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ऑरकुट

वर्ष 2004 से पहले सोशल मीडिया का नामोनिशान तक नहीं था। किसी ने सोंचा भी नही होगा कि कुछ ही सालों में हमारे कंप्यूटर से हम पूरी दुनिया कही भी बैठ कर किसी आए भी दोस्ती कर सकते है। हम अपने पुराने खोये हुए दोस्तों को ढूंढ़ भी सकते है औऱ फिर से वही खूबसूरत दिन पा सकते है जो 2004 से पहले संभव नही था पर अब वो संभव है।

Orkut का नाम एक बार फिर से सुनके बहुत सारे लोगो को वही दिन फिर से याद जरूर आ गए होंगे। कुछ शब्द बहुत प्रचलित हुए थे उन दिनों जैसे- स्क्रैप, स्क्रैपबुक, फ्रेंड रिक्वेस्ट, टेस्टीमोनियल, म्यूच्यूअल फेंड्स इत्यादि। शायद उन लोगो को और भी ज्यादा आनंद की अनुभूति होगी जिन्होंने ऑरकुट का प्रयोग किया हो।

2004 में orkut.com नाम से एक सोशल नेटवर्किंग साइट आयी जो कि हमारे देश मे 2005 तक इतनी प्रचिलित हो गयी थी कि दोस्तों में यदि किसी का ऑरकुट पे एकाउंट नही है तो वो पिछड़ा हुआ गिना जाता था। 2006 से लेकर 2009 तक ये वेबसाइट भारत मे अपने चरम पर थी। और ये मेरी अपनी कहानी भी उसी समय अपने चरम पर थी। या यूं कहें कि शायद कहानी थी ही इसलिए क्योंकि ऑरकुट हमारे जीवन मे एक महत्वपूर्ण स्थान ले चुका था।

ऑरकुट पर हम किसी से भी दोस्ती कर सकते थे और उसकी मैसेज बुक यानी सक्रेपबुक भी पढ़ सकते थे। ऑरकुट पर स्क्रैपबुक सभी के लिए खुली हुआ करती थी यानी कोई भी किसी के मैसेज पढ़ सकता था। परंतु बाद में उसको ठीक कर दिया गया था।

बात दिसंबर 2006 की है सेमेस्टर परिक्षा आने वाली थी और मैं पढ़ाई करके काफी थक भी गया था। होस्टल में रहता था इसलिए पिताजी को झूठ बोल के लैपटॉप भी ले लिया कि सारी पढ़ाई अब ऑनलाइन होती है इसलिए लैपटॉप जरूरी है। पिताजी ने किसी तरह लैपटॉप दिलवा ही दिया था। थकान भगाने के लिये मैंने सोंचा की कुछ देर ऑरकुट चेक कर लेता हूँ शायद कोई मैसज आया हो। वैसे भी एग्जाम चल रहे है शायद कोई टिप या कुछ और। पर आज सोंचता हूं काश उस दिन मैंने उस दिन पढ़ाई जारी रखी होती और कुछ दिन तक लैपटाप को हाथ भी न लगाया होता तो जिंदगी कुछ और ही सकती थी पर ऐसा हुआ नहीं। और कुछ ऐसा हुआ कि मेरी ज़िंदगी ही बदल गयी।

मैं बहुत ही मजाकिया और बातूनी हुआ करता था। हंसी मजाक दूसरे दोस्तों के मज़े लेना बहुत अच्छा लगता था सब मेरे साथ खुश रहते थे। पर जब भी कोई लड़की सामने आ जाती थी तो मुझे साँप सूंघ जाता था। मुँह से आवाज गायब हो जाती थी और शब्द स्वाहा। मैं ऑरकुट पर ऐसे ही लड़कियों की प्रोफाइल चेक किया करता था और लगभग सभी लड़कियों को फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दिया करता था और सोंचता था कि क्या पता किसी एक को भी मेरी प्रोफाइल अच्छी लगी तो बस फिर क्या जीवन सफल। वो उम्र होती ही ऐसी है। उस उम्र में सभी बस एक साथी चाहते है चाहे कोई भी लड़का हो। बस भगवान से यही उम्मीद मुझे भी थी। इंजीनियरिंग खत्म होने वाली थी पर आज तक मेरी किसी लड़की से कोई रिश्ता तो क्या दोस्ती तक नही हुई थी। बात करना तो दूर मेरी तरफ देखती भी नही थी मुझे तो डर लगता था कहीं किसी दिन शक्ल देख के कोई थप्पड़ न मार दे। कभी कभार ज्यादा से ज्यादा पूंछ लेती परीक्षा कब से है या अभी कौन का पीरियड चल रहा है या कोई और सवाल इससे ज्यादा बात शायद ही कभी हुई हो। इच्छा सिर्फ इच्छा ही बन गयी थी ऑरकुट ने शायद सुखी धरती पर बारिश की बूंदों का काम किया था औऱ बहुत लोगो को उम्मीद भी दी थी और मैं उस पंक्ति में सबसे आगे खड़ा था।

खैर शायद अब मेरा समय बदलने वाला था क्योंकि मैंने लैपटॉप चालू कर लिया था और ऑरकुट लॉगिन भी कर ही लिया था और सोंचा की 10 मिनट में फिर से पढ़ाई के लिए बैठना है। क्योंकि मेरी आदत थी कि मैं किसी भी लडक़ी को फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजता हूं मैंने देखा कि पहली बार किसी लड़की ने मेरी रिक्वेस्ट एक्सेप्ट की है। हाँ सच मे किसी लड़की ने मेरी फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट की है। यही फायदा होता है सोशल मीडिया पर कहीं भी अपना फ़ोटो न लगाने का। आखिर एक लड़की ने दोस्ती कर ही ली मेरी प्रोफाइल पर तरस खाकर। मेरी खुशी का ठिकाना न था। मैं एकदम से लाइफ को लेके आशावादी हो गया। पेट मे मछलियां गोते लगाने लगी और मैं भूल ही गया कि एग्जाम आने वाले है। मैंने सबसे पहले उसका नाम देखा। उसका नाम था नेहा सचान। बहुत ही सामान्य सा नाम था और शायद भारत मे हर चौथी लड़की का नाम नेहा ही है लेकिन इस नाम को पढ़ते ही कुछ अलग लगा। दिल में गिटार बजने लगा, कभी वायलिन बजता और फिर पियानो। कुछ समझ ही नही आया। उसने आखिर मेरी प्रोफाइल में ऐसा का देख लिया कि मेरी फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर ली। मैं इतना निराशावादी था कि मैंने उसकी नही अपनी प्रोफाइल को दस बार देखा। इतना भरोसा रहा ही नही था कभी अपने पर। दस बार अपनी प्रोफाइल देख कर अब मैंने उसकी प्रोफाइल देखना शुरू किया। हाथ कांप रहे थे डर से लग रहा था। इतना डर तो इंजीनियरिंग के उस प्रश्नपत्रों को देखकर भी नही लगता था जिसमे मैं फेल हो जाता था जितना नेहा की प्रोफाइल देख कर लगा।

वो मेरे जैसी बिल्कुल नही थी उस बेचारी ने तो आने प्रोफाइल फोटो की जगह एक खूबसूरत से गुलाब का फूल लगाया था और मैंने अपनी प्रोफाइल फ़ोटो की जगह लिखा हुआ था- "फोटो चोरी हो गया है, कही मिले तो बताना"। मैंने उसकी पूरी प्रोफाइल चेक की और "Hello" लिख कर लैपटॉप बंद कर दिया। अगले दिन फिर से पढ़ाई करनी थी। पढ़ाई तो की या नही याद नही पर ऑरकुट कम से कम सौ बार देखा इस उम्मीद से कि कही कोई मैसेज न आया हो नेहा का। पेट की छोटी छोटी मछलियां अब बड़ी हो चुकी थी और मेरे अंदर की कुलबुलाहट अपने चरम पर थी। पर सब कुछ ठंडा पड़ गया जब देखा कि उसने कोई भी मैसेज नही किया है। फिर क्या बाहर गया एक सिगरेट जलाई और सोंच में पड़ गया- यार ये सच मे फ्रेंड बनी है या गलती से इससे YES पर क्लिक हो गया था। यार इसने अब तक कोई जवाब क्यों नही दिया। यार ये लड़की ही है ना कहीं ऐसा तो नही की ये मेरा कोई कमीना और छिछोरा दोस्त हो जो लड़की की प्रोफाइल बना के मेरे मज़े ले रहा है। ये सारे कमीने तो बहुत है। मैंने अपने आपसे कहा- आशावादी रहो भाई, पहली बार चेहरा चमक रहा है उसे बरकरार रहने दे।

दो दिन बाद उसका मेसेज आया, हेलो, क्या मैं तुम्हे जानती हूं? मैं ऑनलाइन ही बैठा था उसके इंतज़ार में।

मैंने जवाब दिया- नहीं, तुम्हारी प्रोफाइल अच्छी लगी इसलिये रिक्वेस्ट कर दी। मैंने सच बोलना ही सही समझा और शायद सच बोलने के फायदे भी बहुत है। जैसे कि क्या कहा था कितना कहा था ये याद नही रखना पड़ता।

वो बोली- फिर सभी को रिक्वेस्ट करते होंगे जिसकी प्रोफाइल अच्छी होती है।

मैं- (मैन सोंचा ये तो फंसा देगी यार) नही ऐसा नही है, तुम्हारा गुलाब के फूल का रंग ज़्यादा अच्छा है औरो से। मुझे खुद नही पता कि मैं क्या बक रहा था पर अच्छी बात ये थी कि वो बात कर रही थी।

फिर धीरे धीरे बाते बढ़ने लगी। मैं एग्जाम के बारे में सोंचना तक छोड़ चुका था। मैं उस दोस्ती में इतना अंधा हो चुका था वो भी सिर्फ दस दिन में। एग्जाम देने बिना पढ़े जाता और जितना समझ मे आता लिख के आ जाता। मैंने अपना भविष्य दांव पर लगा दिया था। मैं सिर्फ दस दिन में उसकी तरफ इतना झुक गया था कि सारे दिन मे कम से कम सौ बार ऑरकुट लॉगिन लॉगआउट करता था। वो भी कभी कभी जवाब दे दिया करती थी। अभी हमारी बातें सिर्फ हाल चाल लेने तक ही थी। जैसे हमने खाना खाया, सोके कब उठे, सोने कब जाना है, एग्जाम कैसा हुआ, एग्जाम की तैयारी कैसी चल रही है। हम अभी उतने पर्सनल नही हुए थे। या यूं कहें कि वो नही हुई थी और मैं तो पर्सनल क्या पागल हो गया था। फिर हमको लगा कि स्क्रैपबुक में हमारे मैसेज सब देख लेते है क्यों न अब से ईमेल किया करे और हम दोनों ने फिर ईमेल पर बात चीत शुरू की। मेरा झुकाओ उसकी तरफ इतना हो चुका था कि मै उसे अपना सबकुछ मान चुका था। पता नही ऐसा कैसे हो रह था न हमने कभी एक दूसरे को देखा था और ना ही कभी आवाज़ तक सुनी थी।

शायद ऐसा कभी किसी के साथ भी हुआ हो और अगर हुआ होगा तो उसकी हालत भी मेरी जैसी रही होगी। अनदेखा, अनजाना और एकतरफा इश्क़। अभी तक जो काम ऑरकुट पर होता था अब वो ईमेल पर होने लगा। 2007 में मोबाइल फ़ोन पर इंटरनेट और ईमेल का सुविधा नही थी। इसलिए ईमेल चेक करने के लिए हमको परमानेंट इंटरनेट कनेक्शन चाहिए ही था। हॉस्टल में फ्री इंटरनेट तो था पर उसकी स्पीड बैलगाड़ी से भी कम रहती थी मैं बार बार ईमेल ऑरकुट ईमेल ऑरकुट करता रहता और पूरा दिन ऐसे ही निकल जाता। इंजीनियरिंग का आखिरी सेमेस्टर था सोंचता था कि कॉपी चेक करने वाला फेल तो नहीं करेगा। भला हो उन अध्यापको का जिन्होंने मेरी खाली कॉपी पर भी शायद कुछ अंक दे दिए और मैं पास भी हो गया।

कॉलेज छूट गया सभी दोस्त बिछड़ गए। हमारे पूरे दोस्तों के समूह में सिर्फ मेरे पास ही नौकरी नही थी क्यूंकि जब कैंपस में कंपनियां आ रही थी तब मैं एकतरफा इश्क़ में पगलाया हुआ था। सारे दोस्त बड़ी बड़ी कंपनियों में नौकरी आखिरी सेमेस्टर में ही पा चुके थे जब मैं ईमेल और ऑरकुट पर खेल रहा था। अब सबके पास अच्छी नौकरी थी और अच्छी नौकरी होती है तो अच्छी छोकरी भी मिल ही जाती है। मैं अपने बारे में क्या कहू न नौकरी और छोकरी का तो आपको पता ही है छोकरी है य छोकरा। है भी या नही। न आवाज़ सुनी और न ही कभी देखा।

