हिम स्पर्श - 72 (6) 80 107 72 “रुको। बस यहीं। यह जो चोटी दिख रही है न, बस यहीं पर। बस यहीं से मैंने जीवन जीना खो दिया था।” जीत ने हिम से ढँकी पहाड़ी की तरफ संकेत किया। “तो यह है वह पहाड़ी? क्या नाम होगा इसका?” वफ़ाई ने पहाड़ी की तरफ देखते देखते कहा। वह अभी भी पहाड़ी की ऊंचाई और फैले हुए हिम को देख रही थी। वफ़ाई को उस पहाड़ी ने चुंबक की भांति खींच रखा था। वह उसे देखती रही। “चोटियों के नाम नहीं हुआ करते। यहाँ इसे नंबर से जाना जाता है। तुम इस चोटी को इस तरह से क्यूँ देख रही हो? तुम तो हिम स्से भरी पहाड़ियों पर रहनेवाली पहाड़ी लड़की हो। तुम्हारे लिए तो यह सब सामान्य है, हर पहाड़ी की भांति। क्या कुछ विशेष बात है इस चोटी में?” “बात तो विशेष ही है इस में। मैं तो इस पहाड़ी का धन्यवाद कर रही हूँ।“ वफ़ाई ने पहाड़ी की तरफ झुककर नमन किया। “वफाई, तुम जानती हो कि इसी पहाड़ी ने मुझे मृत्यु की तरफ धकेला है। यहीं से मैंने जीवन...।” “और यही पहाड़ी तुम्हें जीवन देगी, जीत। इस पहाड़ी की मैं आभारी हूँ। यदि इस पहाड़ी तुम्हें यह रोग ना देती तो तुम और मैं कभी मिल नहीं पाते और मैं कभी जीवन को जी नहीं पाती।“ “यह पहाड़ी मुझे कैसे जीवन देगी?” “वह मुझे ज्ञात नहीं किन्तु इस पहाड़ी से आती हवा अपने साथ जो संदेश लेकर आई है उसे मैं पढ़ सकती हूँ। वह कह रही है कि यहाँ जीवन है। इन संकेतों को मैंने पढ़ लिया है।“ वफ़ाई ने जीत का हाथ पकड़ा और दौड़ गई पहाड़ी पर। जीत में भी ना जाने कहाँ से ऊर्जा आ गई कि वह भी दौड़ता हुआ चढ़ गया पहाड़ पर। दोनों जा पहुंचे चोटी पर। “वाह, वफ़ाई। इन हवाओ में कुछ तो है जो जीने की नयी आशा जगाती है। मैं तुम्हारा धन्यवाद करता हूँ मुझे यहाँ लाने के लिए, मेरे अंदर जिजीविषा जगाने के लिए।“ “यदि तूम मेरी उंगलि पकड़कर चलना सीख लेते हो, जीना सीख लेते है तो...।” “तो उन उँगलियों को मैं इस तरह से चूम लूँगा।“ जीत ने वफ़ाई के हाथों की उँगलियों को चूम लिया। “तो फिर चलो, जी लेते हैं जीवन के इस मधुर क्षणों को। इस वर्तमान को।“ वफ़ाई ने जीत को आमंत्रित किया। “एक लाश और एक पुतले की बीच का समय, जो हमारी मुट्ठी में बंध है।“ जीत खुल कर हंसा, वफ़ाई भी। पहाड़ की चोटी से वफ़ाई नीचे की तरफ सरकने लगी। तीव्र गति से वह नीचे की तरफ जाने लगी,“जीत, आ जाओ।“ जीत ने भी साहस किया और कूद पड़ा, नीचे जाने लगा। धीरे धीरे गति तीव्र होने लगी। क्या मैं इसी तरह नीचे ही नीचे जाता रहूँगा अथवा यह कभी रुकेगा भी? जीत थोडा भयभीत हो गया। वह अभी भी नीचे की तरफ सरक रहा था। उसने एक क्षण के लिए आँखें बंध कर ली। “जीत, आ जाओ। मैं यहाँ हूँ।” वफ़ाई के शब्द सुनाई दीये। जीत ने गहरी सांस ली, स्वयं को संभाला और आँखें खोल दी। नीचे की तरफ देखा, वफ़ाई नीचे तक जा चुकी थी। जीत भी नीचे तक जा पहुंचा। वफ़ाई ने जीत को अपना हाथ दिया। जीत वफ़ाई का हाथ पकड़कर उठ गया। “कितना आनंद आया, हैं ना?” वफ़ाई रोमांचित थी। “अरे, एक क्षण के लिए तो मैं जैसे मर ही गया था। किन्तु आनंद आया। चलो पुन: करते हैं।“ जीत ने उत्साह दिखाया। “चलो, इस बार तुम्हें पहले जाना है, मैं पीछे पीछे आती हूँ।“ वफ़ाई ने जीत का साहस बढ़ाया। दोनों ऊपर गए, जीत पहले नीचे गया, वफ़ाई पीछे पीछे नीचे पहुंची। इस बार जीत ने वफ़ाई को हाथ दिया और वफ़ाई जीत का हाथ पकड़कर उठ गई। “चलो कुछ और करते हैं।