खिलता है बुरांश !
भाग - 1
कुसुम भट्ट
....आज सांवली शाम का जादू गायब था! वह टहलुई सी चलती रही..., मन का बेड़ा अभी अचानक उठे तूफान के बीच फंसा था...! एक पल को उसके जेहन में खौफनाक विचार उठा - समाप्त कर दे काया माँ... निर्जीव देह को अब और नहीं घसीट सकेगी वह..., जब प्राण ही देह से चले गये तो अपनी ही लाश को ढोने का क्या तुक...? मौत का सोचते ही देह में झुर्रझुर्री उठी ‘‘अभी अभी तो जिंदगी मिली थी... कितनी आसक्ति थी उसे देह से...! पिछली बार वह बुरांश खिलने पर नानी के गाँव गई थी, छोटी नानी का परिवार बुरांश का शरबत बनाता था। छोटे मामा के साथ उन दोनों भाई बहनों को भी घर के ऊपर बुरांश के जंगल में भेजा जाता, मामा और भाई पेड़ों पर चढ़कर फूल तोड़ कर फेंकते वह बुरांश के गिरते फूलों को लपक कर पकड़ती, टोकरी लेकर वह घर पहुँचती तो छोटी नानी उसे कहती‘‘ तू भी जया... इन फूलों की तरह खिलती रहना हमेशा... कैसा भी मौसम हो... मुर्झाने नहीं देना खुद को....’’ कभी नहीं नानी... मैं भी इन फूलों की तरह खिलाऊँगी अपनी जिंदगी...’’ वह टोकरी से फूलों की अंजुरी भर प्राची से उगते पहाड़ी की ओट में खिलते सूरज की तरफ उछालती’’ मैं तो नानी सूरज के फूल जैसे खिलुँगी... इसी आग और कामना के साथ... ‘‘
.......ऐसा नहीं कहते जया... सूरज फूल थोड़े ही है वे देव हैं.... वही हमको जीवन दे रहे हैं...’’ नानी की झुर्रियों के बीच धंसी आँखें काल से पार देखने को होती‘‘ देह से ज्यादा मोह नहीं होना चाहिये ... देह नश्वर है... उस अविनाशी तत्व को पहचानना सीखो जया... मोह बन्धन में डाल कर कष्ट देता है... देखा न कितना बड़ा था तुम्हारे दुखों का हाहाकार... जब तुम्हारे माँ पपा...
‘‘नानी...........!! ‘‘चीख पड़ी थी जया’’ मत याद दिलाओ और .... मुझे.... वह दुर्घटना.... तुम्हारे ईश्वर के क्रूर हाथों छिन चुका मेरा आशियाना.... माँ भी तो मानती थी न आपके उस परमतत्व को....? पूजा करती थी न देवी देवताओं की....? तोड.....?’’ आवेश से उसका चेहरा कंपकंपाने लगा था, आँखें बुरांश सी होने लगी थी, ‘‘मुझे वैराग्य नहीं चाहिये नानी..... मुझे जोगन नहीं बनना ... मन से देह न तन से न काना से .... समाप्त
आज वही सत्य उसके रू-ब-रू था आज जिंदमी से आसक्ति समात्त हो रही थी। आज जिंदगी से आसक्ति समाप्त हो रही थी। वह जिंदगी के हाथों ही हार चुकी थी गोया..., जिंदगी ने ही उसे ऐसे मोड़ पर खड़ा कर दिया था, नीचे देखने से खाई थी गहरी... उस पर हँसता उसका कंकाल! कल तक वहीं दुनिया थी इन्द्रधनुषी रंगों से लवरेज... पेड़ों की हरियाली बहुत हरी थी,... फूलों की खिलाहट उनकी मानदकता कुछ ज्यादा बढ़ती ही जा रही थी..., वहीं भौरों की गुनगुन तितलियों के रंगीले पंख पहाड़ी से गिरते झरने नीले आकाश का थाल जैसा चाँद झर झर झरती चाँदनी... टिटहरी का संगीत मेढकों की टर्र टर्र... बारिश बूँदों की टिप टिप और मतवाली हवा से उसके कन्धे तक झूलते बालों का उड़ना - ए! ए! परी... परी... कहाँ उड़ चली.... ‘‘चुहल भरी आवाज का जादू... सब कुछ कितना मोहक! जंगल के बीच की खाली सड़क पर लम्बी कार ड्राइविंग के बीच जोरों से धड़कती धड़कनों पर मुँह छुपाकर फुसफुसाना’’ यह कौन सी दुनिया है.... प्रणव... शायद यही जन्नत है.......! है न ... प्रणव...?’’
