हवाओं से आगे - 19 Rajani Morwal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हवाओं से आगे - 19

हवाओं से आगे

(कहानी-संग्रह)

रजनी मोरवाल

***

वे अब यहाँ नहीं रहते

(भाग 2)

अगले दिन वे सभी शालीमार बाग़ जाने के लिए निकल चुके थे । ऑफ सीज़न के कारण बाग में उजाड़ पड़ा था सिवाय कुछ चिनार के, जो शाखों से सूखे पत्तों को रह-रहकर झटक दे रहे थे मानों हालात के सुधारने की गुँजाइश लिए अपने होने की गवाही में कुछ उम्मीद भरे पत्र हवाओं के माध्यम से वादियों को भिजवा रहे थे । उनका समूह बाग़ के बीचोंबीच था कि तभी एक ख़बर आई कि कुपवाड़ा में सेना के कैम्प पर हमला हुआ है । उनमें से कोई भी जल्दबाज़ी में वहाँ से निकलने के लिए तैयार नहीं था किन्तु स्थिति की नाजुकता भाँपते हुए हड़बड़ी मच गयी थी । दूर बजती बाँसुरी से उत्तरा के पाँव ठिठक गए थे वह चाहकर भी अपने-आपको रोक नहीं पाई थी । किसी भी खतरे की परवाह किए बिना वह शालीमार बाग़ के बीच बने महल की ओर खिंची चली जा रही थी ।

फिज़ा में ग़मगीन धुन लहरा रही थी...

“मेरे नयना सावन भादो फिर भी मेरा मन प्यासा... फिर भी मेरा मन प्यासा...” धक् से रह गया उत्तरा का मन, हूक उठा देने वाली बाँसुरी में से मानो चीत्कार गूँज रही थी । सच ही तो है उन दीवारों के रँग उड़े पलस्तर-सी हालत हो गयी कश्मीर की, जिसकी सिसकियाँ भी बाहर सुनाई नहीं देती । उजाड़ पड़े शालीमार बाग़ में बेरोज़गारी से जूझते उन युवकों में से एक पिछले नौ बरस से उसी कोने में बैठा बाँसुरी बजा रहा था । आने-जाने वालों से कुछ माँगता तो नहीं किन्तु सैलानी खुश होकर कुछ रुपए दे-दे तो वह सिर झुकाए ही रुपए हाथ में थाम लेता है ।

गाइड उत्तरा को ढूँढते-ढूँढते वहाँ आ पहुँचा था । वह लगभग ठेलते हुए उत्तरा को वैन की तरफ ले चला था उसीने बताया था कि दरअसल उस लड़के को प्रेम में धोखा मिला था बस तभी से वह बाग़ के उस एक कोने में ज़ज्ब होकर बैठ गया था । कभी-कभार तो वह रातों के अँधियारे में बेंतेहाँ रुआँसी धुनें बजाने लगता है कि बाग़ का बूढ़ा चिनार भी अपनी नाराज़गी जताने लगता है । बिना हवा के भी न जाने कैसे वह जोर-जोर से हू-हू करता हुआ अपनी शाख़ें लहराने लगता है ।

अगली सुबह बाग़ में पीले पत्तों के साथ-साथ ढ़ेर सारे हरियल पत्ते भी असमय टूटकर अंबार लगा देते हैं ।उत्तरा ने चलते-चलते कुछ पत्ते बीन लिए थे, होटल आकर जिन्हें उसने अपनी डायरी के बीचोंबीच दबा दिए थे, जब सूख जाएँगें तो वह उन्हें फ्रेम में जड़वा लेगी । यूँ ही स्मृतियाँ बटोरना उसकी आदत नहीं कमज़ोरी है जिसके चलते वह कई बार दुःख भी बटोर लाया करती है । स्मृतियाँ हमेशा सुखद ही हों ये ज़रूरी तो नहीं ।

अगले दिन सब गुलमर्ग जाना चाहते थे लेकिन उत्तरा के सिर में भयंकर दर्द की शिकायत थी, वह आराम करना चाहती थी । अनामिका ने रुकना चाहा था पर उत्तरा अपने कारण किसी और का प्लान खराब नहीं करना चाहती थी सो उसने जबरन अनामिका को भेज दिया था । दोपहर तक वह रज़ाई में लिपटी करवटें बदलती रही थी, न नींद आ रही थी न दिमागी सुकून ही मिला था उसे । होटल के उस कमरे में पड़ी उत्तरा पछता रही थी कि वह सहेलियों के साथ गुलमर्ग ही क्यों नहीं चली गयी, उकताहट में उसने कपड़े बदले और डल झील के किनारे जा पहुँची ।

