नया साल
कैलिंडर का आख़िरी पता जिस पर मोटे हुरूफ़ में31 दिसंबर छपा हुआ था, एक लम्हा के अंदर उसकी पतली उंगलीयों की गिरिफ़त में था। अब कैलिंडर एक टिंड मंड दरख़्त सा नज़र आने लगा। जिसकी टहनियों पर से सारे पत्ते ख़िज़ां की फूंकों ने उड़ा दिए हों।
दीवार पर आवेज़ां क्लाक टिक टुक कर रहा था। कैलिंडर का आख़िरी पत्ता जो डेढ़ मुरब्बा इंच काग़ज़ का एक टुकड़ा था, उस की पतली उंगलियों में यूं काँप रहा था गोया सज़ाए मौत का क़ैदी फांसी के सामने खड़ा है।
क्लाक ने बारह बजाय, पहली ज़र्ब पर उंगलियां मुतहर्रिक हुईं और आख़िरी ज़र्ब पर काग़ज़ का वो टकरा एक नन्ही सी गोली बना दिया गया। उंगलियों ने ये काम बड़ी बे-रहमी से किया और जिस शख़्स की ये उंगलियां थीं और भी ज़्यादा बे-रहमी से इस गोली को निगल गया।
उस के लबों पर एक तेज़ाबी मुस्कुराहट पैदा हुई और उस ने ख़ाली कैलिंडर की तरफ़ फ़ातिहाना नज़रों से देखा और कहा। “मैं तुम्हें खा गया हूँ......... बग़ैर चबाए निगल गया हूँ।”
इस के बाद एक ऐसे क़हक़हे का शोर बुलंद हुआ जिस में उन तोपों की गूंज दब गई जो नए साल के आग़ाज़ पर कहीं दूर दाग़ी जा रही थीं।
जब तक इन तोपों का शोर जारी रहा, उस के सूखे हुए हलक़ से क़हक़हे आतिशीं लावे की तरह निकलते रहे, वो बेहद ख़ुश था। बेहद ख़ुश, यही वजह थी कि उस पर दीवानगी का आलम तारी था। उस की मुसर्रत आख़िरी दर्जा पर पहुंची हुई थी, वो सारे का सारा हंस रहा था। मगर उस की आँखें रो रही थीं और जब उसकी आँखें हँसतीं तो आप उस के सिकुड़े लबों को देख कर यही समझते कि उस की रूह किसी निहायत ही सख़्त अज़ाब में से गुज़र रही है।
बार बार वो नारा बुलंद करता। “मैं तुम्हें खा गया हूँ........ बग़ैर चबाए निगल गया हूँ......... एक एक करके तीन सौ छयासठ दिनों को, लेप दिन समेत!”
ख़ाली कैलिंडर उस के इस अजीब-ओ-ग़रीब दावे की तसदीक़ कर रहा था।
आज से ठीक चार बरस पहले जब वो अपने काँधों पर मुसीबतों का पहाड़ उठा कर अपनी रोटी आप कमाने के लिए मैदान में निकला तो कितने आदमियों ने उस का मज़हका उड़ाया था......... कितने लोग उस की हिम्मत पर ज़ेरे लब हंसते थे। मगर उस ने इन बातों की कोई परवाह न की थी और उसे अब भी किसी की क्या पर्वा थी, उस को सिर्फ़ अपने आप से ग़र्ज़ थी और बस, दूसरों की जन्नत पर वो हमेशा अपनी दोज़ख़ को तर्जीह देता रहा था। और अब भी इसी चीज़ पर पाबंद था। वो इन दिनों गिद्धों की सी मशक़्क़त कररहा था। कुत्तों से बढ़ कर ज़लील ज़िंदगी बसर कर रहा था मगर ये चीज़ें उस के रास्ते में हाइल न होती थीं।
कई बार उसे हाथ फैलाना पड़ा......... उस ने हाथ फैलाया, लेकिन एक शान के साथ। वो कहा करता था। “ये सब भिकारी जो सड़कों पर झोलियां फैलाए और कशकोल बढ़ाए फिरते रहते हैं, गोली मार कर उड़ा देने चाहिऐं। भीक लेकर ये ज़लील कुत्ते शुक्र गुज़ार नज़र आते हैं... हालाँकि उन्हें शुक्रिया गालियों से अदा करना चाहिए......... जो भीक मांगते हैं वो इतने लानती नहीं जितने कि ये लोग जो देते हैं। दान पुन के तौर पर......... जन्नत में एक ठंडी कोठड़ी बुक कराने वाले सौदागर!”
