मिस्टर मोईनुद्दीन Saadat Hasan Manto द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मिस्टर मोईनुद्दीन

मिस्टर मोईनुद्दीन

मुँह से कभी जुदा न होने वाला सिगार ऐश ट्रे में पड़ा हल्का हल्का धुआँ दे रहा था। पास ही मिस्टर मोईनुद्दीन आराम-ए-कुर्सी पर बैठे एक हाथ अपने चौड़े माथे पर रखे कुछ सोच रहे थे, हालाँ कि वो इस के आदी नहीं थे। आमदन माक़ूल थी। कराची शहर में उन की मोटरों की दुकान सब से बड़ी थी। इस के अलावा सोसाइटी के ऊंचे हल्क़ों में उन का बड़ा नाम था। कई कलबों के मेंबर थे। बड़ी बड़ी पार्टियों में उन की शिरकत ज़रूरी समझी जाती थी। साहिब-ए-औलाद थे। लड़का इंग्लिस्तान में तालीम हासिल कर रहा था। लड़की बहुत कमसिन थी, लेकिन बड़ी ज़हीन और ख़ूबसूरत। वो इस तरफ़ से भी बिलकुल मुतमइन थे। लेकिन अपनी बीवी को। मगर मुनासिब मालूम होता है कि पहले मिस्टर मोईनुद्दीन की शादी के मुतअल्लिक़ चंद बातें बता दी जाएं।

मिस्टर मोईनुद्दीन के वालिद बंबई में रेशम के बहुत बड़े व्यापारी थे। यूँ तो वो रहने वाले लाहौर के थे मगर कारोबारी सिलसिले के बाइस बंबई ही में मुक़ीम हो गए थे और यही उन का वतन बन गया था। मोईनुद्दीन जो इन का इकलौता बेटा था, ब-ज़ाहिर आशिक़-मिज़ाज नहीं था लेकिन मालूम नहीं वो कैसे और क्यूँ कर आदम जी बाटली वाली की मोटी मोटी ग़लाफ़ी आँखों वाली लड़की पर फ़रेफ़्ता हो गया। लड़की का नाम ज़ोहरा था, मुईन से मोहब्बत करती थी, मगर शादी में कई मुश्किलात हाएल थीं। आदम जी बाटली वाला जो मुईन के वालिद का पड़ोसी और दोस्त भी था, बड़े पुराने ख़यालात का बोहरा था। वो अपनी लड़की की शादी अपने ही फ़िरक़े में करना चाहता था। चुनांचे ज़ोहरा और मुईन का मुआशक़ा बहुत देर तक बे-नतीजा चलता रहा। इस दौरान में मोईनुद्दीन के वालिद का इंतिक़ाल हो गया। माँ बहुत पहले मर चुकी थी। अब कारोबार का सारा बोझ मुईन के कंधों पर आन पड़ा, जिस से उन को कोई रग़बत नहीं थी। उधर ज़ोहरा की मोहब्बत भी थी जो किसी हीले बा-आवर साबित होती नज़र नहीं आती थी। फिर हिंदू मुस्लिम फ़सादाद थे। मुईन एक अजीब गड़-बड़ में गिरिफ़्तार हो गया था। उस की समझ में नहीं आता था कि क्या करे और क्या न करे।

बे सोचे समझे एक दिन उस ने फ़ैसला किया कि अपना कारोबार समेट कर उस को किसी अच्छे गाहक के पास बेच डाले। चुनांचे उस ने ऐसा ही किया और अपना सारा रुपया कराची के बैंक में जमा करा दिया और ज़ोहरा से मिल कर उस ने अपने इरादे का इज़हार किया कि वो बंबई छोड़ कर कराची जाना चाहता है, मगर अकेला नहीं, ज़ोहरा उस के साथ होगी। ज़ोहरा फ़ौरन मान गई। एक हफ़्ते के बाद दोनों मियां बीवी बन कर कराची के एक ख़ूबसूरत होटल में थे। बंबई में ज़ोहरा के वालदैन पर क्या गुज़री। इस का उन्हें कुछ इल्म नहीं और न उन्हें इस के मुतअल्लिक़ कुछ मालूमात हासिल करने की ख़्वाहिश थी। दोनों अपनी मोहब्बत की प्यास बुझाने में मगन थे। उन को इस हादसे की भी ख़बर नहीं थी कि हिंदोस्तान दो हिस्सों में तक़्सीम हो गया है।

