हिम स्पर्श - 51 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हिम स्पर्श - 51

51

नींद से उठकर वफ़ाई द्वार पर खड़ी हो गई। बाहर अभी भी रात्रि का साम्राज्य था। सब कुछ शांत था, स्थिर था। रात्रि धीरे धीरे गति कर रही थी।

वफ़ाई ने झूले को देखा। जीत वहाँ बैठा था। “जीत सोया नहीं? अथवा जाग गया? ऐसा क्यों?” वफ़ाई मन ही मन बोली। वफ़ाई ने घड़ी देखि। रात्रि अधिक व्यतीत हो गई थी।

आधी से अधिक रात्रि बीत चुकी है किन्तु जीत जाग क्यों रहा है? वह कोई गहन चिंतन में है अथवा चिंता में? कुछ क्षण मैं जीत को देखती हूँ। समझ में तो आए कि बात क्या है?

वफ़ाई जीत को निहार रही थी उस बात से जीत अनभिज्ञ था।

गगन में चंद्र था किन्तु जीत गगन के किसी अंधेरे बिन्दु को देख रहा था। झूले का एक स्थान खाली था।

झूले का एक स्थान सदैव खाली ही रहता है। कभी दोनों स्थान भरे नहीं होते। जब भी मैं झूले पर बैठती हूँ जीत खड़ा रहता है। और जब वह झूले पर होता है उसने कभी मुझे साथ बैठने के लिए नहीं कहा।

वफ़ाई, तुमने भी तो कभी जीत के समीप बैठने का प्रयास नहीं किया ना ही पास बैठने के लिए जीत को आमंत्रित किया।

तूम ठीक कह रही हो। मैं अभी जा कर उस खाली स्थान पर बैठ जाती हूँ। किन्तु...।

किन्तु क्या?

मुझे संदेह है कि ऐसा करने पर जीत ...।

जीत उठ खड़ा हो जायेगा? अथवा यह भी हो कि...।

कि जीत को वह पसंद ना आए तो?

तो? तो क्या तुम जीत को खो दोगी?

हो सकता है, किन्तु मैं जीत को खोना नहीं चाहती। वह दूर रहे तो कोई बात नहीं किन्तु समीप जाने की लालसा में कहीं मैंने उसे खो दिया तो? नहीं वह दूर ही ठीक है। दूर से ही उसकी सुगंध आती रहे। मैं नहीं बैठूँगी झूले पर, जीत के समीप।

वफ़ाई, तुम सम्बन्धों का सम्मान करना जानती हो। दूर रहकर भी तुम प्रसन्न हो। किन्तु एक बात तो है, कि जब दो व्यक्ति हो, दोनों युवान हो, दोनों विजातीय हो, दोनों एक दूसरे के साथ प्रसन्न हो, झूले पर दो व्यक्तियों के लिए स्थान हो और झूले का एक स्थान सदैव खाली रहे। क्या यह विचित्र बात नहीं है?

हाँ, बात विचित्र तो है ही किन्तु मुझे चिंता है कि...।

तुम चिंता मत करो, तुम्हें कुछ नहीं खोना होगा। यदि जीत को तुम्हारे प्रति सम्मान होगा, कुछ स्नेह होगा, कोई भाव होगा तो वह ...।

मुझ में साहस नहीं है। मैं भीरु हूँ।

भीरु व्यक्ति कभी कोई यूध्ध नहीं जीतता।

यह यूध्ध नहीं है वफ़ाई।

यह स्नेह है, प्रिये। तुम प्रेम में हो वफ़ाई।

यह सत्य नहीं है।

भागो नहीं, स्वीकार करो। यह प्रेम है कोई पाप नहीं। अपनी ही ध्वनि को सुनो। उसे समझो तथा अनुसरण करो। यह ध्वनि वास्तविक है।

“नहीं, नहीं। मैं नहीं कर सकती, नहीं कर सकती।“ वफ़ाई चीख पड़ी। शांत एवं अंधेरी रात्रि में वफ़ाई के शब्द प्रतिध्वनित होने लगे। जीत ने उन शब्दों को सुना। उसने उस दिशा में देखा। वफ़ाई घर के द्वार पर खड़ी थी।

