आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची - 5 Rashmi Ravija द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची - 5

आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची

रश्मि रविजा

भाग - 5

अभिषेक, एक पत्रिका में कोई रिपोर्ट लिखने के उद्देश्य से एक कस्बे में आता है. वहाँ एक दुकान पर उसे एक नारी कंठ सुनायी देता है. वह चेहरा नहीं देख पाता. उसे शची की आवाज़ लगती है और वह परेशान हो उठता है. अपने गेस्ट हाउस में लौट वह पुरानी यादों में खो जाता है कि शची नयी नयी कॉलेज में आई थी.. मनीष उसे शची का नाम ले छेड़ने लगा था. पर वह अपने मन को नहीं समझ पा रहा था. पर जब शची ने स्टेज पर आँखें उठाकर कुछ ऐसी नज़रों से देखा कि उसने बहुत कुछ पढ़ लिया उसकी आँखों में. )पर शची की तरफ से कोई संकेत ना मिलने पर उसने मनीष से अपने दिल की बात कह दी. )

गतांक से आगे

मनीष के साथ शची के घर भी हो आया वह. शकुन भाभी से तो पुराना परिचय था ही. इतने दिनों बाद ना आने पर शिकायत ही की उन्होंने. गप्पे मारने में तो शायद ही कोई बराबरी कर पाता, उनकी. दोनों बहनें, बिलकुल दो विधाताओं की रचना लगती थीं. भारी बदन, कंधे तक कटे बाल और स्फटिक सा रंग, शची से कोई साम्य नहीं रखता था. ऐसे ही प्रकृति में भी दोनों दो ध्रुव थीं. कहाँ शची बंद कली सी सब कुछ अपने में समेटे हुए सी लगती. जबकि भाभी एक पूर्ण प्रस्फुटित सौरभ सी बेलौस और उत्फुल्ल लगती. बंद कली का भीना भीना सुगंध सबको भरमाये रहता तो, इस फूल की तेज खुशबू से घबराकर लोग जल्द से जल्द निजात पाने को उत्सुक होते. वह और मनीष, बार बार घड़ी देखते रहते, "अब चलते हैं भाभी " पर वे कोई ना कोई बात छेड़ आधे घंटे और खींच ही लेतीं. शची बातों में शामिल तो होती पर उसे भी उन्हीं लोगों की तरह अधिकाँश समय श्रोता की भूमिका ही निभानी पड़ती. भाभी की वक्तृत्व कला से होड़ लेना कोई आसान काम न था. शची में भी कॉलेज वाली चपलता नहीं रहती. अधिकतर वह भाभी की बिटिया, कुहू संग ही खेलती, बतियाती रहती.

ooo

उस दिन किसी स्थानीय नेता की मृत्यु पर शोक प्रदर्शन हेतु क्लासेस सस्पेंड कर दिए गए थे. सभी गेट की ओर बढ़ रहें थे, तभी किसी ने यह जुमला उछाल दिया., " क्यूँ अभिषेक, कभी शची को लिफ्ट नहीं देते ?"

सकपकाया सा खड़ा रह गया वह. क्या जबाब दे? कई जोड़ी आँखें, निगाहों में शरारत लिए मुस्कुरा रही थीं. इस से पहले की उसकी स्थिति हास्यास्पद हो. शची ने ही बात संभाल ली, "हाँ अभिषेक, वो तुम्हारे नोट्स भी तो मेरे ही पास हैं, रोज भूल जाती हूँ. आज लेते चले जाना "

उसने यंत्रवत कार का दरवाजा खोल दिया और स्टीयरिंग संभाल ली. सहेलियों को वेव करती शची बैठ गयी. पूरे झुण्ड को मुहँ चिढाती, धूल के गुबार उडाती, कार सड़क पर अलमस्त सी दौड़ पड़ी.

शची एक पत्रिका के पन्ने पलट रही थी. सड़क के दोनों तरफ, घने छायादार वृक्ष झूम रहें थे. उनके बीच कभी धूप, कभी छाया से आँख मिचौली खेलती कार बढ़ी चली जा रही थी. सब कुछ इतना सुखद लग रहा था कि अनजाने ही उसके होठ गोल हो गए और सीट में एक धुन फिजा में तैर गयी.