बहर-हाल जब लाखों इंसानों का ख़ून फ़िरक़ा वाराना फ़सादाद में पानी की तरह बह गया और कराची में पाकिस्तान के क़याम की ख़ुशी में चराग़ां हुआ तो मिस्टर मोईन और मिसेज़ मोईन को मालूम हुआ कि वो पाकिस्तान में हैं। और मिस्टर आदम भाई बाटली वाला और मिसेज़ आदम भाई बाटली वाला हिंदोस्तान में। वो बहुत ख़ुश हुए कि अब वो महफ़ूज़ थे। जब इफ़रात-ओ-तफ़रीत का आलम किसी क़दर कम हुआ तो मिस्टर मोईन ने अपने बंबई के कारोबार के हवाले से एक बहुत बड़ी दुकान अपने नाम अलॉट करा ली और उस में मोटरों का कारोबार शुरू कर दिया जो चंद बरसों में चल निकला। इस दौरान में उन के यहाँ दो बच्चे पैदा हुए। एक लड़का और एक लड़की। लड़का जब चार बरस का हुआ तो उन्हों ने उस को अपने एक दोस्त के हवाले कर दिया जो इंग्लिस्तान जा रहा था। मिस्टर मोईन चाहते थे कि उस की तर्बिय्यत वहीं हो क्यूँ कि कराची की फ़ज़ा उन के नज़दीक बड़ी गंदी थी। लड़की जो अपने भाई से एक बरस छोटी थी, घर ही में खेलती कूदती रहती। उस के लिए मिस्टर मोईन ने एक अंग्रेज़ नर्स मुक़र्रर कर रखी थी। इस बात पर ज़ोर देने की कोई ज़रूरत महसूस नहीं होती कि मिस्टर मोईन को अपनी बीवी से बे-पनाह मोहब्बत थी। तबअन वो कम-गो और शरीफ़ तबीअत थे। वो ज़ोहरा से जब अपनी मोहब्बत का इज़हार करते तो बड़े मद्धम सुरों में। बड़े वज़ादार क़िस्म के आदमी थे। कलबों में जाते, ज़ोहरा उन के साथ होती मगर वो दूसरे मैंबरों की तरह बे-वजह हंसी क़हक़हों में कभी शामिल न होते। विसकी के दो पैग आहिस्ता आहिस्ता पीते जैसे कोई क़र्ज़ अदा कर रहे हैं। नाच शुरू होता तो ज़ोहरा के साथ थोड़ी देर नाच कर घर वापस चले आते जो उन्हों ने एक हिंदू से कराची आने के बाद ख़रीद लिया था।

ज़ोहरा कभी कभी अपने ख़ावंद की इजाज़त से दूसरों के साथ भी नाच लेती थी। इस में मिस्टर मोईन कोई मज़ाएक़ा नहीं समझते थे। मगर जब उन्हों ने देखा कि ज़ोहरा उन के एक दोस्त मिस्टर अहसन से जो अधेड़ उम्र के बहुत बड़े मालदार और ताजिर थे, ज़रूरत से ज़्यादा इल्तिफ़ात बरत रही है तो उन को बड़ी उलझन हुई, मगर उन्हों ने ज़ोहरा पर इस का इज़हार कभी न किया। क्यूँ कि वो सोचते थे कि अहसन और ज़ोहरा में उम्र का इतना तफ़ाउत है। फिर वो दो बच्चों की माँ है। ये सिर्फ़ रक़ाबत का जज़्बा है जो उन की अपनी मोहब्बत की पैदावार है। इस के अलावा एक और बात भी थी कि सोसाइटी के जिन ऊंचे हल्क़ों में उन का उठना बैठना था, उस में बीवियों से ग़ैर मर्दों के इल्तिफ़ात को बुरी नज़रों से नहीं देखा जाता था बल्कि इसे फ़ैशन समझा जाता था कि एक की बीवी किसी दूसरे आदमी के साथ नाचे और उस की बीवी पहले के शौहर के साथ, ऐसी अदला बदली आम थी।

