मूत्री
कांग्रस हाऊस और जिन्नाह हाल से थोड़े ही फ़ासले पर एक पेशाब गाह है जिसे बंबई में “मूत्री” कहते हैं। आस पास के महलों की सारी ग़लाज़त इस तअफ़्फ़ुन भरी कोठड़ी के बाहर ढेरियों की सूरत में पड़ी रहती है। इस क़दर बद-बू होती है कि आदमियों को नाक पर रूमाल रख कर बाज़ार से गुज़रना पड़ता है।
इस मूत्री में दफ़ा उसे मजबूरन जाना पड़ा...... पेशाब करने के लिए नाक पर रूमाल रख कर, सांस बंद कर के, वो बद-बूओं के इस मस्कन में दाख़िल हुआ फ़र्श पर ग़लाज़त बुलबुले बन कर फट रही थी..... दीवारों पर आज़ा-ए-तनासुल की मुहीब तस्वीरें बनी थीं.... सामने कोइले के साथ किसी ने ये अल्फ़ाज़ लिखे हुए थे:
“मुस्लमानों की बहन का पाकिस्तान मारा”
इन अल्फ़ाज़ ने बद-बू की शिद्दत और भी ज़्यादा कर दी। वो जल्दी जल्दी बाहर निकल आया।
जिन्नाह हाल और कांग्रस हाऊस दोनों पर गर्वनमैंट का क़बज़ा है। लेकिन थोड़े ही फ़ासले पर जो मूत्री है, इसी तरह आज़ाद है।
अपनी ग़लाज़तें और उफ़ूनतें फैलाने के लिए........ आस पास के महलों का कूड़ा करकट अब कुछ ज़्यादा ही ढेरियों की सूरत में बाहर पड़ा दिखाई देता है।
एक बार फिर उसे मजबूरन इस मूत्री में जाना पड़ा। ज़ाहिर है कि पेशाब करने के लिए। नाक पर रूमाल रख कर और सांस बंद कर के वो बद-बूओं के इस घर में दाख़िल हुआ........फ़र्श पर पतले पाख़ाने की पपड़ियां जम रही थीं। दीवारों पर इंसान के औलाद पैदा करने वाले आज़ा की तादाद में इज़ाफ़ा हो गया था........
“मुस्लमान की बहन का पाकिस्तान मारा” के नीचे किसी ने मोटी पैंसिल से ये घिनौनी अल्फ़ाज़ तहरीर किए हुए थे।
“हिंदुओं की माँ का अखंड हिंदूस्तान मारा”
इस तहरीर ने मूत्री की बद-बू में एक तेज़ाबी कैफ़ियत पैदा कर दी........ वो जल्दी जल्दी बाहर निकल आया।
महात्मा गांधी की ग़ैर मशरूत रिहाई हुई। जिन्नाह को पंजाब में शिकस्त हुई। जिन्नाह हाल और कांग्रस हाऊस दोनों को शिकस्त हुई न रिहाई। उन पर गर्वनमैंट का और उस के थोड़े ही फ़ासले पर जो मूत्री है उस पर बद-बू का क़ब्ज़ा जारी रहा........ आस पास के महलों का कूड़ा करकट अब एक ढेर की सूरत में बाहर पड़ा रहता है।
तीसरी बार फिर उसे इस मूत्री में जाना पड़ा........पेशाब करने के लिए नहीं........ नाक पर रूमाल रख कर और सांस बंद कर के वो ग़लाज़तों की इस कोठड़ी में दाख़िल हुआ........ फ़र्श पर कीड़े चल रहे थे। दीवारों पर इंसान के शर्म-नाक हिस्सों की नक़्क़ाशी करने के लिए अब कोई जगह बाक़ी नहीं रही थी........ “मुस्लमानों की बहन का पाकिस्तान मारा” और “हिंदूओं की माँ का अखंड हिंदूस्तान मारा” के अल्फ़ाज़ मद्धम पड़ गए थे। मगर उन के नीचे सफ़ैद चाक से लिखे हुए ये अल्फ़ाज़ उभर रहे थे।
“दोनों की माँ का हिंदूस्तान मारा”
इन अल्फ़ाज़ ने एक लहज़े के लिए मूत्री की बद-बू ग़ायब कर दी........ वो जब आहिस्ता आहिस्ता बाहर निकला तो उसे यूं लगा कि उसे बद-बूओं के इस घर में एक बे-नाम सी महक आई थी। सिर्फ़ एक लहज़े के लिए।
(सन्न-ए-तस्नीफ़ 1945-ई-)