बदहशहत का ख़ात्मा
टेलीफ़ोन की घंटी बिजी। मनमोहन पास ही बैठा था। उस ने रीसीवर उठाया और कहा “हेलो....... फ़ौर फ़ौर फ़ौर फाईव सेवन”
दूसरी तरफ़ से पतली सी निस्वानी आवाज़ आई। “सोरी....... रोंग नंबर”
मनमोहन ने रीसीवर रख दिया और किताब पढ़ने में मशग़ूल होगया।
ये किताब वो तक़रीबन बीस मर्तबा पढ़ चुका था। इस लिए नहीं कि इस में कोई ख़ास बात थी। दफ़्तर में जो वीरान पड़ा था। एक सिर्फ़ यही किताब थी जिस के आख़िरी औराक़ करम ख़ूर्दा थे।
एक हफ़्ते से दफ़्तर मनमोहन की तहवील में था क्योंकि इस का मालिक जो कि उस का दोस्त था। कुछ रुपया क़र्ज़ लेने के लिए कहीं बाहर गया हो था। मनमोहन के पास चूंकि रहने के लिए कोई जगह नहीं थी। इस लिए फुटपाथ से आरिज़ी तौर पर वो इस दफ़्तर में मुंतक़िल होगया था। और इस एक हफ़्ते में वो दफ़्तर की इकलौती किताब तक़रीबन बीस मर्तबा पढ़ चुका था।
दफ़्तर में वो अकेला पड़ा रहता। नौकरी से उसे नफ़रत थी। अगर वो चाहता तो किसी भी फ़िल्म कंपनी में बतौर फ़िल्म डायरेक्टर के मुलाज़िम हो सकता था। मगर वो गु़लामी नहीं चाहता था। निहायत ही बेज़रर और मुख़लिस आदमी था। इस लिए दोस्त यार उसके रोज़ाना अख़राजात का बंद-ओ-बस्त करदेते थे। ये अख़राजात बहुत ही कम थे। सुबह को चाय की प्याली और दो तोस। दोपहर को दो फुल्के और थोड़ा सा सालन सारे दिन में एक पैकेट सिगरेट और बस!
मनमोहन का कोई अज़ीज़ या रिश्तेदार नहीं था। बेहद ख़ामोशी पसंद था। जफ़ाकश था। कई कई दिन फ़ाक़े से रह सकता था। इस के मुतअल्लिक़ उसके दोस्त और तो कुछ नहीं लेकिन इतना जानते थे कि वो बचपन ही से घर छोड़ छाड़ के निकल आया था और एक मुद्दत से बंबई के फुटपाथों पर आबाद था। ज़िंदगी में सिर्फ़ उस को एक चीज़ की हसरत थी औरत की मोहब्बत की। “अगर मुझे किसी औरत की मोहब्बत मिल गई तो मेरी सारी ज़िंदगी बदल जाएगी।”
दोस्त इस से कहते। “तुम काम फिर भी न करोगे।”
मनमोहन आह भर कर जवाब देता। “काम?....... मैं मुजस्सम काम बन जाऊंगा।”
दोस्त उस से कहते “तो शुरू कर दो किसी से इश्क़”
मनमोहन जवाब देता। “नहीं....... मैं ऐसे इश्क़ का क़ाइल नहीं जो मर्द की तरफ़ से शुरू हो।”
दोपहर के खाने का वक़्त क़रीब आरहा था। मनमोहन ने सामने दीवार पर क्लाक की तरफ़ देखा। टेलीफ़ोन की घंटी बजना शुरू हुई। उस ने रीसीवर उठाया और “कहा हेलो....... फ़ौरफ़ौर फ़ौर फाईव सेवन।”
दूसरी तरफ़ से पतली सी आवाज़ आई “फ़ौर फ़ौर फ़ौर फाईव सेवन?”
मनमोहन ने जवाब दिया। “जी हाँ!”
