मेरा हमसफ़र
प्लेटफार्म पर शहाब, सईद और अब्बास ने एक शोर मचा रखा था। ये सब दोस्त मुझे स्टेशन पर छोड़ने के लिए आए थे, गाड़ी प्लेटफार्म को छोड़ कर आहिस्ता आहिस्ता चल रही थी कि शहाब ने बढ़ कर पाएदान पर चढ़ते हुए मुझ से कहा:
“अब्बास कहता है कि घर जा कर अपनी “उन” की ख़िदमत में सलाम ज़रूर कहना।”
“वो तो पागल है..... अच्छा ख़ुदा-हाफ़िज़।” मैंने उन अलीगी दोस्तों से पीछा छुड़ाते हुए ये अलफ़ाज़ जल्दी में अदा किए और शहाब से हाथ मिला कर दरवाज़े बंद करने के बाद अपनी सीट पर बैठ गया।
अलीगढ़ और उस की हसीन इल्मी फ़िज़ा जिस में मैं इस से कुछ अर्सा पहले सांस ले रहा था, अब मुझ से एक तवील अर्सा के लिए दूर हो रही थी। मेरा दिल सख़्त मग़्मूम था। शहाब अगरचे कॉलिज में बहुत तन्ग करता था मगर उस से जुदा होने का मुझे अब एहसास हुआ, जब मैंने दफ़अतन ख़याल किया कि अमृतसर में मुझे इस ऐसा दिलचस्प दोस्त मयस्सर न आ सकेगा। इसी ख़याल के ग़म अफ़्ज़ा असर के तहत मैंने सर को जुंबिश देते हुए और इस अमल से गोया अपने ज़ेहन से इस तारीकी को झटकते हूए जेब में से सिगरेट की डिबिया निकाली और उस में से एक सिगरेट निकाल कर उस को सुलगाया और इत्मिनान से नशिस्त पर ठिकाने से बैठ कर अपने सामान का जायज़ा लिया और फिर अपने साथी की तरफ़ जो सीट के आख़िरी हिस्से पर बैठा था, पीठ कर के सिगरेट से धूएँ के छल्ले बनाने की बेसूद कोशिश में मसरूफ़ हो गया।
मैं बिलकुल ख़ालीउज़्ज़ेहन था। मालूम नहीं क्यों? सिगरेट का धुआँ जिस को मैं अपने मुँह से छल्लों की सूरत में निकालने की कोशिश करता था। हवा के तुंद झोंकों की ताब न ला कर खिड़की के रास्ते किसी थिरकती हुई रक़्क़ासा की तरह तड़प कर बाहर निकल रहा था। मैं बहुत अर्सा तक सिगरेट के इस लर्ज़ां धूएँ को बड़े ग़ौर से देखता रहा......... ये रक़्स की एक तकमील थी।
“रक़्स की तकमील।” ये अल्फ़ाज़ दफ़अतन मेरे दिमाग़ में पैदा हूए और मैं अपने इस अछूते ख़याल पर बहुत मसरूर हुआ।
“क्या मैं पागल हूँ?”
गाड़ी प्लेटफार्म को छोड़ कर खुले मैदानों में दौड़ रही थी। आहनी पटरियों का बिछा हुआ जाल बहुत पीछे रह गया था। पथरीली रविश के आस पास उगे हूए दरख़्त एक दूसरे का तआक़ुब करते मालूम होते थे। मैं रक़्स की तकमील और इन दरख़्तों की भाग दौड़ का मुशाहिदा कररहा था कि इन हैरान-कुन अल्फ़ाज़ ने मुझे चौंका दिया जो ग़ालिबन मेरे इस हम-सफ़र ने अदा किए थे जो सीट के आख़िरी हिस्से पर कोने में बैठा था। उस ने यक़ीनन ये अजीब सवाल मुझ से ही पूछा था।
“क्या आप मुझ से दरयाफ़्त फ़र्मा रहे हैं?”
