हवाओं से आगे - 20 Rajani Morwal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हवाओं से आगे - 20

हवाओं से आगे

(कहानी-संग्रह)

रजनी मोरवाल

***

वे अब यहाँ नहीं रहते

(भाग 3)

उत्तरा उसके पीछे-पीछे लगभग खिंची चली जा रही थी “या अल्लाह... वो सिर पकड़कर नीचे बैठ गया था । उत्तरा कुछ समझ पाती इससे पहले वह लपककर खड़ा हुआ था और उसे लेकर दौड़ता हुआ पास के एक घर में दाखिल हो गया था । उसके माथे पर लगभग आधा सेंटीमीटर का घाव उभर आया था ।

“बाहेर कर्फ्यू लगा है मेम जी, यहीं रुकना होगा, में शाम को हालात देखूंगा तबी न आपको छोड़ आऊंगा होटल ।”

“उफ्फ ...कितनी गलत हिंदी बोलते हो ?” उत्तरा चिढ-सी गयी थी ।

“मेम जी आपको अपनी और मेरी जान से अधिक ये हिंदी का मसला लग रहा ? अल्लाह कसम नमूना हो आप बी” वह अपने सिर के ज़ख्म पर अपना मफलर लपेटता हुआ बोला था ।

ग्लानि होने लगी थी उत्तरा को, पर वह शायद गलत रियेक्ट कर गई थी ।

“ओह...लाओ मैं बाँध दूं ठीक से ।” ज़ाहिर में तो वह बस यही कह पाई थी । बाहर शोरगुल से लग रहा था ये झड़प और पत्थरबाज़ी सब प्रायोजित थी किन्तु पेलेटगन से छलनी नाज़ी फिर भी ये मानने को तैयार नहीं था ।

“उनने ये जानबूझकर किया है जी, क्या ज़रूरी था बच्चों के ऊपर गनबाज़ी करना ?

“पर उन्होंने ये डराने के लिए किया होगा, आखिर इन बच्चों को भी तो पत्थरबाज़ी नहीं करनी चाहिए, जिन हाथों में किताबें और कलम होनी चाहिए उनमें पत्थर थामे घूम रहे हैं और फिर भी तुम्हें गलती इन बच्चों की नज़र नहीं आती ? उनमें युवा भी थे शामिल थे समझे ? वैसे भी तुम तो खुद शिकार हुए हो इस झड़प में, तुम क्या मुँह लेकर वक़ालत करने निकले हो ?” उत्तरा को होटल पहुँचने की जल्दी थी और अपनी सलामती की फ़िक्र भी । माँ-पापा को पता चल गया तो उनकी जान हलक में आ जायेगी ।

“इनकी क्या गलती है मेम जी सब पापी पेट का सवाल है इन्हें तो कुछ पैसों के एवज़ में पत्थरबाज़ी करने को उकसाया जाता है जबकि इनमें से आधे से ज्यादा बच्चों को तो ये भी पता नहीं कि वे कर क्या रहे हैं ?

“मैं कुछ नहीं समझती ।”

“दरअसल आप ही नहीं कोई बी हमको समझने को तैयार नहीं हैं ।” उसका दर्द खुलकर फूट पड़ा था ।

देर रात को मीडिया वालों की मदद से वह उत्तरा को किसी तरह होटल पहुँचा गया था । शुक्र था कि किसी ने उसके कमरे में खोजबीन नहीं की थी । अनामिका की सवालिया निगाहों को उसने समझा-बुझा दिया था ।

“अब मैं तुझे अकेले तो नहीं छोडूंगी पठ्ठी ?

“हाँ इस बार तुझे भी मिलवा दूँगी नाज़ी से, दरअसल हम लोग भी उन्हें समझने को तैयार नहीं ।”

“ओहो... तो उसकी बोली सीख आई गुइयाँ, आधे दिन के संग-साथ ने तुझपर इत्ता असर कर दिया मेरी जान ? चल बता कर्फ्यू के वक़्त जब तुम दोनों उस घर में अकेले थे तो क्या-क्या किया ? क्या रंगरेलियां मनाकर आई उस नाज़िम के साथ ?

“धत्त... पगली नाज़ी तो खुद ज़ख्मी है बिचारा !”

“ओये-होए वह अब बिचारा हो गया ? और नाज़िम तेरे लिए नाज़ी कब से हो गया ?

“अरे नाज़िम बड़ा नाम था तो मैंने उसे शॉर्ट कर दिया, इट्स सो सिंपल, यू नॉटी गर्ल !”

