हवाओं से आगे - 21 Rajani Morwal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हवाओं से आगे - 21

हवाओं से आगे

(कहानी-संग्रह)

रजनी मोरवाल

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हवाओं से आगे

(भाग 1)

हर प्रश्न के दो जवाब होते हैं, अतुल हमेशा आजकल ज़ाहिदा से यही कहा करता था | अक्सर होता भी यही था कि बात-बात में वह इसी जुमले को दोहराता और हमेशा उसके दिए जवाब में दो मत उपस्थित होते थे | वह अपनी सहजता के हिसाब से बेहतर वाले ऑप्शन पर वह तर्क देता और हर बहस के अंत में वह पूर्ण आत्मविश्वास से दोहराता,

“मैंने तो पहले ही कह दिया था कि किसी निर्णय पर पहुँचने से पूर्व हमेशा उसके दो पहलुओं पर विचार करना चाहिए”

“तुम सिर्फ़ विकल्प अपने हाथ में रखना चाहते हो इसीलिए दो राय रखते हो और जिस राय में तुम्हारी जीत सुनिश्चित हो उस पर तर्क करते हो”

“अब दो विचारों का विकल्प लेकर तो चलना ही चाहिए, जीवन भर के तमाम मुद्दों को कभी भी एक तरह से नहीं सोचा जा सकता”

“हम्म... तुम पहले तो ऐसा नहीं सोचते थे, अगर सोचते भी थे तो कहते नहीं थे, अब कौन बहस करे तुमसे, वैसे भी मैं आज बहुत थक गई हूँ” ज़ाहिदा जूते पहनकर सैर को निकल गई थी, दरअसल फ़िलवक्त में इस मुद्दे से पलायन करने का इससे बेहतर दूसरा कोई ऑप्शन उसे सुझाई नहीं दिया था | बहुत दिनों से ऐसा ही चल रहा था कि बिना कारण ही वे उलझ जाते थे, दोनों में से कोई भी इसका कारण ढूँढना नहीं चाह रहा था |

वह कुछ देर यूँ ही घूमती रही मगर उस रोज़ घूमने भी मन नहीं लगा, सारी प्रक्रिया बेमक़सद सी थी, पैर उठाए नहीं उठते थे | शरीर का तारतम्य जब दिमाग से टूट गया हो तो यही होता है, वह बगीचे की बेंच जाकर बैठ गयी | वहीं बैठे-बैठे कुछ बरस पीछे सफ़र पर निकल गयी थी | कहाँ क्या बदला ? परिस्थितियों में कितना बदलाव आया ? और अगर नहीं आया तो इसके लिए किसका धर्म अधिक ज़िम्मेदार है ? जाहिदा का या अतुल का ? अथवा दोनों ही समान रूप से ज़िम्मेदार हैं ? क्या प्रेम करना जुर्म है या सिर्फ़ प्रेमी जोड़े ही इन सब मसलों के पीछे गुनाहगार हैं ? उन्हें या तो प्यार करना नहीं चाहिए अगर किया भी जाए तो सिर्फ़ समान धर्मियों के साथ और अपनी ही जातियों या सह जातियों में ?

ज़ाहिदा अब भी डरी-सहमी सी रहती है, मानों कोई ट्रॉमा गुज़रा था उस पर और अब वह फोबिया बनकर उसके रक्त और मज्जा में समाहित होकर उसके शरीर का हिस्सा बन गया हो, अब तक वह इसी डर के साथ ही तो जीती आई थी, मर जाने या मारे जाने की धमकियों के बीच जिंदगीं सरककर इस मोड़ तक चली आई थी |

दोनों कहाँ-कहाँ नहीं छुपते फिरे थे, लोग उनके प्रेम विवाह को ‘बोम्बे’ फिल्म की कहानी से जोड़कर देखा करते थे, उन पर तरह-तरह के इल्ज़ाम लगे थे कि फिल्मों ने उन्हें बिगाड़ दिया किन्तु ज़ाहिदा और अतुल की सच्चाई यह थी कि उन्होंने वह फिल्म कभी देखी ही नहीं थी | उनका प्रेम किसी फ़िल्म की उपज नहीं थी, बस महज़ संयोंग ही रहा होगा कि उनके प्रेम के साथ-साथ वह फ़िल्म भी बनती रही होगी | दोनों इस बात पर शादी के बाद भी कितना हँसते थे |