“जी हाँ, क्या मैं पागल हूँ?” उस ने एक बार फिर मुझ से दरयाफ़्त किया।
ट्रेन की रवानगी पर जब मैंने शहाब से ये कहा था। “वो तो पागल है। अच्छा ख़ुदा-हाफ़िज़।” तो शायद इस शरीफ़ आदमी ने ये ख़याल कर लिया था कि मैंने उसी को पागल कहा है.... मैं खिलखिला कर हंस पड़ा और निहायत मोअद्दबाना लहजा में कहा:।
“आप को ग़लत-फ़हमी हूई है हज़रत, गाड़ी चलते वक़्त शायद मैंने अपने किसी दोस्त को पागल के नाम से पुकारा था......... वो तो है ही पागल। मैं माफ़ी चाहता हूँ कि आपको ख़्वाह-मख़्वाह तकलीफ़ हूई।”
ये माक़ूल दलील सुन कर मेरा हम-सफ़र जो ग़ालिबन कुछ और कहने के लिए ज़रा आगे सरक रहा था ख़ामोश हो गया। ये देख कर मुझे एक गूना इत्मिनान हुआ कि मुआमला नहीं बढ़ा। इत्तिफ़ाक़ से मेरी तबीयत कुछ इस क़िस्म की वाक़्य हुई है कि उमूमन निकम्मी से निकम्मी बातों पर तैश आ जाया करता है। चूँकि इस से क़ब्ल कई मर्तबा दौरान-ए-सफ़र में मेरा मुसाफ़िरों से झगड़ा हो चुका था। और मैं इस के तल्ख़ नताइज से अच्छी तरह वाक़िफ़ था इस लिए लाज़िमी तौर पर मैं इस मुआमला को इतनी जल्दी बख़ैर-ओ-ख़ूबी अंजाम पाते देख कर बहुत ख़ुश हुआ। चुनांचे मैंने उस मुसाफ़िर से ख़ुश-गवार तअल्लुक़ात पैदा करने के लिए उस से ऐसे ही गुफ़्तुगू शुरू की......... रस्मी गुफ़्तुगू जो आम तौर पर गाड़ियों में मुसाफ़िरों के साथ की जाती है।
“आप कहाँ तशरीफ़ ले जा रहे हैं? ” मैंने उस से दरयाफ़्त किया।
“मैं......... ” ये कहते हुए वो कोने से सरकता हुआ उठ कर मेरे मुक़ाबला वाली सीट पर बैठ गया। “मैं दिल्ली जा रहा हूँ......... आप कहाँ उतरेंगे?”
“मुझे काफ़ी तवील सफ़र करना है......... अमृतसर जा रहा हूँ।”
“अमृतसर......... ”
“जी हाँ।”
“मुझे ये शहर देखने का कई मर्तबा इत्तिफ़ाक़ हुआ है। अच्छी बारौनक जगह है। कपड़े की तिजारत का मर्कज़ है। क्या आप वहां कॉलिज में पढ़ते हैं?”
“जी हाँ।” मैंने झूट बोलते हुए कहा। क्योंकि इसका सवाल मेरे नज़दीक बहुत ग़ैर दिलचस्प था, इस के इलावा मुझे अंदेशा था कि अगर मैंने अपने हम-सफ़र से ये कहा होता कि मैं अलीगढ़ की यूनीवर्सिटी में पढ़ता हूँ तो वो कॉलिज की दिलचस्पियों, उसकी इमारत और उसके ख़ुदा मालूम किन किन हिस्सों और शोबों के मुतअल्लिक़ मुझ पर सवालात की बौछार शुरू कर देता। इस से क़ब्ल मेरे साथ इस क़िस्म का वाक़िया पेश आ चुका था। जब मेरे एक रफ़ीक़-ए-सफ़र ने सवाल पूछे पूछे रात की नींद मुझ पर हराम कर दी थी।