शिकारे वाले उसकी तरफ दौड़े चले आए, पूर्ती से माँग अधिक जो थी । चारों ओर से उठती आवाजों के शोर से वह घबराने लगी थी वैसे भी ठंड कुछ अधिक ही थी, शायद पानी की सतह को छूकर हवाओं में कुछ कंपकंपी भर दी थी ।

“अरे हटो दूर ये हमारा परमानेंट कस्टमर है ।” वह लगभग सबको हड़काता हुआ उस पर अधिकार जमाने लगा था । उत्तरा ने देखा यह वही शिकारे वाला था जिसे उसने मन ही मन खडूस का तमगा दिया था ।

“ओह...तुम ? मैं परमानेंट तो नहीं हूँ, उस रोज़ जरूर मैं बैठी थी अपने ग्रुप के साथ तुम्हारे शिकारे पर लेकिन तुम्हारा व्यवहार बड़ा रुखा था हमारे प्रति ।" उत्तरा ने शिकायती लहजे में अपनी बात कही थी ।

“माफ़ करना मेम जी ! आज मेरी बोहनी नहीं हुई, मैं आपको आज झील का बड़ा चक्कर लगवा लाऊंगा आप बैठो तो सही, दूसरों से कम ही रुपया ले लूँगा बस ।” वह रिरियाने लगा था ।

“ठीक है, चलो !” उत्तरा उसके पीछे-पीछे शिकारे की ओर चल दी थी, इस मर्तबा वह उसे अपना कोई हम उम्र-सा लगा था जोकि अभावग्रस्त होकर स्ट्रेस मैनेज नहीं कर पा रहा था और ओवर रियेक्ट कर गया था उस रोज़ ।

शिकारे के बढ़ते ही चारों ओर से उसे अन्य शिकारों ने घेर लिया था, कोई गहने बेच रहा था, कोई ऊनी कपड़े, फिरहन, कश्मीरी शाल तो कोई तो कोई अखरोट की लकड़ी के बने खिलौने व सिगारपाइप्स । उत्तरा ने कुछेक वस्तुएँ खरीदी और एक सिगार पाइप ख़ास अनिमेष के लिए ।

वह कुछ सेटल होने ही लगी थी कि उसने कहा...

“ये जो खेती है ये पानी की सतह पर तैरती रहती है, यहाँ सबके अपने-अपने शिकारे हैं इनमें लोग रहते भी हैं और किराए पर भी देते हैं ।” ये जानकारियाँ शायद वह बोनस में दे रहा था, वह अपेक्षाकृत नम्र लगा था उत्तरा को ।

“तुम्हारा नाम क्या है ?

“जी नाज़िम !”

“नाज़िम के मायने ?

“एडमिनिस्ट्रेटर, अब असल ज़िन्दगी में तो कब्बी एडमिनिस्ट्रेटर बन नहीं पाउँगा इसलिए माँ-बाप ने नाम ही रख दिया ।” वह खिसियाकर हँसने लगा था, उसके गोरे मुँह पर ललाई चमक आई थी, उसके होठों पर वक़्त की पपड़ी जमी हुई थी ।

“कित्ता तो सफ़ेद झक्क है ये बाय गॉड ! अगर शहर में होता तो लड़कियाँ मर-मिटती इस पर ।

“आपने कुछ कहा ?

“न... नहीं, कुछ नहीं...” ये क्या मन की बात पढ़ लेता है ?” उत्तरा बुदबुदा उठी थी ।

“आपका नाम क्या है मेम ?

“उत्तरा...” उसके यूँ मेम बोलने पर उत्तरा को हँसी आ गयी थी ।

“ये धुआँ कहाँ से उठ रहा है, धुँध तो नहीं लगती ?

“जी मेम ! यहाँ लोग शाम पड़े ठंड से बचने के लिए और खाना-वाना पकाने के लिए अखरोट के सूखे पत्ते जलाते हैं न, बस वही धुआँ है जो आस-पास फ़ैल गया है, प्रदुषण है ।”

“समझते हो तो कुछ करते क्यूँ नहीं ?

