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खूँटे - 2

खूँटे

भाग - 2

कुसुम भट्ट

दूसरी तरफ वह जगह इस पर रामदेई नानी जिसे हम छोटी नानी कहते अलाव जलाया करती थी जाड़े के दिनांे पूरा गांव आकर घेर लेता था अलाव... आँच से दहकते चेहरे बतरस बांटने एक दूसरे से गोया... इतने भीगे आनन्द से कि पहाड़ की पथरीली जिन्दगी होने लगती पलक झपकते ही सेमल फूल सी हलकी।

‘‘ऊपर चढ़ नंदिनी...’’ शिवा भी अब खंगालने को उत्सुक है... कल नीम अंधेरे में मैंने इस यात्रा की सरगोशी की थी तो वह चिहुँकने लगी थी - बंजर हुए रास्ते पर पिरूल हटाते चलेंगे तो शाम हो जायेगी...।’’ उसी की सलाह पर अब सुबह पौ फटने से पहले हमारी यात्रा शुरू हुई थी...

अभी हमारी मंजिल मील भर है यहाँ से दिखता है अपना गांव, शिवा और मैं साल भर के अन्तराल पर पुराने खूँटे बदलकर नये खूँटों से बंधी एक ही गांव में..., यही एक छोटी सी खुशी हमारे बीच चहकती रही थी।

वक्त को खंगालते हुए ऊपर आती हूँ - इतनी ही सीढ़ियाँ चढ़ी थी जिन्दगी की... आठ या नौ... कुल... ढोल दमाऊ की कनफोड़ आवाजों के बीच मूसक बाजे की मार्मिक धुन गले में अटकी है... गोया मृत्यु धुन! मैं भी रोना चाहती थी विदा होती बेटी के साथ बुक्का फाड़ कर। इतना भी भर गया था गले तक कि उलीच दूँ सारा पानी पेड़ पर.... कमाल है। मेरा रोना भी सहन नहीं होता....््! मेरे कंठ में अटकी मूसक बाजे की मृत्यु धुन के साथ मछली के कांटे से अटकी वक्त की रूलाई....!

यह कुठार है जिसके नीचे सोई थी वह घोड़े बेच कर गोया मेरी हम उम्र ‘धार की जून‘ की बेटी..... पाहुनों की भीड़, आकाश फाड़ती आवाजों का शोर वित्ता भर बन्द खिड़की सहमी-सहमी हवा का आगमन भी वर्जित.... चूल्हे की दोनों ओट पर पसरी दादी-नानी आगे बैठी जून की सौत मैंने हथेली लगायी थी उसकी नासिका में- जिंदा है भी - ?

भली लडकी है... तेरी तरह नहीं, जहाँ सुलाओ सो जाती है। जैसा खिलाओ खा लेती है। गऊ हैं तुम्हारी सोबती समधन... हमारे तो फूठे भाग ठहरे...! दादी ने मेरी ओर हिकारत से देखते हुए प्रशंसा भरी नजरों से देखा था उसे - एक ये है हमारी ....! पंछी सी फुदक इधर फुदक उधर... चैन नहीं इसे घड़ी भर! चिंचिंयाती रहती हर जगह... वक्त का लिहाज नहीं ! ‘‘हे भगवती! इसका क्या होगा...? हमारी नाक रहेगी भी साबुत .... ?

