खिलता है बुरांश ! - 2 Kusum Bhatt द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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खिलता है बुरांश ! - 2

खिलता है बुरांश

भाग - 2

भाई आकुल व्याकुल घर के आगे लान में टहल रहा था, बार बार मोबाइल कान पर लगाता उसे देखते ही झल्ला गया ‘‘ओफ्फो! एक फोन तो कर ही सकती थी न दीदी... कहाँ रह गई इतनी रात.... ‘‘उसने कलाई घड़ी देखी बारह बजने वाले हैं,’’ ऐसा भी नहीं था कि वह पूरी रात घर से बाहर न रही हो कभी, उसके पेशे में अक्सर देर रात तक भी लड़कियाँ बैठी रहती थी, लेकिन वह रात की पाली में काम नहीं कर सकती थी। कभी जरूरी काम आने पर प्रणव ही उसे देर रात घर छोड़ता पर वह कभी अंकुर को फोन करना नहीं भूलती, उसने भाई की बातों का कोई जवाब नहीं दिया, सीधे कमरे में जाकर सिटकनी लगाकर दरवाजे पर गिर पड़ी पलंग पर और बुक्का फाड़ कर रोने लगी....

अंकुर हड़बड़ी में दरवाजा पीटता ही रहा, लेकिन उसने दरवाजा न खोला! बहुत पानी और नमक बहाने के बाद वह बाहर निकली तो भाई की आँखों में भी खौप और पानी देखकर उससे लिपट बेतहाशा चुंबनों की बौछार करने लगी.... उसके माथे, गाल गला, हथेलियाँ चूमते हुए भरभरा कर उसके गले से शब्द फूटे ‘‘.... तू तो मुझे छोड़ कर नहीं जायेगा न...? ....तू तो मुझे धोखा नहीं देगा न अंकुर...? बोल न भाई.... हमेशा मेरे साथ रहेगा न...? विक्षिप्त स ीवह लिपटती रही एक क्षण को उसे लगा भाई ही प्रणव है.... और जो आज मिला... जिसकी शादी कार्ड उसने न चाहते हुए भी अपने पर्स में रख लिया था वह अंकुर था, उसका छोटा भाई... जिसकी शादी होनी है कल... उसके साथ... वह लड़की.... अणिमा....

‘‘जया दी!.... होश में आओ....’’ भाई उसके अवांछित स्पृश से घबराने लगा’’ मुझे बताओ... हुआ क्या है....’’ उसे लगा था कि उसकी दीदी के साथ कुछ अनहोनी (छेड़ छाड़) हुई है...

‘‘....तुमने प्रणव को फोन किया...?’’

उसके प्रश्न पर वह कंपकंपाने लगी असके होंठ बुद बुद करते रह गये, क्या बताये भाई को कि जिसको उसने मसीहा समझा, उसी ने डुबो दिया उसे...! भाई उनकी दोस्ती से तो परिचित था, लेकिन इस गहरे प्रेम सम्बन्ध के बारे में अनभिज्ञ था, उसे जया पर खुद से ज्यादा विश्वास था। वह जया जो उसकी माँ का रोल भी निभाती आई थी, सिर्फ चार वर्ष छोटा होने से वह बहुत बड़ी बन गई थी, उसके लिये...! माँ पपा का एक्सीडेन्ट हुआ तो वह दस वर्ष का था कभी पहाड़ कभी कलकत्ता यों ही उसकी उम्र सीढ़ियाँ चढ़ती रही थी, कलकत्ता में चाचा ताऊ के साथ बूढ़े दादा थे, ठेठ बंगला भाषी, तो पहाड़ में नानी थी छोटी नानी और मामा के साथ, इस दुर्घटना के बाद नानी में एक अलग किस्म की तब्दीली आने लगी थी, वह घण्टों ट्रांस मंे चली जाती होश आता तो कहती ‘‘रे अंकू... मुझे पूर्वा मिली...! कह रही थी कि मेरे अंकू को खूब प्यार देना माँ.... उसे शहर में पढ़ाना..... और मेरी जया को....’’ नानी के होंठों पर एकाएक चुप्पी पसर जाती..., नानी अदृश्य शक्तियों के बारे जाने क्या क्या बताती, उसकी समझ से परे की बातें थी, जया... पूर्वा आज कह रही थी दोनों बच्चों को शहर भेज दे माँ.... हमारी कोठी खाली है.... कोई कब्जा कर दे तो... क्या होगा मेरे बच्चों का.... बोलो मां....? पूर्वा रो रही थी!’’ उन्हें शहर आना ही पड़ा थ नानी ने कहा था तुम्हारी माँ की रूह भटक रही है...

कुछ समय बाद नानी हिमालय के नीचे किसी मठ में चली गई थी और दादा का भी इंतेकाल हो चुका था, अब दोनों भाई बहन ही एक दूसरे का सहारा थे।