छन्नू चाचा गुड़िया के जन्मदिन पर बच्चों के मनोरंजन के लिए कुछ सी.डी. लाए थे, उन दिनों 100 रुपए किराए पर एक 24 घंटों के लिए वी.सी.आर. किराए पर मिलता था | ज़ाहिदा और अतुल को भी उन्होंने जिद करके रात वहीं रोक लिया था | एक के बाद एक फिल्म की सी.डी. लगाई जा रही थी | ज़ाहिदा को फिल्मों का कोई ख़ास शौक नहीं था फिर भी वह बेमन से सबकी ख़ुशी के लिए स्क्रीन पर आँखें घुसाए बैठी थी | चाची और घर की अन्य महिलाओं के साथ रसोई में चाय-पकौड़े के इंतज़ाम करने के लिए जाते देख ज़ाहिदा भी उनके पीछे-पीछे चल दी थी, चौके के बाहर ही चचिया सास ने उसे हँसते हुए बड़ी अदा से रोक दिया था,

“दुल्हन तुम नई-नवेली हो, तुम कहाँ हम बूढियों के संग चूल्हा-चौका करने चली, जाओ बच्चों के साथ फिलम देख लो”

“नहीं-नहीं मुझे कोई ख़ास शौक नहीं है चची मैं आपके साथ हाथ बंटा देती हूँ”

“बहुरानी हमें चाचीजी कहा करो चची तो तुम लोगों में कहते होंगें” चाची ने अपनी छोटी देवरानी की ओर अपनी एक आँख मचकाते हुए कहा था, उन्होंने बहुरानी शब्द पर कुछ अधिक ही स्ट्रेस दिया था | ज़ाहिदा सब समझती थी कि उसे रसोई से बाहर रखने के उपक्रम में ये सारी जुमलेबाज़ी चल रही थी |

ज़ाहिदा अपने समाज की महिलाओं के लिए एन.जी.ओ. में काम करती थी, अतुल के बराबर पद पर न सही पर कामकाजी तो थी ही और ऐसे ही एक महिला के हक़ की रैली व धरने में सबसे आगे नारे लगाती पतली-दुबली ज़ाहिदा के तेवर अतुल को इस कदर भा गए थे कि वह उसका पीछा करता हुआ एक रोज़ उसके एन. जी. ओ. तक जा पहुँचा था | खैर वह उस वक़्त माहौल ख़राब नहीं करना चाहती थी सो चुपचाप लौटकर कालीन पर पैर फैलाकर बैठ गयी थी,

“जाहिदा अद्दब से बैठो यानिकी बड़ो के सामने लिहाज से, थोड़ा ढंग से” छन्नु चाचा की उर्दू सुन-सुनकर वह आजिज़ आ चुकी थी, मानाकि वह मुस्लिम थी लेकिन हर मुसलमान उर्दू बोलता या समझाता ही हो यह ज़रूरी तो नहीं | पता नहीं अक्सर यह क्यूँ अज़्युम कर लिया जाता है ? वह पैर समेटकर बैठ गयी थी, पैरों के साथ-साथ ज़ाहिदा ने अपना वजूद भी अपने भीतर सिमटा लिया था,

“चाचा जी अदब होता है अद्दब नहीं, और लिहाज़ होता है लिहाज नहीं, ज में नुक्ता लगता है तो यहाँ ज़ होता है और मेरे नाम में भी नुक्ता लगता है वह जाहिदा नहीं है ज़ाहिदा है...” उसने अतुल की तरफ घूरकर देखा था किन्तु अतुल की गिड़गिड़ाती आँखों ने उसे चुप रहने को मजबूर कर दिया था,

“हो...हो...हो क्या फरक पड़ता है भई ? अब ये नुक्ता क्या होता है हमने तो ज़िन्दगी भर या तो नुक्ताचीनी की है या नुक्ती के लड्डू खाएँ हैं, हो...हो...हो” इस मर्तबा छन्नू चाचा की हँसी से ज़ाहिदा को चिढ़ नहीं हुई थी बल्कि सहानुभूति हो आई थी, जिन्हें फरक का फ़र्क ही पता न हो उन पर कोई गुस्सा भी क्या करे भला, अब्बा का कहा एक दोहा उसे याद ज़रूर आया था, वे कहते थे-

“मूर्ख करे बकवास औ’ चतुर रहेगा मौन |

पर वाणी सयंम भला, रख पाएगा कौन ?”

