नफ़्सियाती मुताला Saadat Hasan Manto द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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नफ़्सियाती मुताला

नफ़्सियाती मुताला

मुझे चाय के लिए कह कर, वह उन के दोस्त फिर अपनी बातों में ग़र्क़ हो गए।

गुफ़्तुगू का मौज़ू, तरक़्क़ी पसंद अदब और तरक़्क़ी पसंद अदीब था। शुरू शुरू में तो ये लोग उर्दू के अफ़सानवी अदब पर ताइराना नज़र दौड़ाते रहे। लेकिन बाद में ये नज़र गहराई इख़्तियार कर गई और जैसा कि आम तौर पर होता है, गुफ़्तुगू गर्मा गर्म बहेस में तब्दील हो गई।

मेरे शौहर, तरक़्क़ी पसंद हैं न रजअत-पसंद, लेकिन बहस पसंद ज़रूर हैं, चुनांचे अपने दोस्तों के मुक़ाबले में सब से ज़्यादा गर्म-जोश वही नज़र आते थे। वह इस अंदेशे के यकसर ख़िलाफ़ थे कि पाकिस्तान में तरक़्क़ी पसंद अदब का मुस्तक़्बिल तारीक है।

बहस के दौरान में एक मरतबा उन्हों ने बिलकुल “तुम आज शाम को साड़ी पहनोगी” के से फ़ैसला-कुन अंदाज़ में अपने दोस्त हबीब से कहा। “तुम्हें तस्लीम करना पड़ेगा कि पाकिस्तान में तरक़्क़ी पसंद अदब की तहरीक ज़िंदा रहेगी।”

हबीब साहब फ़ौरन सर तस्लीम-ए-ख़म कर देने वाले नहीं थे, चुनांचे बहस जारी रही, और जब मैं चाय तैय्यार करने के लिए उठी तो हफ़ीज़-उल्लाह साहब जिन को सब उल्ला कह कर पुकारते थे पच्चीसवां सिगरेट फूंकते हुए तरक़्क़ी पसंद अदब पर क्रीमलन के इश्तिमाली असर को ग़लत साबित करने की कोशिश शुरू करने वाले थे।

मैं उठ कर बावर्ची-ख़ाने में आई तो नौकर ग़ायब था और चाय का पानी चूल्हे पर धरा बिलकुल ग़ारत हो चुका था। मैं ने केतली का पानी तब्दील किया और बाहर निकल कर नौकर को आवाज़ दी। वो जब आया तो उस के हाथ में “अदाकार” का पर्चा था जिस के सर-ए-वर्क़ पर मनोरमा की नीम बरहना तस्वीर छपी हुई थी। मैं ने झिड़क कर पर्चा उस के हाथ से लिया। जब देखो वाहियात पर्चे पढ़ रहा है...... चाय का पानी उबल उबल कर तेल बन चुका है उस का कुछ ख़याल ही नहीं...... जाओ, पेस्ट्री ले कर आओ......मिंटा मिंटी में आना।

मैं ने पर्स में से एक पाँच का नोट उस को दिया और बावर्ची-ख़ाने में लोहे की कुर्सी पर बैठ कर “अदाकार” की तस्वीरें देखना शुरू कर दीं। तस्वीरें देख चुकने के बाद मैं सवाल जवाब पढ़ रही थी कि पेस्ट्री आ गई। “अदाकार” का पर्चा मेज़ पर रख कर मैं ने सब दाने अलग अलग तश्तरियों में चुने और नौकर से ये कह कर वो दूध गर्म कर के जल्दी चाय ले आए, वापस बड़े कमरे में चली आई।

जब अंदर दाख़िल हुई तो वो और उन के दोस्त क़रीब क़रीब ख़ामोश थे। मैं समझी, शायद उन की गुफ़्तुगू ख़त्म हो चुकी है लेकिन उल्ला साहब ने अपने मोटे मोटे शीशों वाली ऐनक उतार कर रुमाल से आँखें साफ़ कर के मेरी तरफ़ देखते हुए कहा। “भाबी जान से पूछना चाहिए...... शायद वो इस पर कुछ रोशनी डाल सकें?”

मैं कुर्सी पर बैठने वाली थी। ये सुन कर क़द्रे रुक गई। अब हबीब साहब मुझ से मुख़ातब हुए। तशरीफ़ रखिए!