निस्वानी आवाज़ ने पूछा। “आप कौन हैं?”
“मनमोहन !....... फ़रमाईए!”
दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई तो मनमोहन ने कहा। “फ़रमाईए किस से बात करना चाहती हैं आप?”
आवाज़ ने जवाब दिया। “आप से!”
मनमोहन ने ज़रा हैरत से पूछा। “मुझ से?”
“जी हाँ....... आप से क्या आप को कोई एतराज़ है।”
मनमोहन सटपटा सा गया। “जी?....... जी नहीं!”
आवाज़ मुस्कुराई “आप ने अपना नाम मदनमोहन बताया था।”
“जी नहीं....... मनमोहन”
“मनमोहन?”
चंद लमहात ख़ामोशी में गुज़र गए तो मनमोहन ने कहा “आप बातें करना चाहती थीं मुझ से?”
आवाज़ आई “जी हाँ”
“तो कीजीए!”
थोड़े वक़फ़े के बाद आवाज़ आई। “समझ में नहीं आता क्या बात करूं....... आप ही शुरू कीजीए न कोई बात।”
“बहुत बेहतर” ये कह कर मनमोहन ने थोड़ी देर सोचा “नाम अपना बता चुका हूँ। आरिज़ी तौर पर ठिकाना मेरा ये दफ़्तर है....... पहले फुटपाथ पर सोता था। अब एक हफ़्ता से इस दफ़्तर के बड़े मेज़ पर सोता हूँ।”
आवाज़ मुस्कुराई “फुटपाथ पर आप मसहरी लगा कर सोते थे?”
मनमोहन हंसा “इस से पहले कि मैं आप से मज़ीद गुफ़्तगु करूं। मैं ये बात वाज़ेह करदेना चाहता हूँ कि मैंने कभी झूट नहीं बोला। फुटपाथों पर सोते मुझे एक ज़माना होगया है ये दफ़्तर तक़रीबन एक हफ़्ते से मेरे क़बज़े में है। आजकल ऐश कर रहा हूँ।”
आवाज़ मुस्कुराई। “कैसे ऐश?”
मनमोहन ने जवाब दिया। “एक किताब मिल गई थी यहां से....... आख़िरी औराक़ गुम हैं लेकिन में इसे बीस मर्तबा पढ़ चुका हूँ....... सालिम किताब कभी हाथ लगी तो मालूम होगा हीरो हीरोइन के इश्क़ का अंजाम क्या हुआ।”
आवाज़ हंसी। “आप बड़े दिलचस्प आदमी हैं।”
मनमोहन ने तकल्लुफ़ से कहा। “आप की ज़र्रा नवाज़ी है।”
आवाज़ ने थोड़े तवक्कुफ़ के बाद पूछा। “आप का शग़ल क्या है?”
“शग़ल?”
“मेरा मतलब है आप करते क्या हैं?”
“क्या करता हूँ?....... कुछ भी नहीं। एक बेकार इंसान क्या कर सकता है। सारी दिन आवारागर्दी करता हूँ। रात को सो जाता हूँ।”
आवाज़ ने पूछा। “ये ज़िंदगी आप को अच्छी लगती है।”
मनमोहन सोचने लगा। “ठहरिए....... बात दरअसल ये है कि मैंने इस पर कभी ग़ौर ही नहीं किया। अब आप ने पूछा है तो मैं अपने आप से पूछ रहा हूँ कि ये ज़िंदगी तुम्हें अच्छी लगती है या नहीं?”
“कोई जवाब मिला?”
