आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची
रश्मि रविजा
भाग - 6
( अभिषेक, एक पत्रिका में कोई रिपोर्ट लिखने के उद्देश्य से एक कस्बे में आता है. वहाँ उसे शची जैसी ही. आवाज़ सुनायी देती है और वह पुरानी यादों में खो जाता है कि शची नयी नयी कॉलेज में आई थी. शुरू में तो शची उसे अपनी विरोधी जान पड़ी थी पर धीरे धीरे वह उसकी तरफ आकर्षित हुआ. पर शची की उपेक्षा ही मिली उसे और उसने कुछ अपने जैसे अमीर घराने वालों से दोस्ती कर ली. )
गतांक से आगे
इस ग्रुप में तो उसे जगह बनाने की कोई कोशिश करनी ही नहीं पड़ी. सबने उसे ऐसे शामिल कर लिया जैस वो हमेशा से ही इस ग्रुप का अंग रहा हो. सच ज़िन्दगी तो इसे कहते हैं. उन किताबों में सर फोड़ने को नहीं. कभी पिकनिक, कभी मूवी तो कभी पार्टियां. और सबसे ज्यादा आनंद तो लम्बी ड्राइविंग में था. छः, सात का ग्रुप बना सायेदार वृक्षों की घनी छाया के बीच से समवेत स्वरों में कहकहे लगाते या गुनगुनाते हुए निकल जाना, कितना सुखदाई लगता. अनुभव से जाना उसने. हर पल थ्रिल, रोमांच, ज़िन्दगी का अहसास, गंभीरता नाम की चीज़ नहीं बस कहकहे या डायालॉगबाजी. कपड़ों की डिजाईन पर गोष्ठी या नए हेयर स्टाईल पर चर्चा. जूतों के ब्रांड पर कॉन्फ्रेंस या परफ्यूम की किस्म पर वार्ता.
एक नया लापरवाही भरा अंदाज़ भी सीख लिया... 'अरे क्या रखा है इस पढ़ाई में. ' क्लास में भी हर वक़्त कॉन्शस रहने जबाब देने को तत्पर रहने की जहमत अब उसके पल्ले नहीं थी. कई बार तो क्लास में वे सब स्कूली बच्चों सी शरारत करते रहते. फिल्मे देखते जोर जोर से बातें करना... किसी भी दृश्य पर बेबाक कमेन्ट जड़ देना. सब नया था, उसके लिए इस नए जीवन ढर्रे में रस आने लगा था उसे.
उसके पुराने मित्र मात्र दर्शक बने उसकी गतिविधियों का अवलोकन कर रहें थे. पर उनके चेहरे पर चढ़ते-उतरते भावों पर नज़र डालने की फुर्सत ही कहाँ थी, उसे. एकाध बार बेपरवाह अंदाज़ में डेस्क पर टाँगे फैला मनीष के बगल में बैठ कर कुछ इधर उधर की बातें की थीं उसने. लेकिन मनीष ने निहायत ठंढे लहजे में उसकी बातों का उत्तर दिया था और अपनी तरफ से एक भी शब्द नहीं पूछा था. आजकल कुछ गंभीर हो चला था, वह. इतना तो उसे भी पता था, बेहद खफा है, मनीष उस से और उसकी उपेक्षा कर अपनी नाराजगी प्रदर्शित कर रहा है. तो करे, उसकी बला से. वह तो मनाने से रहा.
लेकिन जब तीन दिन तक उसने कॉलेज आकर भी क्लास का मुहँ नहीं देखा. तो और जब्त नहीं कर सका मनीष. सीधा आ धमका, जहाँ अपने नए दोस्तों से घिरा वह, फिल्म-वर्ल्ड' के किसी नए स्कैंडल की चर्चा में मशगूल था.
"अभिषेक, जरा इधर आओ तुमसे बात करनी है. "
लेकिन उसने अनसुनी कर, नाटकीय मुद्रा बनायी और बोला, "वेलकम मनीष... इस 'ई-ग्रुप' के 'बी-स्क्वायर' स्वागत करते हैं, तुम्हारा. (यह नाम उसने ही दिया था कभी ई, यानि एग्ज़िविशन ग्रुप और बी-स्क्वायर यानि बट्टरफ्लायीज़ एंड बीज ) बट डोंट थिंक... यू विल एन्जॉय आर कम्पनी.. तुम तो कहोगे.. क्लांस छूंट जाएगा " अंतिम वाक्य जो नकचढ़ी आवाज़ में कही उसने कि हंसी की लहरें मचल पड़ीं. "
किन्तु मनीष की मुद्रा में कोई परिवर्तन नहीं आया, "पहले मेरी बात सुनो... जरा इधर आओ"
"नोSSS... " तड़ाक से कहा उसने... "जो कहना है यहीं कहो... कोई गैर नहीं हैं ये"
बिना किसी भूमिका के मनीष ने पूछ लिया, " तीन दिनों से तुमने क्लास क्यूँ नहीं अटेंड किया?"