मैं बैठ गई। मेरे शौहर अपनी जगह से उठे और बिलकुल “इस को सेना पिरोना नहीं आता” के से अंदाज़ में अपने दोस्त उल्ला से कहा। “ये इस मुआमले पर कोई रोशनी नहीं डाल सकती।”

“पूछना मुझे था।” हबीब साहब ने उन से पूछा। “क्यूँ?”

हसब-ए-आदत मेरे शौहर गोल कर गए। “बस......!” फिर मुझ से मुख़ातब हुए “चाय कब आएगी?”

मैं ने मुस्कुरा कर जवाब दिया। “जब आप मुझ से रोशनी डालने के लिए कहेंगे।”

उल्ला साहिब ने चश्मा नाक पर जमाया और थोड़ा सा मुस्कुराए। “बात ये है भाबी जान कि......वो हैं ना आप की......मेरा मतलब है......”

हबीब साहब ने उन की बात काट दी। “उते, ख़ुदा की क़सम तुम्हें अपना मतलब समझाने का सलीक़ा कभी नहीं आएगा।” ये कह कर वो मुझ से मुख़ातब हुए। “आप ये फ़रमाइए कि आप का अपनी सहेली बिलक़ीस जहां के मुतअल्लिक़ क्या ख़्याल है?”

सवाल बड़ा औंधा सा था। मैं जवाब सोचने लगी। “मैं आप का मतलब नहीं समझी।”

उल्ला साहब ने हबीब साहब की पसलियों में अपनी कहनी से एक ठोंका दिया। “भई वल्लाह, अपना मतलब वाज़ेह तौर पर समझाने का सलीक़ा एक फ़क़त तुम्हें ही आता है।”

“ठहरो यार” हबीब झुंझला गए। उन्हों ने टाई की गिरह ठीक की और झुंझलाहट दूर करते हुए मुझ से कहा। “अभी अभी बिलक़ीस की बातें हो रही थीं। उर्दू के मौजूदा अदब में उस ख़ातून का जो रुत्बा है...... मेरा मतलब है कि उन का एक ख़ास मुक़ाम है। अफ़साना निगारी में अपने हम असरों के मुक़ाबले में वो बहुत आगे हैं। जहां तक नफ़सियात के मुताले का तअल्लुक़ है......”

हबीब साहब जैसे ये कहने के लिए बे-ताब थे। “उन का मुताला बहुत गहरा है।”

“ख़ास तौर पर मर्दों की जिन्सी नफ़्सियात का।” मेरे शौहर ने अपने मख़सूस अंदाज़ में कहा और मेरी तरफ़ मअनी ख़ेज़ नज़रों से देखते हुए अपनी कुर्सी पर बैठ गए।

हबीब ने मुझ से मुख़ातब हो कर मेरे शौहर के अल्फ़ाज़ दोहराए। “जी हाँ खासतौर पर मर्दों की जिन्सी नफ़्सियात का।” और ये कहते हुए दो दफ़अतन महजूब से हो गए और आँखें नीची करलीं। मुझे उन पर कुछ तरस आया चुनांचे मैं ने ज़रा बे-बाकी से कहा “आप क्या पूछना चाहते हैं?”

उल्ला साहिब ख़ामोश रहे। उन की जगह हबीब बोले। “चूँकि आप बिलक़ीस साहिबा की सहेली हैं, इस लिए ज़ाहिर है कि आप उन को बहुत अच्छी तरह जानती हैं।”

मैं ने सिर्फ़ इतना कहा। “एक हद तक!”

मेरे शौहर ने किसी क़दर बे-चैन हो कर कहा। “बे-कार है...... बिलकुल बे-कार है......औरतें राज़ की बातें नहीं बताया करतीं, ख़ास तौर पर जब वो ख़ुद उन की अपनी सिन्फ़ से मुतअल्लिक़ हों।” फिर वो मुझ से मुख़ातब हुए। “क्यों मोहतरमा, क्या मैं झूट कहता हूँ।”

मेरा ख़्याल है एक हद तक दरुस्त कह रहे थे, लेकिन मैं ने कोई जवाब न दिया। इतने में चाय आगई और गुफ़्तुगू थोड़े अर्से के लिए “चाय कितनी......दूध कितना......शकर कितने चम्मच” में तब्दील हो गई।