पहले मिस्टर अहसन गाहे-गाहे, जब कोई पार्टी दी जाए तो, मिस्टर मोईन के हाँ आया करते थे मगर कुछ अर्से से उन का बाक़ाएदा आना जाना शुरू हो गया था। उन की ग़ैर-मौजूदगी में भी वो आ जाते और घंटों ज़ोहरा के पास बैठे रहते। ये उन्हें अपने मुलाज़िमों से मालूम हुआ था। लेकिन इस के बावजूद उन्हों ने ज़ोहरा से कुछ न कहा। दर-अस्ल उन की ज़बान पर ऐसे लफ़्ज़ आते ही नहीं थे जिन से वो शुकूक का इज़हार करें। वो मजबूर थे इस लिए कि उन की परवरिश ही ऐसे माहौल में हुई थी , जहां ऐसे मुआमलों में लब कुशाई मायूब ख़याल की जाती थी। रोशन ख़याली का तक़ाज़ा यही था कि वो ख़ामोश रहें।

यूँ तो उन्हों ने एक बड़े मार्के का इश्क़ किया था मगर दिमाग़ उन का ताजिराना था। दिल और दिमाग़ में कोई इतना बड़ा फ़ासला तो नहीं होता मगर मोटरों का कारोबार करते करते और दौलत के अंबार समेटते समेटते बहुत सा चांदी सोना उन दोनों के दरमियान ढेर हो गया था। इस के अलावा झगड़े टंटों से उन्हें नफ़रत थी। वो ख़ामोश ज़िंदगी बसर करने के क़ाएल थे जिस में कोई हंगामा न हो।

लड़की थी, वो अपनी अंग्रेज़ नर्स के साथ खेलती रहती थी। जब उन के दिल में उस का प्यारा उभरता तो वो उसे अपने पास बुला कर कुछ अर्से के लिए अपनी गोद में बिठाते और अंग्रेज़ी में प्यार करके उसे फिर नर्स के हवाले कर देते। जब कारोबार से फ़ारिग़ हो कर घर आते तो ज़ोहरा के होंटों का बोसा लेते और डिनर खाने में मशग़ूल हो जाते। अगर मिस्टर अहसन उन से पहले वहाँ मौजूद होते तो वो उन को भी डिनर में शामिल करा लेते। ऐसे मौक़ों पर, ज़रूरत बे-ज़रूरत, ज़ोहरा मिस्टर अहसन की ख़ातिर दारी करती। उन की प्लेट मुख़्तलिफ़ सालनों से भर देती और उन को बड़े मोहब्बत भरे अंदाज़ में मजबूर करती कि वो तकल्लुफ़ न करें। जब वो ज़ोहरा का ये नारवा इल्तिफ़ात देखते तो उन के दिल और दिमाग़ के दरमियान सोने चांदी के ढेर कुछ पिघल से जाते और दोनों आपस में सरगोशियां करना शुरू कर देते।

मिस्टर अहसन रंडवे थे। उन की कोई औलाद न थी। कराची में मोतियों के सब से बड़े ताजिर थे। करोड़पती। हर साल मिस्टर मोईन से मोटरों के नए मॉडल खरीदते थे। ज़ोहरा की सालगिरा पर उन्हों ने दो बड़े क़ीमती हार तोहफ़े के तौर पर दिए थे। जब मिस्टर मोईन ने उन्हें क़ुबूल करने से अपने मख़्सूस धीमे अंदाज़ में इनकार किया था तो मिस्टर अहसन ने कहा था। “मुझे सदमा होगा अगर ये हार मिसेज़ मोईन के गले की ज़ीनत न बने।” ये सुन कर ज़ोहरा ने दोनों हार उठा कर मिस्टर अहसन को दे दिए और उस से कहा “लीजिए आप अपने हाथों से पहना दीजिए।”

जब हार ज़ोहरा के गले में पहना दिए गए तो बवजह मजबूरी मिस्टर मोईन को अपने दोस्त मिस्टर अहसन की हाँ में हाँ मिलाना पड़ी कि बहर-ए-अरब के पानियों में सिप्पियों ने इन हारों के मोती खासतौर पर ज़ोहरा ही के लिए पैदा किए थे।

ऐश ट्रे में रखा हुआ सिगार आहिस्ता आहिस्ता सुलग कर निस्फ़ के क़रीब ख़ाक-स्तर और सफ़ेद राख में तबदील हो चुका था। पास ही आराम कुर्सी पर मिस्टर मोईन उसी तरह अपने चौड़े माथे पर एक हाथ रखे गहरी सोच में ग़र्क़ थे। वो इतना कभी तरद्दुद न करते मगर अब उन की इज़्ज़त का सवाल दर-पेश था। आज उन्हों ने अपने कानों से ऐसा मुकालिमा सुना था। ज़ाहिर है कि ज़ोहरा और अहसन के दरमियान जिस ने सुकून पसंद तबीअत को दरहम-बरहम कर दिया था।