"बस मन नहीं किया "
"हाँ क्यूँ मन करेगा... रोज पार्टी, पिक्चर... डिस्को.. इसीलिए आते हो कॉलेज तुम ?"
"तुम्हे क्या तकलीफ है, क्लास मैंने छोड़ी थी.. "यूँ ही की-रिंग को हवा में उछलते और लपकते लापरवाही से कहा उसने... "वैसे पता है तुम्हे क्यूँ तकलीफ हो रही है"
"क्यूँ हो रही है?" कुछ गुस्से में पूछ मनीष ने
"इट्स सो सिम्पल.... अरे आल दीज़ ब्यूटीफुल गर्ल्स आर एटरेक्टेड टू मी... जलन तो होगी ना तुम्हे"... कुछ कंधे उचका कर कहा, अभिषेक ने तो मनीष सिर्फ 'ओह्ह अभिषेक... ' कह कर रह गया और बुरी तरह अपमानित हो लौट पड़ा.
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मनीष और शची के अलावा एक कोई और भी था जो अभिषेक में आए इस परिवर्तन से बेतरह परेशान हो उठा था. वह थी कविता. उसकी बाल मित्र या बाल सहपाठिनी. पहले तो अभिषेक के प्रति शची की उपेक्षा देख संतोष हुआ था उसे. लेकिन अब इन लड़कियों में उसकी आसक्ति देख, कुढ़ कर रह जाती. सोचती, इससे कहीं अच्छा तो शची के प्रति उसका अव्यक्त आकर्षण ही था.
शुरू से अंतर्मुखी होने के कारण, लड़के तो क्या लड़कियों में भी उसकी कोई ख़ास सहेली नहीं थी. बड़ी बड़ी आँखें, जतन से तराशे नैन नक्श और काले लहराते बाल. किसी को भी आकर्षित करने की क्षमता रखते थे. पर उसका बीहड़ शर्मीलापन.. बाधक बन जाता. उसकी बड़ी बड़ी आँखों में बहुत कुछ अनकहा था, जिसे कभी अभिषेक ने पढने की कोशिश नहीं की. अभिषेक से उसका परिचय मात्र कॉलेज से सम्बंधित नहीं था. दोनों के परिवार भी घनिष्ठ मित्र थे. उसे संतोष था कि अभिषेक का झुकाव अगर उसकी तरफ नहीं तो किसी की तरफ भी नहीं. लेकिन उसे भी अब अपने साथी लड़कों की पंक्ति में खड़ा देख उसका ह्रदय चीत्कार कर उठा और यह चीत्कार उसकी आँखों का गीलापन और खोई खोई सी सूरत उजागर कर रही थी. एक उदासी की परत चढ़ आई थी उसके शांत, निश्छल चेहरे पर.
एक परत तो अभिषेक के चेहरे पर भी चढ़ आई थी, पर उदासी की नहीं, ऊब की बेचैनी की. जिस तेज़ी से वह इन सब चीज़ों में इन्वॉल्व हुआ था अब उसी तेज़ी से ये सब अपना आकर्षण खोने लगी थीं. वह मिस करने लगा था वो सब बौद्धिक चर्चाएं. उस दिन दोस्तोव्यस्की के एक नॉवेल की चर्चा कर बैठा तो सब उसका मुहँ देखने लगे और फिर शिडनी शेलडन और अगाथा क्रिस्टी पर जोर शोर से बहस छिड़ गयी. इस बीच दो आर्ट फ़िल्में आ कर चली गयीं. और तरस कर रह गया देखने को. देख भी लेता, पर मन ने कस कर डांट पिलाई, "किसी के प्रति तो ईमानदार रहो" और वह सभी मसालों से भरपूर एक अंग्रेजी फिल्म देखने चला गया था. लेकिन चैन कहाँ मिला? कचोटता रहा एक अनजाना अहसास.