“ वफ़ाई ने हिम के टुकड़े को हाथ में लिया, गोला बनाया और जीत की छाती पर मार दिया। “अरे, यह क्या कर रही हो? तूम जानती है ना कि यही हिम ही तो मेरे रोग का कारण है।“ जीत जरा चिड गया। “जीत, भयभीत ना हो। अब क्या, जो होना था सो हो गया। अब यह हिम तुम्हें कुछ क्षति नहीं पहुंचा सकता। खुलकर आनंद लो। यही क्षण है जीवन के। हो सके इतना जी लो।“ वफ़ाई ने दूसरा गोला भी जीत को मार दिया। इस बार जीत डरा नहीं, अपितु आनंदित हो उठा। जीत ने भी हिम उठाया, गोला बनाया और वफ़ाई को मार दिया। वफ़ाई जीत के वार से बचने के लिए हट गई। हिम का वार खाली गया। “बड़ी चतुर हो। मेरे वार से बच नीकली, किन्तु मैं छोडुंगा नहीं।“ जीत आक्रामक हो गया। दो चार हिम के गोले वफ़ाई को मार दिये। वफ़ाई प्रत्येक बार बच निकली। जीत जिद पर आ गया। उसने बरफ का गोला लिया और वफ़ाई की तरफ भागा। वफ़ाई भी भागने लगी। आगे वफ़ाई, पीछे जीत। जीत उसे पकड़ना चाहता था, पकड़कर वफ़ाई को हिम का गोला मारना चाहता था किन्तु वफ़ाई जीत के हाथ नहीं आ रही थी। कुछ देर तक दौड़ते रहने पर जीत थक गया। रुक गया। “अब रुक भी जाओ वफ़ाई। मेरे से अब दौड़ा भी नहीं जाता, चला भी नहीं जाता।“ जीत हिम पर ही बैठ गया, लेट गया। वफ़ाई रुकी, मुड़ी और जीत के पास जा पहुंची। वफ़ाई के समीप आते ही जीत ने हाथ में छुपा रखे हिम के गोले को वफ़ाई पर मार दिया। गोला वफ़ाई की छाती के बिचों बीच, दो पहाड़ियों के बीच लगा। वफ़ाई ने शीघ्रता से अपने दोनों हाथ कसकर छाती पर रख दिये। कुछ हिम वफ़ाई की छाती और हथेलियों के बीच दब गया, पिघलने लगा, पिघल गया। वफ़ाई के अंदर भी कुछ पिघलने लगा, पिघलकर बहने लगा, नसों में बहते बहते सारे शरीर में प्रवाहित हो गया। वफ़ाई को यह प्रवाह परिचित लगा, अपना सा लगा। वफ़ाई उस प्रवाह में बहने लगी। जीत ने वफ़ाई को पकड़ लिया, हिम के गोलों की बौछार करने लगा। वफ़ाई अब भीग चुकी थी, अंदर से भी, बाहर से भी। वफ़ाई को यह भिगना मनभावन लगने लगा। वफ़ाई ने कोई विरोध नहीं किया। वफ़ाई प्रसन्न थी कि जीत धीरे धीरे सामान्य होता जा रहा था, पुन: जीने लगा था। ठंडी हवा की लहर दोनों को स्पर्श करती निकल गई, जैसे कह रही हो कि मैं भी यहाँ हूँ। जीत जाती हुई ठंडी हवा के टुकड़े को क्षण भर देखता रहा, अचानक ही उस हवा को पकड़ने के लिए दौड़ पड़ा। हवा जीत से अधिक तेज गति से दौड़ रही थी, जीत के हाथ नहीं आई। जीत ने हिम का गोला हाथ में लिया और जाती हुई ठंडी हवा पर मार दिया। हवा और आगे निकल चुकी थी। जीत निशाना चूक गया। जीत रुक गया, वफ़ाई की तरफ मूड गया। वफ़ाई हंस रही थी। “मेरे पराजय पर तुम हंस रही हो?” जीत ने हिम का गोला वफ़ाई को मार दिया। वफ़ाई ने उससे बचने का कोई प्रयास नहीं किया। गोला वफ़ाई के गालों पर लगा, टूट गया। “नहीं जीत, मैं तुम्हारे पराजय पर नहीं किन्तु तुम्हारे अंदर जन्मे बालक पर हंस रही थी। तुम बिलकुल बालक की भांति सहज हो, निर्दोष हो।“ “तो इसमें हंसने वाली बात क्या है?” “यही कि तुम भी बालक की भांति यह नहीं जानते, नहीं समजते कि जाती हुई हवा हो अथवा जाता हुआ समय हो, उसका पीछा नहीं किया करते। उसकी तरफ यूं पत्थर नहीं उछाला करते। और तुम्हारे अंदर जागे हुए बालक ने मुझे आनंदित होने का अवसर दे दिया।