कुछेक पल बाद जब शची ने सामने नज़र दौडाई तो चौंक गयी, "अभिषेक मेरे ख़याल से इधर से मेरियन कालोनी जाने का कोई रास्ता नहीं. "

वह भी चौंक कर बोला, "ओह मैं भी कैसा भुल्लक्कड़ हूँ. दरअसल आज सोचा था, कॉलेज के बाद वल्लरी गार्डेन जाऊँगा. मनीष से भी बात हुई थी पर वो तो कॉलेज आया ही नहीं. और तुम ऐसी चुप बैठी थी कि भूल ही गया, तुम भी साथ हो, रुको मोड़ लेता हूँ. ".... फिर कुछ रूककर बोला, "न हो तो तुम भी ये गार्डेन देख ही लो, न. बड़ी अच्छी जगह है. एक पुराने किले का खंडहर भी है. आर्कियोलॉजी की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण जगह है ये... अक्सर लोग आते हैं देखने...... ऐतराज़ न हो तो तुम भी चलो. "

नाखून कुतरते हुए शची कुछ देर असमंजस में पड़ी रही, फिर बोली, "कितनी दूर है?"

"अरे, बस अब आ ही गया"... और उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना कार की गति बढ़ा दी.

वह तो उत्साह से उमगा जा रहा था. वर्णन करने लगा उस जगह का. पूरा खाका ही खींच कर रख दिया, उसने. खंडहर है, उस से लगा ही एक सुदर फूलों और फलों का बगीचा है, बगीचे के बीच में एक तालाब है. एक तरफ छोटा सा पार्क भी है, जहाँ कई तरह के झूले लगे हैं.

उस विशाल खंडहर का कोना कोना, दिखाया शची को और अपनी जानकारी के अनुसार सभी चीज़ों पर प्रकाश भी डालता रहा. मूर्तियों की कलात्मकता पर भी अच्छा खासा भाषण दे डाला. जिस वस्तु पर शची की निगाहें, थोड़ी देर को ठहर जातीं. वे उसके लिए विशेष अर्थ ले उठतीं और फिर उनकी प्रशंसा की झडी लगा देता. दीवारों पर उत्कीर्ण कला के नमूने ने विशेष रूप से मोहा, शची को तो, उसने पूरे देश के कितनी मंदिरों का जिक्र कर डाला, जहाँ इनके उत्कृष्ट नमूने हैं. उसे खुद पर आश्चर्य हो रहा था. इतना अच्छा बोल सकता है, वह, इस बिलकुल अनजाने विषय पर.

किन्तु उत्साह में यह ध्यान देना भूल ही गया कि शची उसकी बातें सुन भी रही है या वह बस यूँ ही बोलता चला जा रहा है. तालाब के किनारे जाने पर उसने एक जगह दिखाई, "पहले हमलोग यहाँ से थोड़ी दूर पर ही रहते थे. कई स्टुडेंट्स, किताबें लिए यहाँ पढने आते थे. वह जगह देख रही हो, उसे ही मैंने भी एक्जाम प्रिपरेशन के लिए चुना था. लेकिन किताबें तो जरूर हाथों में होती पर आँखें इधर उधर भटकती रहती. मैं तो बस फूल, पत्ती, चिड़िया, पानी ही देखता रह जाता. और फिर तौबा कर ली मैंने, अपनी टेबल कुर्सी ही भली. ऐसे में शायद मैं कवि तो बन जाता पर पास कभी ना हो पाता. चलो, ना थोड़ी देर बैठते हैं, वहाँ.... " कहते हुए जो शची की ओर नज़रें घुमाईं तो पाया शची की निगाहें तो दूर तालाब में खिले कमल पर टिकी हैं और खुद उसकी सोयी सोयी सी कमल सी आँखें पानी से भरी हुई हैं. एक पल को ख्याल आया, क्या समानता है.. पानी के बीच कमल और कमल में पानी.

पर इन पनीली आँखों की वजह नहीं समझ पाया. अचानक क्या हो गया शची, को?क्लास में तो खुश खुश ही थी, ड्रॉप करने को भी खुद ही कहा. उसकी इजाज़त से ही उसे लेकर आया. कुछ बोलने की गरज से कह उठा, "तब से तो बस मैं ही बोलता चला जा रहा हूँ. तुम तो बिलकुल चुप हो"

"तुमने मौका ही कहाँ दिया बोलने का, कहते घड़ी पर नज़र डाल, बोल उठी, अब चलो अभिषेक, दीदी चिंता करेंगी. "

दोनों के कदम प्रवेश द्वार की ओर बढ़ने लगे. उसने लक्ष्य किया, शची के होंठ काँप रहें हैं. वह दांतों से होठों को दबाती हुई चल रही थी. वापसी में दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला. शची तो बोलने की मनस्थिति में ही नहीं थी. उसका भी मन खिन्न हो आया. चेहरे से साफ़ झुंझलाहट जाहिर हो रही थी.

