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हाईजेनिक हेबिट

हाईजेनिक आदतें
आजकल कई तरह की बीमारियों ने लोगों को घेरा हुआ है जो गंभीर समस्या की तरह है । पुराने जमाने में लोग बहुत सी हाईजेनिक आदतें अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में अपनाते थे जिससे उन्हे बीमारियां कम लगती थी, लोग स्वस्थ रहते थे। आज कल के लोगों की तरह बहुत सी बीमारी उन्हे नहीं घेरे रहती थी।
हमारे गांव में मेरे दादा जी व सारे गांव वाले सो कर उठने के बाद सबसे पहले चूल्हे को साफ करत,े अगर चूल्हा मिटटी का है तो सबसे पहले उसे गोबर व मिटटी से लीपा जाता था फिर उसमें खाना पकाया जाता था। कहीं बाहर या खेत से लोग घर आते थे तो सबसे पहले अपने हाथ-पांव ध्ािुलते थे ताकि बाहर की गंदगी घर -बिस्तर में न आए। तब से हम बच्चों ने भी अपने दादा जी से सीख ली है जिससे हम बीमार कम पड़ते हैं ।
जिस हैंडवाश करने पर आज हम इतना जोर दे रहे हैं व टीवी या शहर से लेकर गांव तक पोस्टर और मीडिया में हैंडवाश करने के लिए विज्ञापन दे रहे हैं, जोर शोर से प्रचार कर रहे हैं ताकि लोग स्वच्छता के नियम सीखें। उस तकनीकी को हमारे पूर्वजों ने काफी पहले ही ईजाद कर लिया था वे बिना साबुन के ही राख या मिट्टी से हाथ धुलते थे।
आज जब भी मैं सुबह सोकर उठती हूं तो सबसे पहले चूल्हे के आस पास फिनायल का पोंछा लगाती हूं जिस तरह पहले के लोग गोबर व मिटटी से चूल्हे व चूल्हे के आसपास मिटटी से लीपते थे ,ताकि खाना किटाणु रहित रहे उसमें कीटाणु न रहें । हम अगर इस तरह की सफाई करते हैं तो तन के साथ मन भी खुश रहता है।
लोग पहले अपने बिस्तरों को हमेशा धूप में सुखाते थे व झाड़ पोंछ के रखते थे ताकि उनमें अद्ष्य कीटाणु, पिस्सु ,खटमल न रहें। पहले लोग कई पहाड़ी गांव में कपड़े धोने के साबुन की जगह अरीठा के दानों को कूटकर उसको पानी में मिला कर तरल साबुन बना कर कपड़े धोते थे। इससे धुले कपड़े मेें एलर्जी भी नहीं होती थी व कपड़े सुरक्षित भी रहते थे।
इसी तरह गांव में पहले लोग मंहगे केमिकल वाले डिटर्जेन्ट के बदले राख से बर्तन और ऊनी कपड़े धोते थे। ये राख पहाड़ी जंगलों से लायी गयी लकड़ियों से बनती। आयुर्वेद कहता है कि जो गुण पौधों में होते हैं वही इसकी लकड़ी को जलाकर बनी राख में भी होती हैं। तो ये राख कई तरह के औषधि पादप-पेड़ों की लकड़ी से बनी होने के कारण प्राकृत रुप से ‘‘मेडिकेटेड’’ होती थी।
आजकल लोग बहुत सारे केमिकल वाले साबुन से नहाते हैं व बाल धोने के लिए इस्तेमाल करते हैं लेकिन पहले भीमल एक तरह की पत्ती वाले पेड़ जिसके छोटे छोटी टहनियों को छील कर लोग उसका इस्तेमाल नहाने के लिए करते थे जिसमें केमिकल न होने के कारण लोगा त्वचा संबधी रोगों से बचे रहते थे। वहीं लोग बर्तन धोने के बाद रोज धूप में सुखाने के लिए रख देते थे ताकि सूर्य की किरणों मंे सूखने पर बर्तन कीटाणु रहित हो जाए।
ज्यादातर भारतीय घरों में या पहाड़ी घरों में पहले प्लास्टिक के बर्तनेां का उपयोग नहीं होता था, लोग प्लास्टिक में मिले रसायनिक खतरों से लोग बचे रहते थे । लोग बांस (बौना बांस-रिंगाल)की टोकरी रोटी रखने के लिए व आटा गूंथने के लिए भी धातु की बनी परात का प्रयोग करते ।
इनमें से बहुत सी आदतें लोग आज अपनी जीवनशैली से बाहर कर दिए। आज दूषित व मिलावटी खानपान और आदतों से अपने स्वास्थ्य रक्षा नहीे कर पा रहे हैं। इन सुरक्षित आदतों को अपनाने के बारे में ज्यादा जानकारी न होने के कारण गांवों और शहर दोनो जगह लोग इसका फायदा नहीं ले रहे।
आलेख - लक्ष्मी नौटियाल
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