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सातवां होल

सातवां होल

मनीषा कुलश्रेष्ठ

शाम चार बजते ही रिटायर्ड लेफ्टिनेन्ट कर्नल केशव शर्मा पांच किलोमीटर सायकिल चला कर गोल्फकोर्स पर आ डटते हैं। हालांकि अब खेलते कम हैं, शरीर में पुराना दम – खम बाकी रहा न नज़र में वो पैनापन। उमर के असर से हाथों में भी हल्का - सा कंपन रहता है। कभी वो गोल्फ के शातिर खिलाड़ी थे। अब नौसिखिये गोल्फरों में अपना अनुभव निशुल्क बांटते हैं। कई बार किसी के आग्रह करने पर, कई बार किसी के बिना मांगे‚ बिना पूछे। ये नौसिखुए लोग उनका बहुत सम्मान करते हैं। विशिष्ट सेवा मैडल प्राप्त इन लेफ्टिनेन्ट कर्नल महाशय का पूरा जीवन फौज और गोल्फ की नज़र ही हो गया। अब सत्तर साल के हो गये हैं पर उनकी उस फौजी कसावट – बुनावट के चलते जीवन में व्यायाम, अनुशासन और गोल्फ के प्रति मोह अब भी बाकी है।

आज वे दोपहर तीन बजे से आ बैठे हैं — गोल्फकोर्स के इस हिस्से में जहां एक बैंच लगी है और पानी के एक छोटे से गढ्ढे के उस पार गोल्फ का सातवां होल है। इस गोल्फकोर्स का सबसे मुश्किल मुकाम।

बैठ कर वे गोल्फ और दीवानगी पर सोच रहे हैं, बीती रात मि.कण्णन से हुई बातचीत से वे आश्चर्य में डूबे हैं कि कोई उनसे भी ज्यादा गोल्फ को लेकर दीवाना रहा है। नई बात नही हैं इसमें इंग्लैंड के पागल गोल्फर तो द्वितीय विश्वयुद्ध के दिनों में भी बमों की बौछार के बीच गोल्फकोर्स से बिना फटे बम और फटे बमों के फ़ौलादी तीखे टुकड़े और किरचें हटा कर गोल्फ खेलते थे। उस दौरान उन्होंने गोल्फ के नए नियम बना लिये थे। पहला तो यही कि गनफायर के समय छिपने पर, दुबारा बिना पैनल्टी खेल शुरू किया जा सकता है।

उस पर विडम्बना यह थी कि अपने ही पक्ष के लड़ाकू जहाज़ यह सोच कर बम गिराने की प्रेक्टिस गोल्फ कोर्स में किया करते थे कि युद्ध के दिनों में कोई पागल ही होगा जो गोल्फ खेलेगा। गोल्फर, गोल्फर ही क्या जो इस खेल के पीछे इस हद तक पागल न हो?

“गोल्फ दीवाना अपना ये क्रेज़ी कण्णन अब तक नहीं पहुंचा आज, वरना दोपहर तीन बजे से यहाँ डटा मिलता है। अपना बाबा आदम के ज़माने का किट लिए।“

कल उनकी सायकिल का स्टैण्ड टूट गया था‚ एक कैडी* की मोटरसाइकिल की टक्कर से उनकी सायकिल गिर गई थी और स्टैण्ड निकल गया था। आज बिना स्टैण्ड की यह सायकिल उन्होंने सामने बैंच से ही टिका कर रख दी है। सायकिल चलाना उनके नियमित व्यायाम का हिस्सा है। बच्चे कहते हैं‚ घर पर ला देंगे एक्सरसाइज़ वाली सायकिल‚ रोड पर तेज़ वाहनों का खतरा तो रहता ही है उस पर सत्तर की उमर और कमज़ोर नज़र। पर वो कहां सुनते हैं‚ घर पर सायक्लिंग में क्या खाक मज़ा है‚ जो बाहर है‚ नज़ारे बदलती दुनिया के — उन्हें दुनिया और जीवन से जोड़ते हैं। सैर की सैर‚ व्यायाम का व्यायाम। साढ़े छ: बजे तक जब तक ठीक – ठाक घर नहीं पहुंच जाते हैं, तब तक उनकी सबसे छोटी बहू नमिता की जान टंगी रहती है दरवाजे पर… वे उसी को सबसे ज़्यादा चाहते हैं‚ भले ही बेटा नालायक है पर बहू ...... वही तो है जिसके बूते घर चलता है।

वह एक अच्छी ऑर्थोडोन्टिस्ट है‚ उसकी अच्छी प्रेक्टिस चलती है। बेटा‚ एम.बी.ए. करके बेकार घूमता है… उससे कहीं टिका नहीं जाता… एक कम्पनी से दूसरी कम्पनी… या कई महीनों खाली बैठता है… घर में आलसी सा…आजकल भी खाली है… देर में उठना‚ नमिता से झगड़ना‚ उनसे बेबात बहस करना… खाने में मीन – मेख निकालना… फिर सो जाना और शाम को तैयार होकर तफरीह को निकल पड़ना‚ नमिता साथ जाना चाहे या पोता ज़िद करे तो झगड़ा। इसी सब से दूर भाग आते हैं‚ कर्नल केशव। यहां हरे भरे कोने में कुछ पल खेल की नित नवीन चुनौतियाँ, हरी - भरी ज़मीन पर खेलने से प्राकृतिक प्रफुल्लता उनको नया जीवन रस दे जाते हैं। कुछ नए – पुराने लोगों से मिलने – जुलने से दिन भर का ऊबा मन फूल सा हल्का हो जाता है।