“कौन से कॉलिज में......... मेरे ख़याल में वहां कई कॉलिज हैं।” उस ने मुझ से दरयाफ़्त किया।
मैंने झट से जवाब दिया। “ख़ालिसा कॉलिज में।”
“अच्छा, वही जो एंडरसन ने तामीर कराया है।”
“अंडर सिंह ने, मगर वो सिखों का कॉलिज है हज़रत।” मैंने हैरान होते हुए कहा।
“मुझे मालूम है मिस्टर, ये एंडरसन सिख हो गया था ना......... आप ने ग़ालिबन सिख हिस्ट्री का मुताला नहीं किया।”
“शायद।”
ये कह मैंने गुफ़्तुगू को दिलचस्प न पाते हुए मुँह मोड़ लिया और खिड़की से बाहर की तरफ़ देखना शुरू कर दिया। गाड़ी अब यू पी के वसी मैदानों में दनदनाती हूई चली जा रही थी। लोहे के पहियों की वज़नी झनकार और चोबी शहतीरों की खट खट फ़िज़ा में एक अजीब यक-आहंग शोर बरपा कर रही थी। इस शोर की सदा-ए-बाज़गश्त ने आस पास के दौड़ते हूए खंबों और दरख़्तों से टकरा कर शाम की ख़ुनक हवा में एक इर्तिआश पैदा कर दिया था। मैंने ऐसे ही खिड़की में से अपना बाज़ू बाहर निकाला। मुँह ज़ोर गाड़ी की तेज़ रफ़्तार की वजह से हवा के ज़बरदस्त धक्के ने मेरे बाज़ू को रेला दे कर पीछे दबा दिया......... मैंने ठंडी हवा के इस दबाओ को बहुत प्यारा महसूस किया। चुनांचे में खेल में मसरूफ़ हो गया और अपने हम-सफ़र और उस की गुफ़्तुगू को बिलकुल भूल गया। हवा के दबाओ की दिल-नवाज़ी बहुत मसरूर-कुन थी।
थोड़ी देर के बाद मैं अपने इस खेल से उकता गया। दर-अस्ल बार बार हवा को चीरने से मेरा बाज़ू दुख गया था। अब मैंने मुड़ कर मैदानों की वुसअत का नज़ारा करना शुरू कर दिया। डूबते हुए सूरज की सुर्ख़.... आतिशीं सुर्ख़ किरणें मैदान के गढ़ों में बारिश के जमा शूदा पानियों पर ज़रनिगारी का काम कर रही थीं। ऐसा मालूम होता था कि ख़ाकिस्तरी ज़मीन के सीने पर किसी ने बड़े बड़े आईने आवेज़ां कर दिए हैं। बिजली के तारों और खंबों पर नील कंठ और अबाबीलें फुदक रही थीं। ये मंज़र बहुत सुहाना था।
“क्या मैं पागल हूँ?”
इन अल्फ़ाज़ ने एक बार फ़िर इन रंगों को मुंतशिर कर दिया जो मेरे दिल-ओ-दिमाग़ पर एक निहायत ही प्यारी तस्वीर खींच रहे थे। मैं चौंक पड़ा। मेरे इसी हम-सफ़र ने मुझ से ये सवाल दरयाफ़्त किया था। मैं मुड़ा। वो मेरी तरफ़ मुसतफ़्सिराना निगाहों से देख रहा था। ये ख़याल करते हुए कि शायद मेरे कानों को धोका हुआ है मैंने उस से कहा।
क्या इरशाद फ़रमाया आप ने?”
वो एक लम्हा ख़ामोश रहा और फिर अपने सर को झकटते हुए कहा......... “कुछ भी नहीं, शायद आप न बता सकेंगे!”
