था कि राज किशोर के मुतअल्लिक़ जो मैं ने राय क़ायम की है, सरासर ग़लत है इस लिए कि स्टूडीयो और स्टूडीयो के बाहर हर शख़्स उस का मद्दाह था उस के जिस्म का, उस के ख़यालात का, उस की सादगी का, उस की ज़बान का जो ख़ास रावलपिंडी की थी और मुझे भी पसंद थी।

दूसरे एक्टरों की तरह वो अलग थलग रहने का आदी नहीं था। कांग्रेस पार्टी का कोई जलसा हो तो राज किशोर को आप वहां ज़रूर पाएंगे....... कोई अदबी मीटिंग हो रही है तो राज किशोर वहां ज़रूर पहुंचेगा अपनी मसरूफ़ ज़िंदगी में से वो अपने हम-साइयों और मामूली जान पहचान के लोगों के दुख दर्द में शरीक होने के लिए भी वक़्त निकाल लिया करता था।

सब फ़िल्म प्रोडयूसर उस की इज़्ज़त करते थे क्योंकि उस के कैरेक्टर की पाकीज़गी का बहुत शोहरा था। फ़िल्म प्रोडयूसरों को छोड़ीए, पब्लिक को भी इस बात का अच्छी तरह इल्म था कि राज किशोर एक बहुत बुलंद किरदार का मालिक है।

फ़िल्मी दुनिया में रह कर किसी शख़्स का गुनाह के धब्बों से पाक रहना बहुत बड़ी बात है यूं तो राज किशोर एक कामयाब हीरो था मगर उस की ख़ूबी ने उसे एक बहुत ही ऊंचे रुतबे पर पहुंचा दिया था।

नागपाड़े में जब शियाम को पान वाले की दुकान पर बैठता था तो अक्सर ऐक्टर एक्ट्रसों की बातें हुआ करती थीं। क़रीब क़रीब हर ऐक्टर और ऐक्ट्रस के मुतअल्लिक़ कोई न कोई स्कैंडल मशहूर था मगर राज किशोर का जब भी ज़िक्र आता, शियाम लाल पनवाड़ी बड़े फ़ख़्रिया लहजे में कहा करता। “मंटो साहब! राज भाई ही ऐसा ऐक्टर है जो लंगोट का पक्का है।”

मालूम नहीं शियाम लाल उसे राज भाई कैसे कहने लगा था उस के मुतअल्लिक़ मुझे इतनी ज़्यादा हैरत नहीं थी, इस लिए कि राज भाई की मामूली से मामूली बात भी एक कारनामा बन कर लोगों तक पहुंच जाती थी।

मसलन बाहर के लोगों को उस की आमदनी का पूरा हिसाब मालूम था। अपने वालिद को माहवार ख़र्च क्या देता है, यतीम ख़ानों के लिए कितना चंदा देता है, उस का अपना जेब ख़र्च किया है ये सब बातें लोगों को इस तरह मालूम थीं जैसे उन्हें अज़बर कराई गई हैं।

शियाम लाल ने एक रोज़ मुझे बताया कि राज भाई का अपनी सौतेली माँ के साथ बहुत ही अच्छा सुलूक है। उस ज़माने में जब आमदनी का कोई ज़रीया नहीं था, बाप और उसकी नई बीवी उसे तरह तरह के दुख देते थे। मगर मर्हबा है राज भाई का कि उस ने अपना फ़र्ज़ पूरा किया और उन को सर आँखों पर जगह दी। अब दोनों छप्पर खटों पर बैठे राज करते हैं, हर रोज़ सुबह सवेरे राज अपनी सौतेली माँ के पास जाता है और उस के चरण छूता है। बाप के सामने हाथ जोड़ के खड़ा हो जाता है और जो हुक्म मिले, फ़ौरन बजा लाता है।

आप बुरा न मानिएगा, मुझे राज किशोर की तारीफ़-ओ-तौसीफ सुन कर हमेशा उलझन सी होती है, ख़ुदा जाने क्यों।

मैं जैसा कि पहले अर्ज़ कर चुका हूँ, मुझे उस से हाशा-ओ-कल्ला नफ़रत नहीं थी। उस ने मुझे कभी ऐसा मौक़ा नहीं दिया था, और फिर उस ज़माने में जब मुंशियों की कोई इज़्ज़त-ओ-वक़अत ही नहीं थी वो मेरे साथ घंटों बातें किया करता था। मैं नहीं कह सकता क्या वजह थी, लेकिन ईमान की बात है कि मेरे दिल-ओ-दिमाग़ के किसी अंधेरे कोने में ये शक बिजली की तरह कोन्द जाता कि राज बन रहा है....... राज की ज़िंदगी बिलकुल मस्नूई है। मगर मुसीबत ये है कि मेरा कोई हम-ख़याल नहीं था। लोग देवताओं की तरह उस की पूजा करते थे और मैं दिल ही दिल में उस से कुढ़ता रहता था।

राज की बीवी थी, राज के चार बच्चे थे, वो अच्छा ख़ाविंद और अच्छा बाप था। उस की ज़िंदगी पर से चादर का कोई कोना भी अगर हटा कर देखा जाता तो आप को कोई तारीक चीज़ नज़र न आती। ये सब कुछ था, मगर इस के होते हुए भी मेरे दिल में शक की गुदगुदी होती ही रहती थी।

ख़ुदा की क़सम मैं ने कई दफ़ा अपने आप को लानत मलामत की कि तुम बड़े ही वाहियात हो कि ऐसे अच्छे इंसान को जिसे सारी दुनिया अच्छा कहती है और जिस के मुतअल्लिक़ तुम्हें कोई शिकायत भी नहीं, क्यों बे-कार शक की नज़रों से देखते हो। अगर एक आदमी अपना सिडौल बदन बार बार देखता है तो ये कौन सी बुरी बात है। तुम्हारा बदन भी अगर ऐसा ही ख़ूबसूरत होता तो बहुत मुम्किन है कि तुम भी यही हरकत करते।

कुछ भी हो, मगर मैं अपने दिल-ओ-दिमाग़ को कभी आमादा न कर सका कि वो राज किशोर को उसी नज़र से देखे जिस से दूसरे देखते हैं यही वजह है कि मैं दौरान-ए-गुफ़्तुगू में अक्सर उस से उलझ जाया करता था। मेरे मिज़ाज के ख़िलाफ़ कोई बात की और मैं हाथ धो कर उस के पीछे पड़ गया लेकिन ऐसी चपक़लिशों के बाद हमेशा उस के चेहरे पर मुस्कुराहट और मेरे हलक़ में एक ना-क़ाबिल-ए-बयान तल्ख़ी रही, मुझे इस से और भी ज़्यादा उलझन होती थी।

इस में कोई शक नहीं कि उस की ज़िंदगी में कोई स्कैंडल नहीं था। अपनी बीवी के सिवा किसी दूसरी औरत का मैला या उजला दामन उस से वाबस्ता नहीं था। मैं ये भी तस्लीम करता हूँ कि वो सब एक्ट्रसों को बहन कह कर पुकारता था और वो भी उसे जवाब में भाई कहती थीं। मगर मेरे दिल ने हमेशा मेरे दिमाग़ से यही सवाल किया कि ये रिश्ता क़ायम करने की ऐसी अशद ज़रूरत ही क्या है।

बहन भाई का रिश्ता कुछ और है मगर किसी औरत को अपनी बहन कहना इस अंदाज़ से जैसे ये बोर्ड लगाया जा रहा है कि सड़क बंद है या यहां पेशाब करना मना है बिलकुल दूसरी बात है।

अगर तुम किसी औरत से जिन्सी रिश्ता क़ायम नहीं करना चाहते तो इस का ऐलान करने की ज़रूरत ही किया है। अगर तुम्हारे दिल में तुम्हारी बीवी के सिवा और किसी औरत का ख़याल दाख़िल नहीं हो सकता तो इस का इश्तिहार देने की क्या ज़रूरत है। यही और इसी क़िस्म की दूसरी बातें चूँकि मेरी समझ में नहीं आती थीं, इस लिए मुझे अजीब क़िस्म की उलझन होती थी।

ख़ैर!