चौड़े माथे पर हाथ रखे वो किसी गहरी सोच में ग़र्क़ था। उन के कान बार बार वो मुकालिमा सुन रहे थे जो उन की बीवी और उन के दोस्त के दरमियान बड़े कमरे में हुआ था। दुकान में एक मोटर का सौदा करते करते उन की तबीअत अचानक नासाज़ हो गई, चुनांचे ये काम मैनेजर के हवाले करके वो घर रवाना हो गए ताकि आराम करें। क्रीप सोल शूज़ पहने हुए थे इस लिए कोई आहट न हुई। दरवाज़े के पास पहुंचे तो उन्हें ज़ोहरा की आवाज़ सुनाई दी।

“अहसन साहब! मैं आप को यक़ीन दिलाती हूँ कि मैं उन से तलाक़ हासिल कर लूंगी।”

“अहसन बोले। मगर कैसे.......क्यूँ कर?”

“मैं आप से कई बार कह चुकी हूँ कि वो मेरी कोई बात नहीं टालेंगे।”

“तअज्जुब है!”

“इस में तअज्जुब की क्या बात है। वो मुझ से बे-पनाह मोहब्बत करते हैं। उन्हों ने आज तक मेरी हर फ़र्माइश पूरी की है। मैं अगर उन से कहूं कि इन पाँच मंज़िलों से नीचे कूद जाएं तो वो यक़ीनन कूद जाऐंगे।”

“हैरत है।”

“आप की हैरत दूर हो जाएगी जब में कल ही आप को तलाक़ नामा दिखा दूंगी।”

ये मुकालिमा सुन कर मिस्टर मोईन अपनी ना-साज़ी तबा को भूल गए और उल्टे पांव वापस दुकान पर चले गए, जहाँ अभी तक मोटर का सौदा तय हो रहा था। मगर उन्हों ने इस से कोई दिलचस्पी न ली और अपने दफ़्तर में चले गए। सिगार सुलगाया मगर एक कश लेने के बाद उसे ऐश ट्रे में रख दिया और सर पकड़ कर आराम कुर्सी पर बैठ गए। ज़ाहिर है कि ज़ोहरा ने जो कुछ कहा, वो मिस्टर मोईन की ग़ैरत के नाम पर एक ज़बरदस्त चैलेंज था। उन्हों ने अपने चौड़े माथे पर से हाथ उठाया और ऐश ट्रे में सिगार को बुझा कर एक नया सिगार निकाला और उसे सुलगाया। आहिस्ता आहिस्ता वो होंटों में उसे घुमाने लगे। फिर एक दम उठे और दुकान से बाहर निकल कर मोटर में सवार हुए और घर का रुख़ किया।

उन के दोस्त मिस्टर अहसन जा चुके थे। ज़ोहरा अपने कमरे में सिंगार मेज़ के पास बैठी मेक-अप करने में मशग़ूल थी। जब उस ने आईने में मोईन का अक्स देखा तो बड़े मुड़े होंटों पर लिप-स्टिक ठीक करते हुए कहा। “आप आज जल्दी आ गए।”

“हाँ, तबीअत ठीक नहीं।” सिर्फ़ इत्ता कह कर वो बड़े कमरे में जा कर सोफे पर दराज़ हो गए। सिगार उन के होंटों में बड़ी तेज़ी से घूमने लगा। थोड़ी देर के बाद बनी ठनी ज़ोहरा आई। मिस्टर मोईन ने उस की तरफ़ देखा और दिल ही दिल में उस के हुस्न का एतराफ़ किया। ये एतराफ़ वो मुतअद्दिद मर्तबा अपने दिल में कर चुके थे।