कॉलेज की फेयरवेल पार्टी में गया तो वहाँ सारे दोस्त मज़े कर रहे थे। सारे लड़के लडकिया डांस, शराब, बियर पी रहे थे। फ़ोटो ले रहे थे पर मैं अकेला एक किनारे खड़ा था मेरे पास कुछ भी नही था। किसी से भी नज़र नही मिला पा रहा था। वहाँ से भाग जाना चाहता था पर भाग के जाता भी कहाँ। आखिर चार साल तक इन्होंने तो साथ दिया था मेरा। अब जो हो रहा है उसका ज़िम्मेदार सिर्फ मैं था वो दोस्त नही । सभी कंपनियों ने सबको बराबर मौका दिया था अब मेरे चयन नही हुआ तो ज़िम्मेदार वो तो नही है ना। एक तरफ घर वालो को ये समझाना मुश्किल हो गया था कि दुनिया भर के सारे लोगो की नौकरी लागी और सिर्फ मेरी ही क्यों न लगी। ऐसी कौन सी कमी है मुझमे और दूसरी तरफ नेहा जो मेरे दिलो दिमाग मे पूरी तरह से हावी हो चुकी थी। मैं अपनी कैरियर के बारे में सोंचना छोड़ चुका था। नेहा अब मेरा धर्म और कर्म बन चुकी थी पर ये सब कुछ एक तरफ ही था।

मैं फेयरवेल पार्टी करके होस्टल देर से आया और थोड़े गुस्से से नेहा हो ईमेल किया-

हेलो नेहा, कैसी हो, मुझे उम्मीद है कि हमेशा की तरह अच्छी होगी। हमको बात करते करते दो महीने हो चुके है। मैं तुमको अपने बारे में सब कुछ बता चुका हूं कि मैं कौन हूं कैसा हूँ क्या करता हूं पर मेरे आज तक तमने मुझे कुछ भी नही बताया अपने बारे में। मुझे तो ये भी नही पता कि मुम्बई में तुम कहाँ रहती हो और वहां करती क्या हो। सच कहूं तो मुझे तो ये भी नही पता की तुम क्या सच में हो। क्या तुम्हारा कोई अस्तित्व भी है या ये कोई और है जो मेरे साथ खेल रहा है। मैंने आज तक न तुमको देखा और न ही तुमको सुना, पता नही क्या चल रहा है। मेरी इंजीनियरिंग पूरी हो चुकी है और मेरे सभी दोस्तों की नौकरी लग गयी सिर्फ मैं रह गया, मुझे समझ मे नही आ रहा के अब क्या करना चाहिए।

मैंने गुस्से में ये सब लिख के ईमेल कर दिया पर पढ़े लिखे लोगो ने कहा है कि धनुष से निकला हुआ तीर और ईमेल से निकला हुआ शब्द कभी वापिस नही आते। मेरा ईमेल नेहा के पास जाके हायड्रोजन बम की तरह फटा। दो दिन तक न ही ऑरकुट पे और ना ही ईमेल पर कोई जवाब आया। अब मैं डर गया और सोंचने लगा कि शायद वो बुरा मान गयी पर मैंने अपने चिड़चिड़ापन दिखाते हुए उसको फिर से कोई ईमेल नहीं किया। पर दिल ये मानने को तैयार नही था कि वो नाराज़ है। इसलिए मैं रोज़ाना बार बार ईमेल ऑयर ऑरकुट चेक करता रहा। और पूरे एक सप्ताह बाद उसका जवाब आया जिसको मैंने काम से कम दस बार तो पढ़ा ही होगा उसने लिखा था-

हेलो देव, मैं तो अच्छी हूं पर शायद तुम अब अच्छे नही रह गए। तुम तो सिर्फ दो महीने में ही बदल गए। तुमने अपने बारे में मुझे जी कुछ भी बताया वो अपने मन से बताया था मैंने कभी भी के जानने की कोशिश की ही नही थी। इसलिए मैंने अपने बारे में तुमको कुछ भी नही बताया मैंने पता नही क्यों जरूरत नही समझी। और दोस्ती में बहुत ज्यादा डिटेलिंग की जरुरत मैं समझती भी नही हूं। तुम अच्छे हो मैं अच्छी हूं हम अच्छे दोस्त है बस मुझे इतना बहुत लगा । शायद इससे ज्यादा जरूरत थी भी नही पर तुमने ये तक कह दिया कि तुम्हारी नौकरी नही लगी और वो भी शायद मेरी वजह से। देव, तुम्हारी नौकरी के लिए मैं ज़िम्मेदार कैसे, चार साल की इंजीनियरिंग में मैं तुम्हारे साथ साथ सिर्फ दी महीने ही थी वो भी सिर्फ मेसेज पे और मैंने तुमको कभी परेशान भी नही किया फिर मैं नौकरी न लगने के लिए ज़िम्मेदार कैसे हुई देव? और हाँ तुम मेरे बारे में कुछ जान ही लो, शायद इससे तुम्हारी नौकरी लग जाये। मैं मुम्बई में रहती हू और मैं आई आई टी मुम्बई में पढ़ती हूं और मैं भी इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर हूं और मेरा भी इस साल फाइनल ईयर था। मुझे पिछले साल ही माइक्रोसॉफ्ट में नौकरी मिल गयी थी। पर मैंने तुमको इसलिए नही बताया क्योंकि कही तुमको कही ये ना लगे कि मैं आई आई टी और अपनी नौकरी का दिखावा कर रही हूं। मैं सिर्फ सही समय का इंतज़ार कर रही थी। रही अस्तित्व की बात तो तुम ये सोंच के परेशान हो कि कहीं मैं कोई लड़का तो नही जो तुम्हारे मज़े ले रहा है पर मैंने भी तुमको कभी नही देखा और ना ही बात की पर मैंने कभी इस तरह नहीं सोंचा। ठीक हैं नीचे मेरा नम्बर दिया हुआ है। जब तुमको सच मे लगे कि तुमको मुझसे बात करनी चाहिए मेरी आवाज़ सुननी चाहिए सिर्फ तब ही बात करना नहीं तो मत करना। सी यू।

उसने मेसेज के आखिरी में अपना मोबाइल नंबर दिया था और मैंने उसे तभी याद भी कर लिया पर बहुत दिन तक उसको मिस्ड कॉल तक करने की हिम्मत न हुई। मैं नौकरी न मिलने की वजह से परेशान था पर इस चक्कर मे मैंने उसे जाने क्या क्या लिख डाला था। मैं शर्मिंदा था सच मे शर्मिंदा था। एक शर्मिंदा इंसान सबसे नज़रें चुराता है और मैं नेहा से अपने आपको ही चुरा रहा था। हमारे बीच दो सबसे बड़े फर्क आ गए थे पहला आई आई टी दूसरा वो माइक्रोसॉफ्ट में नौकरी पा चुकी थी। मै डर गया था बहुत डर गया था। घर वाले दूर जा चुके थे, नौकरी मिली नहीँ और इस लड़की ने झाड़ भी दिया और अब तो ये अपनी औकात के बाहर की लग रही थी।

हिम्मत दिखाई या शायद जरूरत थी, रात के दो बजे रहे थे और अपने मोबाइल पर उसका नंबर और नाम देख रहा था। मैंने सोंचा की अगर कॉल नही करता हूं तो सब खत्म हो जाएगा और अगर करता हूं तो शायद जिंदगी बदल के खूबसूरत भी हो सकती है। आखिर गलती तो कहीं न कहीं मेरी ही थी। मैंने आखिर कॉल कर ही दी। जब तक बेल बाजी मेरा दिल जोर जोर से धड़क धड़क करता रहा। ऐसा लग रहा था कि कही बाहर ही ना आ जाए, पर आया नही क्यों उसके पहले ही एक बहुत ही खूबसूरत बहुत ही प्यारी जैसे कि कोई छोटी सी बच्ची की आवाज़ आयी- हेलो, (औऱ मैं अंदर तक काँप गया), कौन? मैंने हकलाते हुए बोला- क्या आप नेहा बात कर रही है?

वो बोली- पहले ये बताये आप कौन? अब मैं समझ गया कि ये नेहा ही है।
मैंने बोला- हेलो नेहा, मैं देव।
वो बोली - देव, आप।
मैं बोला- हाँ नेहा मैं देव, तुमने तो शायद उम्मीद ही छोड़ दी होगी ना?
वो बोली- नहीँ, बस वही तो एक चीज़ है जो मैं कभी नही छोडती। पर बुरा लग रहा था कि तुमने इतना टाइम लिया, तुम लड़के तो कम टाइम लेते हो ना। जो भी आता है झट से बोल देते हो। चलो कोई बात नहीं अभी सो रही हु मैं कल बात करती हूं।
मैंने बोला- ठीक है, कल ही करते है। सॉरी इतनी रात को मैंने परेशान किया।
और फिर उसने फ़ोन काट दिया। मैं खुश था बहुत खुश, उससे भी ज्यादा ये जानके सुकून में था कि वो उतना नाराज़ नही है मुझसे। वो रात मुझे सुकून भारी नींद आयी जो पहले कभी नही आई थी।

अगले दिन थोड़ा खुश होके उठा, आशावादी था कि अपना कुछ न कुछ तो हो ही जायेगा। नौकरी हो या छोकरी। सुबह सुबह उसको एक मिस्ड कॉल देके छोड़ दी। बस ये बताना चाहता था कि मैंने उसे मिस किया। पांच मिनट बाद उसका भी मिस्ड कॉल आया। मैं बहुत खुश हुआ। मैंने फिर से एक मिस्ड कॉल दी और सारे दिन यही सिलसिला चलता रहा। न मुझे कोई काम था और न उसे। मैं बेरोजगार था और वो अपनी जोइनिंग का इंतजार कर रही थी।

फिर उसी रात मैंने उसको कॉल लगाया और बहुत सारी बातें हुईं अपने बारे में और उसके बारे में। सिलसिला चलता रहा और बस चलता ही रहा। उसकी दोस्ती गहरी होती गयी और मेरा प्यार, लड़के शायद दोस्ती पर रुक नही सकते। जब तक लड़की अपना नाम बताती है उतनी देर में लड़के शादी और उसके बाद बच्चे का नाम तक सोंच लिया करते है। मैं भी कुछ ऐसा ही कर रहा था।

जुलाई निकल गयी और अगस्त की घनघोर बारिश वाला मौसम भी आ गया। अब बारिश और उसकी बूंदों की आवाज़ बहुत खूबसूरत लगने लगी थी। जैसे ही बारिश शुरू होती वैसे ही या तो उसकी कॉल आती या मैं यह से कॉल करता फिर घंटो बातें चलती रहती और फिर बातें करते करते सो जाते।
इसी बीच मैं नोएडा से दिल्ली शिफ्ट हो गया। वहां नौकरी के चांस थोड़े ज्यादा थे और कुछ पुराने दोएत भी वहां थे तो रहने को भी सस्ता पड़ने वाला था। वैसे नोएडा से दिल्ली बिल्कुल जुड़े हुए ही है आधे घंटे में आप आराम से नोएडा से दिल्ली पहुंच सकते है।

अभी मैं शिफ्ट हुआ ही था कि नेहा का फ़ोन आया कि माइक्रोसॉफ्ट से ईमेल आया है कि जोइनिंग कहाँ करनी है। मैंने पूंछा की तुमने क्या बोला? वो बोली अभी जवाब नहीं दिया है। हैदराबाद या नोएडा में कोई एक बोला है। मैं हैदराबाद के लिये हां कर दू क्या? मैने सोंचा कितनी गंदी है ये हैदराबाद के लिए बोल के चिढ़ा रही है। मैंने बोला अरे पागल तू हैदराबाद के लिए ही हाँ कर दे मैं यहां नोएडा या दिल्ली में कोई और दोस्त बना लेता हूं। वो हंसने लगी और बोली कि मैं तो मजाक कर रही थी मैंने नोएडा के लिए ही बोला है, जब ऑप्शन में था तो इससे अच्छा और क्या हो सकता है। मैंने कुछ नही बोला पर मैन ही मन मैं इतना ख़ुश था कि अगर वो सामने होती तो गले लगा लेता पर ऐसी अच्छी किस्मत कहा है मेरी।

अब मैं हर दिन इस बात का इंतजार करता कि उसकी जोइनिंग कब आएगी और साथ मे एक बात का डर भी था कि कही मेरी जॉब न लग जाए किसी और जगह क्योंकि जितनी शानदार किस्मत मेरी अभी तक रही हैं कुछ भी हो सकता है। उन दिनों जिओ का सिम कार्ड नही होता था पर एक मोबाइल कंपनी ने रात को ग्यारह बजे से सुबह सात बजे तक कॉल फ्री कर दी। फिर मैं सुबह सात बजे से रात ग्यारह बजे तक सिर्फ रात के ग्यारह बजने का इंतज़ार करता। और जैसे ही घड़ी ग्यारह बजाती मैं बिना एक सेकंड गवाए उसको काल लगा देता और वो भी ऐसी थी कि मोबाइल को हाथ मे लेके ही बैठी रहती। वो हमेशा कहती के तुम इतने परेशान मत हुआ करो कॉल के लिए मैं कॉल करती हूं आखिर मेरे पास तो जॉब है ना जब तुम्हारी लग जाये तब तुम कॉल कर लिया करना। पर मैं हमेशा यही कहता रहा कि रात का टाइम अच्छा है आराम से बात भी हो जाती है और नींद भी अच्छी आती है।