मिसफिट तो वह था ही, इनमे. एक दिन कणिका ने निहायत शोख अंदाज़ में पूछ लिया था, तुम्हारे कपड़ों की भीनी भीनी खुशबू बड़ी अच्छी है... कौन सा डियो यूज़ करते हो? " उनके रंग ढंग में पूरी तरह ढलने की कोशिश कर रहा था, इसलिए बड़ी हाज़िरजबाबी से बोल तो दिया, "ये तुम्हारी ही खुशबू है जो चारों तरफ बस गयी है. " पर मन ही मन डर गया. वो तो कणिका उसके जबाब पर मुग्ध हो गयी, वरना सीरियसली पूछ लेती तो?. उसने तो कभी इतना ध्यान ही नहीं दिया. कुछ भी उठा लेता या माँ मंगवा देतीं. और कान पकड़ कर याद कर लिया. कल से ही कोई उम्दा किस्म की परफ्यूम रोजाना इस्तेमाल करनी है.
किन्तु क्या क्या याद रखेगा. आए दिन कभी कपड़ों की किस्म बदलती है तो कभी डिजाईन. हर पल अभिनय, हमेशा वास्तविकता से दूर नकली खिलखिलाहटें. शुरुआत में जिनमें थ्रिल महसूस करता, वो ही चीज़ें अब सड़ी गली लगने लगी थीं. पिकनिक-बेकार, ड्राइविंग- बकवास, पार्टियां- वाहियात. हर क्षण लकदक, चमक दमक लिए बस झूठी ज़िन्दगी जिए जाना. और उसे ही सच मान ज़िन्दगी जीते चले जाना- कितना त्रासदायक. हमेशा फिल्मों, या सस्ते रूमानी उपन्यासों से उडाये गए डायलॉग की आजमाईश. आजिज आ गया था, अब वह.
जिस घटना से वह इस कदर उखड गया था, अब बिलकुल साधारण लगतीं. बल्कि हंस ही पड़ता, क्या बच्चों सा उसने भी इस बात को इतना तूल दे डाला और ऐसा कदम उठा लिया. शची के सम्बन्ध में जब भी सोचता, एक सुकून सा मिलता, नाराजगी नहीं होती. शायद यह सब समय का असर था जो उसका गुस्सा शांत ही नहीं पड़ गया बल्कि कपूर की तरह गायब हो गया. जब भी आत्मविश्लेषण करता. अपने उतावलेपन पर खीज ही आती. क्यूँ नहीं किसी भी तरफ कदम उठाने से पहले उसने, अच्छी तरह सोच-विचार कर लिया.
उस दिन मनीष के साथ अपने किए व्यवहार पर मन ही मन लज्जित हो उठा. मनीष से तो जरूर क्षमा मांग लेगा. कुछ इस किस्म का दोस्त है वह. जिसके बिना ज़िन्दगी अधूरी लगती है. शची से भले ही कुछ ना कहे. और एक ठंढी आह निकल गयी, कहना चाहे भी तो कहेगा क्या? शची की बेरुखी ने ही तो उसे ला पटका है, इस राह पर.
और अब इस नए जमावड़े को छोड़ना भी आसान नहीं. जी में आता दो चार खरी खोटी सुना, उनकी रुचियों की शल्य चिकित्सा कर झटके से काट ले खुद को. लेकिन यह मुश्किल ही नहीं, असंभव था. अब तो उसकी स्थिति और भी दयनीय हो गयी थी. मन में हज़ारों तूफ़ान लिए ऊपर से बिलकुल शांत होने का दिखावा करता. उसी जोश से हँसता -बोलता. कैसे छोड़ दे उन सबका साथ. उपहास नहीं बन जायेगा. पर वह यह सब क्यूँ सोच रहा है? जिनके जीवन दर्शन को अपनाने की कोशिश कर रहा है. उनकी किताब में तो उदासी, अवसाद, कुंठा का कोई नामोनिशान नहीं. गंभीर से गंभीर बात धुएं के छल्ले में उड़ा दी जाती है. किन्तु वह क्यूँ महसूस कर रहा है यह सब? क्यूँ नहीं ये बेचैनी, ये छटपटाहट, पार्टियों पिकनिक, डिस्को की रंगीनियों में डुबो देता.