थोड़े वक़फ़े के बाद मनमोहन ने जवाब दिया। “जी नहीं....... लेकिन मेरा ख़्याल है कि ऐसी ज़िंदगी मुझे अच्छी लगती ही होगी। जब कि एक अर्से से बसर कर रहा हूँ।”
आवाज़ हंसी। मनमोहन ने कहा। “आप की हंसी बड़ी मुतरन्निम है।”
आवाज़ शर्मा गई। “शुक्रिया!” और सिलसिल-ए-गुफ़्तुगू मुनक़ते कर दिया।
मनमोहन थोड़ी देर रीसीवर हाथ में लिए खड़ा रहा। फिर मुस्कुरा कर उसे रख दिया और दफ़्तर बंद करके चला गया।
दूसरे रोज़ सुबह आठ बजे जब कि मनमोहन दफ़्तर के बड़े मेज़ पर सो रहा था। टेलीफ़ोन की घंटी बजना शुरू हुई। जमाईयाँ लेते हुए उस ने रीसीवर उठाया और कहा।
“हलो फ़ोर फ़ोर फ़ोर फाईव सेवन।”
दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई। “आदाब अर्ज़ मनमोहन साहब!”
“आदाब अर्ज़!” मनमोहन एक दम चौंका। “ओह, आप....... आदाब अर्ज़।”
“तस्लीमात!”
आवाज़ आई। “आप ग़ालिबन सो रहे थे?”
“जी हाँ....... यहां आकर मेरी आदात कुछ बिगड़ रही हैं। वापस फुटपाथ पर गया तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी।”
आवाज़ मुस्कुराई। “क्यों”
“वहां सुबह पाँच बजे से पहले पहले उठना पड़ता है।”
आवाज़ हंसी मनमोहन ने पूछा। “कल आप ने एक दम टेलीफ़ोन बंद कर दिया।”
आवाज़ शर्माई। “आप ने मेरी हंसी की तारीफ़ क्यों की थी।”
मनमोहन ने कहा “लो साहब, ये भी अजीब बात कही आप ने....... कोई चीज़ जो ख़ूबसूरत हो तो उसकी तारीफ़ नहीं करनी चाहिए?”
“बिलकुल नहीं!”
“ये शर्त आप मुझ पर आइद नहीं कर सकतीं....... मैंने आज तक कोई शर्त अपने ऊपर आइद नहीं होने दी। आप हंसेंगी तो मैं ज़रूर तारीफ़ करूंगा।”
“मैं टेलीफ़ोन बंद कर दूँगी।”
“बड़े शौक़ से।”
“आप को मेरी नाराज़गी का कोई ख़्याल नहीं।”
“मैं सब से पहले अपने आप को नाराज़ नहीं करना चाहता....... अगर मैं आप की हंसी की तारीफ़ न करूं तो मेरा ज़ौक़ मुझ से नाराज़ हो जाएगा....... ये ज़ौक़ मुझे बहुत अज़ीज़ है!”
थोड़ी देर ख़ामोशी रही। इस के बाद दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई। “माफ़ कीजीएगा, मैं मुलाज़िमा से कुछ कह रही थी....... आप का ज़ौक़ आप को बहुत अज़ीज़ है....... हाँ ये तो बताईए आप को शौक़ किस चीज़ का है?”
“क्या मतलब?”
“यानी....... कोई शगल....... कोई काम....... मेरा मतलब है आप को आता क्या है?”
मनमोहन हंसा “कोई काम नहीं आता....... फोटोग्राफी का थोड़ा सा शौक़ है।”
“ये बहुत अच्छा शौक़ है।”
“इस की अच्छाई या बुराई का मैंने कभी नहीं सोचा।”
आवाज़ ने पूछा। “कैमरा तो आप के पास बहुत अच्छा होगा?”
मनमोहन हंसा। “मेरे पास अपना कोई कैमरा नहीं। दोस्त से मांग कर शौक़ पूरा कर लेता हूँ। अगर मैंने कभी कुछ कमाया तो एक कैमरा मेरी नज़र में है। वो खरीदोंगा।”
आवाज़ ने पूछा। “कौन सा कैमरा?”
मनमोहन ने जवाब दिया “एगज़कटा। रेफ़लेक्स कैमरा है। मुझे बहुत पसंद है।”
थोड़ी देर ख़ामोशी रही। इस के बाद आवाज़ आई। “मैं कुछ सोच रही थी।”
“क्या?”