शची ने पलके झुकाए झुकाए ही हाथ हिला दिए. उसकी आँखों में आंसू कंपकंपा रहें थे. सर झटक गाड़ी मोड़ ली उसने... "ओह ये लड़की है या पेहली? "

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दूसरे दिन से ही कुछ ऐसा महसूस हुआ, जैसे कुछ बहुत ही अप्रिय घट गया है, उनके बीच. कटी कटी सी रहने लगी, शची उस से. चेहरे पर कोई भाव नहीं आने दिया उसने. पर नज़रें मिलते ही. धीरे से निगाहें फेर, चेहरा घुमा लेती. तिलमिला कर रह जाता वह. उसकी उपस्थिति में या तो आँखें किसी पुस्तक में गडी होतीं या हाथ कलम थामे होते. लाइब्रेरी में जाना भी कम कर दिया, शची ने और बैठ कर पढना तो बिलकुल ही छोड़ दिया. उसके घर भी जाता तो थोड़ी देर तो बैठकर हूँ, हाँ करती फिर उठकर ऐसा जाती कि दुबारा दर्शन नहीं होते. बहुत आहत हुआ था, वह उसके व्यवहार से. ऐसा क्या कर दिया उसने कि शची कि निगाहें इतनी बदल गयीं. एकाएक क्यूँ इतना फासला बढ़ा लिया उसने. सही है, ऐसी कोई दांत काटी रोटी नहीं थी तो इस तनाव की भी तो कोई वजह नहीं. शची ने कभी एंकरेज नहीं किया तो इस तरह कभी एवोयेड भी तो नहीं किया. क्या करे वह? जी में आता सीधा, शची के पास चला जाए और कड़क कर पूछे, "क्या मतलब है इन सब बातों का ?" पर क्या पूछ सकता था? और विवश होकर रह जाता.

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आजतक जो भी चाहा अभिषेक ने. पाने को कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा उसे. मन में इच्छा जागी और पाया बस एक हाथ भर का ही तो फासला है. बस हाथ बढ़ाओ और ले लो. हाई स्कूल तक पढने से ज्यादा खेलने में ही ध्यान रहा. कई कप्स, मेडल, शील्ड, प्रमाण हैं इसके. कि उस क्षेत्र में भी टॉप पर ही रहा. अधिकांशतः सब स्कूल में ध्यान से पढ़ते हैं और कॉलेज में मौज मस्ती का लुत्फ़ उठाते हैं जबकि विपरीत हुआ उसके साथ. एक प्रख्यात लेखक कुछ दिन उसके घर मेहमान बन कर रहें. उनके सान्निध्य का कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि जीवनधारा ही मोड़ कर रख दी उनके व्यक्तित्व ने. साहित्य में कुछ ऐसी रूचि जागी कि विज्ञान का दामन छोड़, कला का पल्लू थाम लिया, उसने. यहाँ भी अपना नाम शीर्षस्थ छात्रों में लिखा कर ही चैन की सांस ली. इन सबके पीछे उसकी सच्ची लगन और कठोर परिश्रम का भी हाथ था.

लेकिन यहाँ तो, लगन, परिश्रम किसी का कुछ काम नहीं. केवल सब्र कर सकता है. पर कब तक?? आखिर उसकी भी तो इंतहा है. इस तरह कभी उपेक्षा नहीं झेली उसने. खून का घूँट पीकर रह जाता है वह, शची के प्रत्येक अनपेक्षित व्यवहार पर. तो क्या यह सब, उसे नीचा दिखाने की साज़िश है. लेकिन जब भी उन आँखों का ख़याल आता है, अपनी हर आशंका झूठी पड़ने लगती है. कहीं कुछ गलत तो नहीं पढ़ लिया उसने उन आँखों में? पर कैसे मान ले वह? एक पल को उसकी ओर उठती हुई वो निगाह तो हमेशा हमेशा के लिए उसके मानसपटल पर अंकित हो चुकी है. और उसके जाने अनजाने ना जाने कितनी बार उन लम्बी लम्बी पलकों वाली झुकी आँखें उसकी ओर उठती हैं और तेजी से गिर जाती हैं. और अचानक सिहर उठा वह. ये क्या हो गया है उसे, इस तरह कभी खुद से बातें करते नहीं पाया खुद को. सबके बीच भी अजनबी सा बना रहता है. पढ़ाई भी नहीं कर पा रहा. कैरियर चौपट करना है क्या? किस ताने बाने में उलझ गयी सारी ज़िन्दगी?