और जैसे दहकते लोहे पर गर्म हथोड़े से चोट की जाती है. वैसे ही प्रोफ़ेसर वत्स की व्यंगोक्तियों ने उसके जलते हुए ह्रदय पर की और खील खील हो बिखर गया उसका मन.
ट्यूटोरियल था और प्रोफ. वत्स. अपने पूरे रंग में थे. किसी मशहूर कविता की अगली पंक्तियाँ पूछी थीं उन्होंने.
कोई जबाब नहीं दे पाया. उन्होंने उसकी ओर आँखें उठाईं, "अभिषेक यू ? "
"डोंट नो सर"
"वाट्स द मैटर... यू टुक दैट बुक फ्रॉम मी... एंड हैव नॉट रिटरंड इट येट "
"डोंट रिमेम्बर सर"
"ओह मस्ट बी समथिंग रौंग विद यू समथिंग सीरियसली रोंग विद यू... "
चुप रहा वह. और उसकी चुप्पी ने शायद कोई सूत्र थमा दिया उन्हें. उन्होंने दूसरी कविता की पंक्तियाँ पूछ डालीं.
वर्डस्वर्थ, कीट्स, शेली सबकी हज़ारों कविताएँ गडमड हो गयीं काले पीले अक्षर तरल हो फ़ैल गए. दिमाग इस तरह कुंद क्यूँ हो गया. कुछ याद ही नहीं आ रहा. नर्वस तो था ही, बिलकुल पस्त हो गया. इस तरह कभी जलील नहीं हुआ वह पूरी क्लास के सामने. और उसका झुका सर देख, भाषण देने के शौक़ीन प्रो. वत्स के हाथों एक जबरदस्त सूत्र लग गया. इतना सुनहरा मौका भला वो कैसे चूकते. भरपूर लाभ उठाया उन्होंने, "अभिषेक हमें गर्व था, आप पर कि आप यूनिवर्सिटी का कुछ नाम करेंगे. स्टूडेंट्स को आपका उदाहरण देते थे हम... इतनी आशाएं थीं आपसे... "और छात्रों में बढती अनुशासनहीनता, फैशनपरस्ती, पढ़ाई के प्रति उदासीनता, फिल्मों का दुष्प्रभाव सबको समेट लिया अपने भाषण में जो बेल लगने के बाद तक चलता रहा. और अंत में एक फिकरा, "ये अमीर शाहजादे.. खुद तो पढेंगे नहीं.. क्यूँ पढ़ें.. लाखों का कारोबार है. नौकरी चाहें तो एक से एक नौकरी पड़ी है जेब में. लेकिन बाकी छात्रों पर तो रहम करो. उन्हें कलम घिसकर ही रोजी रोटी चलानी है. " फिर हिकारत से हाथ झटकते चल दिया... "ओह पूरा पीरियड बर्बाद कर दिया " कहते बाहर हो लिए.
अंतिम पीरियड और छात्र छात्राओं में इतना सब्र? उनके जाते ही प्राइमरी स्कूल के बच्चों सा सब दरवाज़े की ओर भाग लिए. कटे पेड़ सा गिर पड़ा वह अपनी सीट पर. दरवाजे की तरफ जो नज़र उठायी तो अथाह आश्चर्य में डूब गया. नए दोस्तों में से तीन ही तो थे उसकी क्लास में और वे भी उस जाती हुई भीड़ में शामिल थे. औरों से उसे कोई शिकायत नहीं पर इन नए दोस्तों को तो उसके पास आना था, सहानुभूति के दो शब्द तो कहने थे, उसका गम तो बांटना था... पर वह भी क्या बेबुनियाद बातें सोच रहा है. उदास चेहरे से उन्हें क्या मतलब? अभी अगर प्रोफ़ेसर को कोई मुहँतोड़ जबाब दे देता. या उनकी बातें अनसुनी कर जोरदार जम्हाई ले लेता या किसी साथी को आँख मारकर मुस्कुरा देता या फिर सबसे बोल्ड स्टेप, रौब से अपनी कॉपी(अगर कोई हो तो ) उठा जूते की खटखट से क्लास गुंजाता बाहर निकल जाता तो, 'वेल डन अभिषेक " का शोर मचाते कई हँसते चेहरे उसे घेर लेते. वितृष्णा से भर उठा उसका मन. अब कैसे कदम रखेगा वह, क्लास में? किस मुहँ से सामना करगा अब प्रो. वत्स का? इतना घोर अपमान... ओह क्लास से निकाल ही क्यूँ नहीं दिया गया.. इस से कहीं ज्यादा राहत मिलती... पर निकालते कैसे? फिर अपनी वक्तृत्वकला को प्रदर्शित करने का नायाब मौका कहाँ से मिलता? सारे नवधनाढ्य कुमारों के प्रति आक्रोश व्यक्त करने का मध्यम बना डाला उसे. क्या उनकी याददाश्त इतनी कमजोर हो गयी? उसके सारे पिछले रेकॉर्ड्स भूल गए वो? इन्हीं विचारों से आक्रान्त डेस्क पर सर टिकाये बैठा था. कि आभास हुआ कोई पास खड़ा है. सर उठाया तो देवदूत सा मनीष को खड़ा पाया. उदासी के गहरे बादल उसके सर पर भी छाए थे.