“सब समझते हैं मगर कोई भी, कहाँ कुछ कर रहा है मेम जी !” वह व्यंग्य से बोला था ।

“कितने हिन्दू हैं यहाँ ?

“कोई नहीं, अब वो यहाँ नहीं रहते ।”

“ये जो शिकारे तैर रहे हैं ।”

“ये सब शिकारे मुसलमानों के हैं, हिन्दू सब चले गए मैदानों में जाकर बस गए, जो बच गए वे अपनी साँसों की अमान पाकर हर रोज़ ख़ैर मनाते हैं, यहाँ कुछ भी हो सकता है ।”

“हम्म...” कई दिनों की थकान और नाज़ुक तबियत के कारण उसमें उदासी-सी उतर आई थी ।

सूरज अस्त होने को था । आसमानी करामातें पीले-नारंगी रंगों में झील के आस-पास रूहानी फितरतें पैदा कर रही थीं तभी कई-कई सारी अज़ान एक साथ गूंजने लगी थी मानों कोई आत्मा को झकझोर कर जगा रहा हो कि उठो उस परवरदिगार का शुक्रिया अदा करो । उस खुदा का स्मरण करो जिसने ये जहान बनाया और तुम्हें इस कायनात के तमाम सुख भोगने भेजा । उत्तरा वह आराम से आँखें मूंदकर बैठ गयी । पूरा वातावरण संगीतपूर्ण हो उठा था जैसे चैतन्य बोध में डूबकर कोई अध्यात्म की अलख जगा रहा हो-

“अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर,

अश-हदु अल्ला-इलाहा इल्लल्लाह, अश-हदु अल्ला-इलाहा इल्लल्लाह,

अश-हदु एना मुहम्मदर रसूलुल्लाह, अश-हदु एना मुहम्मदर रसूलुल्लाह,

ह्या अलास्स्लाह, ह्या अलास्स्लाह, हया अलल फलाह हया अलल फलाह

अस्सलातु खैरुं मिनन नउम, अस्सलातु खैरुं मिनन नउम,

अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर, ला-इलाहा इल्लल्लाह”

उत्तरा शिकारे से सिर टिकाकर बैठ गई थी ।कितना तो रूहानी अनुभव था, ऐसा लग रहा था वह किसी ओर ही दुनिया में विचरिण करने लगी हो । उसका मन किया कि वह दरवेश नृत्य करने लगे । सूफ़ी दरवेशों की मानिंद खड़े एक स्थान पर एंटीक्लॉक वाइज़ मस्ती में घूमती चली जाए... घूमती चली जाए । ईश भक्ति में तब तक झूमती रहे तब तक कि उसका मन निर्मल न हो जाए और देह थककर ढह न जाए ।

“ये इन्टरप्रेट कर सकते हो ?” उसकी निगाहों में सवाल आ ठहरा था ।

“यानिकी इस अज़ान की व्याख्या कर सकते हो ?

“हाँ मेम जी, ये नमाज़-ए-अस्र की अज़ान है जो सूर्यास्त होने के पहले होती है ।”

“यानिकी दिवसावसान की तीसरी नमाज़ यही न ? इतना तो मैं भी जानती हूँ, भई सेक्युलर मुल्क में रहते हैं । हम सभी एक-दुसरे के धर्मों की जानकारी तो होती ही है, तुम तो अज़ान की व्याख्या करो ।”

“वह जो पुकारता है उस मस्जिद से उसे मुअज्ज़िन कहते हैं जो दिन के पाँच वक़्त कहता है कि-

अल्लाह सबसे महान है, आओ नमाज़ की ओर आओ सफ़लता की ओर, अल्लाह के सिवा कोई इबादत क़ाबिल नहीं ।”

“बहुत सार्थक बात है, वाकई उस उपरवाले के सिवा कोई और इबादत के लायक हो भी कैसे सकता है ?

“आपने नून चाय पी यहाँ की ? शीरी चाय जो गुलाबी होती है ?