उल्ला साहब पांचवें क्रीम रोल की क्रीम अपने होंटों पर से चूसते हुए फिर बिलक़ीस जहां की तरफ़ लौटे और बुलंद आवाज़ में कहा। “कुछ भी हो, ये तय है कि ये मोहतरमा हम मर्दों की जिन्सी नफ़्सियात को ख़ूब समझती है।”

उन का रू-ए-सुख़न हम सब की तरफ़ कम और सारी दुनिया की तरफ़ ज़्यादा था। मैं उन का ये फ़ैसला सुन कर दिल ही दिल में मुस्कुराई। क्यों कि कम-बख़्त बिलक़ीस, उल्ला साहब की जिन्सी नफ़्सियात ख़ूब समझती थी। उस ने एक मर्तबा मुझ से कहा था। “भप्पो। अगर ये उल्ला साहब तुम्हारे शौहर नेक अख़्तर के दोस्त न होते तो ख़ुदा की क़सम मैं उन्हें ऐसे चक्कर देती कि सारी उम्र याद रखते...... अव्वल दर्जे के रेशा-ख़त्मी इंसान हैं......स्ट्रीम लाइंड आशिक़।”

मुझे मालूम नहीं बिलक़ीस ने उल्ला साहब के मुतअल्लिक़ ये राय कैसे क़ायम की थी। मैं ने उन की तरफ़ ग़ौर से देखा। ऐनक के दबीज़ शीशों के पीछे उन की आँखें गडमड सी हो रही थीं...... स्ट्रीम लाइंड आशिक़ का कोई ख़त मुझे उन के चेहरे पर नज़र न आया। मैं ने सोचा ऐसे मुआमले जांचने के लिए एक ख़ास क़िस्म की निगाह की ज़रूरत होती है जो क़ुदरत ने सिर्फ़ बिली ही को अता की थी।

उल्ला साहब ने जब मुझे घूरते देखा तो सटपटा से गए। छुटे क्रीम रोल की क्रीम बहुत बुरी तरह उन के होंटों से लुथड़ गई। “माफ़ कीजिएगा।” ये कह कर रुमाल से अपना मुँह पोछा। “क्या आप की सहेली बिलक़ीस के बारे में मेरा ख़याल ग़लत है।”

मैं ने अपने लिए दूसरा कप बनाना शुरू कर दिया। “मैं इस बारे में कुछ कह नहीं सकती।”

मेरे शौहर एक दम उठ खड़े हुए और बिलकुल “शलजम बिन जलाए तुम कभी नहीं पका सकतीं” के से अंदाज़ में कहा। “ये इस बारे में कभी कुछ कह नहीं सकेंगी।”

मैं ने ग़ैर इरादी तौर पर उन की तरफ़ देखा। बिली की उन के बारे में ये राय थी कि बनते बनते बनने के फ़न में बड़ी महारत हासिल कर गए हैं...... बेहद ख़ुश्क हैं और ये ख़ुश्की उन्हों ने अपने वजूद में इधर उधर से मलबा डाल डाल कर पैदा की है बज़ाहिर किसी औरत में दिलचस्पी ज़ाहिर नहीं करेंगे मगर हर औरत को एक बार चोर नज़र से ज़रूर देखेंगे......दफ़अतन उन्हों ने मेरी तरफ़ चोर नज़र से देखा। मैं झेंप गई।

उल्ला साहब अपने होंट तसल्ली बख़्श तौर पर साफ़ कर चुके थे। एक पेटिस उठा कर वो मेरे शौहर से मुख़ातब हुए। “यार तुम्हारी बेगम साहिबा ने तो हमें बहुत बुरी तरह डिस अपॉइन्ट किया है।”

हबीब साहिब चाय का आख़िरी घूँट पी कर बोले “दरुस्त है...... लेकिन इस मुआमले में बीवी के बजाय ख़ावंद किसी हद तक रहबरी कर सकता है।”

उल्ला साहिब ने पूछा। “तुम्हारा मतलब है, बिलक़ीस साहिबा के बारे में?”

“जी हाँ।” ये कह कर हबीब साहब उठे, मेरे शौहर के कंधे पर हाथ रखा और मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुराए। “अपनी बेगम साहिबा के ज़रिये से आप को बिलक़ीस की अजीब-ओ-ग़रीब शख़्सिय्यत के बारे में कुछ ना कुछ तो ज़रूर मालूम हुआ होगा।”

मेरे शौहर ने बड़ी संजीदगी के साथ जवाब दिया। “सिर्फ़ इसी क़दर कि इस का मुताला किताबी नहीं।” ये कह कर उन्हों ने मुझ से पूछा। “क्यूँ सईदा?”