इन सवालों के जबाब नहीं थे उसके पास. समझ नहीं पा रहा था, इस तरह उसके अहं को चोट पहुंचा कौन सा खज़ाना मिल जायेगा, शची को? और धीरे धेरे रोष उफनने लगा. सब कुछ तो सामान्य है. सभी खुश हैं बस वही झेल रहा है, एक असहनीय पीड़ा. शायद उसने जो देखना चाहा, उसे ही रचा बसा दिया शची की आँखों में और पुलकित होता रहा. उनमे अपनी इच्छाओं के प्रतिबिम्ब देख, सुनहरे ख्वाब बुनता रहा. नहीं शायद नहीं.. यही सच है, एक कड़वा सच... लेकिन सच ही तो.

यदि उसकी आकांक्षाओं में शतांश भी शची की भागेदारी होती तो क्या सिर्फ वही अभिशप्त होता, पीड़ा की इन अनचीन्ही गलियों से गुजरने को. शची को तो जैसे कुछ छू भी नहीं गया. पहले की तरह ही तो चहकती रहती है, खिलखिलाती रहती है, केवल उस से कतराती है, यह जताने के लिए कि नफरत करती है उस से, नफरत. तो वह भी कोई उसकी दया का भूखा नहीं है. शची क्या उसके आँख उठाने की देर है.... दस शाचियाँ लग जायेंगी लाईन में. उसने खुद ही कभी नहीं चाहा ये सब. चीप थ्रिल समझता था इसे. लेकिन शची क्या समझती है... दिखा देगा वह भी.... शी डजंट एक्जिस्ट फॉर हिम एनीमोर... और गुस्से से होठ चबा लिए उसने.

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और मनीष ने भी जब पूछा कि उन दोनों का कोई झगडा हुआ है क्या? तो फट पड़ा वह. अपनी सारी सोच को शब्दों का जामा पहना फेंक दिया, उसके समक्ष, " झगडा?... कैसा झगडा?... मैं क्यूँ झगड़ने लगा?... और झगडा होने के पहले ना दोस्ती होनी चाहिए. वो किसी की दोस्त हो सकती है क्या?.. इतना गुरूर.. माई गौड... किस बात का आखिर. एक से एक जीनियस से मिल चुका हूँ... ऐसा घमंड तो किसी को नहीं.. ना जाने क्या समझती है खुद को... " वह देर तक जाने क्या क्या बोलता रहा. सारा गुस्सा, मनीष पर उतार दिया. मनीष चुपचाप उसकी स्वगतोक्ति सुनता रहा. जानता था, यह अभिषेक नहीं उसका चोट खाया स्वाभिमान बोल रहा है. उसके जरा सा रुकते ही पूछा, "कॉफ़ी पियोगे?"

"पी लूँगा "... वैसी ही मुखमुद्रा बनाए कहा उसने और फिर शुरू हो गया... "अखबार वालों ने जरा लिफ्ट क्या दे दी... खुद को शोभा डे ही समझने लगी. हर किसी से कहती रहती है... "इस विषय पर लिखा है मैंने... देखा तुमने?" मानो इन टूटपूंजिए लेखों में मगज मारने के सिवा किसी को और कोई काम नहीं. जो सच्चे लिखने वाले होते हैं यूँ अपनी रचनाएं पढवाते नहीं फिरते.. "

"शुरू करो..... ठंढी हो रही है ".... मनीष ने उबासी लेते हुए कहा.

