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इफ़्शा-ए-राज़

इफ़्शा-ए-राज़

“मेरी लगदी किसे न वेखी तय टटदी नों जग जांदा”

“ये आप ने गाना क्यों शुरू कर दिया है”

“हर आदमी गाता और रोता है कौनसा गुनाह किया है?”

“कल आप ग़ुसल-ख़ाने में भी यही गीत गा रहे थे”

“ग़ुसल-ख़ाने में तो हर शरीफ़ आदमी अपनी इस्तिताअत के मुताबिक़ गाता है इस लिए कि वहां कोई सुनने वाला नहीं होता मेरा ख़याल है तुम्हें मेरी आवाज़ पसंद नहीं आती”

“आप की आवाज़ तो माशा अल्लाह बड़ी अच्छी है”

“मुझे बना रही हो मुझे इस का इल्म है कि मैं कुन सुरा हूँ मेरी आवाज़ में कोई कशिश नहीं कोई भी इसे फटे बांस की आवाज़ कह सकता है”

“मुझे तो आप की आवाज़ बड़ी सुरीली मालूम होती है बाक़ी अल्लाह बेहतर जानता है लेकिन मैं पूछती हूँ हर वक़्त ये पंजाबी बोली विरद-ए-ज़बान क्यों रहती है”

“मुझे अच्छी लगती है बेगम तुम को अगर अदब और शेअर से ज़रा सा भी शग़फ़ हो ”

“ये शग़फ़ क्या बला है आप हमेशा ऐसे अल्फ़ाज़ में गुफ़्तुगू करते हैं जिसे कोई समझ ही नहीं सकता।”

“शग़फ़ का मतलब बस तुम ये समझ लो कि इस का मतलब लगाओ है”

“मुझे शायरी से लगाओ क्यों हो ऐसी वाहियात चीज़ है”

“यानी शायरी भी इक चीज़ हो गई ये तुम्हारी बड़ी ज़्यादती है फ़ुर्सत के लम्हात में अपने अंदर ज़ौक़ पैदा किया करो”

“छः बच्चे पैदा कर चुकी हूँ अब मैं और कोई चीज़ पैदा नहीं कर सकती”

“मैंने तुम से कई मर्तबा कहा कि मुआमला ख़त्म होना चाहिए पर तुम ही नहीं मानीं छः बच्चे पैदा कर के तुम थक गई हो तुम्हारे पड़ोस में मिसिज़ क़य्यूम रहती हैं उस के ग्यारह बच्चे हैं”

“इस का मतलब है कि मैं भी ग्यारह ही पैदा करूं”

“मैंने ये कब कहा है मैं तो एक का भी क़ाइल नहीं था।”

“मैं अच्छी तरह जानती हूँ जब मेरे बच्चा न होता तो आप इसी बहाने से दूसरी शादी कर लेते”

“मैं तो एक ही शादी से भर पाया हूँ तुम सारी ज़िंदगी के लिए काफ़ी हो मैं दूसरी शादी के मुतअल्लिक़ सोच ही नहीं सकता”

“और ये पंजाबी बोली किस लिए गाई जा रही थी”

“भई मैं कह चुका हूँ कि मुझे ये पसंद है तुम्हें ना-पसंद हो तो मैं क्या कह सकता हूँ मेरी लगदी किसे न वेखी तय टटदी नों जग जांदा”

“इस बोली में आप को क्या लज़्ज़त महसूस होती है”

“मैं इस के मुतअल्लिक़ वसूक़ से कुछ नहीं कह सकता”

“आप ने अब तक कोई बात वक़ूस से नहीं कही”

“वक़ूस नहीं वसूक़ यानी यक़ीन के साथ”

“आप ने अभी तक कोई बात ऐसी नहीं की जिस में यक़ीन पाया जाता हो”

“लो आज ये नई बात सुनी मेरी बातों पर आप को यक़ीन क्यों नहीं आता।”

“मर्दों की बातों का एतबार ही क्या है?”