बन की सुंदरी की शूटिंग चल रही थी। स्टूडीयो में ख़ासी चहल पहल थी हर रोज़ एक्स्ट्रा लड़कीयां आती थीं। जिन के साथ हमारा दिन हंसी मज़ाक़ में गुज़र जाता था।

एक रोज़ नयाज़ मोहम्मद विलेन के कमरे में मेकअप मास्टर जिसे हम उस्ताद कहते थे, ये ख़बर ले कर आया कि वैम्प के रोल के लिए जो नई लड़की आने वाली थी, आ गई है और बहुत जल्द उस का काम शुरू हो जाएगा।

उस वक़्त चाय का दौर चल रहा था। कुछ उस की हरारत थी। कुछ इस ख़बर ने हम को गर्मा दिया। स्टूडीयो में एक नई लड़की का दाख़िला हमेशा एक ख़ुश-गवार हादिसा हुआ करता है, चुनांचे हम सब नियाज़ मोहम्मद विलेन के कमरे से निकल कर बाहर चले आए ताकि उस का दीदार किया जाये।

शियाम के वक़्त जब सेठ हुर्मुज़ जी फ्रॉम जी ऑफ़िस से निकल कर ईसा तबलची की चांदी की डिबिया से दो ख़ुशबूदार तंबाकू वाले पान अपने चौड़े कल्ले में दबा कर बुलेवर्ड खेलने के कमरे का रुख़ कर रहे थे कि हमें वो लड़की नज़र आई।

साँवले रंग की थी, बस में सिर्फ़ इतना ही देख सका क्योंकि वो जल्दी जल्दी सेठ के साथ हाथ मिला कर स्टूडीयो की मोटर में बैठ कर चली गई....... कुछ देर के बाद मुझे नियाज़ मोहम्मद ने बताया कि उस औरत के होंट मोटे थे। वो ग़ालिबन सिर्फ़ होंट ही देख सका था। उस्ताद जिस ने शायद इतनी झलक भी न देखी थी, सर हिला कर बोला। “हूँह....... कंडम....... ” यानी बकवास है।

चार पाँच रोज़ गुज़र गए मगर ये नई लड़की स्टूडीयो में न आई। पांचवें या छट्ठे रोज़ जब मैं गुलाब के होटल से चाय पी कर निकल रहा था, अचानक मेरी और उस की मुडभेड़ होगई।

मैं हमेशा औरतों को चोर आँख से देखने का आदी हूँ। अगर कोई औरत एक दम मेरे सामने आजाए तो मुझे उस का कुछ भी नज़र नहीं आता। चूँकि ग़ैर मुतवक़्क़े तौर पर मेरी उसकी मुडभेड़ हुई थी, इस लिए मैं उस की शक्ल-ओ-शबाहत के मुतअल्लिक़ कोई अंदाज़ा न कर सका, अलबत्ता पांव मैं ने ज़रूर देखे जिन में नई वज़ा के स्लीपर थे।

लीबारटरी से स्टूडीयो तक जो रविष जाती है, उस पर मालिकों ने बजरी बिछा रखी है। इस बजरी में बेशुमार गोल गोल बट्टियां हैं जिन पर से जूता बार बार फिसलता है। चूँकि इस के पांव में खुले स्लीपर थे, इस लिए चलने में उसे कुछ ज़्यादा तकलीफ़ महसूस हो रही थी।

इस मुलाक़ात के बाद आहिस्ता आहिस्ता मिस नीलम से मेरी दोस्ती होगई। स्टूडीयो के लोगों को तो ख़ैर इस का इल्म नहीं था मगर उस के साथ मेरे तअल्लुक़ात बहुत ही बे-तकल्लुफ़ थे। उस का असली नाम राधा था। मैं ने जब एक बार उस से पूछा कि तुम ने इतना प्यारा नाम क्यों छोड़ दिया तो उस ने जवाब दिया। “यूंही।” मगर फिर कुछ देर के बाद कहा। “ये नाम इतना प्यारा है कि फ़िल्म में इस्तिमाल नहीं करना चाहिए।”

आप शायद ख़याल करें कि राधा मज़हबी ख़याल की औरत थी। जी नहीं, उसे मज़हब और उस के तवह्हुमात से दूर का भी वास्ता नहीं था। लेकिन जिस तरह मैं हर नई तहरीर शुरू करने से पहले काग़ज़ पर बिसमिल्लाह के आदाद ज़रूर लिखता हूँ, उसी तरह शायद उसे भी ग़ैर-इरादी तौर पर राधा के नाम से बेहद प्यार था।

चूँकि वो चाहती थी कि उसे राधा ना कहा जाये। इस लिए मैं आगे चल कर उसे नीलम ही कहूंगा।

नीलम बनारस की एक तवाइफ़ ज़ादी थी। वहीं का लब-ओ-लहजा जो कानों को बहुत भला मालूम होता था मेरा नाम सआदत है मगर वो मुझे हमेशा सादिक़ ही कहा करती थी। एक दिन मैं ने उस से कहा “नीलम! मैं जानता हूँ तुम मुझे सआदत कह सकती हो, फिर मेरी समझ में नहीं आता कि तुम अपनी इस्लाह क्यों नहीं करतीं।” ये सुन कर उस के साँवले होंटों पर जो बहुत ही पतले थे एक ख़फ़ीफ़ सी मुस्कुराहट नुमूदार हुई और उस ने जवाब दिया। “जो ग़लती मुझ से एक बार हो जाये, मैं उसे ठीक करने की कोशिश नहीं करती।”

मेरा ख़याल है बहुत कम लोगों को मालूम है कि वो औरत जिसे स्टूडीयो के तमाम लोग एक मामूली ऐक्ट्रस समझते थे, अजीब-ओ-ग़रीब क़िस्म की इन्फ़िरादियत की मालिक थी। इस में दूसरी एक्ट्रसों का सा ओछापन बिलकुल नहीं था। उस की संजीदगी जिसे स्टूडीयो का हर शख़्स अपनी ऐनक से ग़लत रंग में देखता था, बहुत प्यारी चीज़ थी।

इस के साँवले चेहरे पर जिस की जिल्द बहुत ही साफ़ और हमवार थी, ये संजीदगी, ये मलीह मतानत मौज़ूं-ओ-मुनासिब ग़ाज़ा बन गई थी। इस में कोई शक नहीं कि इस से उस की आँखों में इस के पतले होंटों के कोनों में, ग़म की बे-मालूम तल्ख़ियां घुल गई थीं मगर ये वाक़िया है कि उस चीज़ ने उसे दूसरी औरतों से बिलकुल मुख़्तलिफ़ कर दिया था।