"दिख रहा है मुझे भी... तुम्हे कैसे गवारा होगा ये सब सुनना. आफ्टर ऑल यूं आर हर बेस्ट फ्रेंड.. फ्रेंड भी क्या तुम तो भाई हो... भाईजान... बैठे रहो जुबाँ पर ताले लगाकर... कडवे स्वर में बोला तो मुस्कुरा पड़ा मनीष... "अरे यार तूने मौका ही कब दिया बोलने का... "

जल उठा वह... "हाँ उसने भी तो यही कहा था... लेकिन.. खूब जानता हूँ, मैं.... "आवाज़ शायद ज्यादा ही तेज़ हो गयी थी क्यूंकि मनीष ने कंधे पर हाथ रख दिया... "अरे धीरे बोल यार... आस पास और लोग भी हैं. "

उसे भी ध्यान आया और अकेले बोलते बोलते अब तक वह भी पस्त हो चुका था. साथ ही इस सहानुभूति भरे आत्मीय स्पर्श ने भी कहीं गहरे छू लिया. ठंढे स्वर में बोला, " मनीष मुझे तो लगता है, शची हमेशा अपने अतीत में जीती है. जब भी यूँ देखती है. जरूर बीती बातें सोचती है. उसके बैकग्राउंड में जरूर ऐसी कोई घटना है जो उसे आगे बढ़ने से रोकती है. "

"ना ना ऐसा मत सोच अभिषेक कुछ लोग ऐसे होते हैं जो संबंधों को बहुत जल्दी गहराई में नहीं उतार लेते या फिर इज़हार नहीं कर पाते. तू अपनी ही सोच, ना मैंने इतना कुरेदा तब जाकर तू खुला... वो तो वैसे भी लड़की है. और बोल तूने भी तो कोई पहल नहीं की. कोई संकेत दिया है, कभी इस तरह का. "

"अब कुछ भी बाकी नहीं, मनीष. जहाँ तक संभव था, मैंने प्रयास कर लिया. अब ये तो मुझसे नहीं हो सकता कि आह - कराह भरे शेरो शायरी से लैस एक लम्बा सा ख़त लिखूं और वो उसे डैडी या हेड के पास ले जा, मेरी वर्षों की इमेज मिटटी में मिला दे. यू नेवर नो दीज़ गर्ल्स..... दे आर सो अनप्रेडिक्टेबल... कुछ भी कर सकती हैं... और फिर यह सब बड़ा चीप लगता है मुझे. अगर कहना ही पड़े 'आई लव यू' तो फिर उस कहने का अर्थ क्या है. यह तो आँखों की भाषा है. शब्दों से इसका क्या ताल्लुक? "

"तो किया क्या तूने, आखिर?..... " कुछ खीझ कर पूछा मनीष ने

"किया क्या... कुछ भी नहीं... उस दिन जाने किस मूड में मैडम ने मुझसे लिफ्ट मांगी. मैं वल्लरी गार्डेन ले गया. घूमाता रहा. दिखाता रहा. लेकिन महारानी जी चुप. जब ध्यान दिया तो पाया आंसू ढरक रहें हैं. बोलो, ऐसा क्या किया मैंने. कोई अशिष्टता नहीं की. ले गया था मैं, जानबूझकर ही लेकिन सामने बोला,

"भूल से चला आया हूँ. कहो तो मोड़ लूं. फिर उसकी स्वीकृति से ही ले गया. कहने पर बिना एक शब्द कहे लौट भी आया. तो इसमें कहाँ गलती हो गयी मुझसे. यार या तो शी लव्स समवन एल्स.. इफ नॉट थें... देन.. देन.. शी इज जस्ट इमोशंनलेस.. यानि पत्थर. "

"व्हाट नॉनसेंस.. बैठे ठाले ये सब क्या सोचते रहते हो... और पत्थर पिघला नहीं करते, अभिषेक जबकि अक्सर उसकी आँखें तरल हो आती हैं. बोलो कोई समानता है इन दोनों में?.. कुछ लोग बहुत भावुक होते हैं, अभिषेक. हो सकता वह वहाँ के स्निग्ध वातावरण से अभिभूत हो गयी हो. "

इस तर्क ने बिलकुल पारा चढ़ा दिया, उसका व्यंग से बोला, "हाँ सही है... भावुक लोगों को ही ना लूग्न की भावनाओं से खेलने में मजा आता है. कहा ना, तुम्हे तो उसमे कोई दोष, दिखाई देगानहीं. पर तुम्हारी नज़रों में वो चाहे बेहद सीधी हो. मैं नहीं सह सकता ऐसा गुरूर. कॉलेज की टॉप मॉड