दराज़ क़द, बहुत मौज़ूं-ओ-मुनासिब गदराया हुआ जिस्म, बड़ी बड़ी ग़लाफ़ी आँखें, शरबती रंग की। उस पर हर लिबास सजता था। बोहरी लिबास भी जिस से मोईन को सख़्त नफ़रत थी। जब ज़ोहरा पास आई और उस ने एक अदा के साथ अपने ख़ावंद का मिज़ाज पूछा तो वो ख़ामोश रहे। जब वो उस के पास बैठ गई तो मोईन सोफे पर से उठे और मुँह से सिगार निकाल कर बड़ी संजीदगी के साथ अपनी बीवी से मुख़ातब हुआ। “ज़ोहरा! क्या तुम मुझ से तलाक़ लेना चाहती हो?” ज़ोहरा एक लहज़े के लिए बौखला सी गई। मगर फ़ौरन ही सेँभल कर उस ने अपने ख़ावंद से पूछा। “आप को कैसे मालूम हुआ?”

“मैं ने तुम्हारी और अहसन की गुफ़्तुगू सुन ली थी।” मोईन के लहजे में गम-ओ-ग़ुस्से का शाइबा तक ना था। ज़ोहरा ख़ामोश रही। मोईन ने सिगार का एक कश लिया और कहा “मैं तुम्हें तलाक़ नहीं दूंगा।”

ज़ोहरा उठ खड़ी हुई। “क्यों?”

मोईन ने कुछ सोचा। “मैं सोसाइटी में अपने नाम और अपनी इज़्ज़त पर हर्फ़ आता नहीं देख सकता।”

“लेकिन.......” ज़ोहरा अटक गई। “लेकिन मैं उस से वअदा कर चुकी हूँ।”

“तो कोई दूसरी राह तलाश करनी चाहिए। तलाक़ मैं कभी नहीं दूंगा। इस लिए कि मेरी इज़्ज़त का सवाल है। वैसे मुझे तुम्हारे वअदे का पास है।” ये कह कर उन्हों ने सिगार ऐश ट्रे में रख दिया। मियां बीवी थोड़ी देर तक ख़ामोश रहे। आख़िर ज़ोहरा फ़िक्र-मंद लहजे में बोली:

“लेकिन मैं तलाक़ लिए बगै़र उस से शादी कैसे कर सकती हूँ?”

“क्या तुम वाक़ई उस से शादी करना चाहती हो?” ज़ोहरा ने इस्बात में सर हिलाया तो मोईन ने उस से सवाल किया: “क्यूँ?”

ज़ोहरा ख़ामोश रही। मोईन ने एक और सवाल किया “क्या इस लिए कि तुम्हारे दिल में अब मेरी मोहब्बत नहीं है?”

“मेरे दिल में आप की मोहब्बत वैसी की वैसी मौजूद है, और इस के लिए मैं ख़ुदा की क़सम खाने को तैय्यार हूँ। लेकिन मालूम नहीं क्यूँ मेरा जी चाहता है कि अहसन के साथ रहूँ।” ये कह कर ज़ोहरा सोफे पर बैठ गई। मोईन ने अपने मुँह से सिगार निकाला और कहा: “तुम उस के साथ रह सकती हो।” ज़ोहरा चौंक कर उठ खड़ी हुई।

“मगर एक शर्त पर” मोईन ने सिगार ऐश ट्रे में बुझाते हुए कहा “तुम मेरे पास भी रहा करोगी। ताकि लोगों को किसी क़िस्म का शुबा न हो। उन को ऐसी बातें बनाने का मौक़ा न मिले कि मोईन चूँ कि अपनी बीवी की फरमाइशें पूरी न कर सका इस लिए उस ने तलाक़ लेकर एक करोड़पती से शादी कर ली, या ये कि मोईन की बीवी बद-किरदार थी इस लिए उस ने तलाक़ दे दी।”

“बद-किरदार तो में हूँ।” ज़ोहरा ने अपनी मोटी मोटी ग़लाफ़ी आँखें एक लहज़े के लिए झुका लीं। मोईन ने उसे दिलासा दिया। “इस का सबूत सिर्फ़ मेरा एतराफ़ है जो मेरी ज़बान पर कभी नहीं आएगा। इस लिए कि ये मेरी अपनी इज़्ज़त और मेरे नामूस पर हर्फ़ लाने का मौजिब होगा....... इस के अलावा मुझे तुम से मोहब्बत है। मैं ये बर्दाश्त नहीं कर सकता कि तुम हमेशा के लिए मुझ से जुदा हो जाओ।” ये कह कर मोईन को ऐसा महसूस हुआ कि उस के सीने का सारा बोझ उतर गया है।