मैं उस वक़्त भी हैरान था और अब भी वैसा ही हैरान हूँ कि नीलम को “बन की सुंदरी” में वैम्प के रोल के लिए क्यों मुंतख़ब किया गया इस लिए कि उस में तेज़ी-ओ-तर्रारी नाम को भी नहीं थी। जब वो पहली मर्तबा अपना वाहियात पार्ट अदा करने के लिए तंग चोली पहन कर सेट पर आई तो मेरी निगाहों को बहुत सदमा पहुंचा। वो दूसरों का रद्द-ए-अमल फ़ौरन ताड़ जाती थी। चुनांचे मुझे देखते ही उस ने कहा। “डायरेक्टर साहब कह रहे थे कि तुम्हारा पार्ट चूँकि शरीफ़ औरत का नहीं है, इस लिए तुम्हें इस क़िस्म का लिबास दिया गया है। मैं ने उन से कहा अगर ये लिबास है तो मैं आप के साथ नंगी चलने के लिए तैय्यार हूँ।”

मैं ने उस से पूछा। “डायरेक्टर साहब ने ये सुन कर क्या कहा?”

नीलम के पतले होंटों पर एक ख़फ़ीफ़ सी पुर-असरार मुस्कुराहट नुमूदार हूई, “उन्हों ने तसव्वुर में मुझे नंगी देखना शुरू कर दिया....... ये लोग भी कितने अहमक़ हैं। यानी इस लिबास में मुझे देख कर बेचारे तसव्वुर पर ज़ोर डालने की ज़रूरत ही क्या थी!”

ज़हीन क़ारी के लिए नीलम का इतना तआरुफ़ ही काफ़ी है। अब मैं उन वाक़ियात की तरफ़ आता हूँ जिन की मदद से मैं ये कहानी मुकम्मल करना चाहता हूँ।

बंबई में जून के महीने से बारिश शुरू हो जाती है और सितंबर के वस्त तक जारी रहती है। पहले दो ढाई महीनों में इस क़दर पानी बरसता है कि स्टूडीयो में काम नहीं हो सकता। “बन की सुंदरी” की शूटिंग अप्रैल के अवाख़िर में शुरू हुई थी। जब पहली बारिश हुई तो हम अपना तीसरा सेट मुकम्मल कर रहे थे। एक छोटा सा सीन बाक़ी रह गया था जिस में कोई मुकालमा नहीं था, इस लिए बारिश में भी हम ने अपना काम जारी रखा। मगर जब ये काम ख़त्म हो गया तो हम एक अर्से के लिए बे-कार हो गए।

इस दौरान में स्टूडीयो के लोगों को एक दूसरे के साथ मिल कर बैठने का बहुत मौक़ा मिलता है। मैं तक़रीबन सारा दिन गुलाब के होटल में बैठा चाय पीता रहता था। जो आदमी भी अंदर आता था तो सारे का सारा भीगा होता था या आधा.......बाहर की सब मक्खियां पनाह लेने के लिए अंदर जमा होगई थीं। इस क़दर ग़लीज़ फ़िज़ा थी कि अलअमां। एक कुर्सी पर चाय निचोड़ने का कपड़ा पड़ा है, दूसरी पर प्याज़ काटने की बदबूदार छुरी पड़ी झक मार रही है। गुलाब साहब पास खड़े हैं और अपने मास ख़ौरा लगे दाँतों तले बंबई की उर्दू चबा रहे हैं: “तुम उधर जाने को नहीं सकता....... हम उधर से जाके आता....... बहुत लफ़ड़ा होगा.......हाँ....... बड़ा वानदा हो जाएंगा।”

उस होटल में जिस की छत को रोगटेड स्टील की थी, सेठ हुर्मुज़ जी फ्रॉम जी, उन के साले एडल जी और हीरोइनों के सिवा सब लोग आते थे। नियाज़ मोहम्मद को तो दिन में कई मर्तबा यहां आना पड़ता था क्योंकि वो चुन्नी मुन्नी नाम की दो बिल्लियां पाल रहा था।

राज किशोर दिन में एक चक्कर लगा जाता था। जूंही वो अपने लंबे क़द और कसरती बदन के साथ दहलीज़ पर नुमूदार होता, मेरे सिवा होटल में बैठे हूए तमाम लोगों की आँखें तिमतिमा उठतीं। एक्स्ट्रा लड़के उठ उठ कर राज भाई को कुर्सी पेश करते और जब वो इन में से किसी की पेश की हुई कुर्सी पर बैठ जाता तो सारे परवानों की मानिंद उस के गिर्द जमा हो जाते। इस के बाद दो क़िस्म की बातें सुनने में आतीं। एक्स्ट्रा लड़कों की ज़बान पर पुरानी फिल्मों में राज भाई के काम की तारीफ़ की, और ख़ुद राज किशोर की ज़बान पर उस के स्कूल छोड़कर कॉलिज और कॉलिज छोड़कर फ़िल्मी दुनिया में दाख़िल होने की तारीख़....... चूँकि मुझे ये सब बातें ज़बानी याद हो चुकी थीं इस लिए जूंही राज किशोर होटल में दाख़िल होता में उस से अलेक सलेक करने के बाद बाहर निकल जाता।

एक रोज़ जब बारिश थमी हुई थी और हुर्मुज़ जी फ्रॉम जी का अलसेशनकता नियाज़ मोहम्मद की दो बिल्लियों से डर कर गुलाब के होटल की तरफ़ दुम दबाये भागा आ रहा था। मैं ने मौलसिरी के दरख़्त के नीचे बने हुए गोल चबूतरे पर नीलम और राज किशोर को बातें करते हुए देखा।

राज किशोर खड़ा हस्ब-ए-आदत हौलेहौले झूल रहा था। जिस का मतलब ये था कि वो अपने ख़याल के मुताबिक़ निहायत ही दिलचस्प बातें कर रहा है। मुझे याद नहीं कि नीलम से राज किशोर का तआरुफ़ कब और किस तरह हुआ था, मगर नीलम तो उसे फ़िल्मी दुनिया में दाख़िल होने से पहले ही अच्छी तरह जानती थी और शायद एक दो मर्तबा उस ने मुझ से बर-सबील-ए-तज़्किरा इस के मुतनासिब और ख़ूबसूरत जिस्म की तारीफ़ भी की थी।

मैं गुलाब के होटल से निकल कर रीकार्डिंग रुम के छज्जे तक पहुंचा तो राज किशोर ने अपने चौड़े कांधे पर से खादी का थैला एक झटके के साथ उतारा और उसे खोल कर एक मोटी कापी बाहर निकाली। मैं समझ गया....... ये राज किशोर की डायरी थी।