“नुक्ती यानिकी बूंदी के लड्डू न चाचाजी ?” ज़ाहिदा ने अभी से ही छन्नू चाचा को माफ़ करना सीख लिया था, वह भी उनके सुर में सुर मिलाकर जोर से हँस पड़ी थी, अतुल ने आश्चर्य से उसकी तरफ देखा था |

फिर एक के बाद एक फिल्मों का सिलसिला चल निकला था... सत्ते पे सत्ता, शोले, क़यामत से क़यामत तक, दुल्हन वही जो पिया मन भाए और अँखियों के झरोखे से आदि...अतुल और ज़ाहिदा एक-दूजे से सटे सारी फ़िल्में देखते रहे थे | ज़ाहिदा ने फिर दुबारा रसोई का रुख नहीं किया था किन्तु वहीं बैठे-बैठे सबको खाना परोसकर प्लेटें जरूर पकड़ाती रही थी, घर के बच्चे कब के ऊँघने लगे थे पर बड़े सदस्य अब अंतिम सी.डी. देखने बैठे थे... छन्नू चाचा ऐसा करेंगें ये अतुल को भी अंदाजा नहीं था, फिल्म थी ‘बोम्बे’ स्क्रीन पर गाना शुरू हुआ “तू ही रे- तू ही रे तेरे बिना मैं कैसे जियूं”

“तू भी हमारे परिवार का अरविन्द स्वामी है, है न अतुल ? तू ब्राह्मण और अपनी ज़ाहिदा मुसलमान” छन्नू चाचा चहके थे,

“और ज़ाहिदा हमारी मनीषा कोइराला” चाची कोई मौका नहीं छोड़ना नहीं चाहती थी ज़ाहिदा को तंज़ देने का

“चलो ज़ाहिदा सुबह मुझे ऑफिस भी जाना है” अतुल अभी-अभी खुद ठीक उसी दर्द से गुज़रा था जिसके कुछ कडवे घूँट ज़ाहिदा ने रसोई की चौखट पर कुछ देर पहले ही गटके थे,

“आई एम् सॉरी ज़ाहिदा” अतुल ने अटकते-अटकते कहा था,

“नहीं... गलती तुम्हारी थोड़ी है, घर के लोग ऐसा सोचते हैं तो क्या गलत है, सारी दुनिया की राय भी तो यही है, गिला-शिकवा तो परायों से भी नहीं मुझे तो फिर ये तो अपने लोग हैं” ज़ाहिदा कहने को कह गई थी किन्तु वह भीतर ही भीतर व्यथित जरूर हुई थी | घर वालों की रज़ामंदी के बिना शादी करके उन दोनों ने अपने ऊपर आफत मोल ले ली थी, उस पर भी दोनों धर्मों के मूल में कट्टरता अपनी उत्कर्ष पर थी |

लोग कट्टरता पर उतर आते हैं तो हुजूम में तब्दील हो जाते हैं और भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता, वहाँ सिर्फ़ भयंकर शोर होता है जिसमें दबकर तर्क अक्सर कुचले जाते हैं और कुतर्क शूल बनकर विचारों में धंसते चले जाते हैं | भीड़ के गुजरते ही वहाँ लोगों की मृत आत्माएँ बची रह जाती हैं जो शहरों में भटकती हुई बाक़ी आबादी के घरों में दस्तक देती फिरती हैं, किन्तु उनकी गुहारें कोई नहीं सुनता क्योंकि आत्माओं की आवाजें नहीं होती ...न मस्तिष्क ...न विचार...न धर्म...न ईमान, वहाँ बस भेड़ों की मानिंद सिर झुकाए एकजुट लोगों भीड़ होती है |