आज उन्हें बेसब्र इंतज़ार है‚ दो महीने पहले बने अपने मित्र मि. कण्णन का‚ संयोग से यह दक्षिण भारतीय महाशय भी गोल्फ में दीवानगी भरी रुचि रखते हैं और भारतीय रेल सेवा से किसी उच्चाधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। मि. कण्णन की सेहत उनसे कुछ अच्छी है और वे उम्र उनसे कुछ बरस कम है सो वे अब भी बढ़िया गोल्फ खेल लेते हैं और इस साल के स्टेट टूर्नामेंट में शामिल होने की ललक पाले हुए हैं। सर्दियों की एक गुनगुनी दोपहर में वे मिले थे। कण्णन दसवें होल में पटिंग के लिए पिछले पांच मिनट से अनुमान लगा रहा था। कर्नल केशव ने थोड़ी दूर से हल्का – सा चिल्ला कर पूछा था, “ बडी! बुरा न मानो तो एक टिप दूं? “

“ मोस्ट वैलकम सर।“ उसने अपना सांवला चेहरा और सफेद बालों वाला सर उठा कर कहा था। “ आज हवा दग़ाबाज़ी कर रही है, यह मेरा आखिरी शॉट है। इस शहर की हवाएँ अजीब हैं। दिल्ली में हवाओं के रुख बहुत बदलते नहीं थे।

“बडी! हवाएँ तो संगीत की तरह चलती रहती हैं, बॉल तो क्लब* की छुअन पर नाचती है। तुम हल्का सा ढलान से नीचे पैर रखो, कंधों को पचीस डिग्री पर घुमाओ, यह हल्का वाला पटर लो झुको और बॉल को हल्का उछाल देते हुए छू दो। फिर जादू देखो।“

जादू चला और खूब चला।

“कमाल है सर, मुझे तीस बरस हुए खेलते। ये जादूगरी नहीं आई। सर माय सैल्फ कण्णन, मैं पिछले ही साल रेलवे से रिटायर हुआ और दिल्ली से बैंगलोर आकर सैटल हुआ हूं। छ: महीने से सुबह गोल्फ खेलने आ रहा हूं। आपको नहीं देखा।“

“ मैं रिटायर्ड लेफ्टीनेंट कर्नल केशव, बडी! मैं शाम को आ पाता हूं। सुबह बेबी सिटिंग की ड्यूटी करता हूं।“

“ मैं अब शाम को आया करूंगा, आपके साथ जमेगी मेरी।“

दोनों एक डेढ़ घंटा साथ खेलते हैं फिर थक कर, कैफ़ेटेरिया में जा बैठते हैं। खेलते हुए, आराम करते हुए बातें होती हैं पहले गोल्फ की‚ फिर राजनीति की‚ बदलते परिवेश की फिर बात आकर ठहर जाती है घर – परिवार पर। एक संयोग यह भी है कि दोनों लम्बे समय से विधुर हैं। एक सी परिस्थितियों ने दोनों को जल्दी ही अंतरंग बना दिया है।

मि. कण्णन ने नौकरी लम्बे समय तक की है। बांसठ साल। पिता ने उम्र कम लिखवाई थी इसलिए यूं देखें तो पैंसठ साल। तनाव से भरी नौकरी के दौरान ही वे हायपरटेन्शन के शिकार हो गये थे। मधुमेह और इसका जीवनसंगी उच्चरक्तचाप उनके साथ पिछले दस साल से हैं। वे थोड़े चंचल और उग्रता की कुछ हदें छूते हुए व्यग्र किस्म के व्यक्ति हैं। जबकि केशव अपने तन – मन को फौजी अनुशासन में रखते आये हैं‚ ‘ सैनाइल ट्रेमर्स’ के हल्के – हल्के कंपनों के अलावा उन्हें कोई परेशानी नहीं है। वे स्वयं तो हमेशा गति में रखते हैं‚ सुबह छ: बजे उठ कर योग – मनन‚ फिर नाश्ते के बाद बागवानी — अपने छोटे से लॉन में उन्होंने न जाने कितने किस्म के गर्मियों के खुश्बूदार फूल उगा रखे हैं‚ कितने क्रोटन्स‚ सकुलेन्ट्स‚ कैक्टाई तरतीब व सौन्दर्यबोध के साथ लगा रखे हैं। नमिता खुश हो जाती है‚ जब सब उसके लॉन की तारीफ करते हैं तो वह गर्व से कहती है‚ " ना‚ कौन गार्डनर इतना सुन्दर लॉन बना सकता है? मेरे ससुर जी की ही मेहनत और सुंदर प्लानिंग का कमाल है यह।"

वे घड़ी देखते हैं — अब तक तो कण्णन का आ कर चले जाना का समय हो गया छ: बज गये। कल तो बड़ा कह रहा था‚ " ये कल के छोकरे अपने आप को तीसमारखां गोल्फर समझते हैं। इस बार के टूर्नामेंट में इन्हें दिखाता हूँ गोल्फ है क्या। कल पक्का मैं अपना इम्पोर्टेड गोल्फ किट लेकर आऊंगा। बेटे ने भेजा था, पिछले जन्मदिन पर।“