उस को कई मर्तबा रुपय पैसे की इमदाद हासिल करने की ख़ातिर शहर के धनवानों के पास जाना पड़ा......... उस ने इन दौलतमंदों से इमदाद हासिल की......... उनकी कमज़ोरियां उन्ही के पास बेच कर!......... और उस ने ये सौदा कभी अनाड़ी दुकानदार की ख़ातिर नहीं किया.........
आप शहर की सेहत के मुहाफ़िज़ मुक़र्रर किए गए हैं। लेकिन दरहक़ीक़त आप बीमरियां फ़राहम करने के ठेकेदार हैं। हुकूमत की किताबों में आप के नाम के सामने हैल्थ ऑफीसर लिखा जाता है,मगर मेरी किताब में आप का नाम अमराज़ फ़रोशों की फ़हरिस्त में दर्ज है......... परसों मार्कीट में आप ने संगतरों के दो सौ टोकरे पास करके भिजवाए जो तिब्बी उसूल के मुताबिक़ सेहत-ए-आम्मा के लिए सख़्त मुज़िर थे। दस रोज़ पहले आप ने क़रीबन दो हज़ार केलों पर अपनी आँखें बंद करलीं जिन में से हर एक हैज़ा की पुड़या थी... और आज आप ने इस बोसीदा और ग़लीज़ इमारत को बचा लिया जहां बीमारियां परवरिश पाती हैं और.........
उसे आम तौर पर आगे कहने की ज़रूरत ही न पेश आती थी......... इस लिए कि उस का सौदा बहुत कम गुफ़्तुगू ही से तय हो जाता था।
वो एक सस्ते और बाज़ारी क़िस्म के अख़बार का ऐडीटर था। जिस की इशाअत दो सौ से ज़्यादा न थी... दरअसल वो इशाअत का क़ाइल ही न था... वो कहा करता था “जो लोग अख़बार पढ़ते हैं बेवक़ूफ़ हैं। और जो लोग अख़बार पढ़ कर उस में लिखी बातों पर यक़ीन करते हैं। सब से बड़े बेवक़ूफ़ हैं। जिन लोगों की अपनी ज़िंदगी हंगामे से पुर हो। उन को इन छपे हुए चीथड़ों से क्या मतलब?”
वो अख़बार इस लिए नहीं निकालता था कि उसे मज़ामीन लिखने का शौक़ था। या वो अख़बार के ज़रीये से शौहरत हासिल करना चाहता था... नहीं, बिलकुल नहीं... एक दो घंटे की मसरूफ़ियत के सिवा जो इस के अख़बार की इशाअत के लिए ज़रूरी थी वो अपना बक़ाया वक़्त उन ख़्वाबों की ताबीर देखने में गुज़ारा करता था जो एक ज़माना से उस के ज़ेहन में मौजूद थे। वो अपने लिए एक ऐसा मक़ाम बनाना चाहता था जहां उसे कोई न छेड़ सके......... जहां वो इत्मिनान हासिल कर सके......... ख़ाह वो दो सैकिण्ड ही का क्यों न हो।
“जंग के मैदान में फ़तह पुर बरलब-ए-गौर ही नसीब हो। मगर हो ज़रूर... और अगर शिकस्त हो जाये, पिटना पड़े तो भी क्या हर्ज है......... शिकस्त खाएंगे लेकिन फ़तह हासिल करने की कोशिश करते हुए......... मौत उन की है जो मौत से डरकर जान दें, और जो ज़िंदा रहने की कोशिश में मौत से लिपट जाएं ज़िंदा हैं। और हमेशा ज़िंदा रहेंगे... कम अज़ कम अपने लिए!”
