हवाओं से आगे - 18 Rajani Morwal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हवाओं से आगे - 18

हवाओं से आगे

(कहानी-संग्रह)

रजनी मोरवाल

***

वे अब यहाँ नहीं रहते

(भाग 1)

“अरे उतरो भी, 800 रुपए में कितनी देर रुकोगे ?

“फ़ोटो तो खिंचवाने दो हमें, एक-दो पल अधिक रुक गई तो कौनसा पहाड़ टूट पड़ेगा ?

“अरे... क्या करोगे जी फ़ोटो का ?

“यादें नहीं ले जायेंगे यहाँ से क्या ?

“यादें ? इन फ़ोटो में क्या इकठ्ठा हो पाएंगी जी...” वह बड़बड़ाता हुआ अपने चप्पू पर से पानी निथारने में लग गया था । उसके माथे पर शिकन बिलकुल भी अच्छी नहीं लग रही थी, मन किया उसके क़रीब जाकर अपनी हथेली उसके माथे पर फिरा दूं और उसके माथे की उन सिलवटों के साथ वे तमाम वजहें भी झटककर डल झील में गिरा दूं जिनकी वजहों से उसके मन में इतना गुस्सा भरा हुआ था किन्तु यकायक मन से आवाज़ आई...

“कहीं पानी में आग लग गई तो ? ये जो इतना आगबबूला हो रहा है, उत्तरा अपने ही ख़यालों पर हँस पड़ी ।

“ओहो ! उतरो भी...” कितना गोरा है, गाल बिलकुल कश्मीरी सेब की मानिंद लाल-लाल, जो उस वक़्त गुस्से में सुलगकर और भी अधिक सुर्ख हो उठे थे ।

“ये इतना गुस्से में क्यों है ? क्या ये हर पर्यटक से इसी तरह पेश आता है या हमारी बारगेनिंग से चिढ़कर ऐसा व्यवहार कर रहा है ?

“जा रहें है भई...” उत्तरा ने नीचे उतरते हुए हिलते शिकारे से घबराकर उसकी मदद चाही पर वह ज़रा भी आगे नहीं बढ़ा ।

“उफ्फ... कितना खडूस है ये ? लड़की को लड़खड़ाते हुए देखकर भी हाथ आगे नहीं बढ़ाया, तमीज़ भी कुछ बला होती है कि नहीं ? कम-अज-कम महिलाओं की मदद के वास्ते ही सही उठता तो सही, मैनर्स का ही वास्ता रख लेता ?

उत्तरा की बकबक से परे वह लड़कियों के हो-हल्ले पर और भी खीझता हुआ सा अपने शिकारे पर बिछे कालीन को साफ़-सुथरा करने में जुटा रहा था । उसे उनकी हर बात से चिढ हो रही थी । उसके ग्रुप की लड़कियों ने बड़ी ज़िरह करके इससे 1000 के बदले 800 में राज़ी किया था सो खीझना स्वाभाविक था, वैसे भी यहाँ आमदनी के अधिक साधन नहीं हैं और अपने रोज़गार में नुकसान किसे खुश कर सकता है भला ? उत्तरा को उससे सहानुभूति हो उठी थी, वह उतरते-उतरते ठिठककर रुक गई थी और जाकर शिकारे के कोने में बैठ गई थी । उत्तरा ने सोचा सब लड़कियाँ पहले उतर जाएँ तो वह चुपके से उसके नुकसान की भरपाई कर देगी, पर्स में से 200 रुपए निकालकर उत्तरा ने मुठ्ठी में कसकर पकड़ लिए थे ।

“आप किसके इंतज़ार में ठहरे हो जी यहाँ ?” उसका लहज़ा सख्त था मगर उत्तरा बिना कुछ कहे उसको देखकर मुस्कुरा दी थी हालांकि उसकी नज़रों में अपने लिए नफ़रत देखकर, उत्तरा कुछ सहमी जरूर थी ।