ज़िन्दगी अच्छी चल रही थी। रोज़ नौकरी ढूढ़ने के लिए दिल्ली,नोएडा, ग़ाज़ियाबाद और गुड़गांव में कंपनी के चक्कर लगाता और शाम से ही ग्यारह बजने का इंतजार करने लगता। पहले सोंचता था कि आखिर एक लड़का और एक लड़की सारी रात क्या बातें करते होंगे यहाँ बातें ही नही होती किसी से भी। पर अब लगता है कि शायद रात के आठ घंटे भी कम लगते है और जाने कहा कहाँ से बातें आ जाती है करने को। बातों का पिटारा हमेशा फुल रहता है और कभी खत्म होने का नाम नही लेता। हर रोज़ नई कहानियां और हर दिन एक नया ताजापन। कुछ दिनों के बाद भी मेरी नौकरी नही लगी पर नेहा की जोइनिंग आ गयी । आज भी वो तारीख नहीं भूली जाती 16 अक्टूबर 2008। उसने बताया कि नॉएडा में ऑफिस है माइक्रोसॉफ्ट का उसमे रिपोर्ट करना है। उसने 14 अक्टूबर के रिज़र्वेशन करवाया और 15 को दिल्ली पहुचने का प्लान किया उसके साथ सात और लोग भी माइक्रोसॉफ्ट जॉइन करने के लिए आ रहे थे सारे उसके बैच के ही थी इसलिए इतनी लम्बी यात्रा करने में कोई परेशानी नही थी। 15 अक्टूबर को वो सारे दिल्ली आ गए । मैंने नेहा से पूंछा की क्या मैं तुमको लेने आ जाऊ पर उसने मना कर दिया। वो बोली कि लोग फालतू में गलत समझेंगे। और फिर फालतू की ही बातें करेंगे।

फिर बोली अच्छा ठीक है आ जाना सबको बोल दूंगी की मेरा भाई है घर से लेने आया है। आओगे?

मैं बोला," मेरी तबियत सही नही है शायद नही आ पाऊंगा।" मैंने सोंचा ये लड़की कहीं बातों बातों में भाई ने बना ले। डर लगता है। अच्छा है मना कर दिया। बच गया।

उसने 16 अक्टूबर को नोएडा में आफिस जॉइन कर लिया। दुनियां की सबसे बड़ी कंपनी का आफिस भी सच मे शानदार था। मैंने तो हमेशा से बाहर से ही देखा था पर उसने अंदर से देखा और रात को फ़ोन पर जी भर के तारीफ की। मैं सुनता रहा और सोंचता रहा कि काश मैं भी ऐसे ही किसी कंपनी में नौकरी कर पाता तो शायद नेहा से वो सबकुछ बोल पाता जो बोलना चाहता हूं। फिर सोंचा चलो इसको टाइम देते है। अपना भी कभी टाइम आएगा।

नेहा ने नोएडा में जल्दी ही एक घर भी ले लिया और अपनी कुछ सहेलियों के साथ रहने लगी। वहाँ से आफिस भी नज़दीक ही था आधे घंटे में आराम से पहुंच जाती थी। हिम लोग रोज़ रात भर बातें करते और रोज़ ही वो सुबह अपने आफिस के लिए लेट हो जाती।

उसके इतने नज़दीक आ जाने के बाद पता नही कैसे पर मुझे एक प्रेरणा मिली कि सच में कुछ करना है अपनी ज़िन्दगी में। मुझे आज भी याद है मेरे एक सीनियर ने एक दिन मुझसे कहा था कि-

अगर अपने अंदर सच्चा बदलाव देखना है कपड़े पहनने से लेकर जिंदगी जीने तक तो एक अच्छी सी गर्लफ्रैंड बना लो। वो या तो सबकुछ सिखा देगी का तुमको सीखने के लिए मजबूर कर देगी।

बिल्कुल सच कहा था सर्। सेल्यूट है आपको सर् आप जहां भी हो। एक लड़की चाहे तो सच मे लड़के को बिल्कुल बदल सकती है। मैंने इस बात को ध्यान में रखते हुए पहले नौकरी के बारे में सोंचा। मैंने नौकरी ढूंढने की प्रक्रिया को और तेज़ कर दिया मैंने इसके लिए अपने दोस्तों और विशेषकर नेहा से मदद मांगी और उसने अपने माइक्रोसॉफ्ट के प्रभाव से एक- दो इंटरव्यू भी करवाये पर मैं कही भी सेलेक्ट नही हुआ। कुछ तो कमी थी या तो मार्कशीट में छपी लकीरों में या तो हाथों की। पर इस बार मैं घबराया नही। बहुत ही आशावादी ही चुका था मैं। तीन महीने और निकल गये उसके नोएडा में और मेरे दिल्ली में। अब मेरा मन करने लगा था उसको एक बार देखने का। सोंचता था कैसी होगी। पहले तो सोंचता था कि खूबसूरत हो बिल्कुल बॉलीवुड की हीरोइन की तरह तो मज़ा आ जाये । पर अब सोंचता था कि जो लड़की पिछले 8 महीने से मेरे से जुड़ी है हर अच्छे या बुरे में मेरे साथ है मेरे लिए प्रेरणा स्रोत है वो कैसी भी हो मुझे पसंद है पसंद है पसंद है। पर उसके दिमाग मे मेरे लिए क्या चल रहा है ये उसके सिवा किसी को नही पता।

एक दिन फ़ोन पर मैंने उसको बोला- नेहा, इतना टाइम तो ही गया है तुमको नोएडा आये हुए मैं भी इतना पास ही हूं। एक बार मिलते है ना।

वो बोली-अच्छा देखते है।

मैंने बोला- क्या देखते है संडे को तुम दिल्ली आ जाओ या फिर मैं नोएडा आ जाता हूं। तुम जैसे बोलोगी वैसे कर लेंगे।

वो बोली - ठीक है अभी तो संडे आने में टाइम है प्लान बनाते है। अगर टाइम मिला तो मिलते है।

एक बार फिर से मेरे दिल मे संगीत बजना शुरू हो गया।अब मैं सोंचने लगा कि जब मैं नेहा से पहली बार मिलूं तो क्या कपड़े पहन के जाऊ। उससे कैसे बात करूंगा। कहाँ पर मिलना चाहिए। जूते कौन से पहनूं। सिर्फ चार ही तो दिन बचे थे संडे आने में। मैं उससे मिलने की प्लांनिंग में लग गया और रोज़ रोज़ नए नए आइडिया सोंचता। फ्लावर लू या चॉकलेट लू या दोनों लू। फ्लावर लू तो कौन सा लू। रेड लेता हूं तो कुछ ज्यादा ही हो जाएगा और अगर व्हाइट लिया तो पक्का अपना भाई बनाएगी। गुलाब के अलावा कुछ और लेता हूं तो पता नही गुलाब के अलावा कुछ और उसको पसंद भी है या नहीं। उसकी ऑरकुट प्रोफाइल में तो लाल गुलाब है। गुलाब ही ले जाना चाहिए। ये सब सोंच सोंच के मेरा दिमाग सड़ने लगता।

शनिवार का दिन आ चुका था और अब तक मेरी प्लांनिंग ही नही हुई थी। मार्केट से जाके एक अच्छी सी टी-शर्ट लेके आया और नए जूट भी। दोस्त से उधार लेके अच्छी सी दुकान से बाल कटवाए और लाइफ में पहली बार चेहरे पर स्क्रब और मसाज भी मरवाया। पर शक्ल पर कोई खास फर्क नही पड़ा। वजह तो आपको पता ही होगी।

पूरी रात डॉयलोग की प्रक्टिस करता रहा। कुछ तो छोटी छोटी पर्चियां बनाके जेब में डाल ली ताकि अगर डॉयलोग भूल गया तो कम से कम कहीं बाथरूम में जाके पर्ची देखके याद कर लूंगा। इतनी तैयारी अगर इंजीनियरिंग में कई होती तो यूनिवर्सिटी का टॉपर होता। वहां तो नही कर पाया टॉप इसलिए यहाँ कोशिश कर रहा था। जैसे तैसे तैयारी हो ही गयी।

वो दिन आ गया। दोपहर के ग्यारह बजे चुके थे फरवरी के महीने में दिल्ली का मौसम लाजवाब होता है। मैं उसके फोन का वेट कर रहा था। पूरा हीरो बन चुका था बस दोस्त से छीना हुआ परफ्यूम ही लगाना रह गया था कि नेहा का फ़ोन आया।

मैने बोला- हेलो नेहा कैसी हो?
वो बोली- अच्छी हूं, तुम कैसे हो?
मैंने बोला- फिर कितनी देर से निकलोगी? और कोई जगह तो फाइनल करो।
वो बोली- कहाँ निकलना है, कौन सी जगह मैं तो संडे एन्जॉय कर रही थी।
मैंने बोला- यार तुम भी हद्द करती हो। मंडे को तुमने ही कहा था कि संडे के दिन मिलते है और अब तुम अपने घर पर संडे एन्जॉय कर रही हो। मैं यहाँ सुंबह से तुम्हारा फ़ोन का इंतजार कर रहा हूं कि तुम्हारा फ़ोन आएगा और हम आगे की प्लांनिंग करेंगे। और तुम भी ना। अब क्या करना है बताओ।

वो कुछ समय शांत रही और फिर बोली- अरे यार मैं भूल गयी थी इतना काम था कि कुछ याद ही नही रहता। सॉरी प्लीज। अच्छा ऐसा है की आज तो मुश्किल है क्योंकि आज एक सीनियर का बर्थडे है दिल्ली में। हम सारे वहां जाएंगे। अब सीनियर है तो हाँ कहने के बाद मना नही कर सकती। फिर कभीं मिले? बाद में किसी और दिन, अबकी बार याद रखूंगी पक्का।

मुझे बुरा लगा सच मे बहुत बुरा लगा। पता है, जब किसी रिश्ते में कुछ दूरी हो जैसे कि पैसे की या अच्छी नौकरी की या जगह की तो कभी कभी हम बहुत कुछ सोंच जाते है। मैंने भी हम दोनों के बारे में उन दो या तीन पलों में बहुत कुछ सोंच डाला। मैंने सोंचा की इसका बहुत अजीब घमण्ड है माइक्रोसॉफ्ट का सीनियर है उससे मिलने उसके बर्थडे पार्टी पर जा सकती है मैं इतने दिन से इंतजार कर रहा हूं मेरे लिए एक भी दिन नही है। मेरा तो कुछ वजूद ही नही है। नोएडा में चार महीने यानी 120 दिन उसमे से एक दिन भी मेरे लिए नहीं इतना घमंड।

मैं ये सब सोंच ही रहा था कि वो बोली एक काम करते है मिल नहीं सकते तो एक दूसरे को देख तो सकते ही है। एक काम करो हम सारे डीटीसी की बस से पहले एक सहेली के घर जाएंगे और फिर वह से तैयार होके पार्टी में। तो हमारी बस सरोजिनी नगर बस स्टॉप के सामने से निकलेगी। मैं बस में सभी के साथ रहूंगी तो मिल तो नही सकती पर मैं लेफ्ट साइड की सीट पर बैठूंगी और अगर तुम वह रहे तो कम से कम हम एक दूसरे को देख तो सकेंगे।

आंसू आ गए, कसम से आंसू आ गए। इतनी खुशी मुझे कभी नही मिली होगी जो तब हुई। मैने उसको हाँ बोल दिया। आखिर भागते भूत की लंगोटी ही सही। और यह भूत तो वैसे भी इतना प्यारा था।

हमने शाम को चार बज एक दूसरे को मिलने नहीं सिर्फ देख टाइम फिक्स किया। उसने बताया की उसकी बस लगभग चार बजे सरोजिनी नगर से निकलेगी और वहाँ पर ही देवी दर्शन हो पाएंगे। अभी सिर्फ बारह बजे थे। अभी तो चार घंटे थे उसको देखने में। वो हर मिनट एक सदी के बराबर लग रहा था। मैं दो बजे घर से निकल गया और लगभग तीन बजे सरोजिनी नगर बस स्टॉप पर पहुंच भी गया। मौसम अच्छा था वेट करने में कोई बुराई भी नहीं थी पर उसको आने में अभी लगभग एक घंटा था। मैंने उसको कॉल लगाया और पूंछा की कहाँ तक पहुंची उसने बोला कि कुछ ही समय मे मेरी बस उस स्टॉप से निकलने वाली है वहीं पर रुकना। मैंने बोला मैं यही हूं और कहां जाऊंगा तुमको छोड़के। वो हंसने लगी। बोली इतना उतावलापन सिर्फ एक बार देखने के लिए। कहीं तुम्हारे दिमाग में कुछ चल तो नहीं रहा है ना?

