जीत सूर्योदय से पहले ही जाग गया। कुछ समय होस्पिटल में ही घूमता रहा। वह बाहर निकला और राज मार्ग पर आ गया। मार्ग खाली से थे। केवल कुछ कोहरा था।
चाय की एक दुकान खुली थी। वहाँ दो तीन लोग मध्धम ठंड का गरम चाय के साथ आनंद ले रहे थे। जीत ने भी चाय मँगवाई। चाय आई। वह चाय पीने लगा, धीरे धीरे। जैसे वह समय को रोकना चाहता हो। अपनी मृत्यु को दूर रखना चाहता हो। वह धीरे धीरे पीता रहा। एक कप चाय पीने में जीत को पूरे 26 मिनट लगे। इस बीच कई लोग चाय पीकर चले गए।
“आज पूरा समय ले कर आए लगते हो। कहाँ से आए हो?” चाय वाले ने अपनी उत्सुकता व्यक्त की।
जीत मुस्कुराया, उस चाय वाले को देखता रहा।
“सा’ब आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया।“
“यह पूरा समय क्या होता है, तुम जानते हो? कुछ क्षण यूं ही बैठे रहना, कुछ काम काज नहीं करना, अथवा कोई काम में हमारे गणित से अधिक समय लेना। यह सब को पूरा समय बोलते हैं?”
“सा’ब आप कहीं कोई कवि अथवा विचारक अथवा कहानीकार तो नहीं?”
“बिलकुल नहीं। तुम्हें मैं ऐसा लगता हूँ?”
“कई सालों से मैं यह चाय की दुकान चलाता हूँ। बड़े बड़े कवि, कहानीकार, चिंतक और कई बार तो फिल्मी कलाकार भी चाय पीने के लिए आते हैं और आप ही की भांति इस छोटे से कप में भरी थोड़ी सी चाय को पीते पीते घंटा भर बिता देते हैं।“
“उस घंटे भर वह क्या करते हैं?”
“क्या पता? बस बैठे रहते हैं, कहीं कुछ विचारों में खो जाते होंगें। हो सकता है उनकी आँखें कोई और दुनिया को देख रही हो। आप क्या कर रहे थे, इतनी देर तक? क्या आप भी…?”
“नहीं नहीं, मैं कोई कवि या चिंतक नहीं हूँ। ना ही मैं फिल्मी कलाकार। अरे यह बताओ, वह सब लोग चाय पीने के बाद पैसा तो चूकाते हैं ना?”
“कई लोग भूल भी जाते हैं।“
“कितने उधार होंगे ऐसी चाय के?”
“क्या करोगे जान कर, सा’ब? क्या आप उन सब का पैसा चुका दोगे? क्या आप भी उधार...? यदि आप के पास पैसा नहीं हो तो कोई बात नहीं।“ चाय वाला उबल रही चाय के पास लौट गया। जीत ज़ोर से हंस पड़ा। उसका हास्य अभी भी खाली पड़े मार्ग पर बिखर गया। चायवाले ने जीत की तरफ देखा, देखता रहा, उसको समझने का प्रयास करता रहा। उबलता हुआ दूध अपने बर्तन की सीमा लांघकर उभर चुका था।
“ऐसे लोगों के चक्कर में मेरा नुकशान हो गया।“ चायवाला बड़बड़ाया।
जीत उठा, जेब से कुछ रूपये निकाले और चायवाले के पास गया,”क्या नाम है तुम्हारा?”
