द्वंद (अध्याय एक) Krishna Chaturvedi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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द्वंद (अध्याय एक)




युद्ध के मैदान में मै खड़ा चारो तरफ कोलाहल से भरा माहौल था। धाय धाय गोलिया चल रही थी ,गोले बारूद चल रहे थे। दुश्मन की गोली चारो तरफ से आ रही दाए से बाए से आगे से ऊपर से।मेरा कप्तान मेरे पर बरस रहा था गोली चला, बुत क्यों बना खड़ा है,मर जाएगा तू।चारो तरफ भारी उपद्रव हो रहा था। मै फिर भी सन्न खड़ा था वहा।

मै खड़ा बीचों बीच युद्ध के मैदान में अपने ही द्वंद में फसा पड़ा था।सामने दो महापुरुष खड़े थे।एक बोल रहा था लड़ क्योंकि लड़ना ही तेरा धर्म है।याद रख तू नहीं लड़ेगा तो कोई और लड़ेगा पर फिर तू नरक में जाएगा।तेरी पुस्ते तुझे धिक्कार देंगी। तू कायरो के श्रेडी में आयेगा।याद है अर्जुन ने भी कुछ ऐसा ही किया था पर फिर बाद में मेरे उपदेश के बाद लड़ा, क्योंकी लड़ना ही वास्तव में तुम्हारा धर्म है।

फिर दूसरे महापुरुष कहते है मानवता मारने में नहीं क्षमा करने में है।वो महान कहलाता है जो दूसरो को क्षमा करता है,युद्ध के मैदान में भी दुश्मन को गले लगा लेता है।तुम्हे याद है ना उंगलिमाल जैसे भयंकर दानव को भी मैंने क्षमा भाव से जीत लिया था,बदल दिया था।किसी को मारने वाला कहीं नहीं पहुंचता वो अपने ही नजरो में गिरता है।वो भी याद करो जब उस रानी ने मेरे और मेरी साथ खड़े लोगो को कितना परेशान किया था,पर मैंने क्षमा का मार्ग अपनाया और अंततोगत्वा उसे हार माननी पड़ी,पछतावा करना पड़ा।कीचड़ से कीचड़ कभी साफ होता है? हिंसा से हिंसा मिटती है क्या?

मै अभी भी युद्ध मैदान में ही खड़ा था। गोलियों की मात्रा और बढ़ गई थी।नहीं पता मुझे अभी तक कोई गोली छू के भी क्यों नहीं निकली।लोग मर रहे थे,चारो तरफ जमीन लहूलुहान हुई जा रही थी।कुछ हमारे साथी मर रहे थे कुछ दुश्मन के,पर मौत एक एक कर के सबको चूम रही थी।सब अपने सामने खड़े दुश्मन के गोलाबारी से लड़ रहे थे और मै अपने ही अंदर के द्वंद से।मेरे अंदर का ही कोतूहल इतना तेज होता जा रहा था कि बाहर का कुछ सुनाई नहीं आ रहा था।


फिर एकाएक मै मैदान से भाग निकला,हथियार वही फेक दिए।भागते भागते बीच में एक गोली पाव में लगी,पर मै रुका नहीं और भागता रहा।ठीक सामने एक पहाड़ था।मै उसी ओर भागा पूरे जोर लगा कर।अब मुझे बस एक ही चीज दिख रही थी और वो थी सही क्या था लड़ना या क्षमा करना?

पहाड़ पर चढ़ना भी उस युद्ध से कम नहीं था।बहुत परिश्रम के बाद ऊपर पहुंचा।चारो तरफ घना जंगल और अंधकार पसरा था।कहीं कोई नहीं दिख रहा था।दूर से गोलियों की आवाजे आ रही थी।

"क्यों सब जंगल आते है ज्ञान प्राप्ति के लिए यहां तो बस अंधकार है और जीवन को जीने की लड़ाई।कहीं ऐसा ना हो मै भगोड़ा भी घोषित हो जाऊ और ज्ञान भी ना मिले"।

दूर कहीं फिर मुझे एक छोटा सा प्रकाश टिमटिमाता हुआ दिखाई दिया।बहुत हल्का सा प्रकाश एक कोने से।

"लगता है वहा कोई है जो मेरी मदद करेगा।चलकर उससे ही पुछते है।"

मै आगे उस प्रकाश की लकीर पकड़ कर चल पड़ा।जैसे जैसे बढ़ रहा था प्रकाश की तेज भी बढ़ रही थी।ऐसा लग रहा था कि वही मेरी आशा की किरण है।मै और तेजी से चलने लगा और लगभग पांच सौ मीटर ऊपर चढ़ने के बाद एक छोटी कुटिया के सामने पहुंचा।कुटिया के प्रवेश द्वार पर कोई फाटक नहीं था पर गजब की तेज अंदर से आ रही थी।ऐसा लग रहा था कि खुद सूरज देव अंदर बैठे हो।मैंने धीरे से दरवाजे पर दस्तक दी।

"कोई है क्या?"

अंदर से कोई आवाज नहीं आयी।मैंने फिर एक बार थोड़ा जोर से पूछा

"कोई अंदर है क्या?"

इस बार फिर कोई आवाज नहीं आई।मै थोड़ी देर वहीं खड़ा रहा चुप फिर अंदर जाकर देखने का निर्णय लिया।
कुटिया ज्यादा बड़ी नहीं थी।अंदर गया तो देखा कि एक छोटी सी मदिर नुमा कमरा है जिसके अंदर से प्रकाश आ रही थी।मै धीरे धीरे सावधानी से अंदर बढ़ा और उस कमरे  कें ठीक दरवाजे के सामने खड़ा हो गया।

"अंदर कोई है क्या?"
कोई आवाज नहीं आईं इस बार भी।
मैंने इंतजार किया एक मिनट फिर अंदर जा कर देखना उचित समझा।जैसे ही अंदर पहुंचा तो देखकर आंखे फट गई।एक पल के लिए लगा जमीन खिसक गई और मेरे आंखों के आगे अंधेरा छा गया।बड़ी मुश्किल में अपने आप को संभाला।उस कमरे में कोई दीपक नहीं था ना ही कोई आदमी या औरत।कोई चमकने वाली चीज भी नहीं थी।एक खाली कमरा था और ना खतम होने वाला सन्नाटा।चारो तरफ ऐसी शांति जैसे कुछ है ही नहीं।बाहर की आवाजे आ रही थी रह रह कर,वो आवाजे जो बाहर हो रही थी,युद्ध में गोला बारूद की आवाजे,लोगो के चीखने की आवाजे,कप्तान का उसके सैनिकों पर चिल्लाने की आवाजे,और भी बहुत सारी आवाजे।पर अंदर एक दम सन्नाटा,एक दम शांति।कौन सी जगह थी वो,किसने बनाया था वो और क्यों?वो प्रकाश कहा से आ रहा था?मै खड़े खड़े सोचने लगा।

वहा मै अपने सवालों का जवाब दुंढने गया था पर एक नया सवाल मिल गया।एक नई गुत्थी मिल गई सुलझाने को।



जारी है अगले अध्याय में....…..............…............।