मैं बोला-नहीं यार ऐसा कुछ भी नही है। इस तरह कभी कुछ हुआ नही है लाइफ में इसलिए थोड़ा झटपटा रह हूँ। पर कोई बात नहीं तुम आराम से आओ।

मैं हर घड़ी अपनी रुमाल से अपनी चेहरा साफ़ करता और अपन बाल ठीक करता। सभी आने जाने वाली गाड़ियों के शीशे पर अपनी शक्ल चेक करता की कहीं आज भी जॉनी लीवर की तरह ही तो नहीं लग रहा पर लगभग वैसा ही लग रहा था। मै आधे घंटे से वहां खड़ा था। अब तो लोग भी मुझे शक की नज़रों से देख रहे थे कि कहीं मैं यहाँ पर खड़ा होकर लड़कियां तो नहीं छेड़ रहा। पर मेरे चेहरे पे लगा हुआ चश्मा मुझे थोड़ा सा मासूम तो बना ही देता था। इसलिए बच जाता था। अब सिर्फ १५ मिनट रह गए थे। मैंने फिर से उसको कॉल किया पर इस बार नेहा ने कॉल नहीं उठाया। मैंने सोंचा यार फिर से कोई लफड़ा हुआ क्या। फिर ख्याल आया कि शायद बस में होगी इसलिए नहीं उठाया होगा। मैं भी जाने क्या क्या सोंच जाता हूँ। दो मिनट के बाद उसका फोन आ गया और उसने पूंछा कि तुम तो वही हो ना।

मैंने बोला- हां यार एक घंटा हो गया है मैं यही हूं और तुमको देखे बिन कही जाऊंगा भी नहीं आज मैं, सोंच के आया हूँ आज।

वो बोली-अरे परेशान मत हो बस दस मिनट में बस वहां आ जाएगी। सारे दोस्त साथ में ही है नहीं तो मैं तुमसे मिलती जरूर। मैं बायीं तरफ़ खिड़की वाली सीट पर हूं और ब्लू सूट पहना हुआ है। बस का नंबर ९४९४ है। इससे ज्यादा इनफार्मेशन की जरुरत नहीं पड़नी चाहिए।

यार सारे सवालों के जवाब रहते है इसके पास। मैं अभी यही सब पूंछने ही वाला था कि ये सब पहले ही बता दिया। एक कदम आगे ही रहती है ये लड़की। कुछ तो स्पेशल है इसमें। आज कुछ सवालों के जवाब तो मिल ही जायेंगे। मैंने पॉकेट में रखा हुआ एक च्युइंग गम निकाल कर खाया और वहाँ से आने जाने वाली है बस क नंबर चेक करने लगा और पर साभी बसों का नंबर मुझे वही दिखता था जो उसने बताया था ९४९४। धड़कने बढ़ी हुई थी और अचानक मैंने देखा की सच में वही बस आ रही है जो नंबर मुझे चाहिए थी। मैं थोड़ा सा पीछे हटा ताकि मैं बस के अंदर झांक सकू और उसको देख सकू। बस आयी रुकी और मैंने सभी खिड़कियों में उसको ढूंढना चालू किया। नीला सूट और बहार की तरफ झांकती हुई लड़की। दिखी, हां, हां दिखी। जैसे मैं उसको ढूंढ रहा था वैसे ही वो भी मुझे ढूंढ रही थी।

हम दोनों की आँखें टकराई और एक दूसरे को पहचान लिया। मैंने उसको दूर से हाथ दिखाया उसने भी खिड़की के कांच पर आप हाथ रखा और फिर बस फिर से चल पड़ी। सच में मेरा मन किया कि मैं बस पर चढ़ जाऊं फिर देखेंगे जोभी होता है या फिर ड्राइवर के सामने हाथ फैला के कहूँ कि भाई कुछ पल लिए ही सही रोक ले यार सिर्फ एकबार रोक ले बस को। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मैं अगर ज़्यादा हीरो बनने की कोशिश करता तो लोग मुझे मारते भी और ड्राइवर बस भी मेरे ऊपर ही चढ़ा देता। दिल्ली ट्रांसपोर्ट कारपोरेशन के ड्राइवर्स को अच्छे से जनता हूं मैं।

पर अब आधी तमन्ना पूरी हो चुकी थी। कुछ पल ही देख पाया उसको मैं। पर अगर मैं सच मे अपने दिल की बात कहूं तो वो इतनी खूबसूरत थी कि उसको देखकर मै सन्न रह गया था। मैंने इतना अच्छा भी नहीं सोंचा था जितनी कि वो थी। बेहद खूबसूरत आँखें, परफेक्ट नाक, बिलकुल गौरा रंग, गुलाबी गाल और उसकी मुस्कान। मैं न तो तब उसे कुछ बता पाया था कि वो कितनी खूबसूरत है और न ही आज बता सकता हूँ।

बस वहाँ से चली गयी पर मैं कुछ देर वही स्टॉप पर बैठा रहा। अपने आपको सँभालने का समय चाहता था मैं। थोड़ी देर बाद उसका फ़ोन आया।

वो बोली देख लिया? अब तो खुश हो न?

मैंने बोला- पता नहीं मैं अभी ...... मैं बाद में बात करता हूं। पक्का।

मेरे होश उड़ चुके थे। मैं बात करने की हालत में नही था इसलिए मना किया।

वो बोली- अच्छा ठीक है, वैसे भी अभी सब साथ मे है, पार्टी के बाद अगर टाइम मिला तो मैं कॉल लगाती हूँ। अभी तुम आराम से घर जाओ अपना ध्यान रखना।

मैं घर आ गया। बहुत खुश था। इतना की ख़ुशी चेहरे पर साफ दिख रही थी। उसका चेहरा आँखों के सामने से हट ही नहीं रहा था। मैं ये सोंचता सोंचता सो गया और मेरी नींद रात को दो बजे खुली। मैंने सोंचा की कॉल करू फिर सोंचा की कल सुबह ऑफिस भी जाना है उसको। अभी सोने देते है बाद में देखते है। मैंने बचा कुचा जो भी किचन में रखा था खाया और रेडियो सुनते सुनते फिर से सो गया।

अगले दिन भर उसका फ़ोन नहीं आया। शायद किसी काम में बिजी हो गयी होगी। अब मैं कभी भी उल्टा नहीं सोंचता था। मेरे अंदर परिवर्तन आ चुका था। धैर्य और भरोसा करना सीख गया था। इनती जल्दी मैं अपने दिमाग मे कोई कहानी नहीं बनाता था। रात को फिर उसका फ़ोन आया हमेशा की तरह ग्यारह बजे और मैं तो उसी के फ़ोन का इंतजार का रहा था। हमने सारी रात बहुत सारी बातें की। और मैं आखिरी में एक बात पर आके रुक गया।

मैंने पूंछा - ये बताओ कि मान लिया की तुम बहुत अच्छी हो और तुमने मुझे दर्शन भी दे दिए बिल्कुल निराश नही किया पर ये बताओ कि तुम मुझसे मिलोगी कब?

वो बोली- दो दिन बाद घर से माँ आ रही है इसलिए अब तो मिलना और भी मुश्किल होगा, पर देखते है।

मैंने बोला - प्लीज मेरा बहुत मन है। सिर्फ एक बार उसके बाद तुम जैसा कहोगी वैसा ही करूँगा। सिर्फ एक बार प्लीज।

उसने बोला- तुम बहुत जिद करते हो देव, बहुत जिद करते हो। ठीक है। छुट्टी के दिन तो नहीं आ सकती क्यूंकि माँ से क्या बोलूंगी। किसी और दिन ऑफिस से ही गायब होना पड़ेगा। ठीक है मुझे कुछ प्लान बनाने दो। मैं बताती हूँ/

मैंने बोला - एक बात कहूं?

वो बोली- हां कहो देव।

मैंने बोला- कुछ नहीं। और पहली बार मैंने फ़ोन काट दिया।

मैं कभी फ़ोन पहले नहीं काटता। पता है क्यूँ? क्यूंकि मै उसकी सांसों की आवाज़ आखिरी पल तक सुनता था और सुनते रहना चाहता था जब तक वो खुद ही न फ़ोन काट दे। सोंचता था कि कही उसकी खूबसूरत आवाज़ को सुनने कोई मौका छूट ना जाये। फ़ोन हमेशा वो ही काटती थी पर आज मुझसे रहा ना गए और मैंने जल्दबाजी कर दी। खैर, दो दिन बाद उसने बताया कि इसी बृहस्पतिवार यानि कल मिल सकते है।
उसने बताया- मैंने अपने बॉस को बोला है की माँ की तबियत सही नहीं है और डॉक्टर के पास जाना है और माँ से बताया है कि हमेशा की तरह ऑफिस जाना है। तुम एक काम करो अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली में सुबह ग्यारह बजे मिलो, मंदिर के गेट पर फिर वहां से साथ अंदर जायेंगे।

और फिर क्या था मैंने एक बार फिर से हीरो बनने की तैयारी शुरू कर दी। इस बार उससे अच्छे से मिलना है और एक नई शुरुआत करनी है, जिससे कोई भी कन्फूशन न हो, जो सबसे ज्यादा मुझे ही होती है। मैं जाने क्या क्या सोंच जाता हूं। अब तो अगले ही दिन मिलने जाना था। सोंचा इस बार कोई हीरो बनने क जरुरत नहीं है सिंपल रहो और मिल के आओ तो अच्छा होगा। अगले दिन सुबह मैं आठ बजे रेडी हो गया जैसे किसी इंटरव्यू क लिए जान हो। दोस्तों ने पूंछा भी की कहाँ चल दिय जनाब। मैंने बोला बस ऐसे ही एक फ्रेंड के घर जा रहा हूँ। मैं चाय पीके दस बजे अक्षरधाम मंदिर पहुंच भी गया और मैने उसको फ़ोन किया।

वो बोली- तुम परेशान मत हो मैं घर से निकल चुकी हूं ग्यारह बजे तक आराम से पहुंच जाऊंगी। तुम गेट पर मेरा वेट करना।

मैं मंदिर पहुंचकर गेट के बाहर खड़ा हो गया। बहुत ही विशालकाय और भव्य मंदिर है अक्षरधाम। इंतजार करते हुए ग्यारह भी बज गए और मैं मंदिर के सामने की रोड के दस चक्कर लगा चुका था। सवा ग्यारह बजे मैने फिर से उसको फ़ोन लगाया । उसने फ़ोन उठाया और बोला कि बस दो मिनट में आई। दो मिनट बाद मैने देखा कि बहुत दूर से एक सफेद शर्ट और नीले पैंट में बहुत ही खूबसूरत लड़की मुस्कुराते हुए चली आ रही है। मैंने उसे नही पहचाना पर शायद उसने मुझे पहचान लिया।

उसने दूर से ही हाथ हिलाकर मुझे हेलो बोला और मैं भी अपना हाथ हिलाकर घबराया हुआ हेलो बोला। घबराया हुआ हेलो समझते है ना आप? यदि हाथ अधूरा ऊपर उठे और उंगलियां हेलो कहे या फिर हाथ तो ऊपर उठ जाए पर उंगलिया खुल ही ना पाए। अज़ीब सा हाल होता है ऐसी सिचुएशन में। वो जैसे जैसे नज़दीक आ रही थी मेरे पैर कांप रहे थे। आते ही बोली-

सॉरी, मैंने फिर परेशान किया ना?

मैंने बोला- नहीं, पागल हो क्या, तुम आ गयी मेरे लिये तो इतना ही बहुत है।

फिर हम दोनों मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार की तरफ बढ़े। बहुत भीड़ थी पर मंदिर की व्यवस्था भी अच्छी थी। पुरुषों के लिए और महिलाओं के लिए अलग अलग प्रवेश द्वार। मैं अंदर जाने वाली लाइन में खड़ा हुआ और वो भी अपनी लाइन में खड़ी हुई। मैंने उसकी तरफ देखा तो वो मेरी तरफ ही देख रही थी। भीड़ में घबराई हुई। आखिर उस हज़ारों की भीड़ में मैं ही तो उसका अपना था। आखिर मेरे भरोसे ही तो वो इतनी दूर तक चली आयी थी।

हम दोनों अंदर प्रवेश कर गए। मंदिर भव्य था। पहली नज़र में तो उससे नज़र हटती ही नही पर मेरी हटी। क्योंकि मेरे साथ जो थी उसकी खूबसूरती उससे भी ज्यादा भव्य थी। सब मंदिर को देख रहे थे मै अपने इस सांस लेते हुए ताज महल को देख रहा था। सर्दियों वाली धूप थी खिली खिली। इससे अच्छा मौसम किसी से मिलने के लिए हो भी नही सकता। कुछ देर तक तो हम दोनों चुप थे। मैने सोंचा कब तक चुप रहेंगे और मैंने ही शरुआत की।

मैं बोला- माँ से क्या बोला कि आफिस जा रही हूं और बॉस को भी उल्लू बना दिया तुमने। खतरनाक लड़की हो तुम बिल्कुल। जैसी सब चाहते है।

वो हंसते हुए बोली- सब चाहते है मतलब?