“कोई भी हो, तुम्हें क्या? जाओ, आप की चाय के पैसे नहीं चाहिए मुझे।“ उस ने उपेक्षा की।
“कोई बात नहीं। यह दो हजार रुपए रख लो।“ जीत ने रुपए दिये।
“सा’ब एक चाय के इतने नहीं होते। आपने तो एक ही चाय पी है।“
“यह मेरी चाय के नहीं है। यह तो उन कलाकारों के हैं जिसने पैसे नहीं चुकाए। हाँ, मेरी चाय के पैसे तो अभी भी उधार ही रखना।“ जीत हँसता हुआ चल दिया।
“सा’ब, मेरा नाम किशन है। याद रहेगा ना? और फिर कभी आइएगा चाय पीने, लंबी चाय...।” किशन के शब्द सुनते सुनते जीत अस्पताल लौट गया।
(*)(*)
जीत ने घड़ी देखि। आठ बज रहे थे। दिलशाद घर गयी थी, उसे आने में अभी एक घंटा बाकी था। जीत अपनी योजना पर काम करने लगा। दाढ़ी हटा दी, सर पर से पूरे बाल हटा दिये। उसने आइने में देखा। स्वयं को पहेचान नहीं पाया। हंस दिया, प्रसन्न हो गया।
आवश्यक सामान एक छोटी सी बेग में डाल दिया, कक्ष से बाहर निकला। अभी भी अस्पताल सोया हुआ था। खास कोई रोगी थे नहीं, और जो थे वह अभी भी नींद अथवा आलस के आश्लेष में थे। एक चौकीदार था पर वह समाचार पत्र पढ़ने में व्यस्त था।
जीत हॉस्पिटल छोडकर मार्ग पर आ गया। थोड़े कदम पर उसे टेकसी मिल गयी, टेकसी दादर स्टेशन की दिशा में दौड़ने लगी।
उसने एक टिकट लिया और लगभग छुट रही लोकल ट्रेन में चढ़ गया। ट्रेन दहाणु रोड तक जाती थी, वह दहाणु उतर गया। वहाँ से बस से सूरत होते हुए अमदावाद जा पहुंचा। गगन में संध्या प्रवेश कर चुकी थी।
(*)(*)(*)
ठीक 9.18 मिनट पर दिलशाद अस्पताल पहुंची। सीधे जीत के पास दौड़ गई। जीत अपने कक्ष में नहीं था। दिलशाद ने बाथरूम मे देखा, जीत नहीं मिला। आवाज लगाई, नहीं मिला कोई जवाब। थोड़ी गभराई सी बाहर निकली, इधर उधर देखने लगी। जीत कहीं नहीं था।
चौकीदार से पूछा,” यह रूम नंबर 107 वाले साहब कहाँ है?”
“जीत साहब की बात कर रहे हो न?”
“हाँ, वही। कहाँ है वह? तुमने उसे कहीं देखा है क्या?”
“हाँ, सुबह सुबह वह घूमने निकले थे, करीब 6 बजे के आस पास।“
“फिर? फिर कब लौटे? या अभी तक लौटे ही नहीं?”
“एकाद घंटे के बाद वह लौट आए थे। सीधे अपने कमरे में चले गए थे। बाद में उसे बाहर जाते नहीं देखा।“
“तुझे पक्का विश्वास है कि वह लौट आए थे?”
“हाँ, पक्की बात है। लौटते समय उसने मुझे 500 रुपये,” चौकीदार ने जेब से रुपये निकले,”यह देखो, यह 500 रुपये का नोट मुझे बक्षिश भी दिया था। देखो यही है वह नोट।“
“तो फिर कहाँ गए? वह अपने कक्ष में नहीं है। कहीं उसे वापिस बाहर जाते तो नहीं देखा?”
“नहीं जी। यहाँ से वह बाहर नहीं गए। आप उसके मोबाइल पर कॉल करो ना?” चौकीदार की बातें आधी सुनी दिलशाद ने। लौट आई कक्ष में।
मोबाइल पर जीत को फोन लगाया। जीत के फोन की घंटी बजी। वह उत्सुक हो उठी, जीत के जवाब की प्रतीक्षा करने लगी। अचानक कक्ष के कोने में पड़े जीत के मोबाइल की घंटी बजी।
“श्रीमान अपना मोबाइल यहाँ छोड़े हैं।“ दिलशाद ने फोन काट दिया, क्रोध से।
“जीत कहाँ हो तुम?” दिलशाद चिल्लाई,”अब आ भी जाओ। यह छुपा छुपी का खेल मत खेलो। प्लीझ... जीत...।” दिलशाद की ध्वनि कक्ष की दीवारों से टकराकर नष्ट हो गई।
दिलशाद मौन हो गई। कुछ समय तक उसे कुछ भी नहीं सुझा। वह शून्यमनस्क सी बैठी रही। स्वयं को आश्वस्त करती रही, ‘यहीं कहीं गया होगा, आ ही जाएगा थोडे समय में।‘
वह मन ही मन अपने शब्दों को दोहराने लगी। ‘सब ठीक हो जाएगा, जीत यहीं होगा, लौट आएगा..।’
समय बीतता चला गया, 10.00,
10.30,
11.00 बज गए पर जीत के कोइ संकेत नहीं मिले।
“जीत, कैसे हो? तैयार हो ना तुम?” डॉक्टर नेल्सन कक्ष में प्रवेश कर गए।
“दिलशाद कैसी हो? जीत कहाँ है? उसे हिम्मत देते रहना।“ नेल्सन ने पूरे कक्ष में द्रष्टि डाली। उसे जीत दिखाई नहीं दिया। दिलशाद को देखा, वह निराश थी।
“दिलशाद क्या हुआ?”