हर रोज़ तमाम कामों से फ़ारिग़ हो कर अपनी सौतेली माँ का आशीरवाद ले कर राज किशोर सोने से पहले डायरी लिखने का आदी है। यूं तो उसे पंजाबी ज़बान बहुत अज़ीज़ है मगर ये रोज़नामचा अंग्रेज़ी में लिखता है जिस में कहीं टैगोर के नाज़ुक स्टाइल की और कहीं गांधी के सयासी तर्ज़ की झलक नज़र आती है....... उस की तहरीर पर शेक्सपियर के ड्रामों का असर भी काफ़ी है। मगर मुझे इस मुरक्कब में लिखने वाले का ख़ुलूस कभी नज़र नहीं आया। अगर ये डायरी आप को कभी मिल जाये तो आप को राज किशोर की ज़िंदगी के दस पंद्रह बरसों का हाल मालूम हो सकता है, उस ने कितने रुपय चंदे में दिए कितने ग़रीबों को खाना खिलाया, कितने जलसों में शिरकत की, क्या पहना, क्या उतारा....... और अगर मेरा क़ियाफ़ा दुरुस्त है तो आप को इस डायरी के किसी वर्क़ पर मेरे नाम के साथ पैंतीस रुपय भी नज़र आजाऐंगे जो मैं ने उस से एक बार क़र्ज़ लिए थे और इस ख़याल से अभी तक वापस नहीं किए कि वो अपनी डायरी में उन की वापसी का ज़िक्र कभी नहीं करेगा।

ख़ैर....... नीलम को वो इस डायरी के चंद औराक़ पढ़ कर सुना रहा था। मैं ने दूर ही से उस के ख़ूबसूरत होंटों की जुंबिश से मालूम कर लिया कि वो शेक्सपियरन अंदाज़ में प्रभु की हम्द बयान कर रहा है।

नीलम, मौलसिरी के दरख़्त के नीचे गोल सीमेंट लगे चबूतरे पर ख़ामोश बैठी थी। उस के चेहरे की मलीह मतानत पर राज किशोर के अल्फ़ाज़ कोई असर पैदा नहीं कर रहे थे।

वो राज किशोर की उभरी हुई छाती की तरफ़ देख रही थी। इस के कुर्ते के बटन खुले थे, और सफ़ेद बदन पर उस की छाती के काले बाल बहुत ही ख़ूबसूरत मालूम होते थे।

स्टूडीयो में चारों तरफ़ हर चीज़ धुली हूई थी। नियाज़ मोहम्मद की दो बिल्लियां भी आम तौर पर ग़लीज़ रहा करती थीं, उस रोज़ बहुत साफ़ सुथरी दिखाई दे रही थीं। दोनों सामने बंच पर लेटी नरम नरम पंजों से अपना मुँह धो रही थीं। नीलम जॉर्जजट की बे-दाग़ सफ़ेद साड़ी में मलबूस थी। बिलाउज़ सफ़ेद लिनन का था जो उस की सांवली और सिडौल बान्हों के साथ एक निहायत ही ख़ुश-गवार और मद्धम सा तज़ाद पैदा कर रहा था।

इतनी मुख़्तलिफ़ क्यों दिखाई दे रही है?

एक लहज़े के लिए ये सवाल मेरे दिमाग़ में पैदा हुआ और एक दम उस की और मेरी आँखें चार हुईं तो मुझे उस की निगाह के इज़्तिराब में अपने सवाल का जवाब मिल गया। नीलम मोहब्बत में गिरफ़्तार हो चुकी थी।

उस ने हाथ के इशारे से मुझे बुलाया। थोड़ी देर इधर उधर की बातें हुईं। जब राज किशोर चला गया तो उस ने मुझ से कहा। “आज आप मेरे साथ चलिएगा!”

शियाम को छः बजे मैं नीलम के मकान पर था। जूंही हम अंदर दाख़िल हूए उस ने अपना बैग सोफे पर फेंका और मुझ से नज़र मिलाए बग़ैर कहा। “आप ने जो कुछ सोचा है ग़लत है।”

मैं उस का मतलब समझ गया। चुनांचे मैं ने जवाब दिया। “तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मैं ने क्या सोचा था।?”

इस के पतले होंटों पर ख़फ़ीफ़ सी मुस्कुराहट पैदा हुई।

“इस लिए हम दोनों ने एक ही बात सोची थी....... आप ने शायद बाद में ग़ौर नहीं किया। मगर मैं बहुत सोच बिचार के बाद इस नतीजे पर पहुंची हूँ कि हम दोनों ग़लत थे।”

“अगर मैं कहूं कि हम दोनों सही थे।”

इस ने सोफे पर बैठते हुए कहा। “तो हम दोनों बेवक़ूफ़ हैं।”

ये कह कर फ़ौरन ही उस के चेहरे की संजीदगी और ज़्यादा सँवला गई। “सादिक़ ये कैसे हो सकता है। मैं बच्ची हूँ जो मुझे अपने दिल का हाल मालूम नहीं....... तुम्हारे ख़याल के मुताबिक़ मेरी उम्र क्या होगी?”

“बाईस बरस।”

“बिलकुल दुरुस्त....... लेकिन तुम नहीं जानते कि दस बरस की उम्र में मुझे मोहब्बत के मानी मालूम थे....... मानी क्या हूए जी....... ख़ुदा की क़सम मैं मोहब्बत करती थी। दस से लेकर सोला बरस तक मैं एक ख़तरनाक मोहब्बत में गिरफ़्तार रही हूँ। मेरे दिल में अब क्या ख़ाक किसी की मोहब्बत पैदा होगी.......” ये कह कर उस ने मेरे मुंजमिद चेहरे की तरफ़ देखा और मुज़्तरिब हो कर कहा। “तुम कभी नहीं मानोगे मैं तुम्हारे सामने अपना दिल निकाल कर रख दूं, फिर भी तुम यक़ीन नहीं करोगे मैं तुम्हें अच्छी तरह जानती हूँ....... भई ख़ुदा की क़सम, वो मर जाये जो तुम से झूट बोले....... मेरे दिल में अब किसी की मोहब्बत पैदा नहीं हो सकती, लेकिन इतना ज़रूर है कि.......” ये कहते कहते वो एक दम रुक गई।

मैं ने उस से कुछ न कहा क्योंकि वो गहरे फ़िक्र में ग़र्क़ हो गई थी। शायद वो सोच रही थी कि इतना ज़रूर क्या है

थोड़ी देर के बाद उस के पतले होंटों पर वही ख़फ़ीफ़ पुर-असरार मुस्कुराहट नुमूदार हूई जिस से उस के चेहरे की संजीदगी में थोड़ी सी आलिमाना शरारत पैदा हो जाती थी। सोफे पर से एक झटके के साथ उठ कर उस ने कहना शुरू किया। “मैं इतना ज़रूर कह सकती हूँ कि ये मोहब्बत नहीं है और कोई बला हो तो मैं कह नहीं सकती सादिक़ मैं तुम्हें यक़ीन दिलाती हूँ।”

मैं ने फ़ौरन ही कहा। “यानी तुम अपने आप को यक़ीन दिलाती हो।”

वो जल गई। “तुम बहुत कमीने हो.......कहने का एक ढंग होता है। आख़िर तुम्हें यक़ीन दिलाने की मुझे ज़रूरत ही क्या पड़ी है....... मैं अपने आप को यक़ीन दिला रही हूँ, मगर मुसीबत ये है कि आ नहीं रहा....... क्या तुम मेरी मदद नहीं कर सकते.......” ये कह कर वो मेरे पास बैठ गई और अपने दाहिने हाथ की छंगुलिया पकड़ कर मुझ से पूछने लगी। “राज किशोर के मुतअल्लिक़ तुम्हारा क्या ख़याल है....... मेरा मतलब है तुम्हारे ख़याल के मुताबिक़ राज किशोर में वो कौन सी चीज़ है जो मुझे पसंद आई है।” छंगुलिया छोड़ कर उस ने एक एक कर के दूसरी उंगलियां पकड़नी शुरू कीं।

मुझे उस की बातें पसंद नहीं....... मुझे उस की ऐक्टिंग पसंद नहीं। मुझे उस की डायरी पसंद नहीं, जाने क्या ख़ुराफ़ात सुना रहा था।

ख़ुद ही तंग आकर वो उठ खड़ी हूई। “समझ में नहीं आता मुझे क्या हो गया है। बस सिर्फ़ ये जी चाहता है कि एक हंगामा हो। बिल्लियों की लड़ाई की तरह शोर मचे, धूल उड़े....... और मैं पसीना पसीना हो जाऊं....... ” फिर एक दम वो मेरी तरफ़ पलटी....... “सादिक़....... तुम्हारा क्या ख़याल है....... मैं कैसी औरत हूँ?”