“आप ने मेरा नाम पूछा ना टेलीफ़ोन नंबर दरयाफ़्त किया।”
“मुझे इस की ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई?”
“क्यों?”
“नाम आप का कुछ भी हो क्या फ़र्क़ पड़ता है....... आप को मेरा नंबर मालूम है बस ठीक है....... आप अगर चाहेंगी तो में आप को टेलीफ़ोन करूं तो नाम और नंबर बता दीजीएगा।”
“मैं नहीं बताऊंगी।”
“लो साहब ये भी ख़ूब रहा....... मैं जब आप से पूछूंगा ही नहीं तो बताने न बताने का सवाल ही कहाँ पैदा होता है।”
आवाज़ मुस्कुराई। “आप अजीब-ओ-ग़रीब आदमी हैं।”
मनमोहन मुस्कुरा दिया। “जी हाँ कुछ ऐसा ही आदमी हूँ।”
चंद सैकिण्ड ख़ामोशी रही। “आप फिर सोचने लगीं।”
“जी हाँ, कोई और बात इस वक़्त सूझ नहीं रही थी।”
“तो टेलीफ़ोन बंद करदीजीए....... फिर सही।”
आवाज़ किसी क़दर तीखी होगई। “आप बहुत रूखे आदमी हैं....... टेलीफ़ोन बंद करदीजीए। लीजीए में बंद करती हूँ।”
मनमोहन ने रीसीवर रख दिया और मुस्कराने लगा।
आधे घंटे के बाद जब मनमोहन हाथ धो कर कपड़े पहन कर बाहर निकलने के लिए तैय्यार हुआ तो टेलीफ़ोन की घंटी बजी । उस ने रीसीवर उठाया और कहा। “फ़ोर फ़ोर फ़ोर फाईव सेवन!”
आवाज़ आई। “मिस्टर मनमोहन?”
मनमोहन ने जवाब दिया। “जी हाँ मनमोहन। इरशाद?”
आवाज़ मुस्कुराई। “इरशाद ये है कि मेरी नाराज़गी दूर होगई है।”
मनमोहन ने बड़ी शगुफ़्तगी से कहा। “मुझे बड़ी ख़ुशी हुई है।”
“नाश्ता करते हुए मुझे ख़्याल आया कि आप के साथ बिगाड़नी नहीं चाहिए....... हाँ आप ने नाश्ता कर लिया।”
“जी नहीं बाहर निकलने ही वाला था कि आप ने टेलीफ़ोन किया।”
“ओह....... तो आप जाईए।”
“जी नहीं, मुझे कोई जल्दी नहीं, मेरे पास आज पैसे नहीं हैं। इस लिए मेरा ख़्याल है कि आज नाश्ता नहीं होगा।”
“आप की बातें सुन कर....... आप ऐसी बातें क्यों करते हैं....... मेरा मतलब है ऐसी बातें आप इस लिए करते हैं कि आप को दुख होता है?”
मनमोहन ने एक लम्हा सोचा “जी नहीं....... मेरा अगर कोई दुख दर्द है तो मैं इस का आदी हो चुका हूँ।”
आवाज़ ने पूछा। “मैं कुछ रुपय आप को भेज दूं?”
मनमोहन ने जवाब दिया। “भेज दीजीए। मेरे फ़नानसरों में एक आप का भी इज़ाफ़ा हो जाएगा!”
“नहीं मैं नहीं भेजूंगी!”
“आप की मर्ज़ी!”