वे सोचते हैं। शायद कहीं अटक गया हो। अब सबकी किस्मत उनके जैसी तो नहीं ना। नमिता ठीक साढ़े तीन बजे चाय बना कर उनके पास आ बैठती है‚ भले ही अपने डेन्टल क्लीनिक से तभी ही लौटी हो… पर चाय का टीम – टाम पूरा व समय से। हां बिलकुल‚ केतली को टीकोज़ी से ढंक कर‚ मिल्क पॉट – टी पॉट के ताम झाम के साथ। उसे पता है पापा कितना खुश हो जाते हैं इस ज़रा सी कोशिश से वरना सुबह – शाम का खाना तो वे बाई के हाथ का बना‚ टेबल पर रखा हुआ‚ बिला शिकवा खा लेते हैं। यही छोटा सा सुख वह उन्हें दे पाती है। यही वजह है कि छोटे बेटे के नालायक बिगड़ैल‚ लापरवाह‚ गैरज़िम्मेदार‚ लगभग बेरोज़गार होने के बावज़ूद वे यहीं उसी के साथ रहते हैं‚ वरना कनाडा में बसे बड़े बेटे - बहू कितना बुलाते हैं। पर उनसे अपना देश नहीं छूटता‚ फिर नमिता को उनकी ज़रूरत है… नन्हीं पोती संचिता को फिर कौन देखेगा? कर्नल की पत्नी बस तीन साल पहले गुज़री हैं। वे व्यवहारिक व्यक्ति हैं, मृत्यु की अनिवार्यता पर वे ‘गीता’ के दर्शन को सर्वोपरि मानते हैं। वे एक श्लोक कण्णन को सुनाते हैं अकसर –

न जायते म्रियते वा कदाचि-

न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |

अजो नित्यः शाश्र्वतोSयं पुराणो

न हन्यते हन्यमाने शरीरे ||

(आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु | वह न तो कभी जन्मा है, न जन्म लेता है और न जन्म लेगा | वह अजन्मा, नित्य, शाश्र्वत तथा पुरातन है | शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता |)

मि. कण्णन की नियति एकदम अलग रही है। बैंगलोर में उन्होंने बड़ा सा घर बनवाया था‚ रेल्वे की नौकरी में रहते – रहते। रिटायरमेन्ट के बाद वे सुकून से उस अपने घर में अपनी पत्नी के साथ रहने के सपने देखते थे। नियति का अपना हिसाब है न! उनकी पत्नी पैंतालीस की उम्र में ही कैंसर से ग्रस्त हो, रेल्वेकॉलोनी के सरकारी क्वार्टर में रहते - रहते एक दिन दुनिया से विदा हो गईं। अकेले बच्चों को आगे पढ़ाया, बेटे को विदेश भेजा, वहीं एक भारतीय लड़की से उसकी शादी हुई। बेटी को भी शादी करा कर विदा किया। अब इस बड़े घर में अकेले घर बनाते हुए देखे सपनों के टूटे पंखों को बुहारते हैं। ग़नीमत है बेटी इसी शहर में बारह किलोमीटर की दूरी पर रहती है‚ वह आती – जाती रहती है। यहां एक नौकरानी है जो घर की और उनकी दिनभर की ज़रूरतों का ख्याल रखती है। एक पारिवारिक डॉक्टर है जो सप्ताह के सप्ताह उनका चैकअप किया करता है।

केशव एक बैचेनी भरी निगाह अपनी घड़ी पर डालते हैं… पौने सात बज गये हैं। अब क्या आयेगा कण्णन…गोल्फ का खेल भी सिमटने लगा है। जॉगर्स लौट गये हैं‚ कोने की बेन्च पर चिपका बैठा एक प्रेमी युगल भी उठ खड़ा हुआ है। गुलमोहर के पेड़ पर बिछा किरणों का जाल सूरज ने कब का समेट लिया। तोते बड़े पेड़ों के कोटरों पर लौटकर खूब शोर मचा रहे हैं। वे भी देर तक अपनी ज़मीन पर लेटी सायकिल उठाते हैं‚ फिर थके कदमों से धीमे – धीमे पैडल मारते हुए घर को जाती लंबी मगर कम ट्रेफिक वाली सड़क पर चले आते हैं।

केशव लगभग पूरे सप्ताह अपने अन्तरंग मित्र की प्रतीक्षा इसी तरह करते रहे‚ फिर बेचैन हो गये और स्वयं पर लानत भेजने लगे कि इतने दिनों से मिल रहे हैं‚ घर का पता तक नहीं पूछा। नमिता उनकी बेचैनी समझ पर रही थी। कण्णन का मोबाइल भी तो तब से बन्द पड़ा है‚ कितनी बार वही नम्बर मिलाया तो वही आवाज़‚ " दिस मोबाइल इज़ करन्टली स्विच्डऑफ।" न और कोई नम्बर न पता। एक व्यग्रता से उनका मन भर उठा था। कहां‚ कैसे पता पायें कण्णन का।