“वफ़ाई, तुम? इस समय?“ जीत ने प्रश्न किए।

वफ़ाई भी जीत के प्रश्नों से विचलित हो गई। उस की तंद्रा टूट गई।

जीत वफ़ाई को देखता ही रहा। वफ़ाई द्वार पर खड़ी थी। वह ना तो घर के अंदर थी ना ही घर से बाहर थी। वह रात्रि के वस्त्र में थी।

जीत ने वफ़ाई को इस वस्त्र में पहले कभी नहीं देखा था। रात्रि के समय वफ़ाई कक्ष में सोती थी और जीत झूले पर। जीत कभी भी रात्रि के समय वफ़ाई के कक्ष में नहीं गया। ना ही वफ़ाई रात्रि के समय घर से बाहर आती थी।

वफ़ाई ने पाजामा तथा टॉप पहना था। काला पाजामा ढीला था, किन्तु पाँव को पूरा ढँक रहा था। पाजामा में लाल फूल अंकित थे। टॉप गुलाबी था, जो लंबा था, पाजामा को थोड़ा ढंक रहा था। टॉप बिना बाजुओं के था। वफ़ाई के दोनों हाथ अनावृत थे। जीत ने वफ़ाई के खुल्ले हाथों को देखा। वह स्निग्ध थे, रेशमी थे, हिम की भांति श्वेत थे। उसकी कलाई पर घड़ी बंधी थी जिस के पास नारंगी रुमाल बंधा था।

वफ़ाई की खुली आँखों में निंद्रा थी। अधर आधे खुले थे, जैसे कुछ कहना चाहते हो। किन्तु शब्द अधरों के बीच कहीं अटक से गए थे। गालों पर गुलाबी आभा थी। उसके बाल खुले हुए थे तथा लटें गालों को तथा कानों को स्पर्श कर रही थी।

वफ़ाई ने दाहिना हाथ द्वार पर टिकाया था। बांया हाथ गालों पर उड़ रही लटों पर था। दोनों हाथ हिम की भांति शुध्ध थे, नग्न थे। वफ़ाई की इस अदभूत मुद्रा को जीत ने पहले कभी नहीं देखा था। वह उसे देखते ही रहा, बिना पलक झपकाए।

वफ़ाई ने स्मित दिया किन्तु जीत उस स्मित का प्रतिभाव नहीं दे सका। वह अभी भी वफ़ाई को निहार रहा था।

लगता है जीत मेरी मुद्रा पर स्थिर हो गया है। जीत, तुम मुझे देखते रहो। अनुमति है तुम्हें। बस यही तो क्षण है जब तुम मुझे इतने स्नेह से देख रहे हो।

मेरे अंदर यह क्या प्रवाहित होने लगा है? यह कैसी तरंगें है? क्या यह समीर है? क्या यह प्रकाश है? अथवा अंधकार है? क्या यह लाल है, नीला है, काला है अथवा गुलाबी? क्या यह बादल है अथवा वर्षा है? यह चन्द्र है अथवा तारें? समुद्र है अथवा नदी है? झरना है अथवा गीत है? संगीत है अथवा श्वास? यह अग्नि है? उष्ण है अथवा शीतल है? मीठा है अथवा कड़वा? क्या है यह? मैं नहीं जानती। किन्तु कुछ तो है जो मेरे भीतर है। जो अभी अभी जन्मा है।

वफ़ाई ने आँखें बंध कर ली और उसी मुद्रा में खड़ी रही।

जीत, मुझे देखो। पूरी तरह से देखो। पूरे मन से देखो। मैं तो सदैव चाहती थी कि तुम मुझे इसी प्रकार से देखो। किन्तु तुमने नहीं देखा। तुम आज जिस प्रकार से मुझे निहार रहे हो उसे देखते लगता है कि अल्लाह ने मेरी अभिलाषा पूरी कर दी है।

वफ़ाई मूर्ति कि भांति खड़ी रही। जैसे किसी शिल्पी ने किसी पत्थर से कोई मनोहर शिल्प रचाया हो और वह शिल्प जीवित हो गया हो। एक सुंदर प्रतिमा, एक अदभूत मुद्रा।

जीत संमोहित था।

मैं किस समुद्र के तरंगों में बह रहा हूँ? क्या यह वफ़ाई का सौन्दर्य है अथवा उसकी आभा? यह कैसा क्षण है? यह कैसी सभा है जहां गजल के शृंगारिक स्वर सुनाई दे रहे हैं।

झुकी झुकी सी नजर...