“मैं टेलीफ़ोन बंद करती हूँ।”
“बेहतर”
मनमोहन ने रीसीवर रख दिया और मुस्कुराता हुआ दफ़्तर से निकल गया। रात को दस बजे के क़रीब वापस आया और कपड़े बदल कर मेज़ पर लेट कर सोचने लगा कि ये कौन है जो उसे फ़ोन करती है आवाज़ से सिर्फ़ इतना पता चलता था कि जवान है। हंसी बहुत ही मुतरन्निम थी। गुफ़्तगु से ये साफ़ ज़ाहिर है कि तालीम याफ़्ता और मोहज़्ज़ब है। बहुत देर तक वो उस के मुतअल्लिक़ सोचता रहा। इधर क्लाक ने ग्यारह बजाय उधर टेलीफ़ोन की घंटी बजी। मनमोहन ने रीसीवर उठाया। “हलो।”
दूसरी तरफ़ से वही आवाज़ आई। “मिस्टर मनमोहन।”
“जी हाँ....... मनमोहन ....... इरशाद।”
“इरशाद ये है कि मैंने आज दिन में कई मर्तबा रिंग किया। आप कहाँ ग़ायब थे?”
“साहब बेकार हूँ, लेकिन फिर भी काम पर जाता हूँ।”
“किस काम पर”
“आवारागर्दी”
“वापस कब आए?”
“दस बजे”
“अब क्या कर रहे थे?”
“मेज़ पर लेटा आप की आवाज़ से आप की तस्वीर बना रहा था”
“बनी?”
“जी नहीं”
“बनाने की कोशिश न कीजीए....... मैं बड़ी बदसूरत हूँ।”
“माफ़ कीजीएगा, अगर आप वाक़ई बदसूरत हैं तो टेलीफ़ोन बंद कर दीजीए, बदसूरती से मुझे नफ़रत है।”
आवाज़ मुस्कुराई “ऐसा है तो चलीए मैं ख़ूबसूरत हूँ, मैं आप के दिल में नफ़रत नहीं पैदा करना चाहती।”
थोड़ी देर ख़ामोशी रही। मनमोहन ने पूछा “कुछ सोचने लगीं?”
आवाज़ चोंकि “जी नहीं....... मैं आप से पूछने वाली थी कि....... ”
“सोच लीजीए अच्छी तरह”
आवाज़ हंस पड़ी। “आप को गाना सुनाऊं?”
“ज़रूर”
“ठहरिए”
गला साफ़ करने की आवाज़ आई। फिर ग़ालिब की ये ग़ज़ल शुरू हुई
“नुक्ता चीं है ग़म-ए-दिल....... ”
सहगल वाली नई धन थी। आवाज़ में दर्द और ख़ुलूस था। जब ग़ज़ल ख़त्म हुई तो मनमोहन ने दाद दी। “बहुत ख़ूब....... ज़िंदा रहो।”
आवाज़ शर्मा गई। “शुक्रिया और टेलीफ़ोन बंद कर दिया।”
दफ़्तर के बड़े मेज़ पर मनमोहन के दिल-ओ-दिमाग़ में सारी रात ग़ालिब की ग़ज़ल गूंजती रही। सुबह जल्दी उठा और टेलीफ़ोन का इंतिज़ार करने लगे। तक़रीबन ढाई घंटे कुर्सी पर बैठा रहा मगर टेलीफ़ोन की घंटी न बजी। जब मायूस हो गया तो एक अजीब सी तल्ख़ी उस ने अपने हलक़ में महसूस की उठ कर टहलने लगा। इस के बाद मेज़ पर लेट गया और कुढ़ने लगा। वही किताब जिस को वो मुतअद्दिद मर्तबा पढ़ चुका था उठाई और वर्क़ गरदानी शुरू करदी। यूंही लेटे लेटे शाम होगई। तक़रीबन सात बजे टेलीफ़ोन की घंटी बजी। मनमोहन ने रीसीवर उठाया और तेज़ी से पूछा “कौन है?”
वही आवाज़ आई “में!”
मनमोहन का लहजा तेज़ रहा “इतनी देर तुम कहाँ थीं”
आवाज़ लरज़ी “क्यों?”