आने-जाने वाले पाहुनों की आँखों को झेल पाने में असमर्थ मैं दादी.... चिपकने लगी थी। वह मुझे ठेलती जा रही थी। उसकी चुधीं आंँखों में अपने लिये पहली मर्तबा जो दिखा.. मेरी नन्ही छाती से बलबला उठा था.. दादी का गोरा गुलगुल झुर्रियों भरा चेहरा नोचने को मेरे नाखून बढ़े थे- हाँ... मैं हँू बुरी लड़की... मार दो मुझे... जान से मार दो मुझे... मैं धुंआ नहीं पी सकती... मुझे हवा के घूंट पीने हैं और आकाश में छलांग लगानी है...! ये अच्छी लड़की हुई ? कुठार के नीचे सोई बेसुध..! इसका दम नहीं घुटता?’ मैं दादी को झिंझोड़ती जा रही थी। मेरी आँखों से आग में लिपटे आँसू की बूंदे टपक कर गालों में बह रही थी, बहुत कुछ अनकहा निशब्द फड़फड़ाने लगा था भीतर... कितने हाथ लपके थे मुझे खींचने...! कितने चेहरों पर उगी आँखें मुझे नफरत से घूर रही थी। कितने होठों के बीच सुगबुगाहट थी- मेरे गले में रस्सी डालने के लिए और मैं थी कि अनगिन आँखों की क्रूरता देख दहशत से नहीं भरी बल्कि उल्टा उन्हीं की आँखों से सवाल कर रही थी...! तो मैं वक्त से ज्यादा दूर निकलने लगी थी ? वक्त को पीछे धकेलती हवा के पंखों पर उड़ने की मेरी जुर्रत...! झप्प! रस्सी गिरी थी पावों मे... और जानवरों के जैसे मेरे लिए भी गढ़ गया था खूंटा..!

अब कोठार के नीचे धूप की चादर लहरा रही है। छत की पठालें उखड़ने से खाली जगह से दिखता है। मध्यान्ह का सूरज! अपनी समूची आग में खिलता। कितना चमकदार! इस वक्त काला लिसलिसा अंधेरा ठसा रहता था! स्ूारज की एक किरन का प्रवेश भी यहाँ निषिद्ध!

बचपन सड़े गले पीले पत्तों की छाया तले कब बिला गया, खबर भी न हुई...! मेरी आँखों में गाढ़ा वहीं लिसलिसा धुंआ फैलता आ रहा है..्! उम्र और परिस्थियों का रूपांतरण होने के बावजूद मन के किसी अंधेरे कोने में कुछ.. वैसा ही जमा रहता है साबुत... जिसे वक्त का पैना हथौड़ा भी तोड़ने में असमर्थ रहता है। वर्षों बाद आज भी जाने क्यों मेरी छाती में जमा वहीं बलबला खल बलाने लगा है...! आलों में जाने क्या तलाश रही शिवा को आवाज देती हूँ। गोया शिवा के साथ इतिहास की जमीन पर गढ़े खूंटों मे स्थिर उन सभी चेहरों को...। मेरा चेहरा आग की परत में लिपटने लगा है। शिवा सहम गयी है... मैं भी हैरान हूँ। दरअसल मेरे गले से शब्द नहीं चीखें फूटी हैं...। सीढियाँ उतर कर तेजी से मैं खूंटा उखाडने लगी हूँ.. शिवा का चेहरा उजास से भर उठा है - नंदिनी, हमने खूंटा उखाडने की कवायद पहले कर ली होती..? अब तो चेहरे भी गायब हो गये। उसके हाथ मेरे साथ जुड़ने लगे है। हमने पूरी ताकत झोंक ली है। पर खंूटा जमीन के भीतर गहरे धंसा है! गीली मिट्टी के कण मेरी आंखों में भरने लगे हंै...। आखिरी प्रयास में हम दोनों ने जोरों से उसे खींच लिया है। शिवा ने लकड़ी के भारी खूंटे को दोनों हाथों से लहराते हुए हवा में उछाल कर नीचे सूखे, पत्थरों से अटे गधेरे में फेंक दिया है।

खंडहर हुए गांव को लांघते हमें अपना गांव दिखाई दे रहा है। यहाँ कुछ परिवार है जिन्हें अपनी माटी-पानी के मोह ने बचाये रखा है। बंजर हुए खेतों को देखते हम इस ऊंची पहाडी पर आ गयी हैं। तन-मन से फूल सी हल्की ..! हमारी खुशी का कोई ठिकाना नहीं!

नदी के बहने की आवाज आ रही है.…

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