अँधेरे में जुगनू
भाग - 1
कुसुम भट्ट
घर से निकलते समय उसने एक बार भी नहीं सोचा। तूफान का मुकाबला करने की ताकत नहीं थी उसमें। पति ने मारपीट की- बच्चों के सामने! ग्लानि हुई! रोज़-रोज़ गाली-गलौज़, मारपीट... तंग आ गयी थी। वह ऐसी ज़िन्दगी से। ऐसे जीने से तो अच्छा है कहीं ट्रेन के नीचे आ जाए या नदी-पोखर में डूब मरे। आँखों में समंदर था, खारे पाने से भरा; जिसे वह जबरन रोके हुए थी। सड़क पर चलते लोगों के बीच वह तमाशा नहीं बनना चाहती थी। उसने अनुभव थे, लोग हँसी उड़ाते हैं या दया दिखाते हैं - ‘बेचारी! हे राम! किस्मत की मारी!‘ ज़्यादातर तो हँसते ही हैं दूसरे के दुख पर। दूसरे का दुख, उनका मुफ्त का मनोरंजन। किसी का जीवन नासूर बनकर रिस रहा है, इसमें उन्हें मज़ा आता है। देख-सुनकर उसे संसार से बैराग-वितृष्णा होने लगी थी। यहाँ जितना बुरा आदमी होगा, जितना ही क्रूर शोषक प्रकृति का होगा, उतना ही सुखी होगा। यदि वह भी पुरूष होती तो शायद जी सकती थी इस हालत मे भी, तब ऐसे हालात पैदा ही नहीं होते। यदि होते भी तो शायद इतने असहनीय न होते। लेकिन यह स्त्री थी- स्त्री का स्त्री होना ही सबसे बड़ी त्रासदी है!
मन में भीषण झँझावत उठ रहे थे। आँखे रोकते-रोकते भी छलक-छलक पड़ रही थीं। मन भी बस में नहीं था, आँखे भी नहीं, सिर से कसकर लपेटे हुए दुपट्टे से लोगों की नज़र बचाकर उसने आँखें पोंछ लीं। सहसा वह भीड़-भरी सड़क के बीचोंबीच खड़ी हो गयी।
उसने सोचा, कोई ट्रक या स्पीड से चलती कार उसे टक्कर मार देगी और सड़क दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो जाएगी... इस तरह आत्महत्या के पाप से तो बचाव हो जाएगा...लेकिन कहीं जीवित बच गई तो?
दुपहिया वाहन इसके इर्द-गिर्द से निकलते रहे। वह बीच सड़क पर चलती रही। नीम बेहोशी जैसी स्थिति में भ्रम पैदा करने के लिए। एक कार दूर से तेज़ी से आती दिखी। वह वैसी ही स्थिति में रही। सामने मृत्यु का निर्मम चेहरा था। वह जीभ लपलपाती आ रही थी... कितना कष्ट होगा इस शरीर को नष्ट होने में? कार जैसे-जैसे पास आती गई, उसे मृत्यु की भयावहता पर झुरझुरी छूटने लगी। बच्चों के चेहरे के सामने आने लगे। कैसा लगेगा उन्हें ज बवह माँ की निर्जीव देह देखेंगे। उन्हें यकीन होगा जब देखेंगे कि उनकी माँ अब नहीं उठेगी? क्या बीतेगी उनके नन्हें मन पर...कौन करेगा उन्हें प्यार? बिन माँ के बच्चे... अनाथ बच्चे? बाप तो अगले ही क्षण अपनी काम-वासना के लिए ले आएगा कोई... मासूम प्यारे बच्चों की विमाता जो उन्हें...। कार एकदम नज़दीक आ गई। वह बिजली की फुर्ती से अलग होने वाली थी कि सहसा कार के ब्रेक चरमराए। एक मोटे पैरवाला भारी-भरकम डरावने चेहले वाला अधेड़ उतरा, ‘‘ए औरत!‘‘ वह चीखा। उसने गले से जंगली बिल्ले की गुर्राहट उस पर गिरने लगी- ‘‘सड़क के बीच चल रही है? मरने का इरादा है क्या?‘‘ वह सिर झुकाए चुपचाप खड़ी रही। उसने गले में आवाज़ लड़खड़ाकर दम तोड़ने लगी।