"घर चल अभिषेक "... ये तीन शब्द तीन लाख स्नेहसिक्त शब्दों कि कीमत रखते थे. अंतर में हलचल मच गयी. अपार ग्लानि उमड़ आई. इसी मनीष को उन चाटुकारों के समक्ष मदांध हो अपमानित किया था, उसने. थरथराता हाथ, मनीष के हाथों पर रख दिया... "आयम सॉरी मनीष"... आगे के शब्द होठों तक ना आ सके. अंदर ही घोंट लिए उसने क्या फायदा, आवाज़ कांपने का पता लग जाए. मनीष ने हाथ थाम उठा लिया उसे. लगा जैसे मनीष ने उसे सिर्फ डेस्क से ही नहीं. दलदल भरे उस पूरे परिवेश से उठा लिया है. उसकी विह्वलता देख वही सदाबहार मुस्कान खेल आई उसके चेहरे पर... "चल बहुत कर ली अपने मन कि अब ज्यादा सेंटी मत हो... "
और अगले चार दिन साए कि तरह लगा रहा उसके साथ. सभी कि व्यंगोक्तियों, कटाक्षों से एक कवच की तरह बचाता रहा उसे. इतने दिनों के सारे नोट्स लाकर धर दिए उसके समक्ष. मनीष के प्रयासों ने रंग लाये और बिलकुल सहज हो चला वह. लगा ही नहीं इतने बड़े तूफ़ान से सही सलामत निकल आया है. एक राहत की सांस ली उसने, शुक्र है शची ने कुछ भी नहीं जाना यह सब. किसी रिश्तेदार की शादी में शामिल होने शहर से बाहर गयी हुई थी. एक हफ्ते बाद जब वापस लौटी तो उसी पुराने ढर्रे पर थी.
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जब वह कॉमन रूम में गया तो शचो को वहाँ ना देख, अथाह आश्चर्य हुआ उसे. वह तो शची को इस तरफ आते देख कर ही आया था. यूं ही मनोवांछित जगह ढूँढने का अभिनय करता घूम रहा था कि शची पर नज़र पड़ी. वह एक कोने में एक पत्रिका में मुहँ छुपाये बैठी थी. आहिस्ता से पीछे जा खड़ा हुआ तो पाया, शची की निगाहें तो खिड़की के पार कही दूर टिकी हैं. धीरे से पुकारा,. "शची.. " पर शची ने शायद सुना नहीं. यूं ही उसने सामने पड़ी कुर्सी खिसका दी. शची ने चौंक कर देखा, उसकी ओर. उफ्फ, कैसी तीखी नज़रें थीं उसकी?. आँखें चुराता हुआ, सामने बैठ गया, वह. पूछा, क्या पढ़ रही हो? किन्तु शची ने कोई जबाब नहीं दिया, वैसे ही पूर्ववत देखती रही. अणु अणु बेधती चली गयी उसकी वह दृष्टि. किसी तरह पूछा, "बताया नहीं ?"
शची ने एक उसांस ली और सपाट स्वर में बोली, "आज कोई प्रोग्राम नहीं, कॉलेज में नज़र आ रहें हो? " और पन्ना पलट ध्यान से एक चित्र देखने लगी. चोट सी पहुंची उसे, कह डाला , " यह तो मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं "
"तो क्या तुम्हारे हर प्रश्न का उत्तर देना, मेरे लिए लाज़मी है. " शची ने उसी तेजी से कहा और तनिक सा हंस, फिर पत्रिका, आँखों के सामने कर ली.