“भई वाह ! तुम जैसे इश्क़ के मारों के लिए ही तो तस्लीम फ़ज़ली ने कहा है कि-

“रफ़्ता-रफ़्ता वो मेरी हस्ती का सामां हो गये,

पहले जाँ,फिर जानेजाँ, फिर जानेजाना हो गये,

प्यार जब हद से बढ़ा सारे तकल्लुफ़ मिट गए

आप से, फिर तुम हुए, फिर तू का उनवाँ हो गए” अनामिका गाती हुई उत्तरा की पीठ पर आ बैठी थी ।

“अरे पगली चल उतर, माना की धारा 377 संवैधानिक हो गई पर आई एम स्ट्रेट ।”

“बट आई डोंट माइंड बेबी !” अनामिका और उत्तरा अपनी-अपनी बदमाशियों के साथ अपने-अपने बिस्तर पर सोने चल दी थी किन्तु देर तक उत्तरा की आँखों के आगे से नाज़िम का लहुलुहान चेहरा हटाए नहीं हट रहा था, न जाने क्या हालत होगी उसकी ? बेकार ही मुसीबत में डाल लिया उसने अपने-आपको शीरी पिलाने के चक्कर में । वह अगले दिन ग्रुप से अलग नहीं हो सकती थी पर किसी तरह भी उसे नाज़िम की स्थिति तो जाननी ही थी, इंसानियत भी कोई चीज़ होती है आखिर ।

“काश कोई फ़ोन नंबर ही ले लिया होता तो कॉल कर लेती ।” अब बड़बड़ाना बंद भी करो लड़की ! अनामिका ने सुझाया था ।

“टूर मैनजर तो यक़ीनन जानता होगा, कल उसी से पूछ लेना, अब सो जाओ !”

उत्तरा कसमसाती हुई सोने की कोशिश करने लगी थी । उसकी कलाई पर नाज़िम के मजबूत हाथों की पकड़ के निशाँ अब भी बाक़ी थे, छुअन में हल्का-हल्का दर्द उभर आया था । उत्तरा के नाज़ुक कलाइयों पर किसी मेहनती हाथों की रेखाएं पहली मर्तबा यूँ छपी थी, अब ये आसानी से अपनी मौजूदगी मिटने कहाँ देगी ? उफ़... ये फीलिंग्स कितनी किलिंग है बाय गॉड ! उसने अपनी कलाई को हौले से तकिये पर टिका दिया था मानों सुबह तक उन अनुभूतियों को ज्यों कि त्यों सहेज लेना चाहती हो ।

दिन भर की थकान उस पर हावी होने लगी थी । उसने अपनी आँखें इतनी जोर से मूँद ली कि दो आँसूं ढुलक आए थे अनायास ही । उसकी आँखों में किसी की एक जोड़ी आँखें झाँकने लगी थी, उसने कसकर अपनी पलकें भींच ली थी, कुछ और आँसूं वहाँ अब तक बचे रह गए थे जिन्हें उसने आँखों में ही ज़ज्ब कर लिया था ।। ख़्वाबों का उतरना पलकों से न होकर दिल की राह हुआ था उस रात । सुबह जल्दी जागी थी उत्तरा और तैयार होकर होटल लॉबी में जा पहुँची थी । अपनी रुटीन लाइफ से उबा-थका गाइड उसे देखकर चौंक पड़ा था । उत्तरा उससे नाज़िम का नंबर ले आई थी ।

न चाहते हुए भी उत्तरा को अनामिका ने घसीटते हुए जीप में बिठा लिया था । गुलमर्ग के रास्ते में बर्फ़ ही बर्फ थी । सड़क के किनारे जीप के टायर बर्फ को काटते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे । चिनार के बड़े दरख्तों की कतारें कुछ इस अंदाज़ से उन्हें ताक रही थी मानों कह रही हों आओ एक मर्तबा गले लग जाओ, देखों कितनी जम चुकी हैं भीतर ही भीतर शिराएँ कि भीतर से कोई कतरा भी नहीं हिलता, दिल में ब्लॉकेज़ जम आया है !” अनामिका को सुनाया तो वह झल्ला उठी ।

“पगलेट हो क्या ? पेड़ बात नहीं करते और न उनके दिल होता है तो ब्लॉकेज़ कहाँ से होगा ? तुम भी एंवई... !”

“मुझे नाज़ी को फ़ोन करना है ।”

“कर लो न बन्नो रानी ! क्यों तड़प रही हो ?” अनामिका ने उसे अपना भी फ़ोन पकड़ा दिया था ।

“यहाँ नेटवर्क कहाँ है ?

“ओह ! मैं तो भूल गयी थी हम स्विट्ज़रलैंड के माउंट टिटलिस में नहीं गुलमर्ग में हैं। यहाँ पहाड़ों में अब भी नेटवर्क नहीं लगता उस पर भी जब ये सर्द हवाएँ चलने लगे... अब तो इंतज़ार ही करना होगा होटल पहुँचने तक ।” अनामिका उसे चिढ़ा रही थी किन्तु वह उसकी हालत से वाक़ई बावस्ता भी थी ।

उत्तरा आत्मग्लानि में डूबी थी प्रेम में नहीं, जो अगर प्रेम होता तो वह गीत गाती, झूमती, उन वादियों का लुत्फ़ उठाती और ख़्वाब बुनती किन्तु यहाँ तो बात आत्मा पर बोझ की आ ठहरी थी । यहाँ दिल इंवाल्व नहीं था और जहाँ दिल तकल्लुफ़ करे वहाँ दिमाग बहुत शोर मचाता है ।

“हॅलो... हॅलो नाजी... क्या तुम बोल रहे हो ?”