भीड़ के बीच वह अपराधी थी। आदमी उस पर चीख रहा था। यह चीखना भी चीखने जैसा नहीं था। अजीब-सी गुर्राहट निकल रही थी। वह जैसे उसका चेहरा नोच लेना चाहता था या उसे परिदृश्य से गायब कर देना चाहता था, जिसके कारण उसका अमूल्य समय नष्ट हुआ जा रहा था। इतनी देर में उसे क्या, क्या नहीं करना था। वह भू-माफिया था। उसने कई ग्राहकों केा झा¬ँसे देकर ऐसी भूमि बेची थी जो उसकी थी नहीं। ग्राहक सपना देख रहे थे- अपने घर का सपना! अपने घर के लिए कहीं भी छलाँग लगाने को उत्तेजित थे। आदमी ढेरों, कड़कड़ाते नोट गिनने का सपना लिए दौड़ा जा रहा था कि आ गई रास्ते में रोड़ा अटकाने यह कमबख्त औरत! जिसने एक मामूली- से घर का सपना देखा था। बहुत मामूली- जिसमें एक खिड़की हो और उससे धूप और बारिश दिखती हो, हवा जिससे आकर उसकी घुटन पोंछ लेती हो।
लेकिन स्त्री का यह मामूली सपना भी सपना न रहा। सपने के लिए नींद ज़रूरी थी, जो ... उसका आदमी ही मुहैया करा सकता था उसे... लेकिन वह था कि कपूर-सा उड़ाए जा रहा था उसकी नींद। यह सब कुछ दिनों के लिए नहीं था। वह रोज़ ही प्रयोग करता था कि स्त्री नींद से कोसों दूर रहे। प्रयोग करते हुए वह एक हिंसक सुख से भर उठता था। उसकी मर्दानगी पर शेर और चीते दहाड़ा करते। ऐसे प्रयोग करने में उसे वैज्ञानिकों की-सी संतुष्टि मिलती थी। जैसे वे चूहे, खरगोश, बंदर आदि पर करते रहते हैं- भिन्न-भिन्न किस्म का प्रयोग। कुछ इसी तरह की खुशी के लिए उसे जिं़दगी ने सिर्फ यह स्त्री उपलब्ध कराई थी। वह उसका टेंटुआ भी दबा सकता था यदि चूँ-चूपड़ करे तो... उसे कौओं से नुचवा सकता था यदि उसे बताए मार्ग पर न चले तो।
बस, एक कार्य करने में वह समर्थ नहीं था, जो उसके किसी पुरखे ने भी नहीं किया था। उसे उस कार्य का अभ्यास भी नहीं था। वह कार्य था- स्त्री की पीठ पर दाएँ-बाएँ पंख उगाना-यही इस सदी के अंत में सबसे कठिन कार्य था। बाकी सबकुछ सरल था...।
आदमी गुर्राए जा रहा था -‘‘ए औरत! मरना ही था तो मिट्टी का तेल उड़ेल कर माचिस की तीली जला देती...।‘‘
इस सदी की महान मूर्ख स्त्री!् उसके कान के पर्दे फाड़ता वाक्य गोली की तरह उसके भीतर। भीड़ उस पर जी-भर हँस चुकी तो छंटने लगी थी। अब उसका आसमान स्वच्छ था। मृत्यु से अभी साक्षात्कार किए हुए वह जीवन की ओर लौट रही थी। ग्लानि ने अभी उसे छोड़ा नहीं था। दुनिया की भीड़ में वह एक अजूबा थी। सड़क पर आती-जाती हज़ारों आँखें उसे ही देख रही थीं। उसे लगा कि उसे किसी सहारे की ज़रूरत है।
उसे बहन का स्मरण हो आया। बहन का घर बाज़ार में पड़ता था। इस विकट स्थिति में बहन एक पेड़ थी हरी-हरी पत्तियों से भरपूर। उसे छाया की ज़रूरत थी। आगे की को वह सहने में असमर्थ थी। वह पेड़ यहीं होता तो दौड़कर लिपट जाती। अपना दुख उड़ेलकर हल्की हो जाती कुछ देर।
‘‘मनू दी।‘‘ बहन की लाल गुड़हल-सी आँखों ने पूछा- ‘‘तुम इतनी सुबह...अचानक?‘‘
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