मैंने जवाब दिया- मतलब अच्छी लड़की और समझदार और सिचुएशन को संभाल सकने वाली जैसी की तुम हो।

वो मुस्कुराते हुए बोली- पता नहीं, इतना सब कभी सोंचा नहीं। तुमको ऐसा लगता है तो अच्छी बात है। वैसे इतना कैसे सोंच लेते है।

मैं बोला- अब कोई और काम तो है नहीं मेरे पास तो बैठे बैठे सोंच ही डालता हूं। वैसे अच्छे लोगो के बारे में अच्छी अच्छी बातें सोंचना अच्छा ही लगता है।

वो मुस्कुराते हुए बोली - बहुत काम था आज आफिस में पर सब छोड़ दिया। कल बॉस गालियां देगा। अपने आपको बिल गेट्स से कम नही समझता है वो।

मैंने बोला- छोड़ो ना यार, बॉस और उसके काम को, इतनी मिन्नतों के बाद तो अपना मिलना हुआ है। कुछ और बाते करते है।

वैसे तो मेरे पास बहुत सारी बातें रहती है पर उस दिन रह रह कर हम दोनों शांत ही जाते थे। फिर अचानक बात करने लगते थे और फिर शांत। बहुत मिला जुला से माहौल था। एक बजे गए ये सब करते करते और पता भी नहीं चला।

मैं बोला- ओ सॉरी यार मैं तुम्हारे लिए कुछ छोटा सा गिफ्ट लाया था पर वो गेट पर बैग रखवा लिया। सॉरी हाँ। तुम भी सोंच रही होगी कि कैसे लड़का है पहली बार मिलने आया और एक छोटा सा गिफ्ट भी नही लाया।

उसने सुनते ही जवाब दिया- देव, मुझे कोई फर्क नही पड़ता कि तुमने कोई गिफ्ट दिया या नही दिया। मैंने भी तुमको कुछ नही दिया और मैंने तो सोंचा भी नही इतना। पता नही देव तुम इतना क्यों सोंचते हो। कोई भी फॉर्मेलिटी की जरूरत ही नही है। चलो कैंटीन चलते है कुछ खाते है बहुत भूख लगी है।

मैं बोला- अरे तुमको इतनी भूख लगी है तो बताया नही अब तक। पहले ही कुछ खा लेते, तुम मेरी वजह से परेशान हो गयी।

देव फिर वही बात, नो फॉर्मेलिटी- उसने मुस्कुराते हुए मुझे समझाया।

हम दोनों कैंटीन गए और हम दोनों ने मेनू देखा जो कि दीवार पर लिखा हुआ था। आपको बता दू की मंदिर की कैंटीन विशाल है और खाना अच्छा है और बहुत महँगा भी नहीं है। हम दोनों ने छोले और भठूरे का आर्डर किया और वहीं खाया। खाते हुए भी मैं सिर्फ उसको देख रहा था पर वो मुझे नहीं देख रही थी। उसकी सोंच और रिएक्शन शांत और प्रभावी होते थे। हर काम बिल्कुल मन से कोई जल्दबाज़ी नहीं। खाना खाके हम फिर बाहर गार्डन में घूमने लगे। वहां बहुत भीड़ थी। यहाँ वहाँ की बातें होती रही। कभी घर की कभी आफिस की कभी अपने अपने भविष्य की। बातें उसके पास भी बहुत थी पर बहुत नाप तोल के बोलती थी। बातें करते करते शाम भी हो गयी। अब मुझे लगा कि देर ही रही है अंधेरा होने वाला था। मुझे लग रहा था कि कहीं वापिस जाने के लिए न कहने लगे। मैं तो चाहता था कि ये दिन कभी खत्म ही न हो और बातें भी। जुदा होने का बिल्कुल भी मन नही था। पर सोंच रहा था कि आज अगर चली भी गयी तो फिर कभी मिल लेंगे। पर क्या ये कभी फिर से मुझसे मिलने चाहेगी। पता नही क्या चल रहा होगा इसके दिमाग मे। इसके दोस्तों का ग्रुप भी बड़ा है और बहुत स्मार्ट लोग है उसमें काबिल और पैसे वाले। मेरे पास तो छोले भठूरे के पैसे भी नही थे।  मेरा दिमाग फिर चलने लगा पर मैंने उसको सिन्ट्रोल किया।
अब अंधेरा लगभग हो चुका था।

मैंने पूंछा- घर जाने की जल्दी तो नही है ना तुमको। अंधेरा हो चुका है।

वो बोली- जाना तो है पर.....कुछ देर रुकते है। तुम मुझे बस में बिठा देना मैं घर चली जाऊंगी।

मैंने कहा- ठीक है।

मैं मन ही मन खुश हुआ कि कुछ समय और साथ बिताने का मौका मिलेगा पर दिल्ली रात में लड़कियों के लिए बहुत अच्छा शहर नही है।

फिर पता नही कहाँ से दिमाग मे एक खुराफात सूझी। मैने सोंचा एक बार कम से कम नेहा को छू के तो देख लू। आखिर पता तो चले कि ये हकीकत ही है या कोई सपना।

वो मेरे बिल्कुल बगल में बैठी हुई थी, कुछ सोंचती हुई बहुत ही प्यारी लग रही थी। अंधेरा था सर्दियों वाला। मैंने उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया। उसका तो पता नहीं पर मेरी धड़कने दोगुना थी। मैं बहुत घबराया हुआ था पर मैंने सोंचा था कि वो शायद कुछ नही कहेगी। उसने मेरी तरफ देखा और उसके हाव भाव मे कोई फर्क नही आया। ये उसकी अच्छाई ही थी कि उसने कुछ नही कहा। फिर मैंने अपना हाथ हटा लिया। मैंने सोंचा कहीं नाराज़ न हो जाये और फिर सच मे चली जाए। पर ऐसा कुछ नही हुआ।

वो बोली- चलो अब निकलते है काफी लेट हो चुका है।

मैंने बोला - ठीक है चलते है। मैं तुमको बस में बिठा देता हूं।

फिर हम दोनों बाहर के गेट की तरफ चलने लगें। गेट पर पहुंच कर अपना बैग लिया और बस स्टॉप की तरफ़ पैदल ही चल दिये। मुझे याद आया कि मैं इसके लिए फ्लावर और चॉकलेट लाया था। फ्लावर का क्या हाल हुआ होगा आप समझ सकते है फिर भी मैंने उसको दोनों चीज़े दी। पहले तो उसने आनाकानी की लेने में पर आखिरी में बहुत गुज़ारिश करने पर उसने ले ही लिया। हम दस मिनट स्टॉप पर खड़े रहे पर हमारे बीच कोई भी बात नही हुई। सिर्फ इधर उधर देखते रहे और बीच बीच मे एक दुसरे को भी देख लिया करते थे। फिर उसकी बस आ गयी और वो बिना पीछे मुड़े बिना पीछे देखे बस में जाके बैठ गयी। बस में बैठते ही उसने मेरी तरफ देखकर मुस्कुराया और फिर वो चली गयी।

उसको आते हुए देखा था मैंने और जाते हुए भी देख रहा था मैं। दिल मे एक बेचैनी सी हो रही थी। मन कर रहा था कि रोक लू फिर जो दिल में है बोल दू फिर जो होगा देखेंगे। बेचैनी और घबराहट का अज़ीब से संगम था वो। आज भी वो याद करता हूं तो वैसी ही बेचैनी होने लगती है। बस वो मेरी आँखों के सामने से ओझल हो गयी। मैं वही स्टॉप पर खड़ा रह गया और अपनी वाली बस का इंतजार करने लगा। फिर सोंचा अभी घर नही जाऊंगा थोड़ी देर वापिस मंदिर में चलता हूं शांति मिलेगी और अच्छा लगेगा।

मैंने वापिस एंट्री की मंदिर में पर इस बार अकेला था पर पूरे दिन की यादें मेरे साथ थी। उसका मुझे इस तरह देखना , मेरी हर बात का ध्यान रखना। मेरा हाथ पर हाथ रखना, साथ मे खाना खाना सब कुछ बारी बारी से याद आ रहा था। मैं हर उस जगह पर गया जहाँ जहाँ पर पर हम दोनों साथ गए थे। वहां वहां चल के देख जहाँ जहाँ हम साथ चले थे। वहां वहां बैठ के देखा जहाँ जहाँ हम साथ बैठे थे। उसी टेबल पर जाके फिर से वही छोले भटूरे आर्डर किये जो उसके साथ किये थे। जहाँ जहाँ भी गया उसकी खुशबू अभी भी वहां थी। जिस हाथ से उसका हाथ पकड़ा था उस हाथ को अब तक नही धोया था। पता नहीं जब वो जा रही थी तब ऐसा क्या हुआ। मैं डरा हुआ सहमा हुआ सा मंदिर से बाहर आ गया। घर जाने का मन ही नहीं कर रहा था। अगले बस स्टॉप तक यूँही पैदल चलता हुआ गया और वहाँ जाके बस पकड़ी।

दस बज चुके थे और नेहा को गए हुए दो घंटे हो चुके थे और मैं अभी भी बस में था। अभी घर आने में करीब एक घंटा था मैंने सोंचा एक बार कॉल करके पूंछ लेता हूं कि घर पहुंची या नहीं। दिल्ली शहर ही ऐसा है क्या करें। मैंने फ़ोन  लगाया तो उसने तुरंत फ़ोन उठा लिया। पर उस समय मेरी बस में भीड़ काफी बढ़ चुकी थी। हमारी बात शुरू तो हो गयी पर आवाज़ साफ साफ समझ नही आ रही थी।

मैंने पूंछा- हेलो नेहा, तुम घर पहुंच गई? हेलो तुमको मेरी आवाज आ रही है ना? हेलो.....

उसने कहा होगा- हाँ आवाज़ आ रही है पर क्या तुमको मेरी आवाज आ रही है? पर मुझे कुछ भी समझ नही आया।
मैंने पूंछा- तुम घर तो पहुंच गई ना?

उधर से कोई जवाब नही आया, मैने फिर से पूंछा पर कॉल कट गयी। मुझे उस भीड़ पर बहुत गुस्सा आया। सोंचा की कमीनों को जान से ही मार दू। फ़ोन अभी हाथ मे ही था। अचानक उसका मेसेज आया मैंने मेसेज पढ़ा उसमें लिखा था-

देव, मैं घर आराम से पहुंच गई हूं पर लगता है तुम अभी नही पहुंचे। आवाज़ नही आ रही है तुम्हारी इसलिए मेसेज किया।

मैंने पूंछा- अच्छा किया, मैं अभी घर नही पहुंचा, डिनर करने लगा इसलिए लेट हो गया। यहां बस में भीड़ बहुत है। इसलिए कॉल पर तो बात नही हो पाएगी। मेसेज पे करना हो तो बताओ?

उसका जवाब आया- ठीक है वैसे भी मैंने अभी खाना नही खाया है इसलिए टाइम है मेरे पास।

मैंने पूछा- और कैसा रहा आज का दिन?

उसने लिखा- जैसे तुमको तो पता ही नहीं है कैसा रहा।

मैंने लिखा- ओहो, इतना गुस्सा, अरे मैं तो मज़ाक कर रहा हूं। बस ऐसे ही पूंछ लिया। और खाना क्यों नही खाया अभी तक। दिन के छोले भटूरे अभी भी पेट मे है क्या?

उसने जवाब दिया- हाँ शायद।

मैंने लिखा- और बता, आज थक गई होगी ना बहुत?

मैं मेसेज का इंतज़ार करता रहा पर कोई जवाब नही आया। पांच मिनट बाद जवाब आया- देव, एक बात कहूं?

मैंने लिखा- हाँ कहो।

उसने लिखा - कुछ नहीं।

मैंने लिखा- तो आज कल तुम भी फिल्में बहुत देख रही हो। क्यूँ? अब बता भी दो क्या कहना चाहती हो।

उसने लिखा- कुछ खास नहीं बस इतना कि जब हम मंदिर में थे तब मेरा आपको छोड़ के जाने का बिल्कुल मन नहीं था। मैं और रुकना चाहती थी और आपसे बात करना चाहती थी।

मेरे शरीर मे जैसे करंट दौड़ गया। मैं चकरा गया। मेरी आँखों मे एक आँसू आ ही गया। पर बस में था रो भी नही सकता था। मेरा मन किया कि अभी नोएडा जाऊं और इस लड़की को गले लगा लूं और ज़िन्दगी भर इसका साथ न छोड़ू। कभी न छोड़ू। फिर दुनियां क्या कहेगी, लोग क्या सोंचेंगे वो सब बाद में। पर मैंने किसी तरह अपने आप को संभाला।

मैंने लिखा- अरे पागल है क्या परेशान मत हो किसी और दिन फिर से मिल लेंगे। आखिर हम दूर ही कितना है, ज्यादा से ज्यादा एक घंटा लगेगा। तुम बिल्कुल परेशान मत हो और एक काम करो जल्दी से खाना खाओ और सो जाओ।

फिर उसका जवाब आया- ठीक है देव जैसा आप कहो। आपसे एक बात पूंछू आप सच जवाब दोगे?

मैंने सोंचा आज ये बस में ही रुलायेगी लगता है।

मैंने बोला- पूंछो मैं यही हूं तुम्हारे साथ।

उसने पूंछा- देव, आप मुझे हमेशा याद रखोगे ना, कभी भूलोगे तो नहीं ना?

मैंने मेसज पढ़के सोंचा की आखिर अब करूँ क्या? ये कैसा सवाल है। अब इसका क्या जवाब दूं। बस से उतर जाऊ और जाके इस लड़की की पिटाई कर दूं। मैं करूं क्या आखिर?