ज़ोहरा ने अहसन को सारी बात बता दी। वो राज़ी हो गया। चुनांचे ज़ोहरा उस के पास कई कई दिन रहने लगी। अहसन ज़ोहरा के जिस्मानी ख़ुलूस और उस के ख़ावंद के बे-मिसाल ईसार से इस क़दर मुतअस्सिर हुआ कि उस ने थोड़े ही अर्से के बाद वसीअत लिख कर अपनी तमाम जायदाद की वारिस ज़ोहरा को क़रार दी।

ज़ुहरा ने इस का ज़िक्र अपने ख़ावंद से न किया। उस के वक़ार को सदमा पहुंचता। वो अपनी लड़की को देखने और मोईन से मिलने के लिए अक्सर आती और बअज़ औक़ात चंद रातें भी वहीं गुज़ारती। मियां बीवी की ये नई ज़िंदगी बड़ी हम-वार गुज़रती रही कि अचानक एक दिन मिस्टर अहसन हरकत-ए-क़ल्ब बंद हो जाने के बाइस इंतिक़ाल कर गए। नमाज़-ए-जनाज़ा में सोसाइटी की ऊंची ऊंची हस्तियों की सफ़ में मिस्टर मोईन भी शरीक थे। उन्हों ने अपने मरहूम दोस्त की मग़्फ़िरत के लिए सदक़-ए-दिल से दुआ की और घर आ कर मुनासिब-ओ-मौज़ूं अल्फ़ाज़ में दुनिया की बे-सबाती का ज़िक्र करते हुए ज़ोहरा को दिलासा दिया।

ज़ोहरा की आँखों से आँसू रवां थे और वो गिन गिन कर अहसन की सिफ़ात बयान कर रही थी। आख़िर में उस ने अपने ख़ावंद को बताया कि वो अपनी सारी जायदाद उस के नाम कर गया है। ये सुन कर मिस्टर मोईन ख़ामोश रहे और ज़ोहरा से इस बारे में कोई इस्तिफ़सार न किया।

अदालत के ज़रिए जब ज़ोहरा को मरहूम अहसन की सारी जायदाद का क़ब्ज़ा मिल गया और वो ख़ुश ख़ुश घर आई तो देखा कि एक मौलवी क़िस्म का आदमी सोफे पर बैठा हुआ है। हाथ में उस के एक काग़ज़ है। उसको एक नज़र देख कर वो अपने शौहर से मुख़ातब हुई:

“क़ब्ज़ा मिल गया है।”

मिस्टर मोईन ने कहा। “बहुत ख़ुशी की बात है। फिर उन्हों ने मौलवी साहब के हाथ से काग़ज़ लिया और ज़ोहरा की तरफ़ बढ़ा दिया। “ये लो!”

ज़ोहरा ने काग़ज़ लेकर पूछा। “ये किया है?”

मिस्टर मोईन ने बड़े पुर-सुकून लहजे में जवाब दिया। “तलाक़ नामा।”

ज़ोहरा के मुंह से हल्की सी चीख़ निकली: “तलाक़ नामा!”

“हाँ” ये कह कर मोईन ने जेब में हाथ डाला और एक चैक निकाला: “ये तुम्हारा हक़-ए-मेहर है....... बीस हज़ार रुपये।”

ज़ोहरा और ज़्यादा भौंचक्की रह गई। “मगर... ये सब क्या है?”

ये सब ये है कि मुझे अपनी इज़्ज़त और अपना नामूस बहुत प्यारा है। “जब मेरी जान पहचान के हल्क़ों को ये मालूम होगा कि अहसन तुम्हारे लिए सारी जायदाद छोड़कर मरा है तो क्या क्या कहानियां घड़ी जाएंगी।” ये कह कर वो मौलवी से मुख़ातब हुआ:

“आइए क़ाज़ी साहब!”

क़ाज़ी उठा। जाते हुए मिस्टर मोईन ने पलट कर अपनी मुतल्लक़ा बीवी की तरफ़ देखा और कहा: “ये बिल्डिंग भी तुम्हारी है। रजिस्ट्री के काग़ज़ात तुम्हें पहुंच जाऐंगे....... अगर तुम ने इजाज़त दी तो मैं कभी कभी तुम्हारे पास आया करूंगा.......ख़ुदा हाफ़िज़!”