हिम स्पर्श - 70 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हिम स्पर्श - 70

70

“क्यूँ कि तुम एक मुस्लिम लड़की हो। तुम्हारा धर्म तुम्हें इस बात की अनुमति नहीं देता। माथे पर बिंदी लगाना, श्रुंगार करना आदि तुम्हारे धर्म के विरूध्ध है। यह सब हिन्दू लड़कियों के लिए ही है। तुम इसे रहने दो।“

वफ़ाई सोच में पड गई।

जीत सत्य कह रहा था। इस्लाम में यह अनुमति नहीं है।

गहरी सांस लेकर वफ़ाई बोली, “यह सत्य है कि इस्लाम मुझे इस बात की मनाई करता है। किंतु यदि मैं बिंदी लगा लूँ तो कौनसी कयामत आ जाएगी?”

“मैं नहीं जानता। मैं तो बस तुम्हारे धर्म का सम्मान करता हूँ और तुम्हें भी यही बात याद दिला रहा हूँ।“

“जीत, यह धर्म क्या होता है? क्या वह अल्लाह अथवा ईश्वर को प्राप्त करने का कोई मार्ग है? पुजा का कोई प्रकार है? उस सर्व शक्तिमान से जुडने का माध्यम है? क्या है यह धर्म?”

“धर्म केवल धर्म है। उसकी व्याख्या नहीं की जाती। उस पर संशय नहीं किए जाते। हमारे धर्म की पुस्तकों में जो कहा गया है वह सत्य होता है। हमें बस उसे मानना होता है। उस का अनुसरण करना होता है। इस से आगे मुझे कुछ भी नहीं पता।“

“नहीं जीत। यह धारणा असत्य है। हमारे धर्म ग्रंथ सही हो सकते हैं, शत प्रतिशत नहीं। यह धर्म ग्रंथ भी तो किसी मनुष्य ने ही तो लिखे हैं। और कोई भी मनुष्य कितना भी महान क्यूँ ना हो, वह सम्पूर्ण नहीं होता। उस पर संशय किया जा सकता है, उस पर चर्चा ki जा सकती है। उस की अपूर्णता को ललकारा जा सकता है।“

“यह पाप होगा। हमें ऐसा नहीं करना चाहिए।“

“नहीं जीत। यह पाप, यह पुण्य, यह सत्य, यह असत्य, यह सब बातें प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न भिन्न होती है। समय और स्थल के अनुरूप इसके अर्थ बदलते हैं। कोई भी बात कभी भी सम्पूर्ण सत्य अथवा सम्पूर्ण असत्य नहीं होती। हम इसके विरूध्ध बोल सकते हैं। असत्य को बदल भी सकते हैं। और हमें बदलना भी चाहिए।“

“मुझे इस गहरी चर्चा में नहीं पड़ना। मैं तो बस इस चित्र के माथे से बिंदी हटा देता हूँ। “

जीत चित्र की तरफ बढने लगा।

“रुको। कुछ क्षण के लिए भी रुक जाओ।“ वफ़ाई चिल्लाई।

“वफ़ाई...।” जीत रुक गया। वहीं स्थिर सा खड़ा हो गया। तूलिका पकड़ा हुआ दाहिना हाथ हवा में ही रह गया। जीत की आँखें चित्र के माथे पर लगी बिंदी पर स्थिर हो गई। एक विचित्र सी आकृति बनाकर वह खड़ा था। उसे देखकर वफ़ाई को हंसी आ गई। वह हंस पड़ी। जीत विचलित हो गया, थोड़ा चीड भी गया। उसने मुड़कर वफ़ाई को देखा। वफ़ाई अभी भी हंस रही थी।

“जीत, सीधे हो जाओ। इस मुद्रा में ठीक नहीं लगते हो। देखो एक हाथ ऊपर है और एक पैर भी हवा में उठा हुआ है। आराम से सहज मुद्रा में आ जाओ।“ वफ़ाई ने होठों पर स्मित के साथ कहा।