कमर बांधे हुए चलने को यों तैयार बैठे हैं,

बहुत आगे गए, बाक़ी जो हैं तैयार बैठे हैं

कण्णन की ज़बान पर रहने वाला यह सय्यद इंशा अल्लाह खान 'इंशा’ की अच्छी ग़ज़ल का मनहूस शेर उनकी ज़बान पर बुदबुदाहटों में बदलने लगा। उन्होंने जोर से सर झटका। ज़ायक़ा बदलने को इस ग़ज़ल के अगले शेर याद करने लगे।

न छेड़ ऐ निकहत-ए-बाद-ए-बहारी! राह लग अपनी

तुझे अठखेलियाँ सूझी हैं, हम बेज़ार बैठे हैं

सच ही में, उस शाम ढलते हुए शिरीष के पेड़ों के रेशेदार फूल बिखर कर फागुनी हवाओं पर अपनी ख़ुशबुएँ लुटा रहे थे। कण्णन के अकेलेपन की उन्हें चिंता होने लगी। अभी सप्ताह भर पहले की तो बात है, कण्णन ने अपने अड़सठवें जन्म दिन पर अपनी ज़िंदगी का दूसरा और शायद आखिरी ‘ होल इन वन ‘* शॉट मारा था। सातवें होल में। उत्तेजना से उसका सांवला चेहरा सुर्ख हो गया था। कर्नल पाँचवें होल में पटिंग* में खुद को एकाग्र कर रहे थे, कि वह दौड़ता हुआ आया और जोर से उनकी जफ्फी ले ली। वह वहाँ खेल रहे हर गोल्फर्स, हर कैडी को चिल्ला - चिल्ला कर बता रहा था। उस रात उन दोनों ने विंडसर-मैनर होटल में शैम्पैन खोली और शानदार डिनर किया था। कितना खुश था वो, उस रोज़ दिल खोल कर रख दिया था उसने।

“ यार, यह मेरा दूसरा ‘होल इन वन’ शॉट है, जिंदगी का। एक सूमा के दुनिया से जाने के अगले दिन लगा था। “

“क्या?”

“यार! तुमने जो क्रेज़ी गोल्फर्स पर जितने जोक सुनाए हैं न, कई बार वे मुझ पर फिट बैठते थे। वो जो जोक था न एक गोल्फर एक भीड़ को चर्च जाते हुए देखता है पूछता है, वहां क्या हो रहा है...... फिर क्लब फेंक कर भागता है, ओह बीवी का फ्यूनरल! मैं उस दिन हंस नहीं सका था इस जोक पर। मेरे लिए सोना खाना और गोल्फ खेलना ही ज़िंदगी थी यार। मैं खुद को माफ नहीं कर सकता कि मेरो गोल्फ प्रेम ने सूमा को कितना अकेला कर दिया था।“

“ सच यार कण्णन, इस मामले में ब्रिटिशर्स की वो उक्ति बिलकुल सही है। ‘ गोल्फ कोर्स हमारी जन्नत और हम गोल्फरों की पत्नियां ‘गोल्फ विडोज़’

“ नहीं यार, बात इतनी हल्की नहीं थी। जन्नत का रास्ता तो उसीने चुन लिया था। चलो छोड़ो, लो बढ़िया स्कॉच लो, तुम्हारे लिए खास मँगवाई है कर्नल!”

“ हूं.....स्कॉच तो चलती रहेगी, चल तू जो कुछ बता रहा था, वही आगे बता।“

“कर्नल, मैं उन्हीं कमीने मर्दों में से था, जो औरतों की बीमारियों को तवज्जोह नहीं देते। उस पर वह उन औरतों में से थी, जिसे अपने दर्द को बढ़ा – चढ़ा कर बताना नहीं आता था। मैं सोचता था कि मेरी सूमा इतनी स्वस्थ है कि बीमार ही नहीं पड़ती। वह तेज़ पेटदर्द पर भी बस हल्का कराहती, या खुद डॉक्टर के पास चली जाती। तब भी बस एक सप्ताह लंबा बुखार हुआ जिसे हम मौसमी बुखार समझते रहे। वह एंटीबायटिक खाती रही। जब बुखार बहुत बढ़ गया और उसे सांस लेने में दिक्कत होने लगी। बेहोशी के दौरे पड़ने लगे, तब मैं नींद से जागा। याद करूं तो गोल्फ की शुरुआत के बाद से केवल तब ही एक महीना मेरा गोल्फ किट बंद रहा। बच्चों के जन्म तक में, सुबह और रात अस्पताल जाता, शाम गोल्फ कोर्स। मैंने वहीं वहीं ट्रांसफर लिए जहां जहां गोल्फकोर्स थे। ज्यादातर तो भोपाल और दिल्ली रहा। गोल्फ एक भूत है, जिसके उतरने की उम्मीद सूमा ने छोड़ दी थी। पूरा - पूरा सप्ताहांत। शुरू में वह हल्का सा लड़ी, उसे लगता था मेरी कोई प्रेमिका है, तो मैं साथ ले जाने लगा। इस पर उसे लगा बच्चे उपेक्षित हो रहे हैं, घर अव्यवस्थित तो उसने आना बंद कर दिया।