बौखला उठा वह. क्यूँ रत्ती भर भी उपेक्षा बर्दाश्त नहीं कर पता है. किस पल एग्रेसिव हो जायेगा, खुद ही नहीं पता उसे. शची की मनःस्थिति समझता था लेकिन अहम् पर चोट पड़ी नहीं कि सब भूल जाता है. छीन ली उसने, पत्रिका. और कुछ कहने जा ही रहा था कि बिफर पड़ी शची, "चलो दो मेरी मैगज़ीन क्या समझते हो खुद को? कही के लॉर्ड हो तुम? हर कोई तुम्हारी बात माने. क्यूँ भला? जब जी चाहा रौब जमा डाला. मेरे सामने नहीं चलेगा ये सब. मुझे नहीं परवा तुम्हारी पसंदगी, नापसंदगी की. फ़िक्र करती होंगी इसकी, तुहारी गर्लफ्रेंड्स. हुहँ साहित्यिक रूचि का दिखावा करते हो. चार चार अल्ट्रा मॉडर्न लड़कियों के साथ घूमते रहते हो. रोज मूवी, पार्टी, डिस्को और जनाब को किताबों का शौक है.... सिर्फ ढोंग की सब समझें कि तुम विशिष्ट हो. "
उसने चुपचाप मैगजीन दे दी और बड़े मायूस स्वर में बोला, "देख रहा हूँ, शची तुम्हारा व्यवहार बिलकुल बदल गया है. इतने दिनों बाद तो बातें कि और इतना कुछ सुना डाला. कुछ मेरी भी तो सुनतीं. " और आदतवश उत्तेजित हो गया, "शची, सबने समझ लिया, तुम अनभिज्ञ नहीं होगी. पर तुम अनजान का अभिनय करती रही. क्या इतना बुरा हूँ मैं कि मुझसे बात तक ना कि जा सके. क्या अशिष्टता कि मैंने आज तक? जबरदस्ती तो नहीं कहा उस दिन कि मेरे साथ चलो ही. लेकिन उस दिन से तुमने बिलकुल काट लिया खुद को. दो बातें भी करना गवारा नहीं मुझसे. सोच सकती हो? कैसा महसूस होता होगा, मुझे? कुछ पूछता तो हूँ हाँ में उत्तर दे टाल देती., कैसे बताऊँ किस ह्रदय से सह लिया मैंने ये सब? दुनिया का हर कष्ट सह सकता हूँ, पर दयनीय दृष्टि नहीं, तुम्हारी उपेक्षा सबने जान ली थी. ओह! अभी भी याद कर सिहर जाता हूँ, कैसी, दया भरी निगाहों से सब देखते थे मुझे? सह नहीं सका मैं और मैंने भी दूसरा रास्ता अपना लिया... "
शची के चेहरे कि रेखाएं कोमल हो आई थीं. चेहरे पर उजास फ़ैल रहा था. नहीं उपेक्षा, नाराजगी का नामोनिशान नहीं. आँखों में एक लौ सी जल रही थी. साहस बढ़ा, " अब कुछ कहो भी... नहीं तो फिर कहोगी.. बोलने का मौका ही कहाँ दिया?"
शची के चेहरे पर मुस्कान खेल आई. जिसे बड़े कौशल से छुपा लिया उसने. यूं ही टेबल पर बेमतलब सी लकीरें खींच रहीं थी, उसकी उंगलियाँ. वैसे ही लकीरें खींचती धीरे से बोली, अब क्या बोलूं?.... कोई तुम पर अकेले ही तो नहीं गुजरा यह सब"
उसकी बातों का गूढार्थ टटोलता भर रह गया. इसके तो कई अर्थ हो सकते थे. यह भी हो सकता था कि कई लड़कों पर गुजरी होंगी या यह भी कि शची का नाम भी शामिल है इसमें. सोच कर एक ख़ुशी जागी मन में. लेकिन मजाक नहीं बनना उसे. क्या ठिकाना इस लड़की का, कब बेआबरू कर दे. अभी तमक कर कह सकती है, मेर मतलब यह नहीं था, अभिषेक.
