हिम स्पर्श - 73 (6) 102 94 2 73 ”वफ़ाई, देखो आज सूरज नहीं निकला।“ “हाँ, पहाड़ियों पर दिवसों तक सूरज नहीं निकलता।“ “ऐसा क्यूँ होता है?” “यहाँ यह सामान्य बात है। अनेक बार सूरज संध्या के समय पर भी निकल आता है, जब वह डूबने वाला होता है।“ “तो क्या आज सूर्यास्त से पहले सूरज निकलेगा?” “मैं क्या जानुं? मैं थोड़े ही न सूरज की माँ हूँ?” “ओ सूरज की नानी। तुम भी...।“ “क्या?” “चलो छोड़ो यह सब। हम सूरज को प्रार्थना करते हैं। संभव है वह हमारी बात सुन ले।” “मुझे तो नहीं आती सूरज की कोई प्रार्थना, तुम्हें आती है?” वफ़ाई ने पीठ घूमा ली। “वह तो मुझे भी नहीं आती।“ जीत ने हार मान ली। “जीत, तुम तो हिन्दू हो। आप लोग तो सूरज की प्रार्थना करते रहते हो। तो तुम्हें अवश्य आती होगी। याद करो न।” “बचपन में माँ ने कुछ तो सिखाया था। आज याद नहीं आ रहा।” कुछ क्षण मौन हो गए दोनों। “एक काम करते हैं।“ जीत बोला। “क्या? शीघ्र बताओ।” वफ़ाई कूद पड़ी। “क्यूँ ना हम मिलकर एक गीत बना लें, जो सूरज के लिए हो। सूरज की प्रार्थना हो।” “जीत, अब यह भी?” “क्या?” “तुम से मिलकर ना, मैं क्या क्या हो गई? पहले चित्रकार बन गई। अब कहते हो गीतकार बन जाओ।“ “यह तो तुम्हारे अंदर छिपी प्रतिभा स्वयं प्रकट हो रही है। बस उसे प्रकट होने में तुम सहायता करो।“ “वाह, क्या बात है, जीत।” “तो करो प्रारम्भ, वफ़ाई।” दोनों शब्दों को खोजने लगे, खोजते रहे। “मैं ने कुछ बनाया है, सुनोगी?” “बोलो बोलो।“ “तो सुनो, ओ गगन विहारी इतना कर दे, धूप का एक नन्हा टुकड़ा दे दे।” “आगे, आगे बोलो।” “इससे आगे मुझे नहीं आता। अब तुम ही कुछ जोड़ दो।” “मैं थोड़ी ना कवि हूँ?” “प्रयास तो करो। मैं भी तो कवि नहीं हूँ। चलो अब तुम्हारी बारी। मैं कुछ ना जानुं।“ वफ़ाई सोच में पड गई। आगे की पंक्ति खोजने लगी। जीत वफ़ाई को निहारता रहा। “मेरी तरफ ऐसे मत देखा करो, जीत।“ वफ़ाई ने जीत की आँखों को रोका। “’ऐसे’ का क्या अर्थ होता है? और क्यूँ ना देखूँ?” “मैं आगे की प्रार्थना नहीं जोड़ पा रही हूँ। कृपया तुम कुछ क्षण कुछ और देखो, मुझे ध्यान केन्द्रित करने दो।“ “ठीक है, वफ़ाई। पर आज हमें प्रार्थना पूरी करनी है और सूरज को गगन पर विहरते भी देखना है।“ जीत वफ़ाई को छोड़ कर सारे पहाड़ को देखने लगा। वफ़ाई गीत की पंक्तियाँ खोजने में लग गई। जीत ने बादलों को देखा। प्रात: जो बादल काले और घने थे वह अब धीरे धीरे धूमिल होने लगे थे। प्रकाश और अधिक निखरा हुआ था। “जीत, सुनो, मैंने कुछ...।’ “वाह, कहो क्या लिखा?” जीत ने अपनी द्रष्टि को संकोरा और वफ़ाई को देखने लगा। “सुनो, कोई हिम पिघल जाये, झरना बनकर बह जाये। कोई नदी जा कर अपने सागर से मिल जाये। धूप का एक नन्हा टुकड़ा दे दे, ओ गगन विहारी इतना कर दे।” “वफ़ाई, क्या खूब लिखा है?” “तुम्हें पसंद आया?” “मुझे ही क्या, सूरज को भी पसंद आएगा। उन्हें आना पड़ेगा, हमारी प्रार्थना सुनकर।” “तो चलो मिलकर एक साथ यह गीत गाते हैं।” दोनों एक साथ गाने लगे। ओ गगन विहारी इतना कर दे धूप का एक नन्हा टुकड़ा दे दे कोई हिम पिघल जाये, झरना बनकर बह जाये कोई नदी जा कर अपने सागर से मिल जाये... ओ गगन विहारी.... ओ गगन विहारी... दोनों कई बार बार इस प्रार्थना को गाते रहे, गगन की तरफ देखते रहे। किन्तु सूरज नहीं आया। “सूरज तो हमारी प्रार्थना सुनता ही नहीं। तुम तो सूरज को भगवान मानते हो न, जीत? यह ईश्वर ऐसे क्यूँ होते हैं?” वफ़ाई निराश हो गई। “सूरज किसी के साथ भेद नहीं रखता। यदि वह ईश्वर है तो तुम्हारा भी है और मेरा भी है। सारे संसार का है।