पर वह निश्चिंत हो गई कि मेरी कोई प्रेमिका नहीं, उसके इस काले भूत की प्रेमिका कौन बनेगी। पर गोल्फ प्रेमिका ही तो थी न। जिसका मोह न तब छूटा न अब।“ मैं इस कण्णन नाम के व्यक्ति के भीतर के संसार को हैरत से जान रहा था। यह दक्षिण भारतीय होकर अच्छी हिंदी, बहुत अच्छी अंग्रेजी बोल लेता है। बता रहा था, उसके पिता भी इलाहाबाद में बरसों भारतीय रेलवे में नौकरी करते रहे, बचपन वहीं बीता।

“फिर?” मैं उसके साँवले चेहरे पर पहली बार दर्द देख रहा था।

“हाँ तो, फिर कई टैस्ट हुए, तीसरे दिन पता चला उसे लिवर कैंसर था। उसके फेंफड़ों में पानी भर चुका था, जिसे डॉक्टर ने निकाला, और एक सप्ताह बाद कीमोथैरेपी के लिए आने को कहा। वह साईंस पढ़ी थी, तुरंत समझ गई थी, उसे कैंसर है। उसने कीमोथैरेपी के लिए साफ मना कर दिया। मैंने डॉक्टर से पूछा कि कीमो से फायदा? उसका जवाब था, कीमो कराएँगे तो कुछ महीने जी लेंगी, वरना कुछ सप्ताह। वह नहीं चाहती थी कॉलेज के आखिरी सालों में पढते हमारे दोनों बच्चे यह जानें कि उसे कैंसर है। हमने छुपा लिया। उसके न चाहने पर भी मैं कुछ महीनों के मोह में कीमो कराने का फैसला ले चुका था। कीमो की विदेशी दवाएं ऑर्डर कर दी थीं। मैं जानता था, कुछ महीनों यानि बच्चों के इम्तहानों के बाद तक उसके जीवन को खींच लेने की उम्मीद में, अपने स्वार्थ के लिए उसे कीमो लगवाना ज्यादती है। बेइंतहां दर्द और मॉर्फीन के असर में उसका जीना सजा हो जाएगा। पर कहीं चमत्कार की उम्मीद और उसके साथ हर पल रहने के प्रायश्चित की थोड़ी मोहलत... ..मैं मन ही मन रोता था कि सूमा जैसी ईश्वर से डरने वाली, नेक औरत को दर्द भरी मौत कैसे दे सकते हो?

मैं उसे मानसिक रूप से कीमोथैरेपी के लिए तैयार करना चाहता था। मुझे याद है वह इसी तरह मार्च की खुश्बू भरी रात थी। हम घर पर थे। अगले दिन उसे अस्पताल में भरती होना था। रात की रानी महक रही थी। आधी रात बीत चुकी थी, हम दोनों ही जाग रहे थे। वह दर्द से मैं चिंता से। मैंने उसे अनार के जूस के साथ दर्द कम करने और सुलाने की दवा दी और अपने लिए फ़िल्टर कॉफी लेकर मैं उसकी बगल में बैड पर बैठ गया था। पीला सा चांद बाहर आकाश में चलते चलते रुक कर हमारी खिड़की पर उत्सुक होकर ठहर गया था मानो कि जानना चाहता हो अब मैं क्या कहूँगा?

“ सूमा, तुम ठीक हो जाओगी...... बस इलाज थोड़ा लंबा चलेगा।“ यह मैं कहना चाहता था मगर सूमा मेरी तरफ पलटी और अपनी बड़ी बड़ी सुंदर आँखों को खोल वही बोली – “क्या मैंने तुम्हें सुख दिया?”

“ कैसी बातें करती हो? तुमने मुझे बहुत सुख और आराम दिया। बच्चे कैसे पले पता नहीं चला मुझे। बल्कि मैं तुम्हें समय नहीं दे सका....मुझे माफ कर दो।“ मैं भीतर बिखर रहा था कर्नल। उसके चेहरे पर मेरे जवाब से शांति छा गई, उसकी हल्की दर्द भरी कराहटें बंद हो गईं। वह मुस्कुरा रही थी। फिर उसने बाहर आंगन की तरफ इशारा कर कहा, “ मेरे पंछियों का दाना मत बंद करना, पानी डालते रहना कुंडों में।“

“ हां, तुम अस्पताल से लौटोगी तो तुम्हारे पंछी तुम्हें तुम्हारे आंगन में गाते हुए मिलेंगे।“

“ सुनो खेलना मत छोड़ना, तुम गोल्फ खेलते हुए मुझे पसंद हो।“

“ तुम गोल्फ कोर्स का वह बोर्ड देख कर पूछती थी ना इतने बरस खेलते हुए क्यों मेरा नाम ‘होल इन वन’ में शुमार नहीं हुआ। तुम लौट आओ, वह चमत्कार करूंगा मैं, तुम नाम देखोगी मेरा रेसकोर्स के गोल्फकोर्स के बोर्ड पर।“