जीत कुछ समज नहीं पा रहा था, समज ने का प्रयास कर रहा था। कुछ भी समज नहीं आने पर वह सहज ही खड़ा हो गया। हवा में उठे हाथ को नीचे कर दिया और पग धरती पर रख दिया। वफ़ाई को विस्मय से देखता रहा।

“तुम कुछ व्याकुल हो, कुछ दुविधा में हो। एक काम करो। तुम झूले पर बैठ जाओ। हम वहाँ बैठ बातें बकरते हैं। और हाँ, तूलिका को वहीं छोड़ देना। अब इसकी कोई आवश्यकता नहीं है।‘

वफ़ाई झूले की तरफ जाने लगी। जीत भी अनायास ही उसके पीछे चलने लगा। जीत के हाथ में अभी भी तूलिका थी।

“जीत, सूप पियोगे?” वफ़ाई ने पूछा।

“नहीं, वफ़ाई। रहने दो। अभी सब कुछ छोड़ कर मेरे पास बैठो, मेरे साथ रहो।“ जीत झूले पर बैठ गया।

“तुम भी आ जाओ, यहाँ, मेरे पास।“ जीत ने वफ़ाई को आमंत्रित किया। वफ़ाई जीत के समीप बैठ गई।

दोनों के पग अनायास ही चलने लगे, झूला धीरे धीरे गति करने लगा। ठहरी हुई हवा में जीवन प्रवेश करने लगा। वह गतिमान हो गई। संध्या की मध्धम-सी ठंडी हवा दोनों के अंग अंग को स्पर्श करती चलने लगी। कुछ क्षण मौन ही व्यतीत हो गए। समय भी धीरे धीरे चलता रहा। जैसे आज कोई भी उतावला न था। ना हवा, ना समय, ना जीत, ना वफ़ाई। कितना ठहराव था उन क्षणों में जो उस समय वहाँ रुकी हुई थी !

अचानक से समय उस तंद्रा से जाग उठा।

मैं समय हूँ। मुझे चलते रहना है। ठहरना मेरा स्वभाव भी नहीं और अधिकार भी नहीं। मुझे चलना होगा। मैं रुक नहीं सकता।

ठहरा हुआ समय तेज गति से चलने लगा। हवा भी तेज चलने लगी। तेज हवा की लहर से वफ़ाई के बालों की लटें उड़ती हुई जीत को स्पर्श करने लगी। जीत की तंद्रा टूटी।

जीत ने वफ़ाई की तरफ देखा। वह अभी भी झूले पर धीरे धीरे झूल रही थी। उसकी लटें हवा में लहराती थी, कुछ लटें जीत के साथ खेल रही थी। वफ़ाई अभी भी ठहरे हुए समय में गुम थी, एक पुतले की तरह स्थिर थी।

जीत ने झूले को रोक दिया। ठहरे समय के पानी में जैसे किसी ने कंकर मार दिया हो। झूला रुक गया। ठहरा समय आगे निकल गया। वफ़ाई चलित हो गई। पुतला जीवित हो उठा।

“जीत, हम कहाँ हैं?” वफ़ाई की आँखों में विस्मय था। जैसे किसी अज्ञात प्रदेश में आ गई हो।

“वफ़ाई, तुम यहीं रुको। मैं थोड़ा पानी लाता हूँ। तुम्हें स्वस्थ होने में यह सहायता करेगा।

“नहीं जीत। कहीं मत जाओ। बस मेरे पास बैठे रहो। बातें करते रहो।“ वफ़ाई ने जाते हुए जीत का हाथ पकड़ लिया। जीत ने हाथों की तरफ देखा।

किस में इतना साहस होगा इस हाथ से हाथ छुड़ने का? जीत ने मन ही मन निश्चय कर लिया और वह रुक गया।

“बैठो ना।“ वफ़ाई के शब्दों पर जीत बैठ भी गया।

“हाँ तो हम कहाँ थे? किस विषय पर बात कर रहे थे?” वफ़ाई ने छूट गए उस क्षण को पकड़ने की चेष्टा की।