मैं ने ज़रा तवक्कुफ़ के बाद कहा। “जी हाँ......उसे किताबों के मुताले का इतना शौक़ नहीं!”

मेरे शौहर ने एक दम सवाल किया। “तुम इस की वजह बता सकती हो?”

मुझे इस की वजह मालूम नहीं थी, इस लिए मैं ने अपनी माज़ूरी ज़ाहिर कर दी लेकिन मैं सोचने लगी कि जब बिलक़ीस का काम ही लिखना है, फिर उसे पढ़ने से लगाव क्यूँ नहीं...... मुझे याद है, एक मर्तबा नुमाइश में घूमते हुए उस ने मुझ से कहा था। “भप्पो, ये नुमाइश नहीं एक लाइब्रेरी है...... ज़िंदा और मुतहर्रिक किताबों से भरी हुई......ग़ौर तो करो कितने दिलचस्प किरदार चल फिर रहे हैं।”

सोचते सोचते मुझे उस की और बहुत सी बातें याद आ गईं। औरतों के मुक़ाबले में वो मर्दों से कहीं ज़्यादा तपाक से मिलती और बातें करती थी। लेकिन गुफ़्तुगू का मौज़ू अदब, शाज़-ओ-नादिर ही होता था, मेरा ख़याल है कि अदबी ज़ौक़ रखने वाले मर्द उस से मिल कर यक़ीनी तौर पर इस नतीजे पर पहुंचते होंगे कि बहुत ग़ैर अदबी किस्म की औरत है, क्यों कि आम तौर पर वो गुफ़्तुगू का रुख़ लिटरेचर की तरफ़ आने ही नहीं देती थी, लेकिन इस के बावजूद उस से मुलाक़ात करने वाले बहुत ख़ुश ख़ुश जाते थे कि उन्हों ने इतनी बड़ी अदबी शख़्सियत के एक बिलकुल नए और निराले पहलू की झलक देख ली है।

जहां तक मैं समझती हूँ, बिली अपनी शख़्सियत के इस ब-ज़ाहिर बिलकुल नए और निराले पहलू की झलक ख़ुद दिखाती थी, ब-क़द्र-ए-ज़रूरत और वो भी सिर्फ़ अपने मुलाक़ातियों के किरदार की सही झलक देखने के लिए। मेरे साथ उस को अपना ये महबूब और मुजर्रिब नुस्ख़ा इस्तेमाल करने की ज़रूरत महसूस न हुई थी क्यूँ कि ब-क़ौल उस के “मैं ने एक नज़र ही में ताड़ लिया था कि तुम बेहद सादा और चुग़द किस्म की लड़की हो।”

मैं बेहद सादा और चुग़द किस्म की लड़की तो नहीं हूँ। लेकिन शायद बिली ने ये राय इस लिए क़ायम की थी कि मैं ने उस की बेहस पसंद, ज़िद्दी और अड़ियल तबीअत के पेशे-ए-नज़र उस से राह-ओ-रस्म बढ़ाने से पहले ही अपने दिल में फ़ैसला कर लिया था कि मैं उस की तबीअत के ख़िलाफ़ बिलकुल ना चलूंगी। ये वजह भी हो सकती है कि उस के बअज़ अफ़साने जो बड़े ठीट किस्म के जिन्सियाती या नफ़्सियाती होते थे, मेरी समझ से आम तौर पर ऊंचे ही रहते थे। वो अक्सर ऐसे अफ़्सानों के मुतअल्लिक़ पूछा करती थी “कहो, भप्पो, तुम ने मेरा फ़लाँ अफ़साना पढ़ा। और फिर ख़ुद ही कहा करती थी। पढ़ा तो ज़रूर होगा, मगर समझ में क्या आया होगा......ख़ाक......ख़ुदा की क़सम तुम बेहद सादा और चुग़द किस्म की लड़की हो!”