लडकियां मुझसे बात तक करने को तरसती हैं. मैं खुद ही नहीं लगाता किसी को. इस एक लड़की की परवाह करूँगा मैं. विल शो हर... जस्ट वेट... "

"बस बस अब इतना गुस्सा भी ठीक नहीं यार... तू तो पहले से ही उस से खार खाए बैठा है. इस तरह जलते नहीं यार... निहायत शरीफ लड़की है वो. "

किन्तु मनीष की मुस्कराहट ने ठंढा करने के बजाये और भड़का दिया. लगा जैसे मनीष माखौल उड़ा रहा है उसका. लाख कोशिशों के बावजूद काबू नहीं रख पाया खुद पर... " यू जस्ट शट अप... ओके... मैं नहीं जलता किसी से... " और मनीष को भीड़ में भौंचक्का छोड़ तेज क़दमों से बाहर हो गया.

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जो भी सोच लेता उसे अमली जामा पहनाने में कभी देर नहीं करता वह. निर्णय हमेशा उसके एकाएक होते और उसी मुस्तैदी से उसे कार्यरूप में परिणत कर देता. रास्ते में आने वाले कांटे, और कंकडों पत्थरों की परवाह कभी नहीं की उसने. और यही सोच जब कणिका को वेव किया तो जरा भी शंका नहीं थी उसके मन में. उसके और कणिका के आने का समय हमेशा एक ही होता था. बस फर्क यही था, वह अपनी गाड़ी से आता और कनिका को उसका ड्राइवर छोड़ जाता. आज जानबूझकर पहले पहुंचा. बोनट पे अधलेटे वह कनिका के आने का इंतज़ार करने लगा. उसे देखते ही जोर से बोला... "हे... हाय कणिका... "

कणिका चौंक गयी और साथ ही चौंक गयी आसपास झुण्ड के शक्ल में बंटी कुछ मानव आकृतियाँ. हतप्रभ सी खड़ी थी वह. उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि अभिषेक ने उसे विश किया है. कितनी बार कोशिश की थी कणिका ने उसके करीब आने की पर अभिषेक ने बड़े उपेक्षित ढंग से टाल दिया था उसे.

पास पहुंचकर शिलावत कणिका से बड़ी शोखी से बोला... "क्या बात है... स्टिल एंग्री क्या.... हेलो भी नहीं बोलोगी"

"ओह नो.. ऐसी बात नहीं... एक्चुअली विश्वास नहीं हो रहा... मुझे विश किया तुमने.. "

"अरे यू आर लुकिंग सो आस्सम, टुडे रोक नहीं सका खुद को... सच अ प्रीटी ड्रेस हाँ.. "

"ओह्ह.. थैंक्स.. थैंक्स अलॉट...... पर तुम यहाँ कैसे नज़र आ रहें हो... कहाँ गया तुम्हारा ग्रुप.. ?

"बस यार ऐसे ही.. एम फेड अप नाउ... सारे दिन स्टडीज़... आर यू फ्री??... आज मूड नहीं कॉलेज जाने का... फ्री हो तो घूम आते हैं कहीं... "

"हम्म नहीं भी हूँ तो हो जाउंगी... तुम्हारे साथ का ये मौका मैं खोना नहीं चाहती..... चलो.. विल डिसाइड ऑन द वे कि कहाँ चले. "... और कणिका ने मुस्कुरा कर एक बार और देख लिया आश्चर्यचकित भीड़ को.

आश्चर्यचकित तो वह भी था कि इतनी आसानी से फ्लर्ट कर सकता है वो. परन्तु शायद हर पुरुष में इस किस्म का चरित्र मौजूद रहता है. और मौका पाते ही अपनी झलक दिखा जाता है. उसने भी मुस्कुरा कर एक नज़र फेंकी अपने साथियों पर.... "अरे ये तो शुरुआत है... अभी तो देखना आगे आगे होता है क्या "

इस वक़्त तो बस यह सोच रहा था... साथ चलती कणिका के कंधे पर हाथ रखे या नहीं. इस ग्रुप के लिए यह आम बात थी. पर उसे संकोच हो रहा था. मन ही मन कहा उसने... सीख जायेगा... सारे तौर तरीके. बस थोड़ा वक़्त चाहिए. अभी तो वन स्टेप एट अ टाईम.

(क्रमशः)