कुछ ना समझने का अभिनय करता हुआ बोला, "व्हाट डू यू मीन?... मेरे अलावा और किसने झेला यह सब? "
झुंझला उठी शची, "तुम भी तो सबकुछ समझ कर अनजान बन रहें हो. फिर सिर्फ मुझे ही क्यूँ दोष दे रहें थे. "
"सच शची... डिड आई हियर यू राईट ?.. सही सुना ना मैंने?... ओ माई गौड.. काँट बीलीव इट.... रियली शची.. आई मीन.... "
किन्तु तेजी से बात काट दी शची ने... "बस बस लगता है, फिल्मों के साथ साथ उनके डायलॉग भी रट लिए हैं तुमने... कितनों पे आजमा चुके?"
हृदय की धड़कन बढ़ गयी. साँसे तेज हो गयी... आखिर इतना भी नहीं रूठा है भाग्य उस से? उसने कुछ गौर से शची की तरफ देखा तो शची झुककर अपने सैंडल के बकल्स लगाने लगी या लगाने का बहना करने लगी. शची का एक नया रूप ही सामने था. इतना शर्मीला चेहरा उसने तो नहीं देखा, कभी. आरक्त बादल के साए के साए गुजर रहें थे, उसके चेहरे पर से. उसके चेहरे और उसके लाल रंग के दुपट्टे में ज्यादा फर्क नहीं लग रहा था. किसका रंग ज्यादा गहरा है, तय करना मुशकिल था. माथे पर केश की जड़ें, पसीने की नन्ही नन्ही बूंदों से लद गयीं थीं.
शची ने धीरे धीरे चेहरा ऊपर उठाया. तो अपने में लौटा वह. हलके से शची की ओर देख मुस्कुरा दिया. बिलकुल घबरा कर शची, फिर झुककर दूसरे पाँव की सैंडल ठीक करने लगी. हंसी आ गयी उसे, " शची, सच मानो, मेरा अंतर्मन कहता था. तुम बस शो नहीं करती वरना मन ही मन तुम भी... " वाक्य अधूरा छोड़ दिया उसने, "और सच बताऊँ मेरी उन लड़कियों से तो बिलकुल नहीं पटती थी, "और फिर सफ़ेद झूठ जोड़ा, "वह तो तुम्हे जलाने के लिए मैंने उन सबसे दोस्ती की थी "
शची भी अब तक व्यवस्थित हो गयी थी. सर उठाते हुए, आँखों में हंसी की चमक लिए बोली, "अच्छा तो आप इस क्षेत्र के अनुभवी खिलाड़ी हैं ?"
"हाँ हाँ अनुभवी ही नहीं, शातिर... पर तुम्हे इस से क्या? इसको फ़िक्र तो मेरी गर्लफ्रेंड्स करेंगी. "
उसका व्यंग समझ हंस दी शची, कुछ कहने जा ही रही थी कि बेमौसम सा मनीष आ टपका, "तो सुलह हो गयी?.
शची अब मांगे भी ना, तो अपना कोई आर्टिकल, पढने के लिए मत देना इसे... जनाब कहते हैं... "
खट से बात काट दी उसने, "अरे तू आ कहाँ से रहा है... यूँ पसीने से लथपथ?.. जरा बैठ कर दम तो ले ले "... कुर्सी से उठ खड़ा हुआ वह.
"कमाल है यार, मैं तो कब से तुम दोनों को देख रहा हूँ, यहीं जरा टेबल टेनिस पर हाथ आजमा रहा था. ये देख नहीं रहा रैकेट... ओह! बुरी तरह थक गया मैं तो " कहते कुर्सी कि पीठ पर सर टिका, आँखें मूँद ली मनीष ने.
उसने दूसरी कुर्सी के लिए जो नज़र दौडाई, तब ध्यान आय उसे. ओह वे लोग तो कॉमन रूम में बैठे हैं और कैसी कैसी बातें कर गए वे. किन्तु कॉमन रूम ही शायद सबसे निरापद जगह है. एक ही साथ कोलाहल और एकांत दोनों आश्चर्यजनक रूप से रहते हैं यहाँ. इतनी जोर शोर से बातें होती रहती हैं कि किसी को ध्यान ही नहीं रहता, दूसरा क्या कर रहा है? अभी किसी भी दूसरी जगह यूं साथ बैठे होते तो कितने ही माथे पर बल पड़ गए होते और कितनी ही आँखों में कौतूहल जगा होता. हंसी आ गयी उसे. लोग बातें करने को पार्क का कोना क्यूँ ढूंढते हैं. कॉमन रूम सेवा में हाज़िर हैं.
(क्रमशः)