सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा Mahendra Rajpurohit द्वारा पकाने की विधि में हिंदी पीडीएफ

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सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा

सुप्रीम कोर्ट की हालात (घर की मुर्गी दाल बराबर) जैसी हों गई है,,या यूं कहें, 45 का पती देव बन गया है,, न बच्चे सुनें, न घरवाली,आते जाते पड़ोसी भी कुछ बोल कर चले जाते ,आज तों हमारे काका के पड़ोसी, बनवारी लाल से बिच बाजार में मुलाकात हो गई ,वहीं 45 वाले पति देव, घर में तो कोई सुनता नहीं है, सोचा अच्छा मौका है भड़ास निकालने का- मेंने रास्ते से दूर निकलकर अनदेखा करना चाहा ,पर उनसे पहले तो आवाज आ गई , ओ माही कहां जा रहा है इतनी रात को,, मैंने कहा ओह चाचाजी आप, यहां कैसे, चाचा जी ने कहा मैं तों रोज शाम को यहां टहलने आता हूं, पार्क में, बातों ही बातों मैं बात घर से निकल कर सुप्रीम कोर्ट पर आ कर अटक गई , और अब तेज शेर की तरह, चाचा के शब्दबाण शुरू हो गये , यह सुप्रीम कोर्ट ने हमारी संस्कृति को तहस-नहस कर के रखा है, अब दिवाली को कह रहा है कि पटाखे मत जलाओ पटाखों से प्रदुषण होता है, होली को पानी बर्बाद मत करो कुछ कुछ चुनिंदा गालीयो के साथ, सुप्रीम कोर्ट सिर्फ हमें ही क्यो कहता है, राम मंदिर का फैसला तों कर नहीं रहा है, तारीख पे तारीख दे रहा है , मैंने काम का बहाना बनाकर कर चलता बना, चाचाजी के प्रवचन चलते छोड़ कर ,खैर " चैन की सांस ली तब तक तो सामने खड़े थे भारत के संविधान रक्षक, शांतीलाल जी , भगवान इन सभी से आज ही मिलवाना था, तब तक तो शांतीलाल के स्वर कानों में गूंज उठे , माही-, हहां चाचा जी , अरे आज तो सुप्रीम कोर्ट ने हमारे पर्यावरण के अनुकूल पटाखे नहीं जलाने की सलाह दी है, यह अच्छा किया, फलां फलाना, दो चार शुभकामनाएं सुप्रीम कोर्ट को दे दी, अब बेसारा सुप्रीम कोर्ट समझ नहीं पा रहा है, कि, लोग चाहते क्या है ,यह देश है मेरा यहां हर तरह के प्राणी बड़ी आसानी से बिच चौराहे पर मिल जाएंगे, यह है, इंडिया की राजनीति में संविधान की धमाचौकड़ी, हर काम में, कहीं पर सरकार की तलवार जनता के गरदन पर,। और कहीं कहीं तों सुप्रीम कोर्ट का हथोड़ा जनता के माथे पर, पड़ ही जाता है सरकार और सुप्रीम कोर्ट का आपस में चल रही यह जंग ने जाने कब-क्या कर बैठे, भगवान जाने, हम सब मानव जीवन के लिए लालायित रहते हैं, हमारी संस्कृति और सभ्यता की रक्षा का ठेका हमने कुछ कुर्तीया पायजामा वाले नेताओं के हाथ में दे दिया है और हम अपने अपने परिवार के झगड़ो में ही उलझे हुए हैं। हम क्या करते हैं, क्यूं करते हैं ,हम सब मानव पशु के समान अपने लिए ही जिते हुए सिधे किचन से बेडरूम तक ही सीमित रह गये है। न हम देश की सोचते हैं न सभ्यता और संस्कृति का ख्याल रखना पसंद करते हैं यह सब जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ, सुप्रीम कोर्ट और सरकार पर डाल कर हम तो गहरी नींद में सो रहे हैं बड़े आराम से , धन्यवाद भारत की बिरादरी। अब मैं भी चला रात हो रही है,