“मैं सुबह से यहां झक मार रहा हूँ....... नाश्ता किया है न दोपहर का खाना खाया है हालाँकि मेरे पास पैसे मौजूद थे।”
आवाज़ आई “मेरी जब मर्ज़ी होगी टेलीफ़ोन करूंगी....... आप....... ”
मनमोहन ने बात काट कर कहा। “देखो जी ये सिलसिला बंद करो। टेलीफ़ोन करना है तो एक वक़्त मुक़र्रर करो। मुझ से इंतिज़ार बर्दाश्त नहीं होता।
आवाज़ मुस्कुराई। “आज की माफ़ी चाहती हूँ। कल से बाक़ायदा सुबह और शाम फ़ोन आया करेगा आप को
ये ठीक है!”
आवाज़ हंसी “मुझे मालूम नहीं था आप इस क़दर बिगड़े दिल हैं।”
मनमोहन मुस्कुराया। “माफ़ करना। इंतिज़ार से मुझे बहुत कोफ़्त होती है और जब मुझे किसी बात से कोफ़्त होती है तो अपने आप को सज़ा देना शुरू करदेता हूँ।”
“वो कैसे?”
“सुबह तुम्हारा टेलीफ़ोन न आया.......चाहिए तो ये था कि में चला जाता....... लेकिन बैठा दिन भर अंदर ही अंदर कुढ़ता रहा। बचपना है साफ़।”
आवाज़ हमदर्दी में डूब गई “काश मुझ से ये ग़लती न होती....... मैंने क़सदन सुबह टेलीफ़ोन ना क्या!”
“क्यों?”
“ये मालूम करने के लिए आप इंतिज़ार करेंगे या नहीं?”
मनमोहन हिंसा। “बहुत शरीर हो तुम....... अच्छा अब टेलीफ़ोन बंद करो। मैं खाना खाने जा रहा हूँ।”
“बेहतर कब तक लोटीएगा?”
“आधे घंटे तक”
मनमोहन आधे घंटे के बाद खाना खा कर लौटा तो उस ने फ़ोन किया। देर तक दोनों बातें करते रहे। इस के बाद उस ने ग़ालिब की एक ग़ज़ल सुनाई। मनमोहन ने दिल से दाद दी। फिर टेलीफ़ोन का सिलसिला मुनक़ते होगया।
अब हर रोज़ सुबह और शाम मनमोहन को उस का टेलीफ़ोन आता। घंटी की आवाज़ सुनते ही वो टेलीफ़ोन की तरफ़ लपका। बाअज़ औक़ात घंटों बातें जारी रहतीं। इस दौरान में मनमोहन ने उस से टेलीफ़ोन का नंबर पूछा न उस का नाम शुरू शुरू में उस ने उस की आवाज़ की मदद से तख़य्युल के पर्दे पर उस की तस्वीर खींचने की कोशिश की थी। मगर अब वो जैसे आवाज़ ही से मुतमइन होगया था। आवाज़ ही शक्ल थी। आवाज़ ही सूरत थी। आवाज़ ही जिस्म था। आवाज़ ही रूह थी।
एक दिन उस ने पूछा। “मोहन। तुम मेरा नाम क्यों नहीं पूछते?”
मनमोहन ने मुस्कुरा कर कहा। “तुम्हारा नाम तुम्हारी आवाज़ है।”
“जो कि बहुत मुतरन्निम है।”
“इस में क्या शक है?”
एक दिन वो बड़ा टेढ़ा सवाल कर बैठी। “मोहन तुम ने कभी किसी लड़की से मोहब्बत की है?”
मनमोहन ने जवाब दिया। “नहीं”
“क्यों?”