अब मैंने ग़ौर से उस की तरफ़ देखा। उस की उम्र ग़ालिबन बीस बाईस बरस के क़रीब होगी। दाढ़ी कमाल सफ़ाई से मूंडी हुई थी। उस के गाल गोश्त से भरे हुए थे, उन की मोटाई में बहुत ख़फ़ीफ़ सा फ़र्क़ था, जो सिर्फ़ मुझ ऐसा बारीक-बीं ही देख सकता है। बाल जिन में से किसी अच्छे और बढ़िया तेल की ख़ुशबू आ रही थी, पीछे की तरफ़ कंघी किए गए थे जिस से उस की पेशानी बहुत कुशादा होगई थी। वो मामूली क़िस्म के कश्मीरे का कोट पहने हुए था। कलफ़ शुदा कालर क़मीज़ के साथ लगा हुआ था मगर टाई मौजूद ना थी......... ये मुझे अच्छी तरह याद है।
मैं अभी कुछ कहने ही वाला था कि वो फिर बोला:
“मैं आप से कुछ दरयाफ़्त करना चाहता हूँ।”
मैं उस के राज़-दाराना लहजा से बहुत मुतहय्यर हुआ। आख़िर वो मुझ से किया दरयाफ़्त करना चाहता है? ये ख़याल करते हुए मैंने झुक कर गोया इस के सवाल का जवाब देने के लिए तैय्यार हो कर कहा। “बसद शौक़......... फ़रमाईए।”
“क्या मैं पागल हूँ।”
मेरी हैरत और भी बढ़ गई। मैं समझ न सका कि जवाब क्या दूं। आप ही फ़रमाईए मैं उस शख़्स को क्या जवाब दे सकता था जो बज़ाहिर निहायत ही होशमंद इंसान मालूम होता था......... बिलकुल मेरी और आपकी तरह।
“आप आप?......... ” मैंने तुतलाते हुए कहा।
“हाँ, हाँ मैं। आप फ़रमाईए ना” उस ने बड़ी संजीदगी से मुझ से दरयाफ़्त किया।
“मगर क्यों? आप बड़े होशमंद इंसान हैं....!”
“आप अपनी राय मुरत्तब करने में जल्दी से काम ना लीजिए, फिर ग़ौर फ़र्मा कर जवाब दीजिए, क्या मैं वाक़ई पागल हूँ।”
इस में ग़ौर करने की बात ही कोई न थी। लेकिन फिर भी मैंने अपने हम-सफ़र के चेहरे की तरफ़ ग़ौर से देखना शुरू किया। दर-अस्ल मैं दो चीज़ें मालूम करना चाहता था। अव्वलन ये कि कहीं वो मुझ से मज़ाक़ तो नहीं कर रहा। सानियन ये कि शायद उस के चेहरे का उतार चढ़ाओ ज़ाहिर कर दे कि वो सचमुच पागल ही है। मैंने अपने एक दोस्त से सुना था कि आम तौर पर पागलों की आँखों में सुर्ख़ डोरे उभरे होते हैं। मगर वो आँखें जो मेरी तरफ़ देख रही थीं, ग़ैर-मामूली तौर पर सफ़ेद थीं। ऐसा मालूम होता था कि वो सफ़ेद चीनी की बनी हुई हैं। मैं कुछ मालूम न कर सका।
“आप को किसी ने बहुत ग़लत तौर पर शक में डाल दिया है।” ये कहते हुए मैंने ख़याल किया कि शायद किसी डाक्टर ने उस को वह्म में डाल दिया है। क्योंकि मुझे अच्छी तरह मालूम था कि आजकल के सस्ते और जाहिल डाक्टर बग़ैर सोचे समझे नब्ज़ पर हाथ रख कर किसी को दीवाना किसी को मदक़ूक़ और किसी को ज़ाफ़-ए-आसाब का मरीज़ ठहरा देते हैं।
“मेरा भी यही ख़याल है......... मगर आप को क़तई तौर पर यक़ीन है कि मैं वाक़ई पागल नहीं हूँ।” उस ने कहा।
क़तई तौर पर......... जिस शख़्स ने आप को इस वह्म में मुब्तला किया है। मेरे ख़याल में वो ख़ुद पागल है।”
“ख़ैर वो तो पागल नहीं, अच्छा भला है।”
“वो कौन बुज़ुर्ग हैं?”