“तुमने मदद का हाथ न बढ़ाया तो क्या मैं जरूर अपनी एक छोटी-सी कोशिश को अंजाम दूँगी । मैं नफरत का जवाब नफरत से नहीं दे सकती जबकि मैं जानती हूँ तुम्हें सहानुभूति और समझने की जरूरत है । ए मेरे वतन के अटूट हिस्से में तुझमें हूँ तू मुझमें न होना चाहे तब भी” उत्तरा कुछ अधिक ही सेंटी होने लगी थी । उसकी भीगी आँखों में यही शब्द रचे-बसे थे जब उसने सबसे अंत में उतरते हुए 200 रुपए उस लड़के के हाथों में लगभग ठूंसे थे । वह असमंजस की स्थिति में कभी उत्तरा को तो कभी अपनी हथेली में थामे हुए रुपयों को देख रहा था ।

“ये क्या है जी ? हम टिप नहीं लेते ।”

“ये टिप नहीं है, ये तुम्हारी मेहनत का रुपया है, हमारे ग्रुप ने जो पैसा तुमसे कम करवाया था वह गलत था, भला इतने कम रुपयों में कोई इतनी बड़ी डल झील में घुमा सकता है, दरअसल गलती थी हमारी ।”

“शुक्रिया... लेकिन एक बार जो बोला सो बोला हम ये पैसा नहीं ले सकते अब ।”

“ओहो रख भी लो ! तुम क्या ज़िन्दगी से ही ख़फा हो जो हर बात पर चिढ़े बैठे हो ?” उत्तरा को खीझ होने लगी थी । उसने उत्तरा की ओर आँखों ही आँखों में कई प्रश्न एक साथ उछाल दिए थे और हाँ इस बार उत्तरा को उसकी दृष्टी में अपने लिए कुछ नरमाहट दिखाई दी थी ।

“तुम्हारा शिकारा बेहद ख़ूबसूरत है, तुमने इसे बेहतरीन तरीके से सजाया है, क्या नाम है लिखा है इसपर ?

“शुक्रिया..हमने इसका नाम सुकून रखा है”

“सुकून क्यों” उत्तरा ने उसके रूखेपन से डरते हुए पूछा,

“सुकून माने तसल्ली” वह बस यही बोला था, इस बार उसके होंठों के साथ उसकी गहरी नीली आँखें भी मुस्कुराई थी, लगा था एक झील उसकी आँखों में भी जा ठहरी है, बस किन्हीं सर्दियों में बर्फ की एक परत जम गई थी वहाँ जिसे उसने पिघलने नहीं दिया बल्कि वक़्त के साथ-साथ वह झील परत दर परत सख्त होती चली गई थी ।उम्र तो कोई ख़ास नहीं थी उसकी शायद हम उम्र ही होगा पर असमय ज़िम्मेदारियों और तनाव ने उसे परिपक्व बना दिया था ।

“अब उतरिए भी ! क्या और फ़ोटो खिंचवानी है जी ?” उत्तरा चौंककर अपने ख़यालातों से वापिस लौटी थी ।

“नहीं-नहीं... बाय !”

“बाय-शाय जी, बाय-शाय...” वह इस बार कुछ-कुछ अपनी उम्र-सा हो चला था और उत्तरा को ऊपर से नीचे तक निहारते हुए खुलकर हँसा था । उसकी हँसी बहुत आपे में थी जैसे किसी ने पहरे में बंद करके चाबी उसीकी बेहद अपनी डल झील में ही फेंक दी हो । उत्तरा को नीचे उतरने में उसने इस मर्तबा भी कोई मदद नहीं की थी किन्तु अपने चप्पू से शिकारे को डगमगाने से रोकने की कोशिश की थी । उत्तरा गिरते-गिरते बची थी, एन उसी वक़्त उस लड़के ने अपने दोनों पैर फैलाकर बैलेंस बनाने का एक्स्ट्रा एफर्ट ज़रूर किया था ।

“संवेदनाएं बची तो है, ज़रा धूप पड़े तो पिघलनी लगेगीं ।”

“कुछ कह रही हैं क्या जी ?” वह झुंझला उठा था अब ।

“न... नहीं, शब्बा खैर...”