मैं ने मुस्कुरा कर जवाब दिया। “बिल्लियां और औरतें मेरी समझ से हमेशा बालातर रही हैं।”

इस ने एक दम पूछा। “क्यों?”

मैं ने थोड़ी देर सोच कर जवाब दिया। “हमारे घर में एक बिल्ली रहती थी साल में एक मर्तबा उस पर रोने के दौरे पड़ते थे....... उस का रोना धोना सुन कर कहीं से एक बिल्ला आ जाया करता था। फिर उन दोनों में इस क़दर लड़ाई और ख़ूनख़राबा होता कि अलअमां....... मगर इस के बाद वो ख़ाला बिल्ली चार बच्चों की माँ बन जाया करती थी।”

नीलम का जैसे मुँह का ज़ायक़ा ख़राब हो गया “थू....... तुम कितने गंदे हो।” फिर थोड़ी देर बाद इलायची से मुँह का ज़ायक़ा दुरुस्त करने के बाद उस ने कहा। “मुझे औलाद से नफ़रत है। ख़ैर हटाओ जी इस क़िस्से को।”

ये कह कर नीलम ने पानदान खोल कर अपनी पतली पतली उंगलीयों से मेरे लिए पान लगाना शुरू कर दिया। चांदी की छोटी छोटी कलीयों से उस ने बड़ी नफ़ासत से चमची के साथ चूना और कथ्था निकाल कर रगें निकाले हूए पान पर फैलाया और गिलौरी बना कर मुझे दी। “सादिक़! तुम्हारा क्या ख़याल है?”

ये कह कर वो ख़ालीउज़्ज़हन हो गई।

मैं ने पूछा। “किस बारे में?”

उस ने सरौते से भुनी हूई छालीया काटते हुए कहा। “उस बकवास के बारे में जो ख़्वाह-मख़्वाह शुरू हो गई है....... ये बकवास नहीं तो किया है, यानी मेरी समझ में कुछ आता ही नहीं....... ख़ुद ही फाड़ती हूँ, ख़ुद ही रफू करती हूँ। अगर ये बकवास इसी तरह जारी रहे तो जाने क्या होगा....... तुम जानते हो मैं बहुत ज़बरदस्त औरत हूँ।”

“ज़बरदस्त से तुम्हारी क्या मुराद है?”

नीलम के पतले होंटों पर वही ख़फ़ीफ़ पुर-असरार मुस्कुराहट पैदा हूई। “तुम बड़े बे-शर्म हो। सब कुछ समझते हो मगर महीन महीन चुटकियां ले कर मुझे उकसाऊगे ज़रूर।” ये कहते हुए उस की आँखों की सफेदी गुलाबी रंगत इख़्तियार कर गई।

“तुम समझते क्यों नहीं कि मैं बहुत गर्म मिज़ाज की औरत हूँ।” ये कह कर वो उठ खड़ी हूई “अब तुम जाओ। मैं नहाना चाहती हूँ।”

“मैं चला गया।”

इस के बाद नीलम ने बहुत दिनों तक राज किशोर के बारे में मुझ से कुछ न कहा। मगर इस दौरान में हम दोनों एक दूसरे के ख़यालात से वाक़िफ़ थे। जो कुछ वो सोचती थी, मुझे मालूम हो जाता था और जो कुछ में सोचता था उसे मालूम हो जाता था। कई रोज़ तक यही ख़ामोश तबादला जारी रहा।

एक दिन डायरेक्टर कृपलानी जो “बन की सुंदरी” बना रहा था, हीरोइन की रीहरसल सुन रहा था। हम सब म्यूज़िक रुम में जमा थे। नीलम एक कुर्सी पर बैठी अपने पांव की जुंबिश से हौलेहौले ताल दे रही थी। एक बाज़ारी क़िस्म का गाना मगर धुन अच्छी थी। जब रीहरसल ख़त्म हूई तो राज किशोर कांधे पर खादी का थैला रखे कमरे में दाख़िल हुआ। डायरेक्टर कृपलानी, म्यूज़िक डायरेक्टर घोष, साऊँड रिकार्डिस्ट पी ए एन मोघा....... इन सब को फ़र्दन फ़र्दन उस ने अंग्रेज़ी में आदाब किया। हीरोइन मिस ईदन बाई को हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और कहा। “ईदन बहन! कल मैं ने आप को क्राफर्ड मार्कीट में देखा। मैं आप की भाभी के लिए मौसंबीयाँ ख़रीद रहा था कि आप की मोटर नज़र आई....... ” झूलते झूलते उस की नज़र नीलम पर पड़ी जो प्यानो के पास एक पस्त-क़द की कुर्सी में धंसी हूई थी। एक दम उस के हाथ नमस्कार के लिए उठे ये देखते ही नीलम उठ खड़ी हूई। “राज साहब! मुझे बहन न कहिएगा।”

नीलम ने ये बात कुछ इस अंदाज़ से कही कि म्यूज़िक रुम में बैठे हूए सब आदमी एक लहज़े के लिए मबहूत हो गए। राज किशोर खिसयाना सा हो गया और सिर्फ़ इस क़दर कह सका। “क्यों?”

नीलम जवाब दिए बग़ैर बाहर निकल गई।

तीसरे रोज़ मैं नागपाड़े में सह-पहर के वक़्त शियाम लाल पनवाड़ी की दुकान पर गया तो वहां इसी वाक़े के मुतअल्लिक़ चेहमी-गोईयां होरही थीं....... शियाम लाल बड़े फ़ख़्रिया लहजे में कह रहा था। “साली का अपना मन मैला होगा... वर्ना राज भाई किसी को बहन कहे, और वो बुरा माने... कुछ भी हो, उस की मुराद कभी पूरी नहीं होगी। राज भाई लंगोट के बहुत पक्के हैं।”

राज भाई के लंगोट से मैं बहुत तंग आ गया था। मगर मैं ने शियाम लाल से कुछ न कहा और ख़ामोश बैठा उस की और उस के दोस्त ग्राहकों की बातें सुनता रहा जिन में मुबालग़ा ज़्यादा और असलियत कम थी।