मैंने लिखा- तू सच में पागल हो गयी है। ऐसी बातें क्यों कर रही है। तु भी यही है और मैं भी यही हूं। तुम खाना खाके सो जाओ प्लीज।

और मैंने भी दो चार आंसू और निकल दिए।

उसने लिखा - तुम जवाब दो देव मेरे सवाल का। तुम मुझे याद तो रखोगे ना?

मैंने लिखा- हमेशा और तुम्हारा हमेशा ख्याल भी रखूंगा। आई प्रॉमिस।

और फिर उसका मेसेज आया- थैंक यू देव इस स्पेशल दिन के लिए थैंक यू।

पर मैंने इस बार कोई जवाब नही दिया।

बस में मैं अकेला ही रह गया था या शायद पीछे की लास्ट सीट पर एक या दो लोग रहे होंगे। मैं अपनी आंसू से भरी आखों को छिपा रहा था।

मैंने सोंचा अभी तो ये परेशान है लेकिन कल तक फिर से सब नार्मल हो जाएगा तब आराम आए बात करूंगा और सब कुछ अच्छे से समझा दूंगा। और कल मैं इसको अपने दिल की पूरी बात कह ही दूंगा। फिर अगर ये नाराज़ भी हो गयी तो मुझे गम नही होगा। आखिर दोस्त बनके भी तो ज़िन्दगी काटी जा सकती है वैसे भी मैंने इसको प्रॉमिस कर दिया है छोड़ तो नही सकता इसको अब।

लेकिन अगर दोनों ही बातें उसको समझ नही आई तो हमेशा के लिए इससे दूर हो जाऊंगा। कभी इसके सामने नही आऊंगा। कभी नहीं।

मैने अपनी माँ से कहा-अरे माँ कितनी बार बोला है आपको कि ट्रैन में खाना मिलता है और इतना परेशान होने की जरूरत नहीं है। आप घबराया मत करो इतना। मैं कोई ना कोई जुगाड़ कर ही लूंगा खाने का वैसे भी तीस घंटे लगते है हैदराबाद जाने में। कब तक वही पूरी कचोरी खाऊंगा मेरी प्यारी माँ। पर माँ तो माँ है नही मानी और उसने ख़ूब सारा खाना पैक कर ही दिया।

जिंदगी कितनी बदल गयी है। दस साल पहले किसी ने सोंचा भी नहीं होगा कि साढ़े पांच इंच स्क्रीन वाला एक फ़ोन आएगा और ट्रेन में हमको बोर नहीं होने देगा। जितना बड़ा फ़ोन होगा उससे भी बड़ी मेमोरी होगी जिसमें दर्जनों फ़िल्मे आ जाया करेंगी। सच मे ट्रैन में यात्रा करना इतना भी बुरा नहीं रहा। हैडफ़ोन लगाओ और बाक़ी सब कुछ भूल जाओ।

मैं लखनऊ रेलवे स्टेशन पहुंच गया और हमेशा की तरह मुझे स्टेशन छोड़ने कोई भी नही आया। अब आखिर बच्चा बड़ा जो हो गया है। मैंने सोंचा कि हैदराबाद जाना है किसी से दोस्ती कर ही लूंगा ट्रैन में टाइम पास के लिए और फिर पहुंच जाऊंगा। ट्रैन आयी और मैं अपना सामान लेके ट्रैन में चढ़ गया और अपनी सीट पर जाए बैठ गया। ट्रैन अच्छी थी पर खाली थी ज्यादा लोग यात्रा नहीं कर रहे थे। शायद आगे आने वाले स्टेशनों पर और लोग चढ़ेंगे। मैंने अपना ट्राली बैग सीट के नीचे डाल दिया और ट्रैन अटेंडेंट से अपना कंबल और चादर मांगी। पूरे कम्पार्टमेंट में अकेला ही था बातें करने के लिए कोई था ही नहीं। गाने सुनने का भी मन नहीं था। पर डर भी इसी से लगता था। अकेलेपन से। पहले उन्नाव आया और फिर कानपुर और फिर वही होने लगा जिसका मुझे हमेशा डर रहता है, यादें वही यादें जिनको सोंच के आग लग जाती है और नफरत का तूफान दिल और दिमाग का बैंड बाजा देता है और मैं सात साल पहले के उन्हीं दिनों में पहुंच जाता हूं।

हाँ सात साल पहले। अभी 2015 चल रहा है और 2008 की खूबसूरत यादों के बारे में तो मैं आपको बता ही चुका हूँ। मैं फिर से उन्हीं यादों में खोने ही वाला था कि सबसे पहले उसका चेहरा मेरी आंखों के सामने आया। फिर वही 2008 की सर्दियों की रात सामने आ गयी। जब वो दीवानी होके मुझसे बोली थी कि -देव, तुम मुझे हमेशा याद तो रखोगे ना और मैंने कहा था कि हाँ नेहा में तुमको ज़िन्दगी भर याद रखूंगा पर आज मैं ये कहता हूं कि मैं तुमसे इतनी नफरत करता हूं तुम सोंच भी नही सकती। जो तुमने मेरे साथ किया उसे भूला भी नहीं जा सकता। शायद तुम इसी लिए मुझसे पूंछ रही थी कि मैं तुमको याद करूँगा की नहीं और नफरत करने के लिए याद तो करना ही पड़ता है।

गलती क्या थी मेरी। सिर्फ एक दिन मिले थे पर मैंने अच्छे से तुम्हारा खयाल रखा था। मैं तो तुमको घर तक छोड़ के आता एक बार कहती तो सही। तुमने तो जाने से पहले बात तक नही की थी नेहा। तुमको जाते हुए देखा था पर तुमने तो कभी पलट कर देखा तक नहीं, क्या इतना बुरा लगा था मैं। और अगर बुरा लगा भी था तो कम से कम एक बार बताती तो कम से कम एक मौका तो देती। मुझे पता है कि मैं दिखने में अच्छा नही हूं पर भगवान ने मुझे ऐसा ही बनाया है तो मैं क्या करूँ नेहा। मेरे पास अच्छी नौकरी नही है नेहा पर मैं कोशिश तो कर रहा हूं ना। आज नही तो कल कभी न कभी नौकरी मिल ही जाएगी। मुझे पता है नेहा कि तुम माइक्रोसॉफ्ट में काम करती थी और वहाँ के लोग बहुत स्मार्ट और पैसे वाले होंगे पर जितना प्यार में तुमको देता वो भगवान भी नही दे सकता। तुम्हे तो ये पता भी नही कि मैं तुमसे कितना प्यार करता था और तुमको ये भी नही पता कि आज मैंने तुमसे उससे भी ज्यादा नफरत करता हूं। तुम मेंरे साथ ऐसा कैसे कर सकती हो नेहा। तुमको तो शायद ये भी नही पता होगा कि हमारे मिलने के अगले दिन मैं तुमको अपने प्यार के बारे में बताने वाला था। अगर तुम हाँ कहती तो ज़िन्दगी कुछ और ही होती। और अगर तुम ना कहती तो मैं वैसे ही हमेशा के लिए तुसे दूर चला जाता। पर तब मुझे इस बात की तकलीफ न होती कि तुमने मुझे धोखा दिया बल्कि मुझे लगता कि कम से कम तुमने मुझे एक मौका तो दिया।

मैने तुम्हारी कितनी इज़्ज़त करता था और तुम मुझे अचानक छोड़ के चली गयी। कम से कम ये तो बताके जाती की कहाँ जा रही हो और क्यों जा रही हो। इतना बुरा भी नही था मैं जितना तुमने मुझे मेरी नज़रों में बना दिया। आज तक संभाल नही पाया हूं अपने आपको। सोते जागते चलते रुकते हर समय बस तुम, तुम्हारा चेहरा और तुम्हारी यादें। तुमने मुझे मज़बूत नही कमजोर किया है नेहा। मैं गलत था। मैं सोंचता था कि तुम्हारे साथ चलके जिंदगी में कहीं तो पहुंच ही जाऊंगा पर तुमने मुझे अपने साथ चलने लायक ही नही समझा।

नेहा कम से कम हज़ार बार मैंने तुमसे माफी मांगी होगी, ऑरकुट पे, फेसबुक पे, फ़ोन के मैसेज पे और ईमेल पर भी की अगर मुझसे कोई गलती हो गयी हो तो मुझे बताओ तो सही। आँखे पथरा जाती थी मेरी सारी रात रो रो के और तुम्हारे जवाब के इंतजार में। इतना बुरा भी नही हूं मैं। पर आज तक तुम्हारा एक भी जवाब नही आया। इतनी शिद्दत से नफ़रत करने लगी थी मुझसे तुम पर इसे भी ज्यादा शिद्दत से प्यार करने लगा था मैं ये  तुमको नही दिखा कभी।

कितने चक्कर लगाए मैंने तुमहारे आफिस के पर कभी किसी ने अंदर तक के नही जाने दिया। फिर आखिर कार मुझे हार कर दिल्ली छोड़नी ही पड़ी और कसम है दिल्ली में कभी कदम नही रखूंगा और उस गली कभी नही जाऊंगा जिस गली तुम कभी चली भी थी।

इतना कहते कहते मैं जोर जोर से रोने लगा और अपने बाल नोचते हुए कहने लगा मुझे माफ़ कर दो नेहा मुझे माफ़ कर दो प्लीज मेरे पास आ जाओ मुझे सिर्फ एक मौका देदो मैं तुमको बहुत प्यार दूंगा और मैं तुमको हमेशा याद रखूंगा प्लीज।

जून के महीना था बाहर मौसम काफी गर्म था। मेरे दर्द के इंतेहा की और ट्रेन के रफ्तार दोनों का पता ही नही चला और मैं झांसी पहुंच गया। मैं अपनी सीट पर सिर पर हाथ रखके बैठा था। तभी किसी ने बोला- भाई साहब एक बात बोलूं अगर आप बुरा न माने तो? मैंने देखा लगभग मेरी ही उम्र का एक लड़का अपना एक बैग लेके मेरे सामने वाली सीट पर बैठा हुआ था। उसकी बात सुनके मैंने अपना हाथ नीचे किया और मैं शीशे से बाहर देखने लगा।

उसने बोला- सिर पर इस तरह हाथ रखना अपशकुन होता है पता नही आप मानते है या नहीं पर मैं मानता हूं।

जवाब था मेरे पास पर मैंने चुप रहना ही ठीक समझा।
थोड़ी देर बाद वो बोला- आप कह जा रहे है सर्।

मैंने बताया- हैदराबाद

उसने बोला - काफी लंबी यात्रा है आपकी।

मैन पूंछा- क्यूँ? आप कहाँ तक जा रहे हैं?

वो बोला- जहाँ आप जा रहे है उससे थोड़ा पहले उतर जाऊंगा।।

मैने देखा था उसके पास समान भी कम ही था। शायद हर महीने या पंद्रह दिन में यात्रा करता रहता होगा। खैर मुझे क्या। कुछ भी करे मुझे क्या फर्क पड़ता है।

मैंने उसकी तरफ देखा तो काफी खुश लग रहा था। और मुझे देख देख कर मुस्कुरा भी रहा था।

उसने फिर पूंछा -चाय पियेंगे? अपने घर से बनवा के लाया हूं। माँ ने बनाई है एक दम कड़क वैसे भी AC कोच में चाय और भी अच्छी लगती है पर मैंने देखा और माना ही कर दिया। पता नही वो लड़का इतना क्यों चिपक रहा था। मेरा मूड वैसे ही बहुत खराब था। पिछले छह घंटे में मैंने अपना दिल और दिमाग दोनों ही इतने खराब कर लिए थे कि अब अच्छी बातें भी मुझे बुरी लग रही थी। वो धोखेबाज लड़की जिसने मेरी जिंदगी में आके मेरी जिंदगी बर्बाद कर दीं उसको कभी माफ नही करूँगा और गलती से कहीं मिल गयी तो....पता नही क्या कर दूंगा।

वो लड़का बोला- और सर् आप हैदराबाद में करते क्या है? कहीं किसी सॉफ्टवेयर कंपनी में तो नहीं?

मैं बोला- हाँ, सॉफ्टवेयर कंपनी में ही हूं। बहुत टाइम हो गया। तुमको सॉफ्टवेयर कंपनी से कोई प्रॉब्लम है क्या?

वो बोला- नहीं, पर हैदराबाद, बैंगलोर और नोएडा में हर दूसरा आदमी सॉफ्टवेयर में ही होता है ना इसलिए। कुछ भी पर्सनल नही हैं।

मैं मुस्कुराते हुए बोला- अच्छा।

पर मुझे नोएडा के नाम सुनके मिर्ची तो लग गयी थी।

मैंने पूंछा- और आप बताइए आप क्या करते है?

वो बोला- मैं भी सॉफ्टवेयर इंजीनियर हूं, पहले एक बड़ी कंपनी में काम करता था अब खुद की कंपनी डाली है नोएडा में। अभी उसी काम से जा रहा हूं।

मैं बोला- हां, अच्छा है, पर खुद की कंपनी खोलना आसान नही है इन दिनों। मेरे दोस्तों के ग्रुप ने एक बार कोशिश की थी हमारे इंजीनियरिंग कॉलेज का नाम सुनते ही भगा दिया सबको। अब सारे किसी न किसी बड़ी  कंपनी में है पर खुद की कंपनी कोई नही खोल पाया। आप ने कब की अपनी इंजीनियरिंग?