मोहन एक दम उदास होगया “इस क्यों का जवाब चंद लफ़्ज़ों में नहीं दे सकता। मुझे अपनी ज़िंदगी का सारा मलबा उठाना पड़ेगा....... अगर कोई जवाब न मिले तो बड़ी कोफ़्त होगी।”
“जाने दीजीए।”
टेलीफ़ोन का रिश्ता क़ायम हुए तक़रीबन एक महीना होगया। बिलानागा दिन में दो मर्तबा उस का फ़ोन आता। मनमोहन को अपने दोस्त का ख़त आया कि कर्जे़ का बंद-ओ-बस्त होगया है। सात आठ रोज़ में वो बंबई पहुंचने वाला है। मनमोहन ये ख़त पढ़ कर अफ़्सुर्दा हो गया। उस का टेलीफ़ोन आया तो मनमोहन ने उस से कहा मेरी दफ़्तर की बादशाही अब चंद दिनों की मेहमान है।
इस ने पूछा। “क्यों?”
मनमोहन ने जवाब दिया। “कर्जे़ का बंद-ओ-बस्त होगया है....... दफ़्तर आबाद होने वाला है।”
“तुम्हारे किसी और दोस्त के घर में टेलीफ़ोन नहीं।”
“कई दोस्त हैं जिन के टेलीफ़ोन हैं। मगर मैं तुम्हें उन का नंबर नहीं दे सकता।”
“क्यों?”
“मैं नहीं चाहता तुम्हारी आवाज़ कोई और सुने।”
“वजह?”
“मैं बहुत हासिद हूँ।”
वो मुस्कुराई। “ये तो बड़ी मुसीबत हुई।”
“क्या किया जाये?”
आख़िरी दिन जब तुम्हारी बादशाहत ख़त्म होने वाली होगी। “मैं तुम्हें अपना नंबर दूंगी।”
“ये ठीक है!”
मनमोहन की सारी अफ़्सुर्दगी दूर होगई। वो उस दिन का इंतिज़ार करने लगा कि दफ़्तर में उसकी बादशाहत ख़त्म हो। अब फिर उस ने उसकी आवाज़ की मदद से अपने तख़य्युल के पर्दे पर उस की तस्वीर खींचने की कोशिश शुरू की। कई तस्वीरें बनीं मगर वो मुतमइन न हुआ। उस ने सोचा चंद दिनों की बात है। उस ने टेलीफ़ोन नंबर बता दिया तो वो उसे देख भी सकेगा। इस का ख़्याल आते ही उस का दिल-ओ-दिमाग़ सुन होजाता। “मेरी ज़िंदगी का वो लम्हा कितना बड़ा लम्हा होगा जब मैं उसको देखूंगा।”
दूसरे रोज़ जब उस का टेलीफ़ोन आया तो मनमोहन ने उस से कहा। “तुम्हें देखने का इश्तियाक़ पैदा होगया है।”
“क्यों?”
“तुम ने कहा था कि आख़िरी दिन जब यहां मेरी बादशाहत ख़त्म होने वाली होगी तो तुम मुझे अपना नंबर बता दोगी।”
“कहा था”
“इस का ये मतलब है तुम मुझे अपना ऐडरैस देदोगी....... मैं तुम्हें देख सकूँगा।”
“तुम मुझे जब चाहो देख सकते हो....... आज ही देख लो।”
“नहीं नहीं....... ” फिर कुछ सोच कर कहा। “मैं ज़रा अच्छे लिबास में तुम से मिलना चाहता हूँ....... आज ही एक दोस्त से कह रहा हूँ। वो मुझे सूट दिलवा देगा।”
वो हंस पड़ी। “बिलकुल बच्चे हो तुम... सुनो। जब तुम मुझ से मिलोगे तो मैं तुम्हें एक तोहफ़ा दूंगी।”
मनमोहन ने जज़्बाती अंदाज़ में कहा “तुम्हारी मुलाक़ात से बढ़ कर और क्या तोहफ़ा हो सकता है?”
“मैंने तुम्हारे लिए एगज़कटा कैमरा ख़रीद लिया है।”
“ओह!”