“ “यह बात है?” कहते हुए जीत भी हंस पड़ा। समय के कुछ टुकड़े दोनों के हास्य से पिघल गए। “चलो कुछ और करते हैं। क्या करेंगे? तुम कुछ बताओ।” वफ़ाई ने कहा। “अरे रुको, रुको। मुझे पहले हंस लेने दो। बाद में सोचते हैं।“ जीत पुन: हंसने लगा। वफ़ाई भी साथ हो ली। जीत आज भरपूर हंस रहा था, खुल कर। वफ़ाई ने उसे नहीं रोका। अंतत: कुछ और टुकड़े समय के पिघल गए तब जा कर जीत शांत हुआ। “हाँ तो तुम क्या कह रही थी?” जीत पूछा। “हाँ तो मैं क्या कह रही थी?” वफ़ाई ने जीत के शब्दों को दोहराया। “अरे , मेरे ही शब्दों को...?” जीत चिढ़ गया। वफ़ाई हंस पड़ी। “बिलकुल ही बच्चे हो गए हो तुम जीत।” “ठीक है। ठीक है। चलो आगे कहो, तुम क्या कह रही थी?” “चलो अब कुछ और करते हैं। कुछ नया, कुछ भिन्न करते हैं।” ”हिम के पहाड़ों पर भिन्न सा क्या हो सकता है?” “कुछ भी हो सकता है। जैसे दौड़ा जाय, अथवा,,,।“ “अथवा क्या?“ “अथवा कोई गीत गाया जाय।“ वफ़ाई ने कहा। “गीत, इस पहाड़ पर?” “हाँ, जब मनुष्य अत्यंत आनंदित होता है तो कोई मधुर गीत गाता है।“ “तो ठीक है, चलो गाओ कोई गीत।“ “दिल ढूँढता है फिर वही...।“ वफ़ाई गाने लगी। जीत भी जुड़ गया। “यह गीत तो पूरा हो गया।” “कोई नया गीत गाएँगे।“ वफ़ाई उत्साह से बोली। “वह भी पूरा हो जाएगा तो?” “तो दूसरा, तीसरा...गाते ही रहेंगे।‘ “कब तक गाते रहोगी?” “जब तक गीत गाते गाते थक ना जाएँ।“ “और जब थक जाएंगे तो क्या करेंगे?” “तब की तब सोचेंगे। अभी तो गीत गा लें।” वफ़ाई ने कोई नया गीत गया। जीत साथ साथ गाता रहा। जीतने याद थे वह सारे गीत गा चुके दोनों। दोनों थक गए, मौन हो गए। *** ‹ पिछला प्रकरणहिम स्पर्श - 71 › अगला प्रकरण हिम स्पर्श - 73 Download Our App रेट व् टिपण्णी करें टिपण्णी भेजें Hetal Thakor 5 महीना पहले Nikita 6 महीना पहले Avirat Patel 7 महीना पहले Bharati Ben Dagha 7 महीना पहले vipul chaudhari 7 महीना पहले अन्य रसप्रद विकल्प लघुकथा आध्यात्मिक कथा उपन्यास प्रकरण प्रेरक कथा क्लासिक कहानियां बाल कथाएँ हास्य कथाएं पत्रिका कविता यात्रा विशेष महिला विशेष नाटक प्रेम कथाएँ जासूसी कहानी सामाजिक कहानियां रोमांचक कहानियाँ मानवीय विज्ञान मनोविज्ञान स्वास्थ्य जीवनी पकाने की विधि पत्र डरावनी कहानी फिल्म समीक्षा पौराणिक कथा पुस्तक समीक्षाएं Vrajesh Shashikant Dave फॉलो शेयर करें आपको पसंद आएंगी हिम स्पर्श - 1 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave हिम स्पर्श - 2 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave हिम स्पर्श - 3 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave हिम स्पर्श - 4 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave हिम स्पर्श - 5 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave हिम स्पर्श - 6 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave हिम स्पर्श - 7 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave हिम स्पर्श - 8 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave हिम स्पर्श - 9 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave हिम स्पर्श - 10 द्वारा Vrajesh Shashikant Dave