Him Sparsh - 67 books and stories free download online pdf in Hindi

हिम स्पर्श - 67

67

भोजन का समय हो गया। जीत प्रतीक्षा करने लगा कि अभी वफ़ाई कहेगी,”जीत, भोजन तैयार है। आ जाओ।“

वह प्रतीक्षा करता रहा। कोई आमंत्रण नहीं आया।

अभी तक वफ़ाई ने पुकारा क्यूँ नहीं?

वह नहीं पुकारेगी।

क्यूँ?

वफ़ाई होगी तो पुकारेगी ना? वह तो अब तक लौटी ही नहीं।

नहीं लौटी? वह तो कहकर गई थी कि भोजन के समय से पहले वह लौट आएगी। भिजन साथ साथ कररेंगे। उसे अब तक तो लौट आना चाहिए था।

किन्तु सत्य तो यही है कि वह अब तक लौटी नहीं है।

वह लौट आएगी, अवश्य लौट आएगी। मैं प्रतीक्षा करता हूँ।

यदि वह नहीं आई तो?

ऐसा कैसे हो सकता है? उसका नाम ही वफ़ाई है।

यदि उसने बेवफाई कर दी तो?

वफ़ाई कभी बेवफाई नहीं कर सकती। देखो, समझो। उसका नाम ही वफ़ाई है। वफ़ाई, वफ़ाई आएगी।

ठीक है, कर लो प्रतीक्षा।

जीत ने स्वयं को विश्वास दिलाया और प्रतीक्षा करने लगा।

समय व्यतीत होने लगा किन्तु वफ़ाई नहीं आई। जीत का धैर्य विचलित होने लगा। जीत का विश्वास टूटने लगा, बिखरने लगा।

जीत ने गगन को देखा। सूरज अब धीरे धीरे पश्चिम की तरफ गति कर रहा था। जीत ने दूर क्षितिज की तरफ देखा जहां रोज सूरज डूब जाता है। उसने सूरज को देखा। दोनों के बीच के अंतर को मन ही मन नाप कर हिसाब लगाने लगा कि सूरज को डूबने में कितना समय बाकी बचा।

क्या सूरज डूबने से पहले वफ़ाई लौट आएगी? जीत ने स्वयं को प्रश्न किया, जिस का कोई उत्तर जीत के पास नहीं था। जीत फिर मौन हो गया। फिर प्रतीक्षा करने लगा। फिर समय व्यतीत होने लगा, किन्तु वफ़ाई लौटकर नहीं आई। जीत निराश हो गया।

सूरज पश्चिम की तरफ थोड़ा अधिक गति कर गया। संध्या का समय निकट आ गया। वफ़ाई की प्रतीक्षा में विषादग्रस्त जीत व्याकुल होने लगा। मन ही मन द्वंद चलने लगा। मन का एक हिस्सा कह रहा था कि वफ़ाई लौट आएगी। दूसरा हिस्सा कह रहा था कि सत्य तो यह है कि वफ़ाई लौटी नहीं थी, ना ही उसके आने के कोई संकेत थे।

जीत की द्रष्टि दूर कैनवास पर हँसती हुई वफ़ाई की तस्वीर पर पड़ी। वफ़ाई हंस रही थी।

कितना निर्दोष स्मित है?

नहीं, यह स्मित निर्दोष नहीं है। यह तो मेरी इस स्थिति पर हंस रही है, व्यंग कर रही है।

नाम वफ़ाई और कर रही है बेवफाई।

गुणों के अनुरूप नाम रखे जाते हैं। किसने इसका नाम वफ़ाई रख दिया?

जीत, वह बहाना कर के निकल गई तुम्हारे जीवन से। उसे समझ मे आ गया कि तुम्हारे पास अल्प समय बचा है। अब क्यूँ वह साथ रहे? डूबती नैया पर कोई सवार होता है क्या?

नहीं यार, वफ़ाई ऐसी नहीं हो सकती।

यह तुम्हारा भ्रम है। वफ़ाई ऐसी ही है। अब तुम करते रहो प्रतीक्षा दोनों की।

दोनों की? क्या अर्थ है तुम्हारा?

हाँ दोनों की। एक, वफ़ाई की। दूसरी, अपनी मृत्यु की। तुम मरोगे तो भी अकेले और जब तक जियोगे तो भी अकेले। तुम्हें मरना होगा, अकेले-अकेले।

दूर सूरज डूब गया। वफ़ाई नहीं आई। जीत के कानों मे, जीत के ह्रदय में, जीत के समग्र अस्तित्व में एक ही ध्वनि गूंज रही थी, तुम्हें मरना होगा, अकेले-अकेले।

जीत निराश हो गया, अपने ही विश्वास से उसका विश्वास उठ गया। अपने ही धैर्य से धैर्य खो बैठा। वह एक यूध्ध हार गया।

जीत के तन से सारी शक्तियाँ लुप्त होने लगी। शरीर ठंडा पड़ने लगा। चक्कर आने लगे। जीत संतुलन खोने लगा। वह जमीन पर ही बैठ गया। सांसें ठंडी पड़ने लगी। जीत को अनुभव होने लगा कि शरीर से कुछ अलग हो रहा है।

क्या आत्मा मेरे शरीर का साथ छोड़ रही है? क्या यही स्थिति को मृत्यु कहते हैं? क्या हो रहा है यह मुझे? दिशाएँ क्यूँ इतनी धुंधली सी हो रही है? हवाएँ बह रही है या थम सी गयी? यह रेत भी शीतल होती जा रही है? यह रेत है अथवा हिम? यह हिम ही है।

जीत ने रेत के कणों को स्पर्श करना चाहा। उसने हाथ पसारने का प्रयास किया। हाथ थोड़ा सा हिला, रेत का स्पर्श हुआ।

कितनी शीतल है यह? हिम से भी शीतल।

कहाँ गई रेत की वह ऊष्मा? क्या मेरे रक्त की ऊष्मा की भांति रेत की ऊष्मा भी लुप्त हो गई? हिम इतना घातक होता है क्या?

हाँ हिम तो घातक ही होता है। यही हिम जो तेरे अंदर है वही तो है घातक। वह हिम अपनी शीतलता दिखा रहा है। अपनी शीतलता से तेरे रक्त की ऊष्मा को हर रहा है। हिम का एक टुकड़ा और सब कुछ समाप्त, जीवन भी।

हिम के एक टुकड़े से मुझे नहीं मरना है। मैं इस छोटे से टुकड़े से हार नहीं मानूँगा। यदि मुझे मरना ही है तो मैं हिम के उस विशाल पहाड़ पर जाकर ही मरूँगा। हिम के उसी पहाड़ पर जाऊँ, मरने से पहले पुन: एक बार जी लूँ।

नहीं, मैं यहाँ नहीं मरना चाहूँगा। मैं यहाँ नहीं मर सकता, नहीं।

जीत के अंदर जिजीविषा जागने लगी। जीत ने हाथ से उसी रेत कणों को स्पर्श किया। रेत के वह कण उष्ण थे। जीत ने पूरी शक्ति से उस रेत के कणों को अपनी मुट्ठी में जकड़ लिया। रेत की ऊष्मा बंध हथेलियों में बहने लगी। शीतल हो रही हस्तरेखाएँ उष्ण होने लगी। धीरे धीरे यह ऊष्मा सारे शरीर में प्रवाहित होने लगी। एक नयी चेतना का अनुभव होने लगा।

जीत ने वफ़ाई की तस्वीर को देखा। वह अभी भी स्मित कर रही थी। वफ़ाई के उस स्मित पर जीत को क्रोध आया। जीत ने अपनी तमाम शक्ति एकत्र की और उठा, कैनवास तक गया, तूलिका हाथ में ली और काले रंग में डुबो दी।

तुम स्मित कर रही हो? तुम क्या समझती हो कि मैं तुम्हारे बिना मर नहीं सकता? मैं तुम्हारे इस स्मित को ही विकृत कर देता हूँ। तुम्हारे अधरों को काले रंग से रंग देता हूँ। तत्पश्चात तुम दिखाना स्मित करके।

मैं तुम्हारे बिना भी मर सकता हूँ। हाँ मैं तुम्हारे बिना भी मर सकता हूँ। सुना तुमने? वफ़ाई। सुना तुमने?

जीत ने काले रंग में डुबी तूलिका को वफ़ाई के चित्र में रहे होठों को काला करने के लिए कैनवास पर रखा ही था कि उसके कानों पर ध्वनि आई।

“हाँ, मेरे बिना तुम मर तो सकते हो किन्तु मेरे साथ होते हुए तुम मर नहीं सकते। मैं तुम्हें मरने नहीं दूँगी।” किसी ने जीत को पीछे से पकड़ लिया। जीत के हाथ मे रही तूलिका छुट गई। गिरते गिरते वह कैनवास को स्पर्श कर गई। वफ़ाई के चित्र को स्पर्श करते वह धरती पर गिर गई। जीत गिरती हुई तूलिका को देखता रहा। नीचे झुककर जीत ने उसे उठाना चाहा किन्तु पीछे से किसी की पकड़ ने उसे ऐसा करने से रोका। जीत स्थिर हो गया।

“कौन हो तुम? यह क्या कर रहे हो?” जीत धुंधलाकर बोला। जीत ने पीछे मूड कर उसे देखना चाहा किन्तु उस व्यक्ति की पकड़ चूस्त थी तथा जीत में वह शक्ति नहीं थी। वह चुपचाप खड़ा रहा।

“मैं तुम्हें मरने नहीं दूँगी।” यह शब्द अभी भी जीत के कानों पर पड रहे थे। जीत ने उन शब्दों पर ध्यान दिया। यह ध्वनि तो परिचित सी है।

“अरे, यह तो वफ़ाई की ध्वनि ..।“ जीत मन ही मन बोला। जिन हाथों ने पकड़े रखा था उन हाथों को देखा और आश्वस्त हो गया,“ हाँ, यह वफ़ाई ही है।”

“जीत, मैं ही हूँ। वफ़ाई।” वफ़ाई ने जीत को मुक्त किया। जीत ने गहरी सांस ली, पीछे मुडा और वफ़ाई को देखता रहा।

वफ़ाई ने स्मित किया। जीत ने उसका कोई उत्तर नहीं दिया। वह अभी भी वफ़ाई के मुख को देख रहा था, वहाँ स्मित के साथ थोड़ा क्रोध भी था। जैसे वह डांट रही हो जीत को, किसी बात पर।

जीत को कुछ भी समज नहीं आ रहा था, वह खड़ा रहा शून्यमनस्क सा।

“क्या कर रहे थे? मरने के लिए इतने उतावले हो क्या? तो जाओ मरो। करो अपने मृत्यु की प्रतीक्षा। जब तुम जीना ही नहीं चाहते तो फिर कोई क्या करे?” वफ़ाई ने पूरे गुस्से से जीत को डांटा। वफ़ाई के शब्द तथा मुख के भाव इतने तीव्र थे कि जीत को लगा कि वह उस आग में जल जाएगा, भस्म हो जाएगा।

जीत ने द्रष्टि नीचे झुका ली, मौन खड़ा रहा।

“अब यूं पुतले की तरह खड़े क्यूँ हो? जाओ न, जा कर ...।” वफ़ाई की बात पूरी नहीं हो पायी थी कि जीत बोल उठा,“बस भी करो। कुछ गुस्सा बचा कर भी रखना। अभी कई अवसर आएंगे मुझे डांटने के।“

जीत की इस बात ने वफ़ाई के गुस्से को शांत कर दिया।

“अर्थात तुम आज नहीं मरना चाहते?” वफ़ाई ने भी व्यंग का तीर चलाया।

“तुम आ गयी हो तो अब मरने कर कार्यक्रम निरस्त।“ जीत ने वफ़ाई के बदले मूड पर सवार होना ही उचित समझा। जीत हंस पड़ा।

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