स्टूडीयो में हर शख़्स को म्यूज़िक रुम के इस हादिसे का इल्म था, और तीन रोज़ से गुफ़्तुगू का मौज़ू बस यही चीज़ थी कि राज किशोर को मिस नीलम ने क्यों एक दम बहन कहने से मना किया। मैं ने राज किशोर की ज़बानी इस बारे में कुछ न सुना मगर उस के एक दोस्त से मालूम हुआ कि उस ने अपनी डायरी में उस पर निहायत पर दिलचस्प तबसरा लिखा है और प्रार्थना की है कि मिस नीलम का दिल-ओ-दिमाग़ पाक-ओ-साफ़ हो जाये।

इस हादिसे के बाद कई दिन गुज़र गए मगर कोई क़ाबिल-ए-ज़िकर बात वक़ूअ-पज़ीर न हुई।

नीलम पहले से कुछ ज़्यादा संजीदा होगई थी और राज किशोर के कुर्ते के बटन अब हर वक़्ते खुले रहते थे। जिस में से उस की सफ़ेद और उभरी हुई छाती के काले बाल बाहर झांकते रहते थे।

चूँकि एक दो रोज़ से बारिश थमी हुई थी और “बन की सुंदरी” का चौथे सीट का रंग ख़ुश्क होगया था, इस लिए डायरेक्टर ने नोटिस बोर्ड पर शूटिंग का ऐलान चस्पाँ कर दिया। ये सीन जो अब लिया जाने वाला था, नीलम और राज किशोर के दरमयान था। चूँकि मैं ने ही इस के मकालमे लिखे थे, इस लिए मुझे मालूम था कि राज किशोर बातें करते करते नीलम का हाथ चूमेगा।

इस सीन में चूमने की बिलकुल गुंजाइश न थी। मगर चूँकि अवाम के जज़्बात को उकसाने के लिए आम तौर पर फिल्मों में औरतों को ऐसे लिबास पहनाए जाते हैं जो लोगों को सताएंगे, इस लिए डायरेक्टर कृपलानी ने पुराने नुस्ख़े के मुताबिक़ दस्त बोसी का ये टच रख दिया था।

जब शूटिंग शुरू हूई तो मैं धड़कते हुए दिल के साथ सीट पर मौजूद था। राज किशोर और नीलम, दोनों का रद्द-ए-अमल क्या होगा, इस के तसव्वुर ही से मेरे जिस्म में सनसनी की एक लहर दौड़ जाती थी। मगर सारा सीन मुकम्मल हो गया, और कुछ न हुआ। हर मकालमे के बाद एक थका देने वाली आहंगी के साथ बर्क़ी लैम्प रौशन और गुल हो जाते। स्टार्ट और कट की आवाज़ें बुलंद होतीं और शाम को जब सीन के क्लाइमेक्स का वक़्त आया तो राज किशोर ने बड़े रूमानी अंदाज़ में नीलम का हाथ पकड़ा मगर कैमरे की तरफ़ पीठ कर के अपना हाथ चूम कर अलग कर दिया।

मेरा ख़याल था कि नीलम अपना हाथ खींच कर राज किशोर के मुँह पर एक ऐसा चांटा जड़ेगी कि रिकार्डिंग रुम में पी एन मोघा के कानों के पर्दे फट जाऐंगे। मगर इस के बरअक्स मुझे नीलम के पतले होंटों पर एक तहलील शूदा मुस्कुराहट दिखाई दी। जिस में औरत के मजरूह जज़्बात का शाइबा तक मौजूद न था।

मुझे सख़्त ना-उम्मीदी हूई थी मैं ने इस का ज़िक्र नीलम से न किया। दो तीन रोज़ गुज़र गए और जब उस ने भी मुझ से इस बारे में कुछ ना कहा....... तो मैं ने ये नतीजा अख़्ज़ किया कि उसे इस हाथ चूमने वाली बात की एहमियत का इल्म ही नहीं था, बल्कि यूं कहना चाहिए कि उस के ज़कीउलहिस दिमाग़ में इस का ख़याल तक भी न आया था और उस की वजह सिर्फ़ यह हो सकती है कि वो उस वक़्त राज किशोर की ज़बान से जो औरत को बहन कहने का आदी था, आशिक़ाना अल्फ़ाज़ सुन रही थी।

नीलम का हाथ चूमने की बजाय राज किशोर ने अपना हाथ क्यों चूमा था....... क्या उस ने इंतिक़ाम लिया था....... क्या उस ने उस औरत की तज़लील करने की कोशिश की थी, ऐसे कई सवाल मेरे दिमाग़ में पैदा हुए मगर कोई जवाब न मिला।

चौथे रोज़ जब मैं हस्ब-ए-मामूल नागपाड़े में शियाम लाल की दुकान पर गया तो उस ने मुझ से शिकायत भरे लहजे में। “मंटो साहब आप तो हमें अपनी कंपनी की कोई बात सुनाते ही नहीं....... आप बताना नहीं चाहते या फिर आप को कुछ मालूम ही नहीं होता? पता है आप को, राज भाई ने क्या क्या?”

इस के बाद उस ने अपने अंदाज़ में ये कहानी शुरू की कि “बन की सुंदरी” में एक सीन था जिस में डायरेक्टर साहब ने राज भाई को मिस नीलम का मुँह चूमने का आर्डर दिया लेकिन साहब कहाँ राज भाई और कहाँ वो साली टखयाई। राज भाई ने फ़ौरन कह दिया न साहब मैं ऐसा काम कभी नहीं करूंगा। मेरी अपनी पत्नी है इस गंदी औरत का मुँह चूम कर क्या मैं उस के पवित्र होंटों से अपने होंट मिला सकता हूँ....... बस साहब फ़ौरन डायरेक्टर साहब को सीन बदलना पड़ा और राज भाई से कहा गया कि अच्छा भई तुम मुँह न चूमो हाथ चूम लो मगर राज साहब ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेलीं। जब वक़्त आया तो उस ने इस सफ़ाई से अपना हाथ चूमा कि देखने वालों को यही मालूम हुआ कि उस ने उस साली का हाथ चूमा है।”

मैं ने इस गुफ़्तुगू का ज़िक्र नीलम से न क्या, इस लिए कि जब वो इस सारे क़िस्से ही से बे-ख़बर थी, उसे ख़्वाह-मख़्वाह रंजीदा करने से किया फ़ायदा।

बंबई में मलेरिया आम है। मालूम नहीं, कौन सा महीना था और कौन सी तारीख़ थी, सिर्फ़ इतना याद है कि “बन की सुंदरी” का पांचवां सेट लग रहा था और बारिश बड़े ज़ोरों पर थी कि नीलम अचानक बहुत तेज़ बुख़ार में मुब्तला हो गई। चूँकि मुझे स्टूडियो में कोई काम नहीं था, इस लिए मैं घंटों उस के पास बैठा उस की तीमारदारी करता रहता। मलेरिया ने इस के चेहरे की सँवलाहट में एक अजीब क़िस्म की दर्द अंगेज़ ज़रदी पैदा कर दी थी....... उस की आँखों और उस के पतले होंटों के कोनों में जो ना-क़ाबिल-ए-बयान तल्ख़ियां घुली रहती थीं, अब उन में एक बे-मालूम बे-बसी की झलक भी दिखाई देती थी।

कौनैन के टीकों से उस की समाअत किसी क़दर कमज़ोर हो गई थी। चुनांचे उसे अपनी नहीफ़ आवाज़ ऊंची करना पड़ती थी। उस का ख़याल था कि शायद मेरे कान भी ख़राब हो गए हैं।