“ “जो भी हो, पर वह ऐसे क्यूँ है? प्रार्थना सुनते ही नहीं।“ “सुना है कि हर प्रार्थना सुनी जाती है, स्वीकार की जाती है। बस उचित समय की हमें प्रतीक्षा करनी होगी। आज भी हमारी प्रार्थना सुनी जाएगी।“ “तुम कितने बदल गए हो जीत?” “क्या तात्पर्य है तुम्हारा, देवी वफ़ाई?” “इतनी श्रद्धधा, इतना विश्वास। कहाँ छिपा कर रखा था इन्हें इतने दिवस तक?” “यह तो मेरे पास सदैव से रहा है।“ “तो तुम उस मरुभूमि में मृत्यु की प्रतीक्षा करते करते मर क्यूँ रहे थे?” वफ़ाई ने चोट कर दी। “ओह। तब मेरा विश्वास विचलित हो गया था। क्या करता?” “तो अब यह कहाँ से आ गया?” “तुम जो आ गई मेरे जीवन में। अन्यथा यह श्र्ध्धा और विश्वास कभी लौट नहीं आता। तुम ने मुझ से मेरा परिचय करा दिया।” जीत भावुक हो गया। जीत ने वफ़ाई का हाथ पकड़ लिया। “चल झुठा कहीं का।“ वफ़ाई हाथ छुड़ाकर कहीं दूर दौड़ गई। जीत उसे जाते हुए देखता रहा। वफ़ाई अभी भी दौड़े जा रही थी, दूर निकले जा रही थी। “वफ़ाई, रुको, रुको।” वफ़ाई दूर ही दूर जा रही थी। कदाचित वफ़ाई जीत को नहीं सुन पा रही थी। बस दौड़े ही जा रही थी। और जीत पुकारता ही जा रहा था। “वफ़ाई....वफ़ाई...वफ़ाई...।” जीत के शब्द घाटी में घूमकर प्रतिध्वनित होते रहे। जैसे पहाड़ के हर कोने से हर एक कोना वफ़ाई को पुकारता हो। वफ़ाई... वफ़ाई... वफ़ाई...। देखते ही देखते वफ़ाई जीत की द्रष्टि से ओझल हो गई। श्वेत हिम के वन में वफ़ाई खो गई। जीत व्यग्र हो गया, विचलित हो गया। बस पुकारता रहा, वफ़ाई... वफ़ाई... वफ़ाई...। किन्तु वफ़ाई कहीं नहीं थी। पराजित होकर जीत शांत हो गया। पहाड़ की घाटियों में अभी भी ‘वफ़ाई... वफ़ाई ‘ की प्रतिध्वनि सुनाई दे रही थी। कुछ क्षण के पश्चात वह भी शांत हो गई। दिशाएँ शांत हो गई। हवाएँ शांत हो गई। पहाड़ी शांत हो गई। घाटियां शांत हो गई। जैसे सब कुछ शांत हो गया। पहाड़ के बीच उग गए शांति के वन में जीत खो गया। जीत ने स्वयं को अकेला पाया इस वन में। जीत ने आँखें बंध कर ली। “जीत... जीत.... जीत...।” जीत के कानों में यह ध्वनि पड़ने लगी। जीत जागृत हो गया। क्या कोई मेरा नाम पुकार रहा है? क्या कोई मुझे बुला रहा है? अथवा यह केवल मेरा भ्रम है? शांति सदैव भ्रमित कर देती है। फिर से जीत के कानों में वही ध्वनि गूंजने लगा... जीत.... जीत.... जीत... जीत उस ध्वनि को झेल नहीं पाया, उस ने आँखेँ खोल दी और चारों दिशाओं में देखने लगा। वहाँ कोई नहीं था। किन्तु उस के नाम की ध्वनि अविरत रूप से कानों पर पड रही थी। नहीं, यह भ्रम नहीं है, यह सत्य है। कोई मुझे पुकार रहा है। कौन है? किसकी ध्वनि है यह? जीत ने उस ध्वनि पर ध्यान केन्द्रित किया। ध्वनि धीरे धीरे स्पष्ट होती जा रही थी। जीत... जीत... जीत... यह तो वफ़ाई की ध्वनि लग रही है, हाँ हाँ यह वही है। वफ़ाई मुझे पुकार रही है। “वफ़ाई, कहाँ हो तुम? यहाँ आ जाओ....।” जीत पूरी शक्ति से चिल्लाया। जीत बार बार वफ़ाई को पुकारने लगा। वफ़ाई... वफ़ाई... वफ़ाई... वफ़ाई भी जीत को पूकार रही थी, अविरत। जीत... जीत... जीत... पहाड़ की वादियों में दो ध्वनि एक साथ सुनाई दे रही थी, वफ़ाई... जीत... वफ़ाई ... जीत... धीरे धीरे दोनों ध्वनि एक दूसरे में घुल गए और जो ध्वनि उत्पन्न हो रही थी वह कुछ विचित्र सी थी। वफ जी...