Nadi ki ungliyo ke nishaan - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

नदी की उँगलियों के निशान - 2

नदी के उँगलियों के निशान

भाग - 2

कुसुम भट्ट

भुवन चाचा के चेहरे पर धूप की तितली बैठी, माधुरी हवा में उड़ी उसके पंख पकड़ कर मैं भी उड़ने लगी....

उस विजन में हम दो लड़कियाँ जिंदगी की नौवीं-दसवीं सीढी पर पांव रखती प्रकृति की भव्यता से अभीभूत! रेत में नहा रही कत्थई रंग की चिड़िया हमारे पास आकर जल का मोती चुगने लगी, हमारे पांव नदी मंे थे, हम पत्थरों पर बैठी नदी का बहना देख रही थी, सिर्फ नदी का कोलाहल और दूर तक कोई नहीं, माधुरी बोली ‘‘नदी कुछ कह रही है सुन - मैंने उसकी आवाज पर कान रखा’’ नदी बोली ‘‘मछली की तरह उतरो मेरी धारा में....‘‘

पारदर्शी जल में मछलियों का तैरना दिखा, लेकिन हमारे पास तो दूसरी फ्राकें नहीं हैं, नदी बोली ‘‘फ्राके उतार दो कूद जाओ धारा में... किनारे कम पानी था, माधुरी बोली’’ शिवानी पहले रेत में लेटते हैं।

मैंने कहा, ‘‘नहीं पहले मछलियों के साथ तैरते हैं, हमने नदी के एक इशारें पर अपनी फ्राकें उतार दी और पानी में तैरने लगी खूब देर तक हम दोनों मछलियेां की तरह तैरती रही। मछलियाँ हमारी देह पर कुलबुलाती रही, जब ठण्ड लगने लगी तो हम रेत में लेट गईं, धूप ने गरम लिहाफ दिया दो चिड़िया पत्थर पर बैठी ताकने लगी’’ मजा आ रहा है न...? हमने कहा ‘बहुत! फिर हमने एक दूसरे की नंगी देहों पर खूब रेत मलते हुए हम मुक्त हँसी हँसती। एक दूसरे को गुदगुदाते हम नंगे बदन रेत के कछार में दौड़ती रही। हम भूल ही गईं कि हमारे क्रिया कलापो पर किसी की दृष्टि हो सकती है... हम भूल गई कि मगरमच्छ हमारी कोमल किसलय देहों को कच्चा चबाने को आतुर है कहीं ...

हम दो लड़कियाँ अपनी नंगी देह को रेत का बिछौना देती लेट गयी सूरज ने हमें धूप का लिहाफ ओढ़ाया और हँस दिया, कैसा लग रहा....?

‘‘अच्छा बहुत अच्छा!‘‘

पहली बार सूरज ने हमें देखा नंगे बदन, पहली बार नदी ने देखा नंगे बदन पहली बार हमें चिड़ियों ने देखा और वे हवा में उड़ने लगीं, मछलियों ने देखा वे पानी से डबक डबक ऊपर आकर पांवों में कुलबुलाने लगी, घौंघे केकड़े, कीड़े मकोड़े, चीटियाँ सब हमारे साथ उत्सव में शामिल होने लगी।

काफी देर तक हम गुनगुनी रेत से खेलते घरोंदे बनाते एक दूसरे पर रेत-काई मलती रही, फिर याद आया कि वक्त बीत चुका है, हमें वापस जाना चाहिए। हमने अपने शरीर देखे रेत और कीचड़ में सने फिर एक बार और नदी में नहाने की जरूरत पड़ी, तब हमने फ्राकें पहनी! और हँसती खिलखिलाती गुनगुनाती वापस घटवार के रास्ते मुड़ी। ठण्ड में ठिठुरती देह धूप में सुखाई पत्थर पर बैठ कर

माधुरी बोली थी ‘‘शिवानी, कितना मजा आया न....?

‘‘मैंने कहा हाँ आया तो पर कोई जान गया तो .... ?‘‘

‘‘हम किसी से कहेंगे क्यो ? ‘‘उसने कसम दिलवायी मैंने कसम खाई ‘‘माँ की कसम, विद्या माता की कसम!‘‘ उसने फिर धूल झाड़ी मेरे बालों पर रेत के कण चमक रहे थे, उसने एक एक लट को उंगलियों से झाड़ा ‘‘तू समझ दार हो गई शिवानी! वह बोली’’ हम ऐसे ही छुपकर मजे करते रहेंगे... गांव में किसी भी लड़की को कुछ न बतायेंगे।

मैंने हामी भरी माँ तो बेकार ही डरती है कुछ हुआ क्या यहाँ तो बन्दर भी नहीं दिखा। खिल-खिल हँसी विजन में गूंजने लगी, लगा सब हँस रहे हैं हमारे साथ। जंगल, पहाड़, पेड़, सारी कायनात....! मैंने माधुरी से कहा चल अब कोई कविता सुना। उसने कविता सुनाई - यह लघु सरिता का बहता जल कितना निर्मल कितना शीतल।

उसने कहा अब तू भी सुना...

मैं लय में गाने लगी ज्यों निकलकर बादलों की गोद से कि अभी एक बूंद कुछ आगे बढ़ी....

गीत गुनगुनाते हँसते खेलते हम उस मोड़ पर आ गई जहाँ घटवार और दूसरा रास्ता बाजार को जाता था। इस मोड़ से ऊपर पेड़ों का झुरमुट था जिसमें कुछ चीड़ और देवदार के पेड़ थे। रास्ता पगड़डी जैसा जैसे हम मुड़ने को हुए धप्प कूदा वह गुन्डा किस्म का लड़का भुवन चाचा से थोड़ा बड़ा, वह मौत का चेहरा ओढे खड़ा, उसने पूछा ‘‘नदी पर नहा रही थी तुम .... ? हमारी सांस अटकने लगी हमसे कुछ कहते नहीं बना, उसने फिर पूछा’’ कौन से गांव से आई हो ?

मैंने उंगली से इशारा किया पहाड़ी के ऊपर, ऊपर उसके दो साथी खड़े थे, वह अजीब सी दृष्टि से हमें घूरने लगा ‘‘बहुत सुन्दर हो तुम दोनों .... मैं देख रहा था पानी के अन्दर तुम्हारी नंगे शरीर चमक रहे थे ... मछली जैसी मचल रही थी तुम.... ‘‘उसकी आँखें हमारी नन्हीं देहों को कच्चा चबाने को आपुर दिखीं।

वह बीच में खड़ा था, हम इर्द गिर्द से निकल आगे बढ़े उसने फिर टोका ‘‘ए लड़कियों!‘‘

हमारे पांव धरती में गढ़ गये।

‘देखो इधर..… उसने आदेश दिया हमने चेहरा घुमाया’ वह पैन्ट की जिप खोले था, माधुरी ने मेरा हाथ पकड़ा चल भाग शिवानी .... हम दौड़ते रहे... एक जगह कीचड़ में मेरी चप्पल धंस गई, लेकिन हमने पीछे मुड़कर नहीं देखा। बदहवाश भागते हम भुवन चाचा के पास पहुँचे लगा कि अब सुरक्षित हो गये। घटवार की देहरी के भीतर पांव रखते ही देखा, दो लड़कों ने भुवन चाचा को पकड़ा था और वह गुन्डा दियासलाई से भुवन चाचा का गाल जला रहा था, घटवाड़ी नदारद था .....

हम दोनों भागने लगी.....

भागती ही जा रही हैं अब तक.....!!!

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