मैं ये अफ़्साने समझने की कोशिश ज़रूर करती, मगर मुझे इस बात से बड़ी उलझन होती कि बिली औरत होकर ऐसी गहराइयों में कूद जाती है, जिन में उतरने से मर्द भी घबराएँ। मैं ने कई दफ़ा उस से कहा “तुम क्यूँ ऐसी बातें लिखती हो कि मर्द बैठ कर तुम्हारे मुतअल्लिक़ तरह तरह की अफ़्वाहें उड़ाते हैं।” मगर उस ने हर बार जवाब कुछ इसी क़िस्म का दिया। “उड़ाने दो...... मैं उन कीड़ों की क्या पर्वा करती हूँ...... ऐसी दुर्गत बनाऊंगी कि याद रखेंगे!”

वो कितने मर्दों की दुर्गत बना चुकी थी, इस का मुझे कोई इल्म नहीं, लेकिन मेरठ के एक अधेड़ उम्र के शायर जो दो साल तक उसे इश्क़िया ख़त लिखते रहे थे और जिसे दो साल तक ये शह देती रही थी, अंजाम कार सब कुछ भूल कर एक बहुत ही खु़फ़िया ख़त में उस को अपनी बेटी बनाने पर मजबूर हो गए थे। बल्कि यूँ कहिए कि मजबूर कर दिए गए थे...... उस ने मुझे उन का आख़िरी ख़त दिखाया था...... ख़ुदा की क़सम मुझे बहुत तरस आया था बे-चारे पर।

उल्ला साहब दूसरा पेटिस ख़त्म कर चुके थे...... हबीब साहब तफ़्रीहन ख़ाली प्याली में चम्मच हिला रहे थे। मैं उठ कर चाय के बर्तन जमा करने लगी तो उल्ला साहब ने रसमिया तौर पर कहा। “इतनी नफ़ीस चाय का बहुत बहुत शुक्रिया...... मगर ये गिला आप से ज़रूर रहेगा कि आप ने बिलक़ीस जहां साहिबा की जिन्सियात निगारी पर कोई रोशनी न डाली...... मैं सच अर्ज़ करता हूँ कि बड़े बड़े माहिर-ए-जिन्सियात भी हैराँ हैं कि एक औरत में इतनी गहरी निगाह कहाँ से आ गई।”

मैं कुछ कहने ही वाली थी कि टेलीफ़ोन की घंटी बज्ना शुरू हुई, मेरे शौहर ने रिसीवर उठाया। “हलो...... हलो...... जी?...... जी जी...... आदाब अर्ज़...... जी हाँ है।” ये कह कर उन्हों ने मुझ से कहा। “तुम्हारा फ़ोन है।” फिर जैसे दफ़अतन याद आया हो। “बिली है!”

उल्ला साहब, हबीब और मैं बैक-वक़्त बोले। “बिलकीस!”

मैं ने बढ़ कर रिसीवर लिया। गो बिलक़ीस आँख से ओझल थी, मगर मुझे ऐसा महसूस हुआ कि वो जानती है कि उस के मुतअल्लिक़ यहां बातें हो रही थीं...... इस एहसास के बाइस मैं बौखला गई। जल्दी जल्दी में उस से चंद बातें कीं और रिसीवर रख दिया...... उस ने मुझे अपने यहां बुलाया था।

महफ़िल जमी रही...... मैं घर के काम काज से जल्दी जल्दी फ़ारिग़ हो कर बिली के हाँ रवाना हो गई। कोठी के बाहर बे-शुमार अस्बाब अफ़्रा-तफ़्री के आलम में पड़ा था, इस लिए कि सफेदी हो रही थी। वो अपने कमरे में थी, मगर उस का सामान भी दरहम-बरहम था। मैं एक कुर्सी साफ़ कर के उस पर बैठ गई, बिली ने इधर उधर देखा और मुझ से कहा। “मैं अभी आई।”

चंद मिनट के बाद ही वो वापस आ गई और मुझ से कुछ दूर स्टूल पर बैठ गई।

मैं ने उस से कहा। “आज तुम्हारे मुतअल्लिक़ बहुत बातें हो रही थीं!”

“ओह!” उस ने कोई दिलचस्पी ज़ाहिर न की।

“उल्ला साहब भी थे।”

“अच्छा!”

“मैं ने उन्हें बहुत ग़ौर से देखा, मगर मुझे उन में स्ट्रीमलैंड आशिक़ के कोई आसार नज़र न आए।”

बिली ने मुस्कराने की नाकाम कोशिश की, फिर संजीदगी के साथ कहा। “मुझे तुम से एक बात करना थी?”