“मेरा अपना बाप।”
“आप का बाप।”
“जी हाँ......... वो कहता है कि मैं पागल हूँ, हालाँकि मैं ख़ुद इस क़िस्म की कोई अलामत नहीं पाता। आज से एक साल क़ब्ल उस की नज़रों में मैं पागल ना था। लेकिन जूंही मेरी शादी हुई मेरे बाप ने ये कहना शुरू कर दिया कि मोहन दीवाना है। चुनांचे उस का ये नतीजा हुआ कि ससुराल वालों ने डर के मारे अपनी लड़की को घर बुलवा लिया। अब वो उस को मेरे हवाले नहीं करते। ये किस क़दर रंज-अफ़्ज़ा बात है कि मुझे अपनी बीवी के साथ दस पंद्रह दिन भी बसर करने मयस्सर नहीं हूए।”
ये कहते हूए उस के चेहरे से मालूम होता था कि वाक़िअतन वो बहुत मग़्मूम है। मैं भी बहुत मुतअस्सिर हुआ। लेकिन मुझे ये मालूम न हो सका कि उस के बाप ने उसे ख़्वाह-मख़्वाह पागल बना कर उस की ज़िंदगी क्यों तल्ख़ कर दी है।
“मगर आप के वालिद साहब ने ये हरकत क्यों की?” मैंने उस की दास्तान में गहरी दिलचस्पी लेते हुए कहा।
“मिस्टर, वो यहूदी है......... पक्का यहूदी। उस को सिर्फ़ अपने तलाई सिक्कों से ग़र्ज़ है और बस। मैं उस के ख़ून का एक हिस्सा हूँ मगर ये चीज़ उस के दिल पर असर नहीं कर सकती है। अगर उस ने मुझे पागल बनाया है तो इस में भी कोई बड़ा राज़ मुज़मिर है। वो इस क़दर नफ़्स परस्त है कि मरने के बाद भी वो ये नहीं चाहता कि उस की जायदाद इस के अपने लड़के के हाथों में चली जाये। दीखईए, मैंने तीन साल हुए बी.ए पास किया है, ये अलाहिदा बात है कि मैं कोई नौकरी हासिल नहीं कर सका हूँ मगर मेरे बाप को ये तो चाहिए कि वो मुझे अच्छा ख़र्च दे।”
“यक़ीनन।” मैंने पुर-ज़ोर ताईद की।
“लेकिन वो मुझे सिर्फ़ पाँच रुपय माहवार देता है......... हक़ीक़त तो ये है कि इस ने मेरे शबाब की तमाम रंगीनियों पर अपनी हवस-परस्तियों की स्याही उलट दी है। मैं आगरा में पड़ा हूँ, मेरी बीवी दिल्ली में है। मेरे इस यहूदी बाप ने मेरे और इस के दरमयान एक ख़लीज हाइल कर दी है। मैं उस से बेहद मोहब्बत करता हूँ। वो ख़ूबसूरत और पढ़ी लिखी है, मगर वो मजबूर है......... हो सकता है कि वो भी मुझे पागल समझती हो। अब मैं इस का फ़ैसला कर देना चाहता हूँ, मैंने अपनी तीन पतलूनें और तीन कोट बेच दिए हैं। अब मैं दिल्ली जा रहा हूँ। देखा जाएगा जो होगा।”
“आप अपनी बीवी के पास जा रहे हैं।” मैंने उस से दरयाफ़्त किया।
“जी हाँ। मैं घर में बग़ैर इजाज़त लिए दाख़िल हो जाऊंगा और वहां से अपनी बीवी को लिए बग़ैर हर्गिज़ हर्गिज़ ना टलूंगा। अगर मैं पागल हूँ, तो हूँ......... मगर मुझे यक़ीन है कि सूशीला (ये कहते हुए ज़रा सा झेंप गया) मेरे साथ चलने को तैय्यार होगी। मैंने इस के लिए नुमाइश में से एक ऊनी सोइटर ख़रीदा है। वो उस को यक़ीनन पसंद करेगी। क्या आप इसे देखना पसंद फ़रमाएंगे?”
“अगर आप को ट्रंक वग़ैरा खोलने की ज़हमत न उठाना पड़े।” मैंने जवाब दिया।
“नहीं साहब, ये तो मैंने क़मीज़ के अंदर ख़ुद पहन रखा है।” ये कह कर वो उठा और कोट उतार दिया। फिर क़मीज़ को पतलून की गिरिफ़्त से आज़ाद कर के उस ने उसे भी उतार दिया.... वो वाक़ई एक रंग बिरंगी फ़ीतों वाला ज़नाना सोइटर पहने हुए था।
“क्या आप को पसंद है?......... ये मैंने इस लिए पहन रखा है कि अगर सूशीला ने इस को लेने से इनकार कर दिया तो मैं इसे पहने ही रहूँगा।”
इस ज़नाना सोइटर में वो किस क़दर अजीब मालूम होता था।