“औरतों की बातों का एतबार ही क्या घड़ी में तोला घड़ी में माशा आप ही फाड़ती हैं आप ही रफू करती हैं समझ में नहीं आता ये आज की ब्रहमी किस बात पर है।”

“आप ऐसे वाहियात गीत गाते रहें और मैं चुप रहूं अब से दूर क़ुरआन दरमयान आप ने हमेशा मुझ से बे-एतिनाई की मेरी समझ में नहीं आता कि आप को ग़ज़लों और गीतों से इतनी दिलचस्पी क्यों है अभी पिछले दिनों आप मुसलसल ये शेअर गुनगुनाते रहे:

सुना है मह जबीनों को भी कुछ कुछ

मुरव्वत के क़रीने आ रहे हैं

मुझे इस पर सख़्त एतराज़ है कोई शरीफ़ आदमी ऐसे शेअर नहीं गाता आप:

तेरी ज़ात है अकबरी सरवरी

मेरी बार क्यों देर इतनी करी

नहीं गाते”

“लाहौल वला तुम भी कैसी ऊटपटांग बातें करती हो”

“ये बातें गोया आप के नज़दीक ऊटपटांग हैं? इस लिए कि पाकीज़ा हैं?”

“दुनिया में हर चीज़ पाकीज़ा है”

“आप भी?”

“मैं तो हमेशा साफ़ सुथरा रहता हूँ तुम ने कई मर्तबा इस की तारीफ़ की है दिन में दो मर्तबा कपड़े बदलता हूँ सख़्त सर्दी भी हो ग़ुसल करता हूँ तुम तो तीन चार दिन छोड़ के नहाती हो तुम्हें पानी से नफ़रत है”

“अजी वाह मैं तो हर हफ़्ते बाक़ायदा नहाती हूँ”

“हर हफ़्ते का नहाना तो सफ़ैद झूट है क़ुरआन की क़सम खा के बताओ तुम्हें नहाए हुए कितने दिन हो गए हैं”

“मैं क़ुरआन की क़सम खाने के लिए तैय्यार नहीं आप बताईए कब ग़ुसल किया था”

“आज सुबह”

“झूट आप का अव्वल झूट, आख़िर झूट आज सुबह तो नल में पानी ही नहीं था मैंने साढ़े नौ बजे के क़रीब दो मशकें मंगवाई थीं”

“मैं भूल गया वाक़ई आज मैंने ग़ुसल नहीं क्या”

“आप को भूल जाने का मर्ज़ है”

“भूलना इंसान की फ़ित्रत है इस पर तुम्हें एतराज़ करने का कोई हक़ नहीं चंद रोज़ हुए तुम दस का नोट कहीं रख के भूल गई थीं और मुझ पर इल्ज़ाम लगाया कि मैंने चोरी कर लिया है ये कितनी बड़ी ज़्यादती थी”

“जैसे आप ने मेरे रुपय कभी नहीं चुराए पिछले महीने मेरी अलमारी से आप ने सौ रुपय निकाले और ग़ायब कर गए”

“हो सकता है वो किसी और ने चुराए हों अगर तुम्हें मुझ पर शक था तो बता दिया होता ये भी मुम्किन है कि तुम ने वो सौ रुपय का नोट किसी महफ़ूज़ जगह रखा हो और बाद में भूल गई हो कई मर्तबा ऐसा हुआ है ”

“कब?”

“पिछले साल इसी महीने तुम ने पाँच सौ रुपय के नोट अपने पलंग के बिस्तर के नीचे छुपा रक्खे थे और तुम उन के मुतअल्लिक़ बिलकुल भूल गई थीं मुझ पर ये इल्ज़ाम लगाया गया था कि मैंने चुराए हैं आख़िर मैंने ही तलाश कर के निकाले और तुम्हारे हवाले कर दिए”

“क्या पता है कि आप ने चुराए हूँ और बाद में मेरे शोर मचाने पर अपनी जेब से निकाल कर बिस्तर के नीचे रख दिए हूँ।”

“मेरी समझ में तुम्हारी ये मंतिक़ नहीं आती”

