आठ साल हुए, काफी अरसे बाद मैं उनसे मिलने वाला था,
वो अपना शान्त सा पहाड़ी शहर छोड़ के दिल्ली में एक कॉलेज की प्रोफेसर थी,
कभी सोचता हूँ उस सुकून तलाशने वाली लड़की ने क्यूँ इस शोर से भरे हुए शहर को चुन लिया,
हम दोनों को एक कॉलेज के दोस्त की शादी में साथ जाना था क्यूँकि मैं पहले कभी दिल्ली नहीँ गया तो मैंने उनके साथ उस शादी में जाने के अपने दोस्त के हुक्म को सर झुका के मान लिया,
और मना भी क्या कह के करता, बस हमारी कॉलेज की सीनियर ही तो थीं!
काफी जद्दोजहद के बाद मैं उनके दरवाजे पर था, शाम के करीब 5 बजे थे,
और फिर वो वक़्त आ गया जब वो मेरे सामने थीं,
उन्होंने अंदर आने को कहा, लेकिन मैं उनके चेहरे पर आए हुए उस ठहराव की लकीर को पार ही नहीँ कर पा रहा था,
अंदर मैं एक बेत की कुर्सी पर बैठ गया, मेरे सामने पानी का एक ग्लास ला कर रख दिया गया,
वो मेरे सामनें ही थी पर मैं क्यूँ उन्हें पहचान नहीँ पा रहा था,
इन्सान की पहचान उसके चेहरे से नहीँ होती शायद, वो बदल चुकीं थी
क्या ये वही लड़की है जिसे मैं आठ साल पहले,
मैं धीरे धीरे अतीत में जाने लगा,
हम दोनों ने एक ही कॉलेज से अपनी पढ़ाई की वो पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही थी और मैं अभी भी अपनी ग्रेजुएशन खत्म कर रहा था,
कुछ ज्यादा जान पहचान नहीँ थी हमारी बस फेसबुक पर कभी कभार दुआ सलाम हो जाया करती थी और वो हमेशा hi को जवाब में एक smile भेज दिया करती थी,
ज्यादा तो तब भी नहीँ बोलती थी लेकिन मुस्कुराहट कभी उनके चेहरे से ढलती न थी,
कॉलेज खत्म हुआ और हम अपने अपने रास्ते!!
कभी कभार बातें हुआ करती थी,
5 साल हुए हमें मिले हुए, फिर एक दफा मज़ाक में हमारी बातें चल निकली और न चाहते हुए भी हम तीन महीनों तक सुबह शाम बातें करने लगे,
एक दूसरे से नज़रें छुपाते बचाते कि बस बात ही तो करी है, कोई प्यार व्यार नहीं,
वो अक्सर कहा करती थीं मुझे अधूरी बातें और आधे रास्ते में बिन बताए साथ छोड़ जाने वाले लोग नहीं पसन्द,
निवि ने कहा भी था तुम मज़ाक मत समझो कहीँ प्यार हो गया तो क्या करेंगे,
और मैंने बेफिकर अंदाज में कह दिया हम बस बात ही तो कर रहे हैं, और सच में हम बस बाते ही तो करते थे,
नहीँ जानता था वो मज़ाक!!
और एक दिन मैंने तय कर लिया कि अब कभी बात नहीँ करेंगे,
मैं भाग नहीँ रहा था लेकिन शायद,
काफी समझाया मैंने उन्हें वो नाराज हुईं और फिर सच कुबूल कर लिया,
सच! हम दोनों ही जानते थे बस बात ही तो की थी!!
"ये क्या किया तुमने" इक आवाज से मेरा ध्यान भटका मैं वापस आज में था मैंने मेरे हाथ से मेज़ पर उलटी रखी हुई किताब जमीन पर गिर गई थी!!
वो लगभग गुस्से में बोली ख़ो दिया न अब मैं कहाँ से फिर उस पन्ने को ढूँढूँगी जहाँ तक पहुँच चुकी थी मैं!!
आज वो लड़की मेरे सामने थी पर न वो मुस्कान, न वो सुकून, न ही वो निवि
वो तो मानों खुद को भी ख़ो बैठी थी
खैर उन्होंने खुद को मेरे सामने दो पल भी न रुकनें दिया खुद को इस कदर मशरूफ कर चुकी थी वो की मानों उस पल मेरे वहाँ होने को भी वो नकार रहीं थी,
मुझे कॉफी का एक कप थमा के वो तैयार होने चली गई और मैं बालकनी से दूर इस दिल्ली शहर को देख रहा था,
कुछ देर बाद सुर्ख लाल और मोर के पँखों सा नीला लहँगा पहने आईने में समाई हुईं वो मेरे सामने थीं,
कुछ उतारने की कोशिश कर रहीँ थी वो आईने के सामने उस ऊँची सी अलमारी से,
इस समय उस सुर्ख लाल रँग में वो ऐसी लग रहीं थी कि उम्र भी शर्मा जाए,
मैं कुछ देर तक यूहीं देखता रहा फिर मदत करने की मंशा से या कहूँ दिल में एक चोर लिए उनके पीछे जाकर खड़ा हुआ और हाथ ऊपर बढ़ा कर वो बॉक्स नीचे उतारने में उनकी मद्त करने लगा,
उनकी साँसे तेज़ सी हो गईं वो एकदम झटके से पलटीं और अब उनकी नज़रें ठीक मुझ पर थी और हम इतने करीब की हवा भी न गुजर पाए दरमियाँ,
मैं ठिठक गया आवाक वो चेहरा देखता रहा,
याद है उन्होंने कहा था कि उन्हें साँस लेने में अक्सर तकलीफ होती है जब भी वो परेशान हो जाती हैं,
अचानक उन्होंने अपने दोनों हाथ मेरे कन्धों पर जोर से धक्का देकर मुझे खुद से दूर कर दिया, बहुत दूर,
मैं लगभग जमीन पर गिरते गिरते बचा,
उन हाथों में जो कठोरता था ये वो लड़की नहीँ थी जिसे मैं जानता था,
उन लाल सी हो चुकी आँखों में क्या था जो मुझे निगले जा रहा था,
उन आँखों में न मेरे लिए कोई नफरत थी और न ही मुझे पाने की कोई चाह
मैं था ही नहीँ उन आँखों में कहीँ,
न जाने कितना लावा भरा हुआ था यूँ कहता हुआ हट जाओ मुझे आदत नहीँ अब किसी के साथ की!!
उस दिन मैं वहाँ से लौट तो आया लेकिन पूरा नहीँ इक हिस्सा छोड़ आया था अपना,
वहीँ उस आईने के सामने गिरा हुआ जिसमें निवि थी, मेरी निवि!!
मैं कहीँ न कहीँ हार गया था, और इस बार हारा था मैंने इक इन्सान को,
उस दिन मैंने खुद को निवि से दूर नहीँ किया मैंने निवि को भी उससे दूर कर दिया था मानो,
मैंने उस आठ साल पुरानी निवि (निवेदिता मैम) से उनको ही छीन लिया था,
अब मुस्कुराती नहीँ थी वो!!