जया ने देखा अंकुर ने उसे सहारा देकर पलंग पर लिटा दिया था, वह उसके लिये काॅफी बनाने रसोई में गया तो वह उसी क्रूर समय के जाल में छटपटाने लगी, वह पैट्रोल पम्प पर खड़ी स्कूटर में पैट्रोल भरवा रही थी कि प्रणव की बाइक उसके पांवों पर रूकी...! वह चिहुँकी थी - उसे पाकर ‘‘क्यों बच्चू... तीन दिन की जुदाई भी बर्दाश्त नहीं हुई न...?’’ उसने आँखों से कहा था, उसका भी मन हो रहा था कि भीड़ को भूल कर उसकी बाहों में समा जाये.... वह सोचने लगी प्रणव शादी की तारिख तय करके आया होगा...! उसी ने जोर दिया था। कुछ तो सोचो... कब तक... आखिर... कब तक प्रणव...? कितने अर्बोशन कराते रहोगे..? मुझसे अब और नहीं होता..., हम कैसे माँ-बाप हैं प्रणव...? अपने ही बच्चों के हत्यारे...! तीन-तीन हत्याओं के बाद भी तुम...!् गिल्टी फील नहीं करते प्रणव...? ‘‘कुल्लू के एक होटल के कमरा नं॰ 420 में जया बुरी तरह तड़फ रही थी, उसे पता नहीं था कि प्रणव उसे ऐश के लिये लाया था, लेकिन स्टुपिड जया ने अपने स्टुपिड इमोशन्स के बहाव में सारी कामनाओं पर पानी डाल दिया...! अब अंततः क्या हो सकता है प्रणव ने उसका भीगा खूबसूरत चेहरा हथेलियों में भरा था ’’जरूर..... करूँगा.... जया.... बट... सोचो तो... जया इस तरह इन्जाॅय.... कर सकेंगे...?’’

उसने तमक कर कुछ कहना चाहा था... तो बीच में प्रणव अर्थ भरी मुस्कराहट बिखेरते बोला था ‘‘आई कान्ट डू दिस... इट्स इम्पाॅसिबल!’’

‘लेकिन क्यों.... ‘‘वह लगभग चीख पड़ी थी’’ कभी तो इस रिलेशन को समाज की मान्यता देनी ही होगी... न प्रणव....?

प्रणव के चेहरे ने गिरगिटी रंग बदल दिया ’’कारण है जया तुम्हारी ब्यूटी एण्ड.... इन्टेलीजैंस प्रणव का चेहरा सख्त हो गया था’’ मेरी माँ होमली लड़की चाहती है....

जया को लगा था...! वह मकड़ी के जाले में फंसी मक्खी है......! उसने तड़फती नजर उस पर डाली कि प्रणव ने खिल-खिला कर उसे बाँहों मंे दबोच लिया था ‘‘आई वाज़ जस्ट .... जोकिंग...यार! ऐसा कभी हो सकता है... देह आत्मा के बिना जिन्दा रह सकती है....!’’

.... और आज काफी हाउस की वही कोने वाली मेज पर इन्वीटेशन कार्ड हथेली में थमाते वह धीरे से बोला था ‘‘कोशिश की थी... जया..., कहा था.... कि माँ.... एक बार देख लें जया को....? उसकी आवाज भीगी थी, ‘‘पर जया तो पत्थर में तब्दील होने को थी.... एकाएक ...! गो कि गहरे कुंए से आवाज उस तक पहुँच रही थी ‘‘.... बट... आई नो... यू आॅर ब्रेव... और.... व्हाट्स बाॅदरिंग यू...? अपना रिलेशन यांे... ही रहेगा........ ‘‘जया को लगा था अभी कहेगा वह ‘‘आई वाज़ जस्ट जोकिंग यार...! और वह देर तक उसकी हँसी की झनक में भीगती रहेगी...!

जया अटैच्ड बाथरूम में बन्द हो गई एक बार नल खोल कर फूट फूट रो पड़ी..., फिर उसने ठण्डे पानी को भर भर अंजुरी चेहरे पर डाला एक बार... दो बार... तीन बार... कुछ सोचा... विचारों का स्फुरण तेजी से होने लगा था ... पहुँच जाये प्रणव के घर...? नहीं... यह तो फिल्मी ड्रामा जैसे होगा... फिर...? उसे लग रहा था प्रणव ने उसे रेप करके शहर को के कोने में डाल दिया दुख.... क्रोध ... बदहवाशी... ईष्र्या के बीच उसकी आत्मा की कौंध रौशन होकर उस पर फैलने लगी... अब वह प्रकृतिस्थ थी। बाहर निकली तो भाई काॅफी और बिस्कुट लिये बैठा थ ‘‘अब आराम से बैठो और बताओ कि हमेशा खिला खिला यह बुरांश का फूल एकाएक मुर्झाने क्यों लगा है...?’’ भाई ने जिस अंदाज में कहा था‘‘ उसकी हँसी छूट गई ‘‘मुझे जर्मनी जाना पड़ेगा अंकू... पहले भी स्थगित कर चुकी थी जाना... लेकिन इस डेलीगेशन के साथ ... जरूरी है जाना .... साल भर तुम्हें अकेला रहना होगा अंकू... रह लोगे... अपनी दीदी के बिना....?

‘‘वाऊ... बड़ी छुपी रूस्तम निकली आप... कांग्रेचुलेश्न्स मैडम! आपने तो डरा ही दिया था... ‘‘वह फ्रिज से गुलाब जामुन का डिब्बा उठा लाया‘‘ ... तो फिर ..... सैलीब्रेट करते हैं... क्यों मैडम जर्नलिस्ट वहीं बसने का इरादा तो नही ंहै आपका?’’ उसने तीखी दृष्टि से जया को देखा और गुलाब जामुन उसके मुँह में ठँूस दिया, वह फुर्ती से फिर रसोई में गया और गिलास में गुनगुना दूध उड़ेल लाया ‘‘आज खाने के नाम पर पिओ... बस्स...। ‘‘वह भाई को हँसते हुए देखती रही अब सारी चिन्ताओं से मुक्त उसे लगा उसके भीतर सदियों की बैठी स्त्री का अक्स उस रोशनी में घुलता जा रहा है...

कल उसे लेडी डा॰ के पास भी तो जाना है...,

उसे नींद आने लगी थी .....

***