‘देखो.... आगे..... हिरणी.... दौड़ रही है.... देखो जया.... हाऊ ब्यूटीफल!.... तुम जैसी डियर....! ‘‘उसने आँखें खोली हिरणी पीछे मुड़ी ठिठक कर देखा उसे...! वह अभीभूत थी, गोया स्वप्न था आँख खुलते ही यर्थाथ की चट्टानांे में टूट गया...! माँ पपा के जाने के बाद प्रणव ही तो उसकी जिंदगी था, एम.जे. का सहपाठी लम्बा गोरा आर्कषक चेहरे वाला प्रणव पहली बार ही दिल हार बैठा था जया के आगे...। लाल साटन के शलवार सूट में धधकता उसका सौन्दर्य..., उसने कहा था तुमने ड्रैस चुनने में हड़बड़ी कर दी शंाभवी...! वह उसकी सहेली को कह रहा था ‘‘रेड कलर के कुर्ते पर डार्क ग्रीन शलवार का मैच होता है... जैसे कि हरे पेड़ पर खिला लाल बुरांश...’’ ‘‘लेकिन मैंने तो ग्रीन शलवार सूट ही पहना है... तभी सांभवी ने पीछे देखाा था जया और प्रणव दोनांे की नजरें जुड़ा रही थीं......, ‘‘वाऊ..’’ सांभवी चिहुँकी थी, तो हँस दिये थे! दोनों बाद में एक ही दैनिक खबर में लगे थे - बतौर रिपोर्टर, बाद में प्रणव इल्कट्रोनिक मीडिया में चला गया, लेकिन वे समय को चुराकर रोज मिल ही लेते, रेस्त्रा के कोने की मेज पर काॅफी के झाग भरे मगों के साथ गुफ्तगू, चिप्स कुतरते देर तक एक दूसरे की आँखों में खोये रहते ...
सड़क पर भीड़ छंटने लगी थी... देखते ही... सड़क एकदम सुनसान हो गई, अब घर जाने के सिवा कोई चारा भी नहीं था। उस समय उसकी इच्छा हुई कोई अपना मिल जाये और उसकी भीगी पलकों को चूम कर कहे ‘‘जया एक हादसे से जिन्दगी खत्म नहीं होती....’’ तो वह टूटने से बच सकती थी।
‘‘लेकिन प्रणव के सिवा तो कोई अपना था ही नहीं....! वह शून्य में देखने लगी..., ऐसा भी नहीं था कि प्रणव के अलावा कोई उसका चाहने वाला न हो... कई चेहरे थे, जिनकी आँखों में उसकी देह के प्रति आकर्षण रहा हो... किन्हीं में निरी वासना .... पर दो जोड़ी आँखों में वह अपने हेतु प्यार और सम्मान भी देखती रही थी... फिर ऐसा क्या हुआ कि प्रणव के ही आगे समर्पण कर बैठी थी वह....! वह खुद को टटोलने लगी थी, उन दोनों के प्रति वह प्रणव जैसी चाहत महसूस न कर सकी थी..., और बिना अन्तर चाहत के किसी के प्रेम को स्वीकारना उसकी फितरत में नही था। हालाँकि उसके पेशे में बहुत लड़कियाँ थी, जो कभी इच्छा के वशीभूत कभी सीढ़ी चढ़ने के लिये आत्मसमर्पण करने में गुरेज नहीं करती... पर जया सबसे अलग थी, वह हवा में नहीं बहना चाहती थी, तिलिस्मी सौंदर्य की मलिका होते हुए भी उसे बाॅस या ऊँचे पायदान पर खड़े व्यक्ति को देह के आकर्षण में बाँधने वाली उसकी प्रकृति नहीं थी, महज इत्तेफाक ही रहा कि उसकी जिन्दगी में धूमकेतु की तरह आया प्रणव बड़े घर का इकलौता वारिस था और इत्तेफाक ही उसकी सूरत कुछ-कुछ उसके भाई अंकुर से मिलती थी अन्तर इतना ही था कि भाई सांवला था और उसकी नाक ऊची थी।
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