“इस शर्त पर दूंगी कि पहले मेरा फ़ोटो उतारो।”
मनमोहन मुस्कुराया। “इस शर्त का फ़ैसला मुलाक़ात पर करूंगा।”
थोड़ी देर और गुफ़्तगु हुई इस के बाद उधर से वो बोली “मैं कल और परसों तुम्हें टेलीफ़ोन नहीं कर सकूंगी।”
मनमोहन ने तशवीश भरे लहजे में पूछा। “क्यों?”
“मैं अपने अज़ीज़ों के साथ कहीं बाहर जा रही हूँ। सिर्फ़ दो दिन ग़ैर हाज़िर रहूंगी। मुझे माफ़ करदेना।”
ये सुनने के बाद मनमोहन सारा दिन दफ़्तर ही में रहा। दूसरे दिन सुबह उठा तो उस ने हरारत महसूस की। सोचा कि ये इज़मिहलाल शायद इस लिए है कि उस का टेलीफ़ोन नहीं आएगा लेकिन दोपहर तक हरारत तेज़ होगई। बदन तपने लगा। आँखों से शरारे फूटने लगे। मनमोहन मेज़ पर लेट गया। प्यास बार बार सताती थी। उठता और नल से मुँह लगा कर पानी पीता। शाम के क़रीब उसे अपने सीने पर बोझ महसूस होने लगा। दूसरे रोज़ वो बिलकुल निढाल था। सांस बड़ी दिक़्क़त से आता था। सीने की दुखन बहुत बढ़ गई थी।
कई बार उस पर हिज़यानी कैफ़ीयत तारी हुई। बुख़ार की शिद्दत में वो घंटों टेलीफ़ोन पर अपनी महबूब आवाज़ के साथ बातें करता रहा। शाम को उसकी हालत बहुत ज़्यादा बिगड़ गई। धुंद लाई हुई आँखों से उस ने क्लाक की तरफ़ देखा, उस के कानों में अजीब-ओ-ग़रीब आवाज़ें गूंज रही थीं। जैसे हज़ार हा टेलीफ़ोन बोल रहे हैं सीने में घुंघरू बज रहे थे। चारों तरफ़ आवाज़ें ही आवाज़ें थीं। चुनांचे जब टेलीफ़ोन की घंटी बजी तो उस के कानों तक उस की आवाज़ ना पहुंची। बहुत देर तक घंटी बजती रही। एक दम मनमोहन चौंका। उस के कान अब सुन रहे थे। लड़खड़ाता हुआ उठा और टेलीफ़ोन तक गया। दीवार का सहारा ले कर उस ने काँपते हुए हाथों से रीसीवर उठाया और ख़ुशक होंटों पर लड़की जैसी ज़बान फेर कर कहा। “हलो”
दूसरी तरफ़ से वो लड़की बोली। “हलो....... मोहन?”
मनमोहन की आवाज़ लड़खड़ाई। “हाँ मोहन!”
“ज़रा ऊंची बोलो....... ”
मनमोहन ने कुछ कहना चाहा। मगर वो उस के हलक़ ही में ख़ुशक होगया।
आवाज़ आई। “मैं जल्दी आगई....... बड़ी देर से तुम्हें रिंग कररही हूँ....... कहाँ थे तुम?”
मनमोहन का सर घूमने लगा।
आवाज़ आई क्या होगया है “तुम्हें?”
मनमोहन ने बड़ी मुश्किल से इतना कहा। “मेरी बादशाहत ख़त्म होगई है आज।”
उस के मुँह से ख़ून निकला और एक पतली लकीर की सूरत में गर्दन तक दौड़ता चला गया।
आवाज़ आई। “मेरा नंबर नोट करलो.......फाईव नोट थ्री वन फ़ौर, फ़ाओ नोट थ्री वन फ़ौर....... सुबह फ़ोन करना।” ये कह कर उस ने रीसीवर रख दिया। मनमोहन औंधे मुँह टेलीफ़ोन पर गिरा....... उसके मुँह से ख़ून के बुलबुले फूटने लगा।
14जून1950-ई-