दुनिया उस के ख़िलाफ़ थी। जो शख़्स भी उस से मिलता था उस से नफ़रत करता था। वो ख़ुश था। नफ़रत में मोहब्बत से ज़्यादा तेज़ी होती है......... अगर सब लोग मुझ से मोहब्बत करना शुरू करदें तो मैं उस पहीए के मानिंद हो जाऊं जिस में अंदर बाहर, ऊपर नीचे सब जगह तेल दिया गया हो... मैं कभी उस गाड़ी को आगे न धकेल सकूँगा जिसे लोग ज़िंदगी कहते हैं।
क़रीब क़रीब सब उस के ख़िलाफ़ थे। और वो अपने इन मुख़ालिफ़ीन की तरफ़ यूँ देखा करता था गोया वो मोटर के इंजन में लगे हुए पुरज़ों को देख रहा है, ये कभी ठंडे नहीं होने चाहिऐं...
और उस ने अब तक उन को ठंडा न होने दिया था। वो इस अलाव को जलाए रखता था। जिस पर वो हाथ ताप कर अपना काम किया करता था जिस रोज़ वो अपने मुख़ालिफ़ीन में किसी नए आदमी का इज़ाफ़ा करता। तो अपने दिल से कहा करता था। “आज मैंने अलाव में एक और सूखी लकड़ी झोंक दी है जो देर तक जलती रहेगी।”
उस के एक मुख़ालिफ़ ने जल्से में उस के ख़िलाफ़ बहुत ज़ेहर उगला... उसे बहुत बुरा भला कहा। हत्ता कि उसे नंगी गालियां भी दीं। उस के मुख़ालिफ़ का ख़याल था कि ये सब कुछ सुन कर उसे नींद न आएगी। मगर इस के बरअक्स वो तो उस रोज़ मामूल के ख़िलाफ़ बहुत आराम से सोया। और उसे ख़ुद सारी रात आँखों में काटना पड़ी। शब भर उस का ज़मीर उसे सताता रहा। हत्ता कि सुबह उठ कर वो उस के पास आया और बहुत बड़े नदामत भरे लहजा में उस से माज़रत तलब की।
“मुझे बहुत अफ़सोस है कि मैंने आप जैसे बुलंद अख़लाक़ इंसान को बुरा भला कहा। गालियां दीं......... दरअसल......... दरअसल मैंने ये सब कुछ बहुत जल्दबाज़ी में क्या। सोचे समझे बग़ैर......... मुझे उकसाया गया था......... मैं अपने किए पर नादिम हूँ। और मुझे उमीद है कि आप मुझे माफ़ फ़र्मा देंगे। मुझ से सख़्त ग़लती हुई!”
बुलनद अख़लाक़!... उसे इस लफ़्ज़ अख़लाक़ से बहुत चिड़ थी... अख़लाक़ रुख़-ए-इंसानियत का ग़ाज़ा......... अख़लाक़......... अख़लाक़ अख़लाक़......... यानी ये न करो, वो न करो की बेमानी गर्दान......... इंसान की आज़ादाना सरगर्मियों पर बिठाया हुआ सेंसर!
उस को मालूम था कि उसके कमज़ोर दिल मुख़ालिफ़ ने झूट बोला। मगर न मालूम उस के दिल में ग़ुस्सा क्यों न पैदा हुआ......... बख़िलाफ़ इस के उसे ऐसा महसूस हुआ कि जो शख़्स उस के सामने बैठा माफ़ी मांग रहा है उस की कोई निहायत ही अज़ीज़ शैय फ़ना होगई है। वो ग़ायत दर्जा बेरहम तसव्वुर किया जाता था और असल में वो था भी बेरहम, नरम-ओ-नाज़ुक जज़्बात से उस का सीना बिलकुल पाक था। मगर इस पत्थर पर से कोई चीज़ रेंगती हुई नज़र आई। उसे उस शख़्स पर रहम आने लगा।
“आज तुम रुहानी तौर पर मर गए हो......... और मुझे तुम्हारी इस मौत पर अफ़सोस है!”
ये सुन कर उस के मुख़ालिफ़ को फिर गालियां देना पड़ीं। मगर उस के कानों तक कोई आवाज़ न पहुंच सकी। मुद्दत हुई वो उस को किसी दूर दराज़ क़ब्रिस्तान में दफ़न कर चुका था।
चार बरस से वो इसी तरह जी रहा था, ज़बरदस्ती, दुनिया की मर्ज़ी के ख़िलाफ़। बहुत सी क़ुव्वतें उस को पसपा कर देने पर तुली रहती थीं। मगर वो अपने वजूद का एक ज़र्रा भी जंग के बग़ैर उन के हवाले करने के लिए तैय्यार ना था... जंग, जंग, जंग......... हर मुख़ालिफ़ क़ुव्वत के ख़िलाफ़ जंग। रहम-ओ-तरह्हुम से ना-आशनाई इशक़-ओ-मोहब्बत से परहेज़। उम्मीद, ख़ौफ़ और इस्तिक़बाल से बेगानगी......... और फिर जो हो सौ हो!
चार बरस से वो ज़माने की तेज़-ओ-तुंद हवा में एक तनावर और मज़बूत दरख़्त की तरह खड़ा था। मौसमों के तग़य्युर-ओ-तबद्दुल ने मुम्किन है उस के जिस्म पर असर क्या हो मगर उस की रूह पर अभी तक कोई चीज़ असरअंदाज़ न हो सकी थी। वो अभी तक वैसी ही थी......... जैसी कि आज से चार बरस पहले थी, फ़ौलाद की तरह सख़्त, ये सख़्ती क़ुदरत की तरफ़ से अता नहीं की गई थी बल्कि ख़ुद उस ने पैदा की थी।
वो कहता था। नरम-ओ-नाज़ुक रूह को अपने सीने में दबा कर तुम ज़माने की पथरीली ज़मीन पर नहीं चल सकोगे। जो फूल की पत्ते से हीरे का जिगर काटना चाहे उसे पागलखाने में बंद करदेना चाहिए...
शायराना ख़यालात को उस ने अपने दिमाग़ में कभी दाख़िल न होने दिया था और अगर कभी कभार ग़ैर इरादी तौर पर वो उस के दिमाग़ में पैदा हो जाते थे तो वो इन हरामी बच्चों का फ़ौरन गला घूँट दिया करता था। वो कहा करता था। “मैं उन बच्चों का बाप नहीं बनना चाहता जो मेरे काँधों का बोझ बन जाएं।”
उस ने अपने साज़-ए-हयात से सारी तरबें उतार दीं थीं। उस ने इस में से वो तमाम तार नोच कर बाहर निकाल दिए थे जिन में से नरम-ओ-नाज़ुक सुर निकलते हैं।
“ज़िंदगी का सिर्फ़ एक राज़ है और वो रज्ज़ है। जो आगे बढ़ने, हमला करने, मरने और मारने का जज़्बा पैदा करता है। इस के सिवा बाक़ी तमाम रागनियां फ़ुज़ूल हैं जो आज़ा पर थकावट तारी करती हैं।”
उस का दिल शबाब के बावजूद इश्क़-ओ-मोहब्बत से ख़ाली था। उसकी नज़रों के सामने से हज़ार-हा ख़ूबसूरत लड़कियां और औरतें गुज़र चुकी थीं, मगर इन में से किसी एक ने भी उस के दिल पर असर न किया था......... वो कहा करता था। “इस पत्थर में इश्क़ की जोंक नहीं लग सकती!”
वो अकेला था, बिलकुल अकेला......... खजूर के उस दरख़्त के मानिंद जो किसी तपते हुए रेगिस्तान में तन्हा खड़ा हो......... मगर वो इस तन्हाई से कभी न घबराया था। दरअसल वो कभी तन्हा रहता ही न था।
जब मैं काम में मशग़ूल होता हूँ तो वही मेरा साथी होता है। और जब मैं इस से फ़ारिग़ हो जाता हूँ तो मेरे दूसरे ख़यालात-ओ-अफ़्क़ार मेरे गिर्द-ओ-पेश जमा हो जाते हैं......... मैं हमेशा अपने दोस्तों के जमगठे में रहता हूँ।
वो अपने दिन यूं बसर करता था जैसे आम खा रहा है। शाम को जब वो बिस्तर पर दराज़ होता था तो ऐसा महसूस किया करता था कि उस ने दिन को चूसी हुई गुठली के मानिंद फेंक दिया है। अगर आप उस के कमरे की एक दीवार होते तो कई बार आप के साथ ये अल्फ़ाज़ टकराते जो कभी कभी सोते वक़्त उस की ज़बान से निकला करते थे। “आज का दिन कितना खट्टा था......... इस बरस के टोकरे में अगर बक़ाया दिन भी इसी क़िस्म के हुए तो मज़ा आजाएगा!”
और रातें......... ख़ाह तारीक हों या मुनव्वर। उस की नज़र में दाश्ताएं थीं। जिन को वो रोज़ तलूअ-ए-आफ़ताब के साथ ही भूल जाता था।
चार बरस से वो इसी तरह ज़िंदगी बसर कर रहा था। ऐसा मालूम होता था कि वो एक ऊंचे चबूतरे पर बैठा है। हाथ में हथोड़ा लिए। ज़माना का आहनी फ़ीता उस के सामने से गुज़र रहा है और वो इस फीते पर हथौड़े की ज़र्बों से अपना ठप्पा लगाए जा रहा है। एक दिन जब गुज़रने लगता है तो वो फीते को थोड़ी देर के लिए थाम लेता है। और फिर उसे छोड़कर कहता है। “अब जाओ, मैं तुम्हें अच्छी तरह इस्तिमाल कर चुका हूँ।”
बाअज़ लोगों को अफ़सोस हुआ करता है कि हम ने फ़ुलां काम फ़ुलां वक़्त पर क्यों नहीं किया। और ये पछतावा वो देर तक महसूस किया करते हैं। मगर उसे आज तक इस क़िस्म का अफ़सोस या रंज नहीं हुआ ......... जो वक़्त सोचने में ज़ाए होता है वो उस से बग़ैर सोचे समझे फ़ायदा उठाने की कोशिश किया करता था......... ख़ाह अंजाम कार उसे नुक़्सान ही क्यों न पहुंचे। अगर सोच समझ कर चलने ही में फ़ायदा होता तो उन पैग़म्बरों और नेकोकारों की ज़िंदगी तकलीफों और नाकामियों से भरी हुई हरगिज़ न होती, जो हर काम बड़े ग़ौर-ओ-फ़िक्र से किया करते थे। अगर सोच बिचार के बाद भी नुक़्सान हो। या नाकामी का मुँह देखना पड़े तो क्या इस से ये बेहतर नहीं कि ग़ौर-ओ-फ़िक्र में पड़ने के बग़ैर ही नताइज का सामना कर लिया जाये।
उसे इन चार बरसों में हज़ारहा नाकामियों का मुँह देखना पड़ा था। सिर्फ़ मुँह ही नहीं बल्कि उन को सर से पैर तक देखना पड़ा था मगर वो अपने उसूल पर इसी तरह क़ायम था जिस तरह तुन्द लहरों में ठोस चट्टान खड़ी रहती है।
आज रात बारह बजे के बाद नया साल उस के सामने आरहा था। और पुराने साल को वो हज़म कर गया था। बग़ैर डकार लिए।
नए साल की आमद पर वो ख़ुश था जिस तरह अखाड़े में कोई नामवर पहलवान अपने नए मद्द-ए-मुक़ाबल की तरफ़ ख़म ठोंक कर बढ़ता है। इसी तरह वो नए साल के मुक़ाबले में अपने हथियारों से लैस हो कर खड़ा होगया था। अब वो बुलंद आवाज़ में कह रहा था। “मैं तुम जैसे पहलवानों को पछाड़ चुका हूँ। अब तुम्हें भी चारों शाने चित्त गिरा दूंगा।”
जी भर कर ख़ुशी मनाने के बाद वो नए कैलिंडर की तरफ़ बढ़ा जो मैली दीवार पर ऊपर की तरफ़ सिमट रहा था। तारीख़ नुमा से उस ने ऊपर का काग़ज़ एक झटके से अलैहदा कर दिया और कहा। “ज़रा निक़ाब हटाओ तो......... देखो तुम्हारी शक्ल कैसी है... मैं हूँ तुम्हारा आक़ा......... तुम्हारा मालिक......... तुम्हारा सब कुछ!” यकुम जनवरी की तारीख़ का पत्ता उर्यां होगया। एक क़हक़हा बुलन्द हुआ और उस ने कहा:।
“कल रात तुम फ़ना करदिए जाओगे”