त...ई .... जी...वफा...ई...त.... वफ़ाई और जीत दोनों एक दूसरे को खोजने लगे, इधर से उधर दौड़ने लगे, एक दूसरे को पुकारने लगे। घाटियों में दो नाम गूंजने लगे। अंतत: वफ़ाई ने जीत को देख लिया, जीत को खोज लिया। वफ़ाई जीत की तरफ दौडी और जीत को पीछे से पकड़ लिया। “कहाँ खो गई थी तुम? इस पहाड़ियों पर, इस हिम के वन में मुझे ऐसे अकेले छोड़कर न जाया करो।“ जीत ने कहा। “भयभीत हो अभी भी? अथवा स्वयं से भाग रहे हो?” वफ़ाई बोली। “जब से जीवन जीने की इच्छा जागृत कर दी है तुमने, तब से भय अधिक रूप से बढ़ गया है।“ जीत कुछ क्षण विचार में डूब गया, गहरी सांस ली और बोला,”यह कैसा है वफ़ाई? जब मैं मृयु की प्रतीक्षा करता था तो जीवन से भय लगता था। अब जब जीने की मनसा जागी है तो वही भय मृत्यु से भी लगता है। यह कैसी स्थिति है? मैं उलझ जाता हूँ इन सब विचारों में।“ वफ़ाई ने जीत को अपने आलिंगन में ले लिया,”शांत हो जाओ, जीत। समय को प्रवाहित होने दो। वह अपना कार्य करता रहेगा। तुम बस इस क्षण को, एक एक क्षण को मन भर जीते रहो।“ “किन्तु यह सब क्यूँ होता है? तुम जानती हो इस बात का रहस्य?” “जीत तुम्हारे मुख पर अभी भी संशय के भाव दिख रहे हैं। यह रहस्य को तो कोई योगी अथवा मुनि भी समज नहीं पाया, तो हम क्यूँ उलझ जाएँ इसमें? हम तो साधारण मनुष्य ही हैं, हमें तो प्रत्येक क्षण को जी लेना चाहिए।“ “किन्तु, यह...?” “जीत, विषाद से ऊपर उठो। देखो आने वाला क्षण हमारी प्रतीक्षा कर रहा है।“ “कहाँ है वह क्षण? मैं भी तो देखूँ जरा।” “देखना चाहते हो ना? तो दूर दूर गगन में देखो।” वफ़ाई ने दूर क्षितिज की तरफ अंगुली निर्देश किया और कहते कहते रुक गई। “कहो ना, वफ़ाई, रुक क्यूँ गई?” “दूर दूर देखो। गगन दिखाई दे रहा है। उसे ध्यान से देखो।“ “वहाँ? दूर, दूर?” जीत पश्चिम दिशा में क्षितिज की तरफ देखने लगा। “देखो गगन अपना रंग बदल रहा है। तुम्हें दिख रहा है, जीत?” “हाँ, दिशाओं में पीला रंग, थोड़ा गुलाबी भी। अरे, और भी अनेक रंग बिखर रहे हैं। कितना अदभूत, कितना मनोहर, कितना सुंदर दिख रहा है यह गगन? वफ़ाई, यह कोई संकेत है क्या?” “हाँ, यह संकेत है कि सूरज ने हमारी प्रार्थना सुन भी ली है और स्वीकार भी कर ली है। बादल बिखर गए हैं और सूरज निकल रहा है। सूरज...।“ “यह तो चमत्कार हो गया, वफ़ाई। किन्तु यह समय तो सूरज के अस्त होने का है। अभी सूरज के निकल्स्ने से क्या लाभ?” “जीत, तुम अति अधीर हो रहे हो। अभी सूरज अस्त होने में कुछ समय बाकी है। यह पूरा समय सूरज हमारे साथ रहेगा।“ “उस के बाद वह अस्त हो जाएगा।“ जीत निराश हो गया। “तुम सोचते अधिक हो और बिना काम के सोचते हो। यदि सोचना ही है तो कुछ सकारात्मक ही सोचो।