वह बहुत बरसों बाद हँसकर बोली – आय लव यू! मैंने उत्तर में “ आय लव यू” की रट लगा दी और उसके हाथ चूमने लगा। उसने मुस्कुरा कर हाथ छुड़ा कर करवट बदल ली। मुझे लगा सोना चाहती है, मैं उसकी कमर सहलाता रहा, कुछ देर बाद मुझे लगा उसका शरीर कुछ ज्यादा ही निश्चल था। मैंने उसे पलटा, उसकी आँखें बंद थीं, चेहरे पर शांति। वह जा चुकी थी। सुबह हो रही थी, उसके पंछी दाने की उम्मीद में पेड़ों से उतर कर आंगन में चहचहा रहे थे। मैं दोहरी स्थिति में था कर्नल, सुख – दुख के विकट मोड़ पर खड़ा था। वह बिना दर्द झेले चली गई थी मगर हमेशा के लिए मेरे जीवन से दूर, कॉलेजों में बाहर पढ़ते मेरे बच्चों के जीवन से मां चली गई।

मैंने बच्चों को फोन किया, उसके और अपने करीबी रिश्तेदारों को फोन किया। पंछियों को दाना पानी दिया। शाम तक़रीबन सब करीबी फ्लाईट्स पकड़ कर आ गए। उसका विधिवत अंतिम संस्कार हुआ। घर मेरा मेहमानों से भरा था। मेरी बहनों और उसकी भाभियों ने सब संभाल लिया था।

मैं पिछली तीन रातों से सोया नहीं था, अंतिम संस्कार वाली रात बच्चे मुझसे लिपट कर सुबकते रहे थे। उस रोज सात बजे सुबह मैं बच्चों को चादर उढ़ा कर, एसी चला कर बिस्तर से उठा। बिना नहाए, शेव किए मैंने अलमारी खोली। वहां मेरा सामान क़रीने से रखा था। अपने ख़ाकी शॉर्ट्स पहने, सफेद टी शर्ट डाली, गोल्फ कैप पहन कर, अपना पुराना गोल्फकिट उठा कर गोल्फकोर्स आगया।

“ यार ऐसे मत घूरो! “ कण्णन सांस लेने को रुका था। “ मुझे बस एकांत चाहिए था और गोल्फ।“

“ मैं उस रोज बहुत बुरा खेला। मुझे वो दिन याद आए, जब सूमा अपने अकेलेपन से घबरा कर मेरे साथ चली आया करती थी, और घने पेड़ों के पीछे वॉक किया करती, मैं वहां तक पहुंचता तो खुशी से मुस्कुराती, क्योंकि वहां अठारहवाँ होल हुआ करता था। आखिरी होल और फिर खेल खत्म, फुरसतें। हम बाहर डिनर किया करते। मुझे पता था अब वहां सूमा वॉक नहीं कर रही, अब कभी नहीं करेगी। मेरे विश्वास को छलती हुई वह अविश्वसनीय ढंग से मृत्यु को ओढ़े चली गई है। शॉट्स लगाते हुए बार - बार मेरा ध्यान उधर जाता। मैं बहुत बुरा खेला, शॉट्स बेकार गए। पटिंग करते हुए मेरे अनुमान बार – बार गलत हुए। मैं किसी तरह सातवें होल तक पहुंचा। सामने छोटा सा तालाब था। मुझे याद आया कि उसके बीमार होने के कुछ महीनों पहले वह मेरे साथ आई थी। इसी तालाब के किनारे से एक बार उसने बचपने में मां के घर खाए किसी अनूठे जंगली साग के पत्ते तोड़े थे। वह बहुत खुश थी कि घर जाकर उनकी भाजी बनाएगी। बड़े चाव से वह कोमल पत्ते तोड़ कर घर ले गई, साफ कर के भाजी बनाई। हमने पहला कौर तोड़ा था और तुरंत वाशबेसिन में थूकने भागे, और पेट पकड़ कर खूब हंसे थे।

“ वह पत्ते मुझे वैसे ही लगे थे, आकार और रंग और महक में।“

“ अरे, तो हर कुछ तो मां का बनाया साग नहीं होता।“

वो पत्ते अब भी लहलहा रहे थे, उनमें नन्हें जामुनी फूल तितलीनुमा फूल उग आए थे। वह सब याद कर मुझे उस दर्द के पल में भी हंसी आगई। मैंने बॉल की तरफ रुख किया, और क्लब को सहजता से लहराया और सातवें होल की तरफ शॉट मारा। जैसे ही बॉल उछली मैं बॉल के उछाल की तरफ मुड़ा। वह नीले आसमान के बरक्स सफेद सुंदर चाप बनाती हुई गिरी, सातवें होल के आस - पास महीन कटी घास पर गिरकर वह फिर उछली फिर हल्का – हल्का मेंढक की तरह कूदती हुई होल से पांच कदम पर लहराई और होल की तरफ चढ़ाने पर चढ़ी, फ्लैगस्टिक से छूती हुई, होल के कप में बहुत प्यार से जा गिरी।

“ सूमा! मैंने कर दिखाया। आय लव यू सूमा।“ मैंने आसमान की तरफ चुंबन उछाले और घुटनों के बल घास में बैठा और फूट फूट कर रोने लगा। फिर घास पर लोटने लगा। दूर खड़ा मेरा कैडी खुशी से दौड़ता हुआ आया,

‘ सर, आज तो मेरी बड़ी टिप बनती है।‘ वह और खिलाड़ियों को पुकार कर बुलाने लगा। मगर मैं अनजानी राहत, खुशी, हानि और दुख और प्रेम के अलग – अलग भावों के कुंड में डूब उतरा रहा था। मेरा सपना पूरा हुआ था। जिसके जुनून के बारे में सूमा भी जानती थी। कहती थी, “ क्या बड़ी बात, कर लोगे एक दिन।“ एक वो दिन था और एक ये, यार दोनों दिन अजीब ही थे न? होल भी सातवाँ, अजीब सा संयोग है न? तुम सोचोगे कि कितना असंवेदनशील था मैं। इतना खोकर गोल्फ से क्या पा लिया मैंने? “

“ दोस्त, गोल्फ में कहते हैं न, कल का अच्छा शॉट आज काम नहीं आने का, तो कल का बुरा शॉट आज क्यूं काम आएगा भई? ज़िंदगी और गोल्फ बहुत कुछ एक से हैं। जो बीता वह बीता। अब आज जीना है न......”