“उस छूटे हुए kshan और इस kshan के बीच जो क्षण बीत गए वह सब kshan की अनुभूति कुछ खास थी, है न वफ़ाई?” वफ़ाई ने अपनी पलकें झुकाई और फिर खोल दी। आँखों ने ही जीत के प्रश्न का उत्तर दे दिया।

“तो उस क्षण से पून: तार जोड़ दो, जीत।“

“जैसी आपकी आज्ञा, देवी वफ़ाई।“ जीत ने नाटकीय मुद्रा से सर झुका दिया। वफ़ाई हंस पड़ी।

“जीत, मैं भी यदि तेरे उस चित्र की भांति मेरे माथे पर बिंदी लगा लूँ तो?” जीत समज़ नहीं पाया कि वफ़ाई प्रश्न कर रही है अथवा आमंत्रित कर रही है। वह प्रश्न भरी द्रष्टि से वफ़ाई को देखने लगा।

“जीत, मैं भी बिंदी लगाना चाहती हूँ।“ वफ़ाई ने जीत के उस प्रश्न का उत्तर दे दिया जो जीत ने पूछा ही नहीं था।

“किन्तु यह ठीक होगा क्या? तुम्हारा समाज, तुम्हारा धर्म तुम्हें इस बात की अनुमति देगा? क्या तुम अपने समाज की जीवन रीति से अलग कुछ करना चाहोगी? कर पाओगी?” जीत के शब्दों में संशय भी था और आव्हान भी ।

“यह समाज, यह धर्म ,यह जीवन रीति, क्या होता है यह सब? क्या मैं एक स्वतंत्र व्यक्ति नहीं हूँ? क्या मेरा अलग अस्तित्व नहीं है? क्या मैं मेरी इच्छा के अनुरूप जीवन नहीं जी सकती? कौन होते हैं यह सब लोग मेरे जीवन के निर्णय करने वाले? मैं इस समाज, धर्म और जीवन रीति को नहीं मानती।“ वफ़ाई के भाव उग्र हो गए।

“अर्थात तुम इन सब से विद्रोह कर रही हो?”

“विद्रोह भी और त्याग भी। मैं किसी भी बंधन से स्वयं को मुक्त घोषित करती हूँ।“

“शांत हो जाओ, वफ़ाई। तुम जो चाहो वही होगा। तुम स्वतंत्र हो।“ जीत ने वफ़ाई के हाथ पर एक संवेदना से भरा स्पर्श किया। जीत के उस स्पर्श में बसी शीतलता ने वफ़ाई को शांत कर दिया। वफ़ाई ने जीत के उस हाथ को पकड़ लिया।

“जीत, आओ मेरे साथ।” वफ़ाई झूले से उठ खड़ी हो गई, जीत भी। वफ़ाई जीत को चित्र के समीप ले गई।

“जीत, तूलिका उठाओ, उसे लाल रंग में डुबो दो और उस लाल रंग की बिंदी मेरे माथे पर लगा दो।“ वफ़ाई ने अपने माथे पर फैली बालों की लटों को पीछे की तरफ धकेला। वफ़ाई का ललाट अब पूरी तरह से खुला था, उस कोरे केनवास की तरह जो किसी चित्र की प्रतीक्षा में होता है।

जीत ने अपने आप में साहस जुटाया, तूलिका को पकड़ा, लाल रंग में डुबोया और वफ़ाई के माथे पर बिंदी लगा दी। वफ़ाई की आँखें चमक उठी। एक ऐसे भाव तैरने लगे उन आँखों में जिसे देखकर कोई भी तपस्वी अपनी तपस्या छोड़ दे।

यह तो जीत था, कोई तपस्वी थोड़े ना था? वह डूब गया उन आँखों के उन भावों के दरिया में।

वफ़ाई के श्वेत माथे पर लाल बिंदी चमकने लगी। उधर दूर गगन में चंद्र निकल आया था, आधा चन्द्र, श्वेत चन्द्र।