अहमदाबाद, मुंबई, दिल्ली जैसे बड़े शहरों से लेकर छोटे-बड़े कई गाँवों में वे दोनों छुपते-छुपाते फ़िरते रहे थे, नाते-रिश्तेदार उन्हें एकाध दिन से अधिक अपने घर में टिकने नहीं देते थे | ज़ाहिदा के भाई ने मस्ज़िद के उलेमा के साथ ख़बर भिजवाई थी कि यदि अतुल उनका धर्म कबूल कर ले तो वे उसे अपना लेंगें वर्ना कुछ भी हो सकता है... इस ‘कुछ भी’ के भीतर कितना कुछ हिडन था सोचकर ज़ाहिदा की रूह काँप गई थी |

वह अतुल को मना नहीं सकी थी, किस मुँह से समझाती ? आख़िर यही तो एकमात्र ऐसी शर्त थी जिस पर वे दोनों रजामंद हुए थे कि दोनों में से कोई भी अपना धर्म परिवर्तित नहीं करेगा और वे दोनों एक-दूसरे के धर्मों की इज्ज़त करेंगे और आस्था के साथ-साथ अपने विश्वास को मजबूत करेंगे किन्तु अंधविश्वास को अपने जीवन में कतई नहीं बर्दाश्त करेंगे |

मकान-दर-मकान भटकते-भटकते ज़ाहिदा और अतुल परेशान हो चुके थे, न हिन्दू कॉलोनी में कोई मकान मिलता था, न मुस्लिम कॉलोनी में | दोस्तों के भरोसे कब तक ज़िन्दगी कटती ? उधर ज़ाहिदा के भाई अतुल का धर्मांतरण करवाकर उनदोनों को सऊदी अरब अमीरात भेजने की योजना बना रहे थे, वे ज़ाहिदा पर जोर डाल रहे थे | जान के डर से अपना देश छोड़कर भागने वालों में से अतुल और ज़ाहिदा तो नहीं थे कम-अज-कम | सारा जहान दुनिया के एक छोर पर खड़ा था तो उधर जाहिदा-अतुल दोनों दूसरे छोर को कस कर थामे खड़े थे, ज़रा ढील दी तो शादी के चीथड़े उड़ जाएँगे, लोग तो पहले ही भविष्यवाणी करके बैठे थे,

“मनमानी कर लो तुम अपनी, ज़ियादा दिन चल जाए इस गैर धरम के काफ़िर साथ तुम्हारा निकाह तो शर्त लगा लो” अम्मी ने अपने भाई के बेटे के साथ बचपन से ही उसका रिश्ता तय कर रखा था | उसे बद्दुआ देते हुए वे दरवाजे से ही लौट गई थीं | उधर अतुल के परिवार वाले अतुल की छोटी बहनों की शादी की चिंता से बेज़ार हुए जा रहे थे,

“इनका भी नहीं सोचा तूने ? अब इनसे कौन ब्याह करेगा ? इन्हीं कट्टों से ब्याह देना अपनी बहनों को” अतुल के पापा अपना सिर दीवार से फोड़ते हुए चीख पड़े थे, लहुलुहान पिता को हाथ लगाने की इजाज़त भी उसे नहीं मिली थी, वे लोग सड़कों पर बेसहारा ही निकल आए थे, अपने दम पर जीवन जीने |

ज़ाहिदा को ज़लील होते देख अतुल ने कसके थाम लिया था,

“अभी से कमज़ोर हुए तो जीवन कैसे बीतेगा ? यह तो क़दम-क़दम पर झेलना होगा, चिंता मत करो हम अपना जहान ख़ुद बनाएंगें जहाँ हमारे सुख-दुःख होंगें, हमारे गम होंगें तो खुशियाँ भी हमारी ही होंगी”

“अतुल क्यों न हम दोनों किसी दूसरे मुल्क में सेटल हो जाएँ ?”

“ज़ाहिदा हमने वचन लिया था कि हम इसी देश में रहेंगे”

“किन्तु हम कब तक दोस्तों के भरोसे पड़े रहेंगे”

“मैं भी तो किराए के मकानों के लिए हर ग्यारह महीनों के एग्रीमेंट के वास्ते झूठ बोल-बोलकर थक गया हूँ, अब ऐसे में नौकरी करूँ या मकानों की तलाश ? अगर मकान मालिक तैयार भी हो जाता है तो पडोसी ऐतराज़ करते हैं”

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