“हा जी ! आप कोन बोल रेह ?”

“नाजी ! मैं उत्तरा... तुम्हारी तबीयत अब कैसी है ?”

“ठीक हूँ जी, आप कब जा रेह वापिस ?”

“परसो... लेकिन मैं तुम्हें देखने जरूर आऊँगी ।”

“अरे ऐसी कोई बात नहीं, मेडम जी ! आप शिकारे पे आ जाना, मेरे घर पे ज़रा मुश्किल होगा ढूँढने में

“अच्छा ?”

पैकेज टूर के अंतिम दो दिन बचे थे और उत्तरा के साथ-साथ उसकी सहेलियाँ भी अभी लौटना नहीं चाहती थीं । कितना कुछ था वहाँ, एक्सप्लोर करने को किन्तु पैकेज में सबके साथ रहना होता है सो मजबूरी थी । वह अखरोट की छाल खरीदना चाहती थी ताकि होठों को लाल कर सके किन्तु वहाँ से काँगड़ी खरीद लाई जो तन-मन को गरमा गई और एक शंख भी जिसे हथेलियों में दबाकर वह स्याह रातों को अपना स्ट्रैस मैनेज किया करती थी ।

टी.वी. पर पेलेटगन के उपयोग को लेकर बहसों के बीच उसे अक्सर लाल चोक की कवरेज़ दिख जाया करती है, वह उनमें लहूलुहान नाज़िम तलाशती है तो कभी डल झील पर तैरते शिकारों के बीच उस शिकारे को खोजा करती है जिस पर बैठकर उसने अज़ान को रूह में उतारा था । वह फिर-फिर वहाँ जाना चाहती है ।

अनामिका ने कई मर्तबा उकसाया था उसे ।

“एक फोन ही कर ले, न हो जो कोई दिल का मामला पर तसल्ली होना भी इस जीवन को आगे बढ़ाने के लिया अहम है, बंदों में इश्क़ ही हो ये ज़रूरी नहीं ।”

“तो जरूरी है क्या फिर ?” उत्तरा जैसे अपने सब्र के अंतिम पड़ाव पर थी ।

“तसल्ली मेरी जान ! तसल्ली ! एक बंदा जुबान पर लफ़्ज़ भी नहीं ला पाया और कोई दूसरा बंदा उसे दिलो दिमाग से उतारता हुआ रूह तक जज़्ब कर गया । इसी आपसी समझ की तसल्ली, जो इश्क़ और शादी से अलहदा भी, किसी और से हो सकती है बल्कि किसी एक से नहीं हमारे जीवन में आने वाले कई-कई व्यक्तियों से हो सकती है । ये कोई गुनाह नहीं और न ही इश्क़ है तो दिल पर मत ले और फिर फोन कर लेने में भी कोई हर्ज़ नहीं ।”

“सच कह रही हो, उम्र भर का बंधन हो यह ज़रूरी नहीं होता, पल भर की मुलाकात ही काफ़ी है” उत्तरा मन ही मन बुदबुदा उठी थी-

“तसल्ली-सी हो जाए ज़रा

फ़क़त इतना ही पता हो,

क्या तुम्हें भी हिचकियाँ आती होंगी

जब याद मैं करती हूँ”

अगले रोज़ उसने तनिक हिचकिचाते हुए फोन लगा ही दिया था...

“हॅलो... हॅलो !”

“हेलो ...” वहाँ से एक गंभीर आवाज़ आई थी,

“जी... नाज़ी है ? आई मीन नाज़िम अली मानहस ?”

“वो अब यहाँ नहीं हैं !”

“जी कब मिल सकते हैं ? क्या वे शिकारे पर गए हैं ?”

“कभी नहीं... शिकारा अब हमने बेच दिया ।”

“क्यों ?”

“पेलेटगन लगी थी उसे कुछ रोज़ पहले, जिसका इन्फेक्शन दिमाग तक फैल गया था और वो...” इससे ज्यादा उत्तरा कुछ सुन नहीं पाई और बेहोश होकर फर्श पर ढह गई, होश आया तो अस्पताल में अनामिका सामने थी ।

“काश ! उस रोज़ मैं शीरी पीने लाल चौक न गई होती ?”

“होनी को कोई टाल नहीं सकता, यही नियति थी शायद ।“

उत्तरा फफक उठी “यही हालात रहे तो एक दिन घाटी में कोई नहीं रहेगा ।”

“तुमने कुछ कहा ?”

“तुम तो हिन्दू नहीं थे नाज़िम !” उत्तरा अपने-आप में खोई हुई थी ।

***