“आप की समझ में तो कोई चीज़ भी नहीं आती कल मैंने आप से कहा था कि दही खाना आप के लिए मुफ़ीद है, लेकिन आप ने मुझे एक लक्चर पिला दिया कि दही फ़ुज़ूल चीज़ है”

“दही तो मैं हर रोज़ खाता हूँ”

“कितना खाते हैं”

“यही, कोई आध सेर”

“मैं हर रोज़ सेर मंगवाती हूँ बाक़ी पड़ा झक मारता रहता है”

“दही को झक मारने की क्या ज़रूरत है जो बच जाता है उस की तुम कढ़ी बना लेती हो”

“मैं दही के बारे में कोई बात नहीं करना चाहती कढ़ी बनाती हूँ तो ये इस बात का सबूत है कि मैं सलीक़ा शिआर औरत हूँ मैंने आप से सिर्फ़ इतना पूछा था कि आप आजकल एक ख़ास पंजाबी बोली क्यों हर वक़्त गाते रहते हैं।”

“इस लिए कि मुझे पसंद है”

“क्यों पसंद है? इस की वजह भी तो होनी चाहिए”

“तुम्हें काला रंग क्यों पसंद है उस की वजह बताओ। तुम्हें भिंडियां मर्ग़ूब हैं क्यों?”

“तुम्हें सिनेमा देखने का शौक़ है। इस का जवाज़ पेश करो तुम लट्ठे की बजाय रेशम की शलवारें पहनती हो उस की क्या वजह है?”

“आप को कोई हक़ हासिल नहीं कि मुझ से इस क़िस्म के सवाल करें मैं अपनी मर्ज़ी की मालिक हूँ।”

“अपनी मर्ज़ी का मालिक मैं भी हूँ क्या मुझे ये हक़ हासिल नहीं कि जो शेअर भी मुझे पसंद हो, अपनी भोंडी आवाज़ में दिन रात गाता रहूं।”

“मुझे इस पर कोई एतराज़ नहीं लेकिन मैं समझती हूँ........ ”

“रुक क्यों गईं।”

“देखिए। आप मेरी ज़बान न खुलवाईए मैंने आज तक आप से कुछ नहीं कहा हालाँकि मैं सब कुछ जानती हूँ।”

“तुम मेरे मुतअल्लिक़ क्या जानती हो”

“सब कुछ”

“कुछ मुझे भी बता दो, ताकि मैं अपने मुतअल्लिक़ कुछ जान सकूं मैं तो सालहा-साल के ग़ौर-ओ-फ़िक्र के बाद भी अपने मुतअल्लिक़ कुछ जान न सका”

“आप को इस पंजाबी बोली में जो आप मुसलसल गुनगुनाते रहते हैं सब कुछ जान सकते हैं।”

“तुम इस क़दर शाकी क्यों हो”

“हर मर्द बे-वफ़ा होता है”

“मैंने तुम से किया बे-वफाई की है असल में औरतें जा-ओ-बेजा अपने शौहरों पर शक करती रहती हैं।”

“ठहरिए दरवाज़े पर दस्तक हुई है मेरा ख़याल है डाकिया है”

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“ये ख़त मेरा है लाओ इधर”

“मैं खोलती हूँ पढ़ के आप के हवाले कर दूँगी”

“तुम्हें मेरे ख़त पढ़ने का कोई हक़ हासिल नहीं”

“मैं हमेशा आप के ख़त पढ़ती रही हूँ ये हक़ आप ने कब से छीन लिया?”

“अच्छा ये बता दो कि ख़त किस का है”

“आप ही का है?”

“किस ने लिखा है?”

“आप की एक सहेली है जिस का नाम अज़्रा है वो पंजाबी बोली जो आप गाते फिरते हैं इस काग़ज़ की पेशानी पर लिखी है

मेरी लगदी किसे न देखी वे तय टुटदी नों जग जांदा

ये टूट ही जाये तो बेहतर है।”

१५ मई ५४-ई-

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