“नेल्सन, जीत कहीं नहीं है।”
“अरे, गया होगा यहीं कहीं। आ जाएगा। तुम चिंता मत करो।“
“नेल्सन, सुबह 9.15 से मैं यहाँ हूँ और वह तब से गायब है। कोई पता नहीं वह...।” दिलशाद टूट गई, रो पड़ी। नेल्सन स्थिति को समझ गया। जीत वास्तव में कहीं चला गया था। दिलशाद को रोते हुए देखता रहा। मन तो कर रहा था कि दिलशाद को आलिंगन में लेकर उसे शांत करूँ, पर नेल्सन ने स्वयं को रोका। दिलशाद को रोने दिया। वह रोती रही। नेल्सन चला गया।
11.30 पर एक टेक्षी हॉस्पिटल के पास आकर रुकी। एक व्यक्ति हाथों में कुछ फाइलें लेकर बाहर निकला, टेक्षी चली गई। वह सीधा जीत वाले कमरे में घुस गया। उसने टेबल पर सारी फाइलें रख दी और एक तरफ खड़ा हो गया।
दिलशाद उसे देखती रही,”आप कौन हो और यह सब क्या है?”
“जीत सा’ब ने यस हब आपके लिए भेजे हैं। आप इसे संभाल लीजिये और मुझे इन सब से मुक्त कीजिये।“
वह हाथ जोड़कर कोने में खड़ा हो गया।
“पर कहाँ है आप के यह जीत सा’ब?” वह उठ खड़ी हो गयी, उस व्यक्ति के हाथ पकड़ लिए।
जीत के गुम होने की क्षण से अब तक यह पहला व्यक्ति था जो जीत के बारे में कुछ जानता था। दिलशाद ने उसे फिर से पूछा,”कहाँ है जीत?”
वह मौन खड़ा रहा। “तुम बताते क्यूँ नहीं? इस तरह चुप क्यूँ हो?” दिलशाद गुस्साई।
वह मौन ही रहा। हाथ जोड़े खड़ा रहा।
दिलशाद के कई बार पुछने पर भी उसने कोई जवाब नहीं दिया तो दिलशाद एक के बाद एक सब फाइलें देखने लगी।
दिलशाद ने सारी फाइलें बंध कर दी। वह जान चुकी थी कि जीत उसे छोडकर कहीं चला गया है। और सारी संपत्ति और व्यापार दिलशाद के नाम कर गया है।
दिलशाद विचलित हो गयी।
“जीत ने ऐसा क्यूँ किया? क्या चाहता था वह? कहीं मैं तो इस के...?” वह सोच ही रही थी कि उस व्यक्ति ने एक बंध कागज दिलशाद के हाथों में रख दिया,“यह जीत सा’ब का पत्र, आप को देने को कहा था।“
दिलशाद ने पत्र लिया। अधिरपन से, अधीर मन से उसे पढ़ने लगी।
दिलशाद,
यह पत्र जब तक तुम्हारे हाथों में आएगा तब तक मैं कहीं दूर निकल जाऊंगा। बहुत दूर कि जहां ना तो तुम सोच सकती हो ना ही तुम पहोंच सकती हो।
मैं जिंदगी से हारा नहीं हूँ। ना ही मैं आत्महत्या करने वाला हूँ। किन्तु मृत्यु से पहले मैं जीना चाहता हूँ, अपने ढंग से अपनी इच्छा से। मृत्यु पहले मैं मरना नहीं चाहता।
मैं जानता हूँ कि मेरे पास अब ज्यादा समय नहीं है। हर कोई मेरी मृत्यु की प्रतीक्षा करता है और जब तक मैं जीवित हूँ प्रत्येक क्षण आप सब की आँखों में मेरी मृत्यु की प्रतीक्षा रहेगी। केवल मैं ही हूँ जो मेरी मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं करता।
उस संध्या तुम अपनी ब्रा खोकर आई थी अथवा मुझे? जिस क्षण तुम्हारी ब्रा टूटी थी उसी क्षण हमारे संबंध और हमारे प्रेम का विश्वास भी टूट गया था।
मैंने पूरी संपत्ति और व्यापार तुम्हारे नाम कर दिया है। तुम्हें ही उसे संभालना होगा।
नेल्सन अच्