एक दिन जब उस का बुख़ार बिलकुल दूर हो गया था, और वो बिस्तर पर लेटी नक़ाहत भरे लहजे में ईदन बाई की बीमार-पुर्सी का शुक्रिया अदा कर रही थी नीचे से मोटर के हॉर्न की आवाज़ आई। मैं ने देखा कि ये आवाज़ सुन कर नीलम के बदन पर एक सर्द झुरझुरी सी दौड़ गई।

थोड़ी देर के बाद कमरे का दबीज़ सागवानी दरवाज़ा खुला और राज किशोर खादी के सफ़ेद कुर्ते और तंग पाजामे में अपनी पुरानी वज़ा की बीवी के हम-राह अंदर दाख़िल हुआ।

ईदन बाई को ईदन बहन कह कर सलाम किया। मेरे साथ हाथ मिलाया और अपनी बीवी को जो तीखे तीखे नक़्शों वाली घरेलू क़िस्म की औरत थी, हम सब से मुतआरिफ़ करा कर के वो नीलम के पलंग पर बैठ गया। चंद लमहात वो ऐसे ही ख़ला में मुस्कुराता रहा। फिर उस ने बीमार नीलम की तरफ़ देखा और मैं ने पहली मर्तबा उस की धुली हुई आँखों में एक गर्द-आलूद जज़्बा तैरता हुआ पाया।

मैं अभी पूरी तरह मुतहय्यर भी न होने पाया था कि उस ने खलनडरे आवाज़ में कहना शुरू क्या “बहुत दिनों से इरादा कर रहा था कि आप की बीमार-पुर्सी के लिए आऊं, मगर इस कमबख़्त मोटर का इंजन कुछ ऐसा ख़राब हुआ कि दस दिन कारख़ाने में पड़ी रही। आज आई तो मैं ने (अपनी बीवी की तरफ़ इशारा कर के) शांति से कहा कि भई चलो इसी वक़्त उठो.......रसोई का काम कोई और करेगा, आज इत्तिफ़ाक़ से रक्षा बंधन का त्यौहार भी है....... नीलम बहन की ख़ैर-ओ-आफ़ियत भी पूछ आयेंगे और उन से रक्षा भी बंधवाएंगे।”

ये कहते हुए उस ने अपने खादी के कुरते से एक रेशमी फुंदने वाला गजरा निकाला। नीलम के चेहरे की ज़रदी और ज़्यादा दर्द अंगेज़ हो गई।

राज किशोर जानबूझ कर नीलम की तरफ़ नहीं देख रहा था, चुनांचे उस ने ईदन बाई से कहा। “मगर ऐसे नहीं। ख़ुशी का मौक़ा है, बहन बीमार बन कर रक्षा नहीं बांधेगी।

शांति, चलो उठो।

इन को लिप स्टिक वग़ैरा लगाओ।

मेकअप बक्स कहाँ है?”

सामने मेंटल पीस पर नीलम का मेकअप बक्स पड़ा था। राज किशोर ने चंद लंबे लंबे क़दम उठाए और उसे ले आया। नीलम ख़ामोश थी....... उस के पतले होंट भींच गए थे जैसे वो चीख़ें बड़ी मुश्किल से रोक रही है।

जब शांति ने पति व्रता इस्त्री की तरह उठ कर नीलम का मेकअप करना चाहा तो उस ने कोई मुज़ाहमत पेश न की। ईदन बाई ने एक बे-जान लाश को सहारा देकर उठाया और जब शांति ने निहायत ही ग़ैर सनआना तरीक़ पर उस के होंटों पर लिप स्टिक लगाना शुरू की तो वो मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुराई....... नीलम की ये मुस्कुराहट एक ख़ामोश चीख़ थी।

मेरा ख़याल था.......नहीं, मुझे यक़ीन था कि एक दम कुछ होगा....... नीलम के भिंचे हूए होंट एक धमाके के साथ वाहोंगे और जिस तरह बरसात में पहाड़ी नाले बड़े बड़े मज़बूत बंद तोड़ कर दीवाना वार आगे निकल जाते हैं, इसी तरह नीलम अपने रुके हूए जज़्बात के तूफ़ानी बहाओ में हम सब के क़दम उखेड़ कर ख़ुदा मालूम किन गहराईयों में धकेल ले जाएगी। मगर तअज्जुब है कि वो बिलकुल ख़ामोश रही। उस के चेहरे की दर्द अंगेज़ ज़रदी ग़ाज़े और सुर्ख़ी के गुबार में छुपती रही और वो पत्थर के बुत की तरह बे-हिस बनी रही। आख़िर में जब मेकअप मुकम्मल हो गया तो उस ने राज किशोर से हैरत-अंगेज़ तौर पर मज़बूत लहजे में कहा। “लाईए! अब मैं रक्षा बांध दूं।”

रेशमी फुंदनों वाला गजरा थोड़ी देर में राज किशोर की कलाई में था और नीलम जिस के हाथ काँपने चाहिऐं थे बड़े संगीन सुकून के साथ उस का तुक्मा बंद कर रही थी। इस अमल के दौरान में एक मर्तबा फिर मुझे राज किशोर की धुली हूई आँख में एक गर्द आलूद जज़्बे की झलक नज़र आई जो फ़ौरन ही उस की हंसी में तहलील होगई।

राज किशोर ने एक लिफ़फ़े में रस्म के मुताबिक़ नीलम को कुछ रुपय दिए जो उस ने शुक्रिया अदा कर के अपने तकीए के नीचे रख लिए....... जब वो लोग चले गए, मैं और नीलम अकेले रह गए तो उस ने मुझ पर एक उजड़ी हूई निगाह डाली और तकीए पर सर रख कर ख़ामोश लेट गई। पलंग पर राज किशोर अपना थैला भूल गया था। जब नीलम ने उसे देखा तो पांव से एक तरफ़ कर दिया। मैं तक़रीबन दो घंटे उस के पास बैठा अख़्बार पढ़ता रहा। जब उस ने कोई बात न की तो मैं रुख़स्त लिए बग़ैर चला आया।

इस वाक़िया के तीन रोज़ बाद मैं नागपाड़े में अपनी नो रुपय माहवार की खोली के अंदर बैठा शेव कर रहा था और दूसरी खोली से अपनी हम-साई मिसिज़ फ़रीनडीज़ की गालियां सुन रहा था कि एक दम कोई अंदर दाख़िल हुआ मैं ने पलट कर देखा। नीलम थी।

एक लहज़े के लिए मैं ने ख़याल किया कि नहीं, कोई और है.......उस के होंटों पर गहरे सुर्ख़ रंग की लिप स्टिक कुछ इस तरह फैली हुई थी जैसे मुँह से ख़ून निकल निकल कर बहता रहा और पोछा नहीं गया....... सर का एक बाल भी सही हालत में नहीं था। सफ़ेद साड़ी की बूटियां उड़ी हुई थीं। बिलाउज़ के तीन चार हुक खुले थे और उस की सांवली छातियों पर ख़राशें नज़र आ रही थीं।

नीलम को इस हालत में देख कर मुझ से पूछा ही न गया कि तुम्हें क्या हुआ, और मेरी खोली का पता लगा कर तुम कैसे पहुंची हो।

पहला काम मैं ने ये किया कि दरवाज़ा बंद कर दिया।

जब में कुर्सी खींच कर उस के पास बैठा तो उस ने अपने लिप स्टिक से लुथड़े हुए होंट खोले और कहा। “मैं सीधी यहां आ रही हूँ।”

मैं ने आहिस्ता से पूछा।

“कहाँ से?”