गजल तो वफ़ाई को भी सुनाई दे रही थी। उसके स्वर थे

दबा दबा सा सही दिल मैं प्यार है कि नहीं?

वोह एक पल जिस में मोहब्बत जवान होती है,

उस एक पल का तुझे भी इंतझर है कि नहीं?

गझल पूरी हो गई। सभी स्वर रात्रि में विलीन हो गए। जैसे सब कुछ शांत हो गया।

मेरी प्रतीक्षा पूरी हो गई। यह क्षण आ गया है। यह क्षण स्थिर हो जाय, यहीं रुक जाय। हवा के कण कण में प्रेम बह रहा है। जीत की आँखों में भी। मेरी तरफ निहारने में भी तुम्हारा स्नेह छलक रहा है। तुम्हारे मौन में भी स्नेह है जो तुम कभी शब्दों से नहीं कह सके, जीत। अंतत: तुम्हारे हृदय में प्रेम जाग ही गया। प्रेम, प्रेम, प्रेम। मेरे चारों तरफ मुझे प्रेम ही का अनुभव हो रहा है। यदि यह अनुभव स्थिर हो जाय तो मैं मूर्ति बन कर ऐसे ही खड़ी रहूँ, जीवन भर।

वफ़ाई स्थिर सी खड़ी रही।

“वफ़ाई, तुम वहाँ क्या कर रही हो? तुम चाहो तो बाहर आ सकती हो।“ जीत के शब्दों ने वफ़ाई के कानों को जागृत कर दिया। एक मूर्ति में जीवन आ गया।

मैं भीग कैसे गई? यह किस वर्षा का बादल जैसे मुझे स्पर्श करके, मेरे आरपार निकल गया? यह कैसी वर्षा है?

वफ़ाई ने आँखें खोली, सामने जीत दिखाई दिया।

जीत अभी भी वफ़ाई को निहार रहा था। उसकी आँखों में कोई आमंत्रण था। जीत ने अभी अभी शब्दों से जो आमंत्रण दिया था वही आमंत्रण था।

वफ़ाई जीत के समीप गई, उस की आँखों में देखा। वह आँखें वफ़ाई को ही देख रही थी। दोनों की आँखों में एक ही प्रश्न था,’तुम अभी सोये क्यों नहीं हो?’

किसी ने उत्तर नहीं दिया इस प्रश्न का।

जीत उसे झूले पर बैठने के लिए कहेगा इस आशा में वफ़ाई झूले के समीप जा खड़ी हो गई। किन्तु जीत का ऐसा कोई आशय नहीं था।

अपेक्षा विफल हो जाने पर वफ़ाई ने साहस कर के पूछा,”जीत, तुम्हारे समीप झूले पर मैं बैठ जाऊँ?” वह झूले की तरफ बढ़ गई।

“अवश्य, तुम यहाँ बैठ सकती हो।“ वफ़ाई प्रसन्न हो गई।

यह तो चमत्कार हो गया।

वफ़ाई झूले पर बैठ गई। जीत झूले को छोडकर उठ गया।

जीत क्या कर रहे हो? एक तरफ तो तुम मुझे यहाँ बैठने को कहते हो और तुम स्वयं ही उठ जाते हो? बात क्या है?

वफ़ाई ने जीत के भावों को देखा। मुख पर कोई क्रोध नहीं था। जीत शांत था, स्थिर था।

“जीत तुमने झूला क्यों छोड़ दिया? दो व्यक्तियों के लिए पर्याप्त स्थान है इस झूले पर। तुम्हें उठना नहीं था। आखिर बात क्या है?” जीत निरुत्तर रहा। वह वफ़ाई को देखता रहा, स्मित करता रहा।

“जीत, मेरे साथ, मेरे समीप इस झूले पर बैठो ना।“

“मैं वहाँ कैसे बैठ सकता हूँ?”