“क्या?”

“कोई ऐसी ख़ास नहीं।”

लेकिन उस के लहजे ने चुग़ली खाई कि बात बहुत ख़ास किस्म की है, चुनांचे मैं ने फ़ौरन सोचा कि इस के लिए ख़ास बात सिर्फ़ एक ही हो सकती है...... किसी मर्द के इश्क़ में गिरफ़्तार हो जाना। “आँख लड़ गई है किसी से?”

बिलक़ीस ने मेरे इस सवाल का कोई जवाब ना दिया...... मैं ने जब उस की तरफ़ ग़ौर से देखा तो वो मुझे बहुत ही मुतरद्दिद नज़र आई। “बात क्या है......आज तुम में वो शगुफ़्तगी नहीं।”

उस ने फिर मुस्कराने की नाकाम कोशिश की। “शगुफ़्तगी?...... नहीं तो सफेदी हो रही है ना। सारी परेशानी इसी की है!” ये कह कर वो दाँतों से अपने नाख़ुन काटने लगी। मुझे ये देख कर बहुत तअज्जुब हुआ। क्यूँ कि वो उस को बहुत ही मकरूह समझती थी।

चंद लमहात ख़ामोशी में गुज़र गए...... मैं बे-चैन हो रही थी कि वो जल्दी बात करे, लेकिन वो ख़ुदा मालूम किन ख़यालात में ग़र्क़ थी। बिल-आख़िर मैं ने तंग आकर उस से कहा। “क्या तुम मेरा नफ़्सियाती मुताला तो नहीं कर रही हो...... आख़िर कुछ कहोगी या नहीं?”

वो बड़ बड़ाई। “नफ़्सियाती मुताला......” और उस की आँखों से टप टप आँसू गिरने लगे।

मैं अभी अपने तअज्जुब का इज़हार भी ना करने पाई थी कि वो उठ कर तेज़ी से ग़ुसुल-ख़ाने में चली गई।

बिली की सदा तमसख़ुर उड़ाने वाली आँखें और आँसू?...... मुझे यक़ीन नहीं आता था मगर उस का रोना निहायत कर्ब आलूद था। और तो कुछ मेरी समझ में न आया। सीने के साथ लगा उस की ढारस दी और कहा “क्या बात है मेरी जान?”

उस के आँसू और तेज़ी से बहने लगे, लेकिन थोड़ी देर बाद एक दम आँसू रुक गए। मुझ से दूर हट कर वो दरीचे के बाहर देखने लगी। “मैं जानती थी कि ये खेल ख़तरनाक है, लेकिन मैं ने कोई परवाह न की...... क्या दिलचस्प और मज़ेदार खेल था!”

वो दीवानों की तरह हंसी। “बहुत ही मज़ेदार खेल...... उन की फ़ित्री कमज़ोरियों से फ़ायदा उठाया, चंद रोज़ बेवक़ूफ़ बनाया और एक अफ़्साना लिख दिया...... किस का अफ़्साना......बिलक़ीस जहां का...... जिन्सी नफ़्सियात की माहिर का......”

उस ने फिर रोना शुरू कर दिया और मुझ से लिपट कर कहने लगी। “भप्पो......मेरी हालत क़ाबिल-ए-रहम!”

“क्या हुआ मेरी जान?”

मुझ से दूर हट कर वो फिर दरीचे के बाहर देखने लगी। “बिलकीस जहां का ख़ातमा......कल इसी कमरे में उस का वजूद हमेशा हमेशा के लिए ख़त्म हो गया।”

“कैसे?”

“ये मुझ से न पूछो भप्पो।” ये कह कर वो मुझ से लिपट गई। “लेकिन नहीं...... मैं तुम से नहीं छिपा सकती......लो सुनो......चंद दिनों से मैं सफेदी करने वाले मज़दूर का मुताला कर रही थी...... कल शाम उसी वहशी ने अचानक......”

बिलक़ीस ने धक्का दे कर मुझे बाहर निकाल दिया और ग़ुसुल-ख़ाने का दरवाज़ा बंद कर दिया।

जब मैं घर पहुंची तो उल्ला साहब और हबीब साहब के इलावा और साहब भी मौजूद थे......बिलक़ीस जहां की हैरत-अंगेज़ जिन्सी नफ़्सियात निगारी गुफ़्तुगू का मौज़ू था।