“फ़िल्मी बातें, सब फ़िल्मी कश्मीर देखकर आते हैं यहाँ, हक़ीक़त में रहो न यहाँ आकर तो भूल जाओगे ये खैर मनाना ?” उसने अपने शिकारे में रखे म्यूजिक सिस्टम के कान उमेठ दिए थे, घरघराती आवाज़ में गाना गूंजने लगा था कितनी ख़ूबसूरत ये कश्मीर है, ये कश्मीर है... ये कश्मीर है... उत्तरा घबराकर ज़मीन की तरफ दौड़ पड़ी थी ।

गाइड उनके ग्रुप को जल्दी-जल्दी वैन में बैठने के लिए कह रहा था । पाँच बजे बाद वैसे भी यहाँ यूँ घूमना ठीक नहीं, सुबह बाज़ार से गुज़रते समय कुछेक बूढ़े बुर्कों के सिवा कहीं कोई जवान सलवारों की हलचल या दुपट्टों की किलकारियां सुनाई नहीं दी थी । यहाँ औरतें रहती भी हैं कि नहीं ? आपस में लड़कियों की खुसुर-पुसुर सुनकर वैन का ड्राइवर पीछे मुड़कर उन्हें घूरने लगा था ।

“यहाँ सभी नाक पर इतना गुस्सा क्यों बैठा रहता है यार !” उत्तरा ने फुसफुसाते हुए कामिनी से पुछा था ? कामिनी इयर-फ़ोन लगाए अंग्रेज़ी गाने सुनने में बिजी थी, उसने इयर-फ़ोन हटाया और निगाहों में प्रश्न लिए उत्तरा की ओर देखा, दुबारा से कुछ पूछना उत्तरा को गवारा नहीं हुआ ।

कामिनी के कन्धों पर इयर-फ़ोन में से जस्टिन बीबर के प्रसिद्द गाने “सॉरी” का प्री कोरस दबी-दबी सी आवाज़ गुनगुना रहा था– “इज़ इट टू लेट नाउ टू से सॉरी ? येह... आई नो देट आई लेट यू डाउन, इज़ इट टू लेट टू से सॉरी नाउ ?

सच है हम सबने मिलकर देश के इस हिस्से को कितना लेट डाउन किया है, क्या सचमुच अब देर हो चुकी है कि माफ़ी की भी गूंजाइश नहीं रही ? उत्तरा के विचारों को उस समय ब्रेक लगा था जब ड्राइवर ने होटल पहुँचने पर जोर से वैन का ब्रेक मारा था । वह सबसे पहले उतरकर चल दी थी, फटाफट खाना खाकर वह ज़रा जल्द सोना चाहती थी, पूरे दिन की थकान उसके तन-मन पर काबिज़ होने लगी थी ।

भूख से पेट कुलबुलाने लगा था पर डिनर लगने में समय बचा था, इंतज़ार में टहलती-टहलती वह लॉबी में स्थित दुकान में चली आई थी । माँ और भाभी के लिए पश्मीने के शॉल व सूट्स खरीदना बाक़ी था । गाइड ने बाज़ार ले जाने से साफ़ मना कर दिया था । बाज़ार-हाट में ख़रीददारी करने लायक परिस्थिति रह भी कहाँ गयी थी वहाँ ? पता नहीं यहाँ की महिलाएँ अपनी निजी ज़रूरतों की वस्तुएँ कैसे खरीद पाती होंगी ? घर के बच्चों या पुरुषों के भरोसे उनके के मकसद से वह कुछ जुटाती होंगी ।

स्कूल, कॉलेज में कहीं कोई नज़र नहीं आया था उसे तो ।

“यहाँ छुट्टियाँ चल रही हैं ?

“यहाँ तो साल के ग्यारह महीने छुट्टियाँ ही रहती हैं जी ।” गाइड के कहने का मतलब सभी को स्पष्ट था । आए दिन अख़बारों में आतंकवादियों व सेना के बीच होने वाली झडपें, पत्थरबाज़ी, गोलीबारी की ख़बरें, यहाँ अब आम हो चुकी हैं । कई-कई दिनों तक लगने वाले घोषित-अघोषित कर्फ्यू ने जीवनचर्या को ख़ासा प्रभावित किया है । क्या स्कूल ? क्या किताबें ? जब साँसें ही मोहताज़ हो आज़ाद हवा की तो ऐसे में न भूतो न भविष्यति... यहाँ सिर्फ और सिर्फ वर्तमान जीता है । कल-आज-कल की चिंता से फारिग है ये इलाका, यहाँ सिर्फ आज है और है आने वाले कल पर मँडराता खौफ़ का साया जो अब यहाँ सबकी आँखों में स्थायी हो चुका है ।”