“क्यों नहीं? कोई समस्या है? क्या मेरे तन से दुर्गंध आती है? अथवा मेरा सान्निध्य ..?”

जीत ने गहरी सांस ली, उसे कुछ क्षण धारण कर रखा, फिर छोड़ा,” मुझे संकोच होता है। मेरे भीतर कुछ है जो तुम्हारे समीप आने से मुझे रोक रहा है।“

“क्या है वह?”

“मैं नहीं जानता। कुछ तो है जिसे मैं परास्त नहीं कर सकता।“ जीत ने नि:श्वास लिया।

“तो तुम्हें उस ‘कुछ’ से यूध्ध करना होगा। उसे परास्त कर दो। मैं तुम्हें मेरे समीप चाहती हूँ, ईस झूले पर।“

जीत ने गहरी सांस ली तथा आँखें बंध कर ली। वफ़ाई के मन में विचार चलने लगे।

जीत मैं जानती हूँ कि तुम्हारे भीतर कोई यूध्ध चल रहा है। यह यूध्ध भीषण है, पीड़ादायक भी। तुम प्रत्येक पीड़ा को सहते हुए भी यूध्ध लड़ रहे हो, मेरे कारण। मेरे कारण ही तुम उस यूध्ध से हार नहीं मान रहे हो। सबसे कठिन यूध्ध होगा यह तुम्हारे लिए।

वफ़ाई ने मौन ही समय को बहने दिया।

अंतत: जीत के अधर हिले, जैसे जीत बाहर आने के लिए उत्सुक शब्दों को तैयार कर रहा हो। जीत ने आँखें खोली। अधर अभी भी बंध थे।

जीत झूले के समीप आया, झूले के सरिये को पकड़ा, क्षण भर रुका और झूले पर बैठ गया। दोनों झूले पर थे किन्तु दोनों के बीच कुछ अंतर था।

जीत, मुझे विश्वास नहीं था कि तुम मेरे समीप, मेरे साथ ऐसे बैठोगे। तुमने मेरी मनसा पूरी कर दी।

जीत, मुझे तुम से कई प्रश्न करने हैं। अनेक उत्तर पाने हैं। किन्तु मैं मौन ही रहूँगी। मैं बातों में इन अमूल्य क्षणों को व्यर्थ नहीं करना चाहती। मौन, तुम यहाँ रह सकते हो। वफ़ाई ने अपने विचारों को भी मौन कर दिया।

दोनों झूले पर थे, दोनों के पाँव झूले को गति में रख रहे थे। झूला तालबध्ध गति कर रहा था। झूले के प्रत्येक आवन जावन में शीतल मंद पवन दोनों को स्पर्श करता था।

जीत, तुम्हारे सान्निध्य की सुगंध मुझे आनंदित रही है। या अल्लाह यह सुगंध जीवनभर आती रहे। आमीन।

दोनों मौन थे। गगन को देख रहे थे। गगन में दो तीन बादल थे। आधी रात्रि का चंद्रमा था। चाँदनी भी थी और तारें भी थे। बादल धीरे धीरे चंद्रमा के प्रति गति कर रहा था, जैसे चंद्रमा को पकड़ कर उसे अपने अंदर छुपा देना चाहता हो। तारे इतनी मंद गति कर रहे थे जैसे वह स्थिर से हो। बादलों की भांति तारों का कोई आशय नहीं था चंद्रमा को पकड़ने का।

चन्द्र, तारें तथा बादल गतिमान थे फिर भी गगन शांत था, मौन था। किसी मुनि की भांति इन सभी गतियों से विरक्त था। सारी मरुभूमि भी शांत थी।

जीत, मैं इन क्षणों में बातें करना चाहती हूँ। इन क्षणों को पूर्ण रूप से जीना चाहती हूँ। किन्तु तुम हो कि मेरी तरफ देखते भी नहीं हो। कहीं तुम भूल तो नहीं गए कि मैं भी यहाँ हूँ तुम्हारे साथ, इस झूले पर। हम दोनों साथ साथ बैठे हैं, एक दूसरे के निकट बैठे हैं। तुम्हारा यह मौन मुझे विचलित कर रहा है, जीत। कुछ तो बोलो।

वफ़ाई ने जीत का ध्यान खींचने हेतु गहरी तथा तीव्र सांस ली किन्तु विफल रही।

कुछ तो करना चाहिए। मैं क्या करूँ?