वो बोला - लंबा टाइम हो गया भाई, 2007 में की। आई आई टी मुम्बई से।

वो यह बता भी रहा था और मुझे देखकर मुस्कुरा भी रहा था। कॉलेज का नाम सुनके मैं बिल्कुल सन्न रह गया। मेरी सांसे रुकने को थी और गले मे अजीब सी कड़वाहट आ गयी।
फिर आगे वो बोलता ही रहा मुझे कुछ पता नही क्योंकि मेरा ध्यान हट गया था उसकी तरफ से।

उसने आखिरी में बोला- क्या हुआ भाई, कहीं खो गए आप? सब खैरियत।

मैं अपने को संभालते हुए बोला- कुछ नही बस कुछ पुराना है तुम्हारी आई आई टी मुम्बई से। बस वही याद आ गया था।

वो बोला- ऐसा क्या कर दिया है आई आई टी वालों ने आपके साथ , कितने अच्छे होते है वहाँ के लोग।

मैं बोला - हाँ सच कह रहे हो आप, सच मे बहुत अच्छे होते है। वैसे आपने अपना नाम नही बताया?

निहाल सिन्हा नाम है मेरा- वो बोला और उसने अपना हाथ मिलाने के लिए मेरी तरफ बढ़ाया।

मैंने हाथ मिलाते हुए बोला- अब। आप ये मत कहना कि आप एलेक्टोनिक्स इंजीनियर है। और मैं जोर से हंसा।
वो बोला- नहीं मैं इलेक्ट्रॉनिक्स नहीं मैकेनिकल इंजीनियर था पर सॉफ्टवेयर कंपनी में नौकरी लगी तो अब सॉफ्टवेयर सॉफ्टवेयर खेलता हूं। वो छोड़िए आप ये बताइये न कि आई आई टी से आपका क्या लफड़ा है?

मैंने बोला- कुछ नही थोड़ा पर्सनल है।

वो बोला - कोई बात नहीं अगर आप चाहो तो क्या पता मैं आपकी मदद कर सकू आपकी सोंच बदलने में। वैसे भी सफर लंबा है।

वो जब भी कुछ बोलता तो मुस्कुराता रहता था जो मुझे बुरा लग रहा था। जितना मैं उसको समझ रहा था वो बातूनी था पर बुरा इंसान नही था।। मैंने पहली बार किसी को अपने बारे में बताने की सोंची। औऱ बताने में कोई नुकसान भी नही था आखिर आज के बाद मैं उस लड़के से कौनसा मिलने ही वाला था।

मैंने निहाल से बोला- 2007 में मेरी दोस्ती हुई थी एक लड़की से तुम्हारे कॉलेज की थी। तुम्हारे ही बैच की। पर अपनी ज्यादा चली नहीं। धोखा दे गई जैसा सब लड़कियां करती है।

वो बोला- सब नहीं करती है भाई।

मैंने बोला- इसीलिए मैं किसी को कुछ बताना नही चाहता।

वो बोला- अच्छा सॉरी, पहले आप बता लो फिर मैं बोलता हूं।

मैंने अचानक उत्तेजित होके ऊंची आवाज में बोल दिया। पर वो शांत रहा और मुस्कुराता रहा।

मैं तुरंत ठंडा होके बोला- कुछ नही यार, तुम्हारे बैच में रही होगी अगर तुमको याद हो, नेहा, नेहा सचान नाम था उसका।

अचानक वो गंभीर होके बोला- भाई वो स्टार थी अपने कॉलेज की। पढ़ाई में ठीक ठाक पर पेंटिंग में सुपरस्टार थी वो। आज भी उसके बनाये हुए पेंटिंग कॉलेज में लगे हुए है। उसे कौन नही जानता। पर तुम उसको कैसे जानते हो?

इतनी देर में टी टी आ गया और टिकट चेक करने लगा, मैंने अपना टिकट चेक कराया और वो टिकेट देख कर चला गया।

मैंने निहाल को बताया कि हम ऑनलाइन मिले थे और फिर दोस्ती हो गयी बस उसके आगे पता नही वो कहाँ चली गयी। मैंने निहाल को ये जाहिर नही होने दिया कि आज भी मैं नेहा के नाम से रोज रोता हूं और आज भी मुझे उतना ही दर्द है जितना सात साल पहले उसके बिना बताए जाने पर हुआ करता था। मैंने माहौल को हल्का ही बनाये रखा और अपने आंसुओं को भी अपने अंदर ही छिपाए रखा।

वो बोला - चली गयी मतलब? तुम्हारी बात समझ नही आई क्या तुम उसके बॉयफ्रेंड हो?

मैंने पता नहीं क्यूं शक हुआ कि ये लड़का या तो कुछ जनता है या फिर फालतू के टाइम पास कर रहा है। पर इसको अपने बारे में कितना बताया जाए कितना नहीं बताया जाए कितना जरूरी है कुछ समझ नहीं आ रहा था। वो हर आधे घंटे में मुस्कुराते हुए अपने घर से लाई हुई चाय पीने लगता था।

चाय की चुस्की लेते हुए वो बोला- अगर तुम सच और पूरी बात बताओ तो मैं भी कुछ बातें तुमसे साझा करूँगा। पर जैसे कि तुम मुझपे भरोसा न करके तोल मोल के बोल रहे हो वैसे ही मुझे भी भरोसा नही है तुमपे इसलिए मुझे भी तोल मोल के बोलना पड़ रहा है। मुझे नेहा सचान के बारे में जानकारी तो है। पर.....

अब तक मैं उग्र था और वो रक्षात्मक पर अब उसने मुस्कुरा मुस्कुरा के मुझको रक्षात्मक बना दिया। मेरे मन मे भावना और क्रोध का एक अजीब सा द्वंद्व चल रहा था। पर इस बार भी क्रोध की विजय हुई और फिर भी मैंने उसको अपनी पूरी कहानी नही सुनाई।

हम दोनों कुछ देर शांत बैठे रहे। वो कभी चाय पीता कभी खिड़की से बाहर देखता और कभी मेरी तरफ। अभी तक उसने मुझे ये भी नही बताया था कि उसका आखिरी स्टेशन कौन सा है। कहीं ऐसा न हो कि ये बिना कुछ बताये ही चला जाये। हर स्टेशन के आने से दस मिनट पहले मेरी दिल की धड़कने बढ़ जाती पर अभी तक वो नही उतरा इस बात की खुशी भी थी।

थोड़ी देर बाद वो अपना सामान लेके उठा और ट्रेन के दरवाज़े के पास जाके खड़ा हुआ। और दो मिनट बाद ही चंद्रपुर स्टेशन आ गया। और वो वही उतरने लगा। अब मुझे अपनी गल्ती का एहसास हो चुका था। मैं उसकी तरफ एक उम्मीद भारी नज़रों से देख रहा था और ये सोंच रहा था कि अगर अब दस मिनट ही मिल जाये तो मैं अपनी कहानी बताके उस लड़के आ भरोसा जीत कर नेहा के बारे में जान लूं कि अभी वो कहाँ है और ख़ुश तो है ना। पर अब देर हो चुकी थी। उसने जाने की सोंच ली थी। कुछ ही पलों बाद ये जगी हुई उम्मीद भी खत्म होने वाली थी। मेरे गुस्से और नफरत ने फिर मुझे वहीं लाके खड़ा कर दिया। ट्रैन रुकी, निहाल ट्रैन से उतरा उसने बैग नीचे रखा। मैं ट्रैन से नीचे नही उतरा और दरवाजे पर ही खड़ा रहा। स्टेशन खाली था बिलकुल भीड़ नही थी और बहुत गर्मी भी थी। मात्र एक मिनट के लिए ही ट्रैंन वहां रुकी और हरी झंडी होते ही फिर चल दी। ट्रैन के चलते ही निहाल मेरे पास आया और बोला- शादी कर लो देव, प्लीज शादी कर लो अब। हाँ देव एक बात और उसे भूल जाओ क्यूंकि वो अब नही है कहीं भी नही है। वो सभी को छोड़ के जा चुकी है बहुत पहले।

ट्रैन चल चुकी थी और मेरे पास कोई रास्ता नही था ट्रैन से कूद भी सकता था पर हिम्मत नही जुटा पाया पर कुछ ही पलों बाद मन में आया कि कूद ही जाता हूं। ज़िंदा रहने का हक भी नही है मुझे। मरना चाहता हूं मैं अब आखिर ज़िंदा रहके भी क्या करूंगा अब।

मैं होश खोने ही वाला था कि- एक मिनट उसने मुझे देव कहके बुलाया। पर उसने मुझसे कभी मेरा नाम पूंछा ही नही और मुझे अच्छे से याद है मैंने उसे अपना नाम बताया ही नहीं। फिर इसको नाम कैसे पता मेरा। ये कैसे हो सकता है ।

उस लड़के के साथ बिताया हर एक पल फ्लैशबैक की तरह मेरी नज़रों के सामने से बीता और मैं शत प्रतिशत सही था कि उसने मैंने उसको अपना नाम नही बताया था।

मैंने अब सोंचा कि कैसे भी इस लड़के से मिलना है चाहे कुछ भी हो जाए। मैंने ट्रैन के दरवाजे पर लटककर रिजर्वेशन तालिका पर नज़र दौड़ाई पर उसमे उसका नाम नही था। फिर मैंने सोंचा की शायद निहाल ने टी टी को कुछ पैसे देके सीट कन्फर्म करवाई हो। मैं भगता हुआ टी टी के पास पहुंचा और बोला- सर् मेरे सामने वाली सीट पर लड़का बैठा हुआ था क्या उसकी कोई जानकारी मिल सकती है आपसे।

टी टी बोला- कैसी जानकारी सर्? क्या हुआ सामान चोरी हो गया क्या?

मैं बोला- नही नहीं, सामान नहीं पर कुछ जरूरी बात थी। देखिए न चार्ट में शायद उसका कुछ डिटेल हो।

टी टी बोला- आपका सीट नंबर तो बताओ?

मैं बोला- A1-13, वो मेरे सामने ही बैठा था।

ये कहते कहते मेरी आँखें भर आई क्यूंकि बात अब निहाल के जाने की नहीं नेहा के इन दुनियां से जाने की भी थी। मैं कांप रहा था। रोने का मन फिर से कर रहा था। या कहूँ मर के उसके पास जाने का मन था। बस अब यही एक तमन्ना रह गयी थी कि कैसे भी बस एक बार उससे माफी मांग सकू।

इतने में टी टी बोला- अरे सर् ये तो सेकंड AC का कोच है इसमें तो लखनऊ से सिर्फ एक ही रिजर्वेशन था वो भी देव नाम से और इसके अलावा और पूरा कोच ही खाली आया है। ये बिल्कुल नई ट्रैन है ना ज्यादा लोग नहीं जानते इस ट्रैन के बारे में।

मैं हैरान होके बोला- पर झांसी से एक लड़का  मेरे सामने बैठा था उससे मेरी बात भी हुई उसने अपना नाम निहाल बताया। और आप बोल रहे है कि कोई ट्रैन में आया ही नही मेरे अलावा। ये कैसे हो सकता है।

टी टी बोला- वही मैं भी आपसे पूंछ रहा हूं जो आप कह रहे है वो भी कैसे हो सकता है। अगर आपको यकीन नही है तो आप ट्रैन अटेंडेंट से पूंछ लो। आखिर कंबल और चादर तो आपके निहाल ने भी लिए होंगे।

मैं फौरन भागता हुआ अटेंडेंट के पास पहुंचा और उससे पूंछा कि मेरे सामने वाली सीट पर जो लड़का था क्या उसने उसको कंबल या चादर दिया था?