“ यह जीना नहीं है कर्नल, यह बस अठारहवीं होल यानि मृत्यु तक खेलते रहने की मजबूरी है।“

इन्हीं बातों के साथ खाना खाकर हमने एक दूसरे से रात ग्यारह बजे विदा ली थी। फिर अगले दिन ऐसा क्या हुआ?

रविवार शाम जम कर खेलने के बाद कर्नल सोमवार को गोल्फ नहीं खेलते मगर कण्णन तो बिला नागा.....सर्दी गर्मी, हां बरसात छोड़ कर। आज वे महज कण्णन का पता लगाने के लिये ही गोल्फकोर्स पहुंचे थे‚ आज यही गोल्फकोर्स उन्हें सूना सा लग रहा था‚ कण्णन की उत्साहित‚ उत्तेजित तेज़ आवाज़ और ठहाकों की गूंज के बिना यह बैंच‚ यह पिन‚ मखमली घास के टुकड़े और पानी का सुन्दर छोटा सा पॉण्ड सूना सा लग रहा था। दूर एक समूह गोल्फर्स का एकाग्रता से एक गोल्फर को शॉट लगाते हुए देख रहा था… उन्हें लगा की उस समूह में कण्णन का ही एक जूनियर अधिकारी फिरोज़ मौजूद है‚ जिससे लगभग दो सप्ताह पहले ही कण्णन ने ही कर्नल को मिलवाया था।

कर्नल केशव लगभग हांफते हुए तेज़ सायक्लिंग करके फिरोज़ के पास पहुंचे थे कि‚ उन्हें हांफते देख फिरोज़ चकित था‚ “क्या हुआ सर?"

" फिरोज़ डू यू नो वेयर अबाउट्स ऑफ कण्णन? वेयर इज ही? हैव यू सीन हिम? डू यू हैव हिज़ एड्रैस एनी कांटेक्ट नंबर?"

( फ़िरोज़ तुम्हें कण्णन के बारे में जानकारी है? कहाँ है वह? तुमने उसे देखा? उसका पता, फोन नंबर?)

इतनी उत्तेजना शायद ही केशव ने कभी अपने जीवन में दिखाई थी। न जाने कैसा मोह था‚ इस ढलती सांझ – सी उम्र में बने एक मित्र के प्रति!

" डोन्ट यू नो सर?" ( आपको नहीं पता सर?)

" व्हाट?" उनका मन किसी अजानी आशंका से लगभग बैठ ही गया था।

" लास्ट वीक ही हैड हिज़ फर्स्ट हार्टअटैक। ( पिछले सप्ताह शनिवार की रात को, उन्हें पहला हार्ट अटैक पड़ा।)

“ कैसा है वो? ठीक तो .....”केशव के चेहरे पर हवाइयां उड़ रहीं थीं।

“नाउ ही इज़ एडमिटेड इन अपोलो, ही वाज़ इन क्रिटीकल कण्डीशन सर। " ( अब वो अपोलो में भरती हैं, उनकी अवस्था गंभीर थी सर )

" सर आई हैव सीन यू सो मैनी टाइम्स अलोन इन गोल्फकोर्स बट आई थॉट‚ यू मस्ट बी अवेयर अबाउट हिम…।" ( सर , मैंने आपको कई बार अकेले गोल्फकोर्स में देखा तो सोचा कि आपको खबर होगी उनके बारे में)

" नो‚ आइ वाज़न्ट।" ( नहीं, मुझे नहीं पता था) कह कर केशव पैर घसीटते हुए सायकिल की तरफ बढ़ गये।

अगले ही दिन सुबह दस बजे वह और नमिता अपोलो में अस्पताल की लम्बी भूलभुलैय्या सी गैलरियों में खाक छान रहे थे। आखिरकार उन्हें कण्णन का वार्ड मिल गया। वे चप्पल उतार कर पोस्ट ऑपरेशनल आई सी यू वार्ड में घुसे। नर्स से पूछा तो पता चला कि — हाल ही में उनकी एन्जियोप्लास्टी हुई है … पर नर्स ने कहा‚ ' रिकवरी ' बहुत ' स्लो ' है… ज़्यादा बात न करें पेशेन्ट से। आई सी यू में दायें से तीसरे बैड पर मि। कण्णन लेटे थे। पास ही उनकी बेटी खड़ी थी‚ बैग कन्धे पर लटका था‚ शायद वापस जाने की तैयारी में थी। एक साथ इतने लोग अन्दर नहीं रुक सकते थे इसीलिये‚ उन्हें देखते ही वह जल्दी – जल्दी सामान समेटने लगी।