“न... नहीं, तुम पिलवा दो !” उत्तरा के जवाब पर वह हैरान हुआ था फिर कुछ ठहरकर बोला था ।

“उसके लिए तो हमको लाल चौक जाना होगा, वहाँ एक पंडी जी की सबसे पुरानी दुकान है, उससे अच्छी शीरी चाय कोई नहीं बनाता, आप चाहें तो कहवा भी मिल जाएगा वहाँ ।”

“लेकिन तुम्हारे धंधे का समय है, तुम जा सकोगे ?

“अरे आज की कमाई हो गयी न आपसे, अब वैसे भी सूरज ढलने वाला है और रात को अब शिकारे नहीं चलते, सब हमपे शक करते है न अब जी । कौन हमपे विश्वास करके रात्री नौका विहार करेगा ? दिन में ही कुछ मिल जाए वही अल्लाह का करम है मेम जी !”

“ठीक फिर ले चलो, वैसे भी मैंने लाल चौक टी.वी. में इतनी बार देखा है कि उत्सुकता बनी हुई है ।”

नाज़िम शिकारे को झील के किनारे लगा कर आया तो उत्तरा ने पर्स में से रुपए निकालकर उसे थामा दिए । उत्तरा उसके पीछे-पीछे बिना कुछ कहे चल दी, लाल चौक आने तक वह उत्तरा को हर गली-मोहल्ले के बारे में समझाता जा रहा था ।

“लेकिन ये क्या है ?

“अरे ऐसे अँगुली मत दिखाओ उधर” उसने उत्तरा की हथेली अपने हाथ में लेते हुए कहा था, उसके हाथ उसकी बातों की तरह सख्त नहीं लगे थे उत्तरा को ।

“क्यों... ऐसा क्या हुआ ?

“अरे देख नहीं रही हो वो हरा झंडा और उस पर वह सितारा ? यहाँ कौनसी गली इस पार की है और कौनसी उस पार की कहना मुश्किल है मेम जी ! आप जल्दी शीरी पियो जी तो मैं आपको छोड़ आऊं, न जाने मैंने क्यों दावत भेज दी आपको ?

“एक्स्क्युज़ मी... तुमने कोई दावत नहीं भेजी है नाज़ी !”

“मेरा नाम नाज़िम है मेम जी, पर आपके मुँह से नाज़ी बड़ा प्यारा लगा मुझे, यही कहो !” वह पहली मर्तबा खुलकर मुसकुराया था ।

नून चाय उत्तरा को खासी पसंद आई थी, चाय के पैसे उसने उत्तरा को देने से रोक दिया था, उत्तरा को भला लगा था, “ये उतना खडूस भी नहीं जितना मैंने पहली बार में इसके बारे में सोचा था ।”

“कुछ कहा आपने मेम जी ? चलिए जल्दी यहाँ आसार कुछ ठीक नहीं नज़र आ रहे ।”

“क्यूँ कुछ हुआ क्या ?

“आर्मी की टुकड़ी यहाँ से गुज़रने वाली है, वो अख़बार वाले और टी. वी. वाले बता रहे हैं, पहली बार उत्तरा को भय लगा था, उसे यूँ नहीं चले आना था ।

“चलो यहाँ से निकलो नाज़ी !” उत्तरा की बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि अचानक पत्थरबाज़ी होने लगी थी । सेना की जीप के आमने-सामने बोतल बम और पत्थर फेंकते कोई दस से बीस बरस के पचासेक लड़के अचानक न जाने कहाँ से प्रकट हो गए थे ।

“लो जी हो गयी आफत, अब आपका क्या करूँ ? छोड़कर जा बी नहीं सकता । उसने बिना कुछ पूछे-कहे उत्तरा का हाथ कसकर पकड़ा था और उसे खींचता हुआ पंडी जी की दुकान के बराबर सटता हुआ चलने लगा था । आप अपना दुपट्टा लपेट लो जि सिर पर ।

“मुझसे ये नोटंकी नहीं होगी ?

“ये नोटंकी नहीं है समझी आप ?” उसकी आवाज़ में वही पुरानी वाली तल्खी लौट आई थी ।

“अच्छा-अच्छा गुस्सा मत होओ यार, मरने से मुझे भी खौफ़ है ।”

“पर मुझे नहीं क्योंकि वह हमारी चॉइस नहीं है और वह बी इन हालातों में जहाँ सांसों पर ही हमारा ऐतबार नहीं ।”

***