“हम्म... त्रासदी तो यह है कि 1947 के पूर्व ही हमने इस समस्या की दुखती नब्ज़ तो भाँप ली है किन्तु उसकी राहत का इंतज़ाम न कर सके ।”

“सब वोटों की रामलीला है मैडम ! समस्याओं के ऊपर कुर्सियों के पाए टिके हैं, दरअसल इन्हीं समस्याओं की नींव पर वोटों के भवन खड़े हैं । समस्याओं का बाज़ार लगता है वहाँ पीड़ा का व्यापार होता है और टीसों की नीलामी होती है जिनके बदले में भूख, गरीबी अशिक्षा, बेरोजगारी और बेसबब आँसू मिलते हैं बस ।

“बच्चा-बच्चा जानता है ये हकीक़त की सहानुभूति के विनिमय पर इस देश की सरकारें बनती और बिगड़ती है ।” गाइड का दर्द खुलकर बाहर उगल पड़ा था ।

“जंज़ीर में बंधकर यहाँ की खूबसूरती भी हमें आकर्षित नहीं कर पाई, प्रकृति भी अदृश्य जंज़ीर में जकड़ी हुई डरी-सहमी-सी है । कहाँ है वो हरियाली, लहलहाते खेत और झील की डोंगियों में गीत गुनगुनाती स्त्रियाँ ? या तो वह झूठ था जो बरसों से फिल्मों में दर्शाया जाता रहा था या फिर अब जो हम देख रहे हैं वही परम सत्य रहा होगा सदा से ।” उत्तरा काफ़ी उत्तेजित थी, अनामिका ने इशारे से उसे चुप रहने को कहा था ।

रात भर में नींद में रह-रहकर बाज़ार की सुनसान गलियाँ ही दिखती रही थीं । सहसा लाल चौक के बीचोंबीच उत्तरा ने अपने-आपको खड़े पाया था, वह भीड़ के बीच कुचली जा रही थी । हज़ारों की तादाद में बच्चे, बूढ़े और नौजवानों के हाथों में चाँद-सितारा वाला हरा झंडा लहरा रहा था । एक शोर था जो नारों की शक्ल में वादी से कुछ माँग रहा था, मंच पर खड़ा बूढ़ा जिसने काली व सलेटी-सी फिरहन पहन रखी थी वह न जाने इतना भयंकर गुस्से में क्यों लग रहा था । माइक में चिल्ला-चिल्लाकर वह कुछ भाषण दे रहा था, जब वह नारा लगाता था तो उसकी लम्बी सफ़ेद दाढ़ी थरथराकर हिलने लगती थी ।

“हम क्या चा S SSSS हैं...?

“आज़ादी ...”

“हम क्या सोS SSSSचें...?

“आज़ादी...”

आज़ादी-आज़ादी... ये लोग इस वादी से किस आज़ादी की बात कर रहें हैं ? उस वादी से जो खुद कुछ लोगों के निजी फ़ायदे के लिए उजड़ी पड़ी है, रहम-रहम की गुहार लगाती वादी तो खुद अपनी उजड़ती संस्कृति के चीथड़ों में लिपटी अपनी लहुलुहान हो चुकी देह को ढाँपने का असंभव प्रयास कर रही है । उत्तरा शोर ओ गुल से घबराकर इधर-उधर भागने लगी थी, उसके पैरों को जैसे बेड़ियों ने जकड़ लिया था, उसने भागने की कोशिश की तो भीड़ ने उसे पकड़ लिया और हज़ारों-हज़ार हैरान-परेशाँ चेहरे उसके ऊपर झुक आए थे । एक साथ प्रश्नों की बौछारों से उसकी साँसें धौंकनी-सी चलने लगी थी । उत्तरा नींद से जागकर बिस्तर पर उठ बैठी थीं, तकिये पर पसीने का टिप्पा उभर आया था । उसने उठकर ए.सी. कम किया और वैट-टिश्यू से मुँह पोंछते हुए वह अपने अनुत्तरित प्रश्नों से जूझती हुई ग्रीन-टी बनाने चल दी थी । नींद तो अब उससे कोसों दूर जा चुकी थी ।

***