कण्णन ने एक मुस्कुराहट दी। केशव का मन भर आया।

" यू ब्लडी… डिचर… अपने यार को ही नहीं बताया? "

कण्णन की आंखों में पीड़ा थी… वह कुछ कहना चाहते थे।

" चल तू तो अब चुप ही रह… तुझे तो बाद में देखूंगा।"

" अंकल‚ आप को कैसे बताऊं…वह तो चमत्कार ही हुआ है‚ पापा को देर रात नींद में ही हार्ट अटैक पड़ा… न जाने मुझे क्या सूझा कि कल रात एयरपोर्ट से अपने घर जाते हुए मैंने अपने ड्राईवर से कहा, पहले पापा के घर की तरफ चलो। मैं तीन दिन से सिंगापुर ऑफिशियल टूर पर थी। मुझे लगा तीन दिन से पापा से बात नहीं हुई है। जाने क्या जरूरत हो, देखूं कि कामवाली बाई आ रही है कि नहीं? हमने आधे रास्ते में कार मोड़ ली… पहुंची तो पापा ने दरवाजा नहीं खोला, वह तो एक चाभी पिछले दरवाजे की मैं रखती हूं। अंदर गई तो पापा अनकॉन्शस… अगर मैं नहीं पहुंचती तो…पता नहीं……" कह कर कण्णन की बेटी की आंखें भर गईं।

" तुम चिन्ता मत करो बेटी… मैं हूं ना… अब रोज़ शाम गोल्फकोर्स की जगह यहां अस्पताल में हमारी महफिल जुड़ेगी। तुम अब चाहो तो घर या ऑफिस हो आओ‚ बहू तू भी जा। मैं टैक्सी से घर पहुंच जाऊंगा।"

फिर कर्नल केशव अपने मित्र की तरफ मुखातिब होकर बोले‚ " तू जल्दी से बेहतर हो कर आई सी यू से पर्सनल वार्ड में आजा फिर गप्पें मारा करेंगे। गोल्फकोर्स भी तो तेरा इन्तज़ार कर रहा है। नियम तो यही है ज़िंदगी और गोल्फ का कि शॉट वहीं से मारना है जहाँ बॉल पड़ी है, सो दोस्त अब दिल में पड़े स्टंट के साथ भी खेलना तो है ही। “

“ पता नहीं, कितने दिनों बाद डॉक्टर इजाज़त देगा।“ कण्णन के चेहरे पर पीड़ा अब भी थी। दर्द की या जाने गोल्फ न खेल पाने की।

“ अच्छा चल कल मैंने गोल्फ पर नया जोक सुना, सुनेगा?” कर्नल के जोश पर कण्णन ने घबरा कर आसपास देखा, बेटी जा चुकी थी। वे जानते थे की गोल्फर्स के जोक ‘ सेक्स एंड वुमन’ के बिना नहीं हो सकते। और वे आई सी यू में थे।

“ कबकी गई बेटी।“ कर्नल उनके कान में झुके।

“ हां सुन दो गोल्फर टिम और एलेक्स खेल के आखिरी दौर में थे, कि दो महिलाएं कुछ दूर पर अलग – अलग उटपटांग से शॉट्स खेलने में लगी थीं और उनके कारण वे अपने टारगेट के लिए खेल नहीं पा रहे थे। टिम ने एलेक्स से कहा, “यार जाकर बोल थोड़ा हटकर खेलें।“

एलेक्स गया, आधे रास्ते से लौट आया। टिम ने पूछा, ‘क्या हुआ बे?’

एलेक्स बोला – “यार मैं कैसे कहूं, दुनिया कितनी छोटी है, उनमें से एक मेरी बीवी है दूसरी प्रेमिका। तू जा कर बोल आ।“

टिम गया और वह भी घबरा कर आधे रास्ते से लौट आया।

“ अब तुझे क्या हुआ?”

“ डिट्टो! यार दुनिया सच में छोटी है।“

कण्णन नलियों – सुइयों के बीच भी हँसने से न रुक सका नर्स को टोकना पड़ा।

“ सर, ये आई सी यू है।“

“सॉरी सिस्टर। बस मैं पांच मिनट और अपने दोस्त से बात कर सकता हूं? “ नर्स मुस्कुरा दी।

“पता है मैं गोल्फ पर इंटरेस्टिंग मेमॉयर्स ( रोचक संस्मरणों ) की एक साझी किताब लिखने की सोच रहा हूँ तेरे साथ… लिखेगा न? तू सही कहता है ये आज कल के छोकरे क्या जाने असली गोल्फ!”

मि. कण्णन की आंखें गीली हो गईं थीं। उनकी आंखों में गोल्फ कोर्स की पिछली शामें सजीव हो गई थीं। वह हरा घास का विशाल टुकड़ा‚ वह पानी से भरा वह पारदर्शी गड्ढा… जिसमें पेड़ों की छायाएं बनती – मिटती थीं। वह लम्बा चौड़ा गोल्फकोर्स जिसमें कई छोटे टूर्नामेन्ट्स उन्होंने जीते थे। उन दोनों की दोस्ती और उनकी साझी किताब… गोल्फ पर… वाह! कितना खूबसूरत सपना है — जिसे पूरा करने को जीने की इच्छा फिर पलकें झपकाने लगी थी।

मनीषा कुलश्रेष्ठ

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