“अपने मकान से....... और मैं तुम से ये कहने आई हूँ कि अब वो बकवास जो शुरू हूई थी, ख़त्म हो गई है।”

“कैसे?”

“मुझे मालूम था कि वो भी मेरे मकान पर आएगा। उस वक़्त जब और कोई नहीं होगा! चुनांचे वो आया....... अपना थैला लेने के लिए।” ये कहते हुए उस के पतले होंटों पर जो लिप स्टिक ने बिलकुल बे-शक्ल कर दिए थे, वही ख़फ़ीफ़ सी पुर-असरार मुस्कुराहट नुमूदार हूई। “वो अपना थैला लेने आया था....... मैं ने कहा चलिए, दूसरे कमरे में पड़ा है। मेरा लहजा शायद बदला हुआ था क्योंकि वो कुछ घबरा सा गया....... मैं ने कहा घबराईए नहीं....... जब हम दूसरे कमरे में दाख़िल हुए तो मैं थैला देने की बजाय ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठ गई और मेकअप करना शुरू कर दिया।”

यहां तक बोल कर वो ख़ामोश हो गई....... सामने मेरे टूटे हुए मेज़ पर शीशे के गिलास में पानी पड़ा था। उसे उठा कर नीलम गटा गुट पी गई....... और साड़ी के पल्लू से होंट पोंछ कर उस ने फिर अपना सिलसिल-ए-कलाम जारी किया। “मैं एक घंटे तक मेकअप करती रही। जितनी लिप स्टिक होंटों पर थुप सकती थी, मैं ने थोपी, जितनी सुर्ख़ी मेरे गालों पर चढ़ सकती थी, मैं ने चढ़ाई। वो ख़ामोश एक कोने में खड़ा आईने में मेरी शक्ल देखता रहा। जब मैं बिलकुल चुड़ैल बन गई तो मज़बूत क़दमों के साथ चल कर मैं ने दरवाज़ा बंद कर दिया।”

“फिर क्या हुआ”

मैं ने जब अपने सवाल का जवाब हासिल करने के लिए नीलम की तरफ़ देखा तो वो मुझे बिलकुल मुख़्तलिफ़ नज़र आई। साड़ी से होंट पोंछने के बाद उस के होंटों की रंगत कुछ अजीब सी हो गई थी। इस के इलावा उस का लहजा इतना ही दबा हुआ था जितना सुर्ख़ गर्म किए हूए लोहे का, जिसे हथौड़े से कूटा जा रहा है।

उस वक़्त तो वो चुड़ैल नज़र नहीं आ रही थी, लेकिन जब उस ने मेकअप किया होगा तो ज़रूर चुड़ैल दिखाई देती होगी।

मेरे सवाल का जवाब उस ने फ़ौरन ही न दिया....... टाट की चारपाई से उठ कर वो मेरे मेज़ पर बैठ गई और कहने लगी। “मैं ने उस को झिनजोड़ दिया....... जंगली बिल्ली की तरह मैं इस के साथ चिमट गई। उस ने मेरा मुँह नोचा, मैं ने इस का....... बहुत देर तक हम दोनों एक दूसरे के साथ कुश्ती लड़ते रहे। ओह....... उस में बला की ताक़त थी....... लेकिन....... लेकिन....... जैसा कि मैं तुम से एक बार कह चुकी हूँ....... मैं बहुत ज़बरदस्त औरत हूँ....... मेरी कमज़ोरी....... वो कमज़ोरी जो मलेरिया ने पैदा की थी, मुझे बिलकुल महसूस न हुई। मेरा बदन तप रहा था। मेरी आँखों से चिनगारियां निकल रही थीं....... मेरी हड्डियां सख़्त हो रही थीं। मैं ने उसे पकड़ लिया। मैं ने उस से बिल्लियों की तरह लड़ना शुरू किया....... मुझे मालूम नहीं क्यों....... मुझे पता नहीं किस लिए ....... बे-सोचे समझे मैं उस से भिड़ गई ....... हम दोनों ने कोई भी ऐसी बात ज़बान से न निकाली जिस का मतलब कोई दूसरा समझ सके....... मैं चीख़ती रही....... वो सिर्फ़ हूँ हूँ करता रहा....... इस के सफ़ेद खादी के कुरते की कई बूटीयां मैं ने इन उंगलियों से नोचीं....... उस ने मेरे बाल, मेरी कई लटें जड़ से निकाल डालीं....... उस ने अपनी सारी ताक़त सर्फ़ कर दी। मगर मैं ने तहय्या कर लिया था कि फ़तह मेरी होगी....... चुनांचे वो क़ालीन पर मुरदे की तरह लेटा था....... और मैं इस क़दर हांप रही थी कि ऐसा लगता था कि मेरा सांस एक दम रुक जाएगा....... इतना हाँपते हुए भी मैं ने इस के कुरते को चिन्दी चिन्दी कर दिया। उस वक़्त मैं ने इस का चौड़ा चकला सीना देखा तो मुझे मालूम हुआ कि वो बकवास क्या थी....... वही बकवास जिस के मुतअल्लिक़ हम दोनों सोचते थे और कुछ समझ नहीं सकते थे....... ” ये कह कर वो तेज़ी से उठ खड़ी हुई और अपने बिखरे हुए बालों को सर की जुंबिश से एक तरफ़ हटाते हुए कहने लगी। “सादिक़....... कमबख़्त का जिस्म वाक़ई ख़ूबसूरत है....... जाने मुझे क्या हुआ। एक दम मैं उस पर झुकी और उसे काटना शुरू कर दिया....... वो सी सी करता रहा....... लेकिन जब मैं ने उस के होंटों से अपने लहू भरे होंट पैवस्त किए और उसे एक ख़तरनाक जलता हुआ बोसा दिया तो वो अंजाम रसीदा औरत की तरह ठंडा हो गया मैं उठ खड़ी हूई....... मुझे उस से एक दम नफ़रत पैदा हो गई....... मैं ने पूरे ग़ौर से उस की तरफ़ नीचे देखा....... इस के ख़ूबसूरत बदन पर मेरे लहू और लिप स्टिक की सुर्ख़ी ने बहुत ही बद-नुमा बेल बूटे बना दिए थे....... मैं ने अपने कमरे की तरफ़ देखा तो हर चीज़ मस्नूई नज़र आई। चुनांचे मैं ने जल्दी से दरवाज़ा खोला कि शायद मेरा दम घुट जाये और सीधी तुम्हारी पास चली आई।”

ये कह वो ख़ामोश हो गई....... मुर्दे की तरह ख़ामोश। मैं डर गया उस का एक हाथ जो चारपाई से नीचे लटक रहा था, मैं ने छुवा....... आग की तरह गर्म था।

“नीलम.......नीलम....... ”

मैं ने कई दफ़ा उसे ज़ोर ज़ोर से पुकारा मगर उस ने कोई जवाब न दिया। आख़िर जब मैं ने बहुत ज़ोर से ख़ौफ़ज़दा आवाज़ में नीलम कहा तो वो चौंकी, और उठ कर जाते हूए उस ने सिर्फ़ इस क़दर कहा। “सआदत मेरा नाम राधा है!”