“ “क्या तात्पर्य है तुम्हारा?” “जीत, हिम की पहाड़ियों पर सूर्योदय और सूर्यास्त विरल घटनाएँ होती है। कई बार दिनों तक सूरज नहीं दिखता। हम भाग्यशाली हैं कि हम आज सूर्यास्त देख पाएंगे।“ “क्या तुम सत्य कह रही हो?” “मिथ्या कहने पर मुझे क्या लाभ होगा?” वफ़ाई ने पूछा। “इन बातों में समय व्यतित नहीं करना है हमें। चलो सूर्य की गति का आनंद उठाते हैं।“ जीत एवं वफ़ाई मौन हो गए, सूरज के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे। सूरज ने अधिक प्रतीक्षा नहीं करवाई, धीरे धीरे निकल आया। पूरा पर्वत एक नए प्रकाश से नहाने लगा। श्वेत हिम पर ढलते सूर्य की कोमल किरनें आलिंगन देने लगी। हिम भी इस स्पर्श से जीवंत हो उठा। हिम का ह्रदय पिघलने लगा। पूरा गगन इस मिलन से आनंदित हो गया। गगन अनेक रंगों से भर गया। “जीत, चलो थोड़ा निकट चलते हैं, इस घाटी की तरफ। सूरज यहीं से अस्त होगा।“ वफ़ाई ने जीत का हाथ पकड़ लिया और चलने लगी। जीत अनायास ही वफ़ाई के साथ चल पड़ा। “बस, यहीं रुको। यहाँ से नीचे तक घाटी दिख रही है।“ वफ़ाई रुक गई, जीत भी। “यह तो अदभूत है, वफ़ाई। घाटी गहरी है पर सुंदर है। क्या सूरज यहाँ से नीचे कूद पड़ेगा? फिर तो बचेगा नहीं यह सूरज।” जीत गंभीर मुद्रा लेकर वफ़ाई के सामने खड़ा हो गया। “जीत, तूम भी न? वह सूरज है, मनुष्य नहीं। सूरज कूदता नहीं अस्त होता है। कल फिर से उदय होने के लिए।“ “देवी वफ़ाई, क्रोध मत करो। मैं तो केवल...।” “वत्स जीत...।“ वफ़ाई के मुख से गांभीर्य ओझल हो गया। स्मित कर बेठी वफ़ाई। सूरज घाटी के छोर पर आ गया। धीरे धीरे नीचे उतरने लगा। घाटी प्रकाशमान होने लगी। सूरज और नीचे गया। *** ‹ पिछला प्रकरणहिम स्पर्श - 72 › अगला प्रकरण हिम स्पर्श - 74 Download Our App रेट व् टिपण्णी करें टिपण्णी भेजें Hetal Thakor 5 महीना पहले Amita Saxena 6 महीना पहले Nikita 6 महीना पहले Avirat Patel 7 महीना पहले Mahesh Kakad 7 महीना पहले अन्य रसप्रद विकल्प लघुकथा आध्यात्मिक कथा उपन्यास प्रकरण प्रेरक कथा क्लासिक कहानियां बाल कथाएँ हास्य कथाएं पत्रिका कविता यात्रा विशेष महिला विशेष नाटक प्रेम कथाएँ जासूसी कहानी सामाजिक कहानियां रोमांचक कहानियाँ मानवीय विज्ञान मनोविज्ञान स्वास्थ्य जीवनी पकाने की विधि पत्र डरावनी कहानी फिल्म समीक्षा पौराणिक कथा पुस्तक समीक्षाएं Vrajesh Shashikant Dave फॉलो शेयर करें आपको पसंद आएंगी हिम स्पर्श - 1 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave हिम स्पर्श - 2 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave हिम स्पर्श - 3 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave हिम स्पर्श - 4 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave हिम स्पर्श - 5 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave हिम स्पर्श - 6 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave हिम स्पर्श - 7 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave हिम स्पर्श - 8 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave हिम स्पर्श - 9 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave हिम स्पर्श - 10 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave