हवाओं से आगे
(कहानी-संग्रह)
रजनी मोरवाल
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साथिन
(भाग 2)
“लाडो ससुराल में काम से सबका मन जीत लेना ! ससुराल में इंसान की नहीं उसके काम की कदर होती है ।” बस नानी की उसी युक्ति को रामप्यारी ने अपने जीवन का मूल मंत्र बना लिया था । घर के काम-काज के बाद पति के पहलू से लगी रामप्यारी के सबसे ख़ुशनुमा क्षण होते थे | पंद्रह की उम्र में रामप्यारी ने मुरारी को जन्म दिया था | पुत्ररत्न ने उसे ससुराल की आँखों का तारा बना दिया था | रामप्यारी सोचती कि क्या होता जो वह एक बेटी को जन्म देती ? क्या तब भी सब उसे इसी तरह स्नेह और आदर देते ? शायद नहीं... ख़ैर ! रामप्यारी वह सब सोचना नहीं चाहती | वह तो इस धरती और उस आकाश की तमाम खुशियाँ को अपने आँचल में भर लेना चाहती थी । वह खुशी में झूमना चाहती थी और कंठ भर-भर के संगीत उड़ेलना चाहती थी | जब वह ऐसा कर नहीं पाती थी तो सारी इच्छाएँ अपने बेटे की गतिविधियों में जीती थी | खिलाती तो मनुहार भरा गीत गाती, नहलाती तो खिलखिलाकर गाती, जब आँगन में खेलने दौड़ता तो वह उसकी पायलों के लटकते बुदों में अपने ख़्वाबों को पिरो देती और देर तक उनकी रुनझुन सुनती रहती... शाम के धुँधलके में जब लोरी गुनगुनाती तो आसमानी ताकतों से तारें बटोर लाती और चाँद को तरसा-तरसाकर अपने लल्ला के इर्द-गिर्द अंधियारी की चादर लपेट देती | लोरी गाती तो फिर यूँ गाती कि सारा घर सोया रहता और वह गुनगुनाती ही रह जाती | मुरारी उसका नंदलाल बन गया था अब और वह उसकी जसोदा मैया |
वक़्त बीतते-बीतते गोविंदा उसकी गोदी में आ गया था । रामप्यारी की खुशियाँ अब ज़िम्मेदारी के बोझ से कुछ और दुहरी हो चली थी ।
“क्या स्त्री का सुरग है नानी ? तुम जो कहती थीं मुझे अपने आशीर्वाद के साथ ? एक नन्हें से आशीर्वाद के साथ-साथ तुम कितनी बड़ी सख़्त युक्ति मेरे कान में फुसफुसा गई थीं । मैं न जानती थी कि तुम्हारे फुसफुसाए उस युक्ति मंत्र को निभाते-निभाते ज़िम्मेदारी से मेरी कमर का दर्द, पिंडलियों की गाँठें, सीने में सख़्ती, और आवाज़ में कर्कश खराश उतर आएगी और मैं बुढ़ाते-बुढ़ाते ढह जाऊँगी ? नानी ! ये सुरग हम औरतों को ही क्यों मिलता है ? तो क्यों न हम नरक की सीढ़ियाँ चढ़े ? कम-अज-कम ज़िंदगी हम अपनी मर्ज़ी से तो जी ले ?” रामप्यारी सिसकने लगी थी । देह के कोने-कोने में छिपी न जाने कौनसी-कौनसी नसें कसकने लगी थीं मगर उसके सारे सवाल निरुत्तर थे... ये वही सदियों पुराने प्रश्न थे जिन्हें हवा में त्रिशंकु बनकर लटकाने का श्राप मिला था । वे शापित हैं, उनका निररुत्तर रहना ही नियति है और इसी नियति में औरतों की किस्मत का फैसला भी शामिल होता है |
रामप्यारी को पति किशन लाल का भरपूर प्रेम नसीब था । रामप्यारी को पति से कोई शिकवा न था, न ही किशन लाल को रामप्यारी से कोई गिला | दोनों बच्चों की उम्र के साथ-साथ रामप्यारी और किशन लाल के बालों में भी सफेदी उतरने लगी थी । किशन लाल कहता-
“रामप्यारी तुम तो इन बच्चों की बहुओं और पोते-पोतियों में खप जाओगी मगर मेरा बुढ़ापा कैसे कटेगा ?”
“तुम भगवान से दिल लगाना, उन्हीं की सेवा में अपना सुकून तलाशना ।”
“वाह जी ! हम बुढ़ा जाएंगे और तुम क्या हमेशा ही छड़ी-छाँट बनी रहोगी ?” किशन लाल और रामप्यारी की चुहलबाज़ी के बीच कौन जानता था कि एक रोज़ किशन लाल गहरी नींद में ही भगवान से अपने मन के तार जोड़ बैठेगा और सब कुछ छोड़-छाड़कर बड़े सुकून से चिरनिद्रा में समा जाएगा |
“पेंशन बंध जाएगी !” मातमपुरसी करने आए लोगों में से न जाने कौन बोला था ।
“हाँ... बच्चे तो पल ही गए है । बस तनिक और रुक जाते तो उनकी ब्याह-शादी भी देख जाते ।”
“होने के काम सब होते है भाइयों ! जाने वालों को कौन रोक सकता है ।”
“पीले पत्ते झड़ते हैं तो दुख नहीं होता क्योंकि यही प्रकृति का नियम है किन्तु किशन लाल की अभी उम्र ही क्या थी ?”
“सो तो है... कभी-कभी तेज़ आंधियों के थपेड़े पके पत्तों के साथ-साथ असमय हरे पत्तों को भी उड़ा ले जाते हैं ।”
बारह दिवस ज़मीन पर चटाई डालकर पड़े-पड़े रामप्यारी की कमर ही अकड़ने लगी थी । शिकायत करती भी तो किससे ? पति भी तो उसी का गुज़रा था अब इतना तो सहन करना ही पड़ता | उबली सब्ज़ियाँ और सूखी रोटी खा-खाकर उसके मुँह का स्वाद ही उसे पराया-सा लगने लगा था । सफ़ेद रंग तो उसका चलो फिर भी पसंद का था | सोने की चूड़ियाँ उसने खुद ही उतारकर बेटों के सुपुर्द कर दी थी |
रामप्यारी को एकाकीपन खलने लगा था । उसने बरसों बाद कान्हा की मूर्ति को मंदिर से लाकर पुनः अपने कमरे में सजा लिया था साथ ही चन्दन का टीका भी... नियति को सहजता से मंज़ूर करना औरतों की आदत न सही मजबूरी भी नहीं होती, दरअसल इस सहजता के कारण तो वह चारदीवारी में रहते हुए भी अपने जीने की हज़ार-हज़ार वजहें तलाश लेती हैं | कान्हा को नहलाना उनके कपडे बदलना, हार-श्रृंगार करना, भोग चढ़ाना और भजन गाना | यही तो विधवा जीवन जीने की वे वजहें थीं जो रामप्यारी को अपने घर के पुरखों से वसीयत में मिली थी जिनके द्वारा उसका बाक़ी जीवन आसान होने वाला था, ठीक वैसा ही जैसा उसके घर की बड़ी-बूढियों का बीता था बहाने-बहाने ।
“हाँ ओर नी तो क्या ? कान्हा खाएँ पूरी-हलवा तो रोज़ खाएँ हमऊं छप्पन भोग हेहेहेहे ।” बाल विधवा हुई बुआ बचपन से ही ये सारी चालाकियाँ सीख गई थी ।
“हाय बुआ तुम तो बेईमानी कर रही हों ।”
“अरी चप्प लरकी, का कह रही हों ? हरे कृष्णा-हरे कृष्णा... इसे बेईमानी ना कहते हैं, इसे कहते हैं पूजा-पाठ, सेवा और आदर भाव, समझी !” बुआ कानों छूकर भगवान से माफ़ी मांगते हुए धीमी आवाज़ में उसे डाँटते हुए बोली थीं |
रामप्यारी ने पेंशन सँभाली और पेंशन ने बच्चों को । फिर कुछ यूँ गुज़र-बसर होने लगी थी उसकी ज़िंदगी । आँगन में पुराना पीपल जब-जब अपने पीले पत्ते झाड़ता, तब-तब रामप्यारी भी अपनी उम्र में से एक बरस उतारकर घर के पिछवाड़े टांग आती और मौसम की आहट बदलते ही आम पर जब भी पहला बौर खिलता तो रामप्यारी अपने अनुभवों की ओढ़नी से अपने-आपको कसकर लपेटती चली गई थी | बरस-दर-बरस बीते, फिर रामप्यारी के कमरे की सफ़ेद बत्ती बदलकर पीले लट्टू में परिवर्तित हो गई थी बल्कि संध्या ढलने से बहुत पहले ही उसके कमरे की बत्तियां बुझने भी लगी थी और कई दफ़े तो यूँ भी होता था कि रामप्यारी खटिया से उठती ही नहीं थी तो उसका कमरा अंधियारे की स्याह चादर ओढ़े उसके साथ-साथ ही गहरी नींद में ज़ज्ब हो जाता था | घर में उसकी याद कभी किसी को आती या न आती थी पर कान्हा उसे सुबह-शाम याद दिला ही देते थे कि रामप्यारी के बिना उनके सामने घी का दीपक भी जलाने कोई नहीं आता | रामप्यारी की व्यथा उस घर में कोई समझता था तो वह एक बस उसके कान्हा ही थे |
एक रोज़ रामप्यारी पर चढ़ आई असमय पकी उम्र के उन सलेटी बालों पर, बड़ी बहु की नज़र पड़ गयी । जूड़े में खोंसी चांदी की पिन उसे कुछ यूँ रास आ गई कि वह पति से जिद कर बैठी कि चाहिए तो बस वही पिन चाहिए जो अम्मा के जुड़े में अटकी है | छोटी बहु को बड़की की वह ज़िद चुभी थी, ज़िद ही ज़िद में वह भी ढीठता पर उतर आई थी व अपनी बात मनवाने पर उतर आई थी | उसकी नज़र तो कब से अम्मा के पैर में पड़े चांदी के कड़ों पर गड़ी थी | घर की शांति बनाए रखने के लिए अम्मा ने बिना किसी ना-नुकुर किए अपने दोनों सबसे प्रिय गहने बहुओं के हाथों में सौंप दिए थे । वैसे भी यही दो चीज़े थीं जिनके प्रति उसका मोह छूटता ही नहीं था । विधवा होने के बाद भी वह इन चीज़ों को अपने से विलग नहीं कर पाई थी किन्तु बहुओं की ज़िद के आगे उसने अपने मोह को तिलांजलि दे दी थी |
घर की बहुएँ नए ज़माने की पढ़ी-लिखी लड़कियां थीं, वे न कान्हा के भोग के लिए रसोई निकालती न अम्मा को इस बहाने पहले-पहल भोजन परोसती | दिन चढ़े तक अम्मा चाय-कलेवा को तरसती, बैठी रहती फिर आवाजें देने पर नाश्ते का प्रबंध किया जाता । धीरे-धीरे अम्मा की आवाज़ क्षीण होती चली गई और घर की दीवारों ने अपने कानों को अपनी हथेलियों से ढांप लिया... बस तभी से उस घर की दीवारों के कान नहीं रहे न ही उसमें बसने वाले लोगों के भी । रामप्यारी की आवाज़ उसके कमरे के भीतर दफ़न होने लगी थी और साथ-साथ रामप्यारी भी | बहुओं को अम्मा की रत्ती भर भी पड़ी नहीं थी वह तो दोनों बेटे ही थे जो उसे जीवित रखना चाहते थे उसकी जरूरत अब महीने के अंत में ही पड़ती थी | खाते में अम्मा की पेंशन जमा होती तो दोनों भाई अम्मा के ए.टी.एम. कार्ड से उसे निकाल कर बाँट लिया करते थे । यही फ़ायदा अम्मा की चलती साँसों की क़िस्त थी | अम्मा सब बूझती थी किन्तु क्या करती ? हाथ-पैर से लाचारी और बच्चों का मोह, उसे मौन बनाए रखा था ।
मुरारी और गोविंदा अपने पिता की टाइप रायटर की दुकान संभालते थे । “सुबह से शाम टक-टक करते-करते मेरी तो अँगुलियों की बारह बज जाती है भैया !” गोविंदा बड़ी मिन्नतों के बाद बड़े भाई के साथ दुकान पर बैठने को राज़ी हुआ था । अकेले मुरारी से दुकान का काम-काज संभालता न था | उनकी दुकान “शर्मा टाइप रायटर” दरबार स्कूल के ठीक सामने थी | उन दिनों वाणिज्य विषय नया-नया सिलेबस में लगाया था सरकारी स्कूलों में । वाणिज्य विषय के छात्र न जाने क्या सोचकर टाइपिंग सीखते थे ? शायद हर माँ-बाप वाणिज्य पढ़ने वाले अपने बच्चों की सूरत में भविष्य के व्यवसायी या व्यापारी बनने का सपना देखते थे | ख़ासकर गर्मियों की छुट्टियों में तो सुबह से शाम तक कई-कई बेच चलते थे | एक साथ इतने बच्चों को सिखाना मुरारी के लिए मुश्किल था सो उसने गोविंदा को भी जबरन अपने साथ उसी दुकान के कामकाज में शामिल कर लिया था हालांकि गोविंदा को इस काम से सख्त चिढ़ थी | वह अपने पुस्तैनी कस्बे से निकलकर किसी बड़े शहर में बसना चाहता था पर मुरारी ने उसकी मंशा पहले ही भाँप ली थी । कहते हैं न मस्ताते सांड को जकड़ना हो तो खूँटे से बाँध देना चाहिए, सो मुरारी ने ग्यारवीं पास करते ही गोविंदा का ब्याह करवा दिया था | घर-गृहस्थी की रस्साकशी और जवान बीबी के मोहपाश में जकड़ा गोविंदा अपने सपनों को भूलकर पेट की अग्नि को शांत करने की जुगत में जुट गया था | मुरारी का प्लान काम कर गया था । गोविंदा दुकान पर टाइपिंग सिखाने में मुरारी की मदद करने लग गया था | हालांकि माँग बढ़ने के साथ पूर्ती भी बढ़ने लगती है उसी तर्ज़ पर मोहल्ले में टाइप राइटिंग सिखाने की कई सारी और दुकाने खुल चुकी थीं । वैसे भी मुरारी और गोविंदा की दूकान पर पड़े पुराने टाइप रायटरों की स्थिति देखकर छात्र नई दुकानों का रुख करने लगे थे | ऐसे में दोनों भाई किसी तरह गुज़ारे भर की आमदनी कमा ही लिया करते थे किन्तु बढती महँगाई में परिवार के सदस्यों की सभी आवश्यकताएँ पूरी करते-करते दोनों भाइयों में भी खींचातानी होने लगी थी जो कभी-कभार खुलकर सामने भी आने लगी थी | बदलते हालातों में दोनों भाई दुकान-मकान और संपत्ति के बँटवारे की बातें भी सोचने लगे थे | इस कशमकश के बीच दोनों भाइयों को अपनी माँ की याद महीने की अंतिम तिथि पर तो जरूर आ ही जाती थी |
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