वफ़ाई, तुम उसे नींबू सूप दे सकती हो।

उतम विचार। इसी कारण कुछ शब्द तो कहे जाएंगे। वफ़ाई कल्पना में खो गई।

जीत, हमारे दोनों के हाथ में नींबू सूप का गिलास है। दोनों उसे घूंट घूंट भर पी रहे हैं। एक दूसरे से वार्तालाप कर रहे हैं। झूले पर बैठे बैठे एक दूसरे को निहार रहे हैं। झूला मंद मंद गति कर रहा है। मेरा दुपट्टा बार बार तुम्हें स्पर्श कर रहा है। तुम दुपट्टे को देख रहे हो किन्तु उसे रोक नहीं रहे हो। तुम्हें भी दुपट्टे का स्पर्श अच्छा लगता होगा। मेरी लटें मेरे गालों पर उड़ रही है। कुछ लटें अतिक्रमण करती हुई तुम्हें भी स्पर्श कर रही है। कितना सुंदर क्षण है यह!

वफ़ाई विचारों से जागी, उस ने अपनी हथेली में देखा। हाथ खाली थे। नींबू सूप का कोई गिलास नहीं था। वफ़ाई ने जीत के हाथ देखे। वह भी खाली थे।

मैंने तो नींबू सूप बनाया ही नहीं। चलो अब बना लेती हूं।

नहीं, मैं नहीं जाऊँगी।

क्यों?

उसे बनाने में कुछ समय लगेगा। इतना समय मैं जीत से दूर रहूँगी। और इस समय में जीत ने विचार बदल दिया तथा झूले से उठ गया तो? तो वह फिर झूले पर मेरे साथ बैठेगा क्या? नहीं, मैं इन क्षणों को, इस अवसर को खोना नहीं चाहती। मैं बिना सूप के प्रसन्न हूं। किन्तु बिना जीत के नहीं।

तो बैठी रहो झूले पर, जीत के सामीप्य की अनुभूति करती रहो।

अवश्य। क्यों कि यही क्षण उत्तम है मेरे लिए।

अल्लाह का शुक्र है तेरा कि मैं प्रेम में हूं। तुम कहते हो न कि प्रेम ही प्रार्थना है। प्रेम ही बंदगी है। प्रेम ही नमाझ है। प्रेम ही इबादत है। प्रेम ही पुजा है। प्रेम ही अल्लाह है। इस प्रेम के माध्यम से मैंने अल्लाह को पा लिया। या अल्लाह, कल प्रभात में मैं मेरी अंतिम नमाझ पढ़ूँगी। वह भव्य होगी। उस के पश्चात मैं कभी नमाझ नहीं करूंगी। मेरी अंतिम नमाझ का स्वीकार करना।

समय के अनेक खंड व्यतीत हो गए। रात्रि अपने अंतिम पड़ाव पर थी। वह प्रभात में परीवर्तित होने जा रही थी। समय के इस प्रवाह में एक दूसरे की निकटता से दोनों प्रसन्न थे। झूला दोनों के सान्निध्य का मौन दर्शक बनकर झूलता रहा।

गगन में एक पंखी उड़ा। वफ़ाई तथा जीत ने उसे देखा। पंखी अनेक बार उड़ा। फिर मधुर गीत गाने लगा- प्रभात का गीत, प्रेम का गीत। अनेक पंखी भी उस पंखी के साथ गीत गाने लगे। सारी दिशाएँ गाने लगी। पंखीयों के मधुर गीत से गगन भर गया। पूर्व से प्रकाश ने प्रवेश किया।

“वफ़ाई, पूरी रात्रि हमने झूले पर व्यतित कर दी।“ जीत झूले से उठ गया।