वो बोला - नही साहब, इस कोच में तो सिर्फ आप ही है बाकी एक भी आदमी आया ही नही तो कंबल किसको दूंगा।

मेरे पैरों के नीचे से जमीन निकल गयी थी। मेरे होश उड़ चुके थे। कुछ भी पल्ले नही पड़ रहा था कि आखिर इतनी देर से मैं किससे बात कर रहा था और कौन था वो जिसने जाते जाते मुझे शादी करने की सलाह दी। जिसको मेरे नाम बताए बिना ही मेरा नाम पता था।

"पर हाँ जब टी टी टिकट चेक करने आया था तब उसने सिर्फ मेरा ही टिकट चेक किया था उसने तो सामने वाली सीट के लड़के से बात भी नही की थी। क्या वो लड़का सिर्फ मुझे ही दिख रहा था? और वो इतना मस्कुरा रहा था। क्या करूँ मैं किसके पास जाऊ समझ नहीं आ रहा था"

निहाल कौन हो तुम और नेहा को कैसे जानते हो। आखिर ये चल क्या रहा है। अचानक मेरी तबियत बिगड़ने लगी और मैं अपनी सीट पर जाके बैठ गया और कंबल ओढ़ने लगा। जैसे ही मैन कंबल खोला उसमे से एक डायरी निकलकर जमीन पर गिर पड़ी। मैंने उस डायरी को उठाया और देखा उसके कवर पर लिखा था- 2008 और नीचे लिखा था "नेहा"।

सच मे निहाल कोई था ही नहीं वो सिर्फ एक माध्यम था नेहा का मुझसे बात करने का और अपनी बात मुझ तक पहुंचाने का कि शादी कर लो क्यूंकि वो सचमुच में इतनी दूर जा चुकी है कि कभी वापस नही आ सकती। और उसे पता था कि मैं चाहे उससे कितनी भी नफरत कर लूं मैं आज भी सिर्फ उसी से प्यार करता हूं और करता रहूंगा। किसी आदत को छोड़ने के लिए उसी को आना पड़ता है जिसने वो आदत डलवाई हो। शायद इसीलिए नेहा निहाल बनके मेरे पास आई थी पर मैं उसको कुछ कह ना पाया कुछ भी बता न पाया।

अब मेरे पास सिर्फ मेरे आँसू थे और थी नेहा की लिखी हुई एक डायरी। मैंने अपनी भीगी हुई आंखे पोंछी और डायरी का पहला पन्ना खोला।

मैंने डायरी खोली और देखा कि पहले पन्ने पर नेहा की एक पुरानी फ़ोटो लगी हुई थी उसको देखकर एक बार फिर मैं भावुक हो गया। उसकी मुस्कुराहट ने एक बार फिर मेरे दिल मे हलचल पैदा कर दी। आंखों में पानी भर आया था पर मैं अपने हाथ से उसकी फ़ोटो को छूने से रोक नहीं पाया ठीक उसी तरह जैसे सात साल पहले मैंने उसको छुआ था। मन ही नही किया इसकी आंखों से अपनी नज़र हटाने का। लग रहा था कि जैसे अभी पूंछ लेगी की कैसे हो देव? मुझे याद तो करते हो ना? तुम ख़ुश तो हो ना देव? पर मैं कैसे कहता कि हां मैं तुम्हारे बिना ख़ुश हूँ। कहना चाहता था कि अगर तुम नही तो कुछ भी नहीं। जिसकी नफरत के सहारे जिंदा हूं आखिर प्यार भी तो उसी से जो था।

मैंने एक पन्ना पलटाया और डायरी पढ़ना शुरू किया। शुरुआत के कुछ पन्नो में उसने अपने बचपन की कुछ ख़ूबसूरत यादों को दोहराया था और फिर आई आई टी में अपने चयन के पीछे की मेहनत को भी बताया था। इन्ही सब के बीच कहानी 2007 पर पहुंच गई। वहाँ उसने ऑरकुट पर हुई हमारी दोस्ती का जिक्र किया था। मेरे बारे में भी लिखा था। उसने हर उस बात का जिक्र किया था जो हम करते थे चाहे वो शुरुआत में ऑरकुट पर मिलना हो, मेरा नाराज होकर भरोसा खो देना हो या फिर पहली बार फ़ोन पर बात करना। वो भी मेरे लिए उतनी ही परेशान थी जितना कि मैं था। उसका नोएडा आना सिर्फ मेरे लिए था मुझसे मिलने का एक बहाना था। नही तो वो हैदराबाद या भारत से बाहर भी जा सकती थी।

उसने बताया कि कैसे वो भी मेरे ईमेल का इंतजार करती रहती थी क्यूंकि उसको मुझसे बातें करना अच्छा लगता था। वो भी हैरान थी कि क्यूंकि उसने भी कभी किसी अनदेखे और अनजाने इंसान से दोस्ती नही की थी। बिल्कुल न मिल पाने के बदले सिर्फ एक बार एक दूसरे को देख लेना ये भी तो एक शुरुआत ही थी। हमने मंदिर में एक दूसरे के साथ जो भी समय बिताया उसका भी पूरा पूरा वर्णन था। उसके शब्दों में इतना कुछ छुपा हुआ था कि पढ़ने के बाद आंसू रुकने का नाम ही नही ले रहे थे।

मैंने डायरी आखिरी से पढ़नी चालू की ये सोंचके की शायद कुछ पता चले कि आखिर उसको हुआ क्या था। डायरी पूरी भरी हुई नहीं थी इसलिए मुझे इस बात का यकीन था कि इसके बाद शायद उसने कुछ नहीं लिखा होगा या लिख नही पाई होगी। मैंने एक बार फिर आए पढ़ना शुरू किया-

            "आज मैं देव से आखिर मिल ही आयी। झूठ बोल कर मिलना बुरा लग रहा है पर पता नही क्यूँ आज उससे मिलने के बाद झूठ बोलना सच से भी ज्यादा अच्छा क्यूँ लग रहा है। उसके साथ बिताया एक एक पल इतना खूबसूरत था कि उसको वहाँ से छोड़के आने का मन ही नहीं कर रहा था। पर वो भी बिल्कुल गधा ही है। एक बार भी रुकने के लिए नहीं कहा औऱ लल्लू ने एक बार भी बात नहीं की के फिर आगे कब मिलना हो पायेगा। पर जैसा भी है अच्छा है। मंदिर में जब हम दोनों छोटे से पानी के कुंड के पास थे तो पता नहीं सिक्का डालकर  उसने भगवान से क्या मंगा होगा। मैंने तो सिर्फ भगवान से इतना ही मांगा कि मेरे देव की हर ख्वाहिश पूरी हो चाहे मैं उसकी ख्वाहिश में रहूं या नहीं। पिछले एक साल में उसने मेरी ज़िंदगी बदल के रख दी नही तो मैंने भी खुशियों की उम्मीद ही छोड़ दी थी। वो आया और तब जाके ज़िन्दगी वापिस आयी है। वो थोड़ा सा कंफ्यूज और थोड़ा सा परेशान रहता है पर जब हम साथ हो जायेंगे फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा। कल शाम तक अगर उस लल्लू ने मुझसे कुछ भी नहीं कहा कि उसके दिल मे क्या है तो मैं ही रात में सब कुछ बोल दूंगी। अगर उसके दिल मे भी वही है जो मेरे दिल मे है तो फिर जिंदगी साथ मे बिताएंगे और अगर उसके दिल में मेरे लिए कुछ भी नही है तो फिर मैं हमेशा के लिए चली जाऊंगी उससे दूर बहुत दूर।

पर भगवान करे ऐसे कभी न हो देव कि हम अलग हो और एक दूसरे बहुत दूर चले जाएं। काश ऐसा हो कि ये डायरी हम दोनों बूढ़े होने पर एक साथ मिल कर पढ़े और इन खूबसूरत दिनों को फिर से याद करें। भगवान करें ये दिन कभी खत्म ही ना हो क्यूंकि डर लगता है कल पता नही क्या हो। वो मुझे समझेगा भी या नहीं।

कल का दिन बहुत बड़ा है बहुत बड़ा कल सब कुछ बदल जायेगा दोस्ती भी और रिश्ता भी।

अरे लिखते लिखते इतना लेट हो गया पता ही नहीं चला और कल आफिस भी तो जाना है। बाकी कल लिखती हूं आगे जो भी होगा देखेंगे। एक बात कहूं देव-आई लव यू।"

उसके आगे कुछ भी नही था और पन्ने तो खाली थे पर शब्द खत्म। उन कोरे कागजो पर शायद वो मेरे साथ अपना भविष्य लिखना चाहती थी पर अचानक वो दूर हो गयी हम सबसे इस दुनियां से। उन तारों के भी पीछे जो आज सबसे ज्यादा चमकते है और मुझे चिढ़ाते है। पर उसके इन शब्दों ने फिर से एक बार उसको सही और मुझे गलत साबित कर ही दिया।

हाँ, वो मुझसे प्यार करती थी और मैं उसको हमेशा गलत ही समझता रहा उसको धोखेबाज़ समझता रहा मैंने उसको कितना बुरा भला कहा पर उसने तो कभी धोखा दिया ही नहीं बल्कि ज़िन्दगी ने खुद उसके साथ धोखा किया था। मैंने अपनी ज़िंदगी के सात साल नफ़रत में निकाल दिए। पर मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा आज कि तुम जहां भी हो नेहा ही सके तो मुझे माफ़ कर देना।

मुझे आज तक ये तो पता ही नही चल पाया कि आखिर नेहा को हुआ क्या था और उसने दुनिया क्यूँ और किन हालातों में छोड़ी पर मैं इतना तो समझ ही गया हूँ कि मेरी जिंदगी में उसके आने की क्या मकसद था। मकसद सिर्फ इतना था कि मैं प्यार को समझ सकूं, भरोसा करना सीख सकूं। पता नही क्यूँ आज लग रहा था कि इस सब के लिए मैं ही जिम्मेदार हूं। अगर उस दिन मैंने मिलने के लिए इतनी ज़िद्द न कि होती तो हम न मिले होते और वो कहीं भी होती पर शायद ज़िंदा होती। इससे भी अच्छा ये होता कि मैंने अपनी परीक्षा के दिनों में ऑरकुट लॉगिन ही न किया होता। मैंने प्यार में सब कुछ पाकर उसको खो दिया और उसने प्यार में सब कुछ खोकर आज मुझे फिर से हमेशा के लिए अपना बना लिया।

वो नेहा थी या निहाल था फर्क नहीं पड़ता वो ट्रैन में कब चढ़ा, कैसे चढ़ा, कब उतारा फर्क नही पड़ता पर कुछ समय के लिए ही सही एक बार फिर से उसने मेरी ज़िन्दगी में आके फैले हुए अंधेरे को हटा एक नई सुबह दिखाई है।

कुछ समय बाद मैं हैदराबाद पहुंच गया और अपना आफिस जॉइन किया। अगले ही दिन छुट्टी ली और फ्लाइट से दिल्ली आ गया। आखिर अब कसम भी तो तोड़नी थी कि दिल्ली में कभी कदम नहीं रखूंगा वाली। आखिर वो दिल्ली ही तो थी जहाँ मैंने उसको पहली बार देखा था और वो दिल्ली ही थी जहां मैने उसके साथ एक खूबसूरत दिन बिताया था और वो दिल्ली ही तो थी जिसने मुझसे मेरी नेहा को हमेशा के लिए छीन लिया। दिल्ली में मैं एक बार फिर अपने वही दिन उसके ही साथ जीना चाहता था।

मैं फिर चार बजे शाम को सरोजिनी नगर के बस स्टॉप पर था और उसके फ़ोन के आने का इंतजार करता रहा । इंतजार करते हुए शाम के छह बज गए पर इस बार कोई फ़ोन नही आया और न ही किसी बस की किसी खिड़की पर वो मुस्कुराते हुए बैठी दिखी। पर ये देखकर अब रोना नही आता बल्कि अपनी की हुई गलतियां दिखती है और खुद पर ही तरस आता है।

अगले दिन मैं ग्यारह बजे अक्षरधाम मंदिर पहुंचा। गेट पर चारो तरफ देखा हज़ारों की भीड़ थी पर उनमें बस वो नही थी जिसका इंतज़ार मैंने उस दिन किया था। अंदर जाते समय इस बार मुझे कोई भी नही देख रहा था। मंदिर में मैं हर उस जगह गया जहाँ वो मुझे अपने साथ लेके गयी थी। मैं हर उस रास्ते पर चला जहाँ कभी वो मेरे साथ चली थी। छोले भटूरे आर्डर तो कर दिए पर इस बार पता नही क्यूँ मैं खा नहीं पाया। गला को भर आया था दर्द से। मुझे पता था कि वो कहीं नही है कहीं नही पर जब भी मैंने अपनी आँखें बंद करके अपना हाथ बढ़ाया तो उनसे मेरा हाथ जरूर थामा। वो वही थी मेरे साथ मेरे करीब हाथों में हस्त डालके। मैं फिर उसी पानी के कुंड पे गया जहाँ उसने सिक्का डाल कर मेरे लिए मन्नत मांगी थी।  पर इस बार बारी मेरी थी। मन तो था कि भगवान से इस बार नेहा को ही मांग लूं पर मेरा भगवान इतना भी अच्छा नही है। मैं सिर्फ इतना ही कह पाया कि वो जहां भी हो खुश हो और मेरी फिक्र न करे।

नेहा मैं तुमसे मिलूंगा जरूर आज नही तो कल तब ना कोई नौकरी होगी न कोई दिल्ली होगी और ना कोई ट्रैन और न कोई मंदिर और न कोई मंदिर का भगवान जो हमको अलग कर सके। सिर्फ मैं और तुम, दूर बहुत दूर बादलों से भी आगे और तारों से पीछे जहां कोई भी हमको अलग नही कर पायेगा। हम फिर हमेशा साथ रहेंगे और खूब सारी बातें करेंगे अनंत के लिये।

लिखने को बहुत है पर सोंचता हुआ यही रुकना सही है। क्यूंकि जैसे जैसे आगे बढ़ रहा हूं वैसे वैसे उसकी यादें और भी गहरी होती जा रही है। मेरा लिखा हुआ हर एक शब्द उसको मेरी नज़रों के सामने लाता है और मैं फिर मैं रुक जाता हूं।

इति

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इस कहानी के कुछ अंश उसकी डायरी से लिये गए है इसलिए उनमे बदलाव संभव ना था। कृपया इस अंतिम भाग पर अपना कमेंट और लाइक अवश्य दे। इससे लेखक को प्रोत्साहन मिलता है

.......देव

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