“चौथे दिवस गेलिना भारत भ्रमण को चली गई, वहाँ से स्वीडन लौट गई।“ जीत ने कहा।
वफ़ाई जीत को एक मन से सुन रही थी। जीत अभी भी गगन को देख रहा था, जैसे वह गेलिना के साथ व्यतीत हुए समय खंड में खोया था।
“तुम कहना चाहते हो कि पैंसठ वर्ष की एक स्त्री स्वीडन से तुम्हें चित्रकला सीखाने आती है। तुम गेलिना से चित्रकला सीखते हो और वह लौट जाती है। क्षमा करना किन्तु मैं तुम्हारी इस बात का विश्वास नहीं कर सकती।“ वफ़ाई ने संदेह व्यक्त किया।
“मैं सत्य कह रहा हूँ। वह स्वीडन से कच्छ आई थी और मुझे उसने ही चित्रकला सिखाई।“
“तुम कथा अच्छी बना लेते हो, जीत। पर मैं उस कथा से प्रभावित नहीं हुई हूँ।“
“कथा? क्या तात्पर्य है तुम्हारा, वफ़ाई? मैं ने कोई…।“
“गेलिना की कथा जो तुमने सुनाई उसे मैं स्वीकार नहीं कर सकती। गेलिना की कथा बनाई गई है।“
“मैं पत्रकार नहीं हूँ, वफ़ाई।“ जीत ने वफ़ाई के व्यवसाय पर आक्रमण कर दिया।
“इन शब्दों से क्या तात्पर्य है तुम्हारा, जीत?” वफ़ाई विचलित हो गई।
“पत्रकार ऐसी कथा बना लेते हैं जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं होता। पत्रकार किसी घटना, किसी प्रसंग, किसी व्यक्ति आदि का सर्जन कर लेते हैं जो कभी नहीं होते, जो कहीं नहीं होते। मैं पुन: कहता हूँ कि मैं पत्रकार नहीं हूँ।“
“तुम मुझे लक्ष्य बना रहे हो, जीत। मैं पत्रकार हूँ किन्तु पत्रकार नहीं हूँ। मैं तस्वीर पत्रकार हूँ जो वास्तविक घटना, वास्तविक प्रसंग, वास्तविक व्यक्तियों की तस्वीरें लेती है, जिसका वास्तव में अस्तित्व होता है। हम कोई काल्पनिक कथा का सर्जन नहीं करते, हम विश्व के समक्ष सत्य प्रस्तुत करते हैं।“ वफ़ाई ने जीत को सशक्त उत्तर दिया।
“हो सकता है। मैं नहीं जानता क्यों कि मैं पत्रकार नहीं हूँ।“ जीत ने बचाव किया।
“तो तुम कौन हो?” वफ़ाई ने जीत के अव्यक्त व्यक्तित्व पर प्रहार किया।
“मैं तो हूँ, मैं तो था...।“ जीत अचानक रुक गया। मन ही मन बोला,’ मेरे अतीत को प्रकट नहीं करूंगा मैं।‘
वफ़ाई ने जीत के शब्दों और भावों को परख लिया।
“तो तुम कौन थे? क्या थे? मुझे कहो। अपने ही बनाए कारावास से निकाल आओ, जीत।“ वफ़ाई ने जीत का आव्हान किया, जीत के मन को उत्तेजित किया।
“मैं और कारावास? नहीं, वफ़ाई। मुझे देखो। मैं तो मुक्त हूँ। मैं चल सकता हूँ। घूम सकता हूँ। कहीं भी जा सकता हूँ। कुछ भी कर सकता हूँ। कुछ भी कह सकता हूँ। मुझे कोई बंधन नहीं है। नहीं, मैं किसी कारावास में नहीं हूँ।“
“तुम अपने अतीत के कारावास में हो। यह कारावास का सर्जन भी तुमने स्वयं ही किया है। और मुझे लगता है कि तुम इस कारावास में प्रसन्न हो। तुम उसे तोड़ने से भयभीत हो रहे हो। जीत, उस कारावास को तोड़ने का साहस करो। उस से मुक्त हो जाओ। उस आवरण को हटा दो। उसे तोड़ दो, अभी, इसी समय।” वफ़ाई ने जीत को जागृत करना चाहा।
जीत क्रोधित हो गया,”यह सब बंध करो। मैं उसे झेल नहीं पा रहा हूँ।“
“तो उसे छोड़ दो। फिर तुम उस कारावास से मुक्त हो जाओगे।“
लंबे समय तक जीत शांत रहा।
“हम गेलिना की बात कर रहे थे, उसकी भारत यात्रा, उसका कच्छ आना, उसका चित्रकला सीखाना
और तुम मेरा विश्वास नहीं कर रही हो। यही बात थी न?” जीत ने क्षणों पर स्मित से नियंत्रण कर लिया।
“हाँ, यही बात थी। यदि तुम्हारी कथा सत्य है तो उसे सिध्ध करके दिखाओ।“
“अवश्य। मैं इसे सिध्ध कर सकता हूँ। एक मिनिट प्रतीक्षा करना ...।” जीत कक्ष में गया। एक हाथ में लिपटे केनवास तथा दूसरे हाथ में लेपटोप के साथ लौट आया।
“इसे देखो, वफ़ाई।“
“क्या है यह? क्या दिखाने जा रहे हो?क्या सिध्ध करने जा रहे हो?”
जीत ने लेपटोप चालू कर दिया।
“कुछ क्षणों के लिए तुम अपनी आँखें बंध कर लो। करो ना।” जीत ने आग्रह किया, वफ़ाई ने आँखें बंध कर ली।
जीत ने केनवास खोल दिया, चित्राधार पर रख दिया।
“आँखें खोलो, चलो इस तरफ देखो।“
वफ़ाई चित्राधार के समीप गई। केनवास पर चित्र देखकर बोली,”वाह, कितना अदभूत है? किसने किया यह? क्या भाव का निर्माण किया है! वास्तव में यह अलौकिक है, यह शास्वत है।“ वफ़ाई की द्रष्टि केनवास पर स्थिर हो गई।
वफ़ाई ने देखा कि जीत के अधरों पर स्मित था, कुछ भिन्न सा स्मित था वह।
“मैंने पूछा कि किसने बनाया है यह?”
“तुमने तो एक साथ अनेक प्रश्न पूछे थे।“
“जीत, वह सब प्रश्न छोड़ो। केवल यह बता दो कि किसने यह बनाया है।“
जीत ने पुन: स्मित किया। “तुम विश्वास करोगी?”
वफ़ाई ने स्मित दिया।
”यह गेलिना ने स्वयं रचा है।“ जीत प्रसन्न था।
“तुम फिर से नयी कथा रच रहे हो। जीत ऐसा मत करो।“
“इसे देखो। जब मैंने मेरा प्रथम चित्र बनाया था तब मैं अधिक प्रसन्न था। तब मेरे मुख पर जो भाव थे वह यही भाव थे। गेलिना ने उन भावों को इस केनवास पर उतारे थे। मुझे इस बात का ज्ञान नहीं था कि गेलिना यह चित्र बना रही है। जब गेलिना यहाँ से जा रही थी तब उसने मुझे यह भेंट किया था। उस रात्रि वह सोई नहीं थी। रातभर जागकर मेरा चित्र बना रही थी। मैं सारी रात सोता रहा।“
“जीत, तुम असत्य कह रहे हो। वास्तव में यह चित्र तुम ने ही बनाया है, दर्पण में देख देख कर।“
“दर्पण चित्रकारी? हाँ, गेलिना ने ऐसा एक चित्र बनाया था। मेरे पास है वह। वफ़ाई, तुम उसे देखना चाहोगी?”
“मैं मान लेती हूँ कि तुम फिर कोई नयी कथा नहीं कहोगे। हाँ, मुझे देखना है दर्पण चित्रकारी।“ वफ़ाई ने अर्ध मन से रुचि दिखाई। जीत ने वफ़ाई के भावों को भाव नहीं दिया।
जीत एक केनवास ले आया और उसे चित्राधार पर रख दिया। वफ़ाई ने उस पर एक विहंग द्रष्टि डाली और उसे अनदेखा करना चाहा किन्तु नहीं कर पायी।
वफ़ाई की द्रष्टि केनवास पर स्थिर हो गई। वह देखती रही कि केनवास पर एक स्त्री का चित्र था, वृध्ध थी किन्तु तेजोमय थी। मुख आकर्षक था, देखने वाले को आकृष्ट कर रह था, आमंत्रित कर रहा था। चित्र अक्ष से आवृत था, जैसे वह किसी दर्पण में हो।
“कौन है यह? और किसने यह बनाया है?”
“गेलिना का स्वयं चित्रित चित्र है यह। इसी को दर्पण चित्रकारी कहते हैं। जब कोई चित्रकार अथवा शिल्पकार स्वयं का चित्र अथवा शिल्प बनाना चाहता है तो वह दर्पण की सहायता लेता है। किसी वस्तु अथवा व्यक्ति का चित्र बनाना हो तो वह वस्तु अथवा व्यक्ति आँखों के सामने दिखनी चाहिए। किन्तु कलाकार स्वयं को देख नहीं पाता इस लिए दर्पण का प्रयोग होता है।“ जीत ने समझाने का प्रयास किया।
“तुम कितनी कथा बनाते रहोगे?” वफ़ाई अभी भी जीत की बात पर विश्वास नहीं कर रही थी।
“तुम क्या सिध्ध करना चाहती हो? क्या मैं झूठा हूँ?” जीत उत्तेजित हो गया।
“मैं दो निष्कर्ष निकाल रही हूँ इन बातों से। एक, गेलिना नाम की कोई स्त्री का अस्तित्व नहीं है। दो, यह सारे चित्र तुमने ही बनाए हैं अत: तुम वफ़ाई का चित्र भी बना सकते हो। मुझे आशा है कि तुम मुझे निराश नहीं करोगे।“ वफ़ाई ने स्मित दिया।
“तुम्हारे दोनों निष्कर्ष का मैं उत्तर देता हूँ।“ जीत ने लेपटोप खोला और दिखाने लगा।
“यहाँ आओ, इसे देखो।“ वफ़ाई लेपटोप को देखने लगी।
“क्या दिखाना चाहते हो?” वफ़ाई अधीर हो गई।
“शांत हो जाओ, धैर्य रखो। तुम्हारे सारे संदेह दूर हो जाएंगे।“ जीत तस्वीरें दिखाने लगा। वफ़ाई उन सभी तसवीरों को देखती रही।
“इसे देखो, मैं इन तसवीरों में गेलिना के साथ हूँ। यह देखो पीछे मेरा घर, यह मकान, दूर रेत का टीला, यह झूला। सब दिख रहा है। यह देखो, गेलिना केनवास पर काम कर रही है। यहाँ झूले पर बैठी है। इतना प्रायप्त नहीं क्या? अब तो यह सिध्ध हो जाता है कि गेलिना भारत आई थी, कच्छ आई थी, मेरे घर आई थी, मुझे चित्रकला सिखाई थी।“ जीत ने वफ़ाई की तरफ देखा,”अब क्या कहना है तुम्हारा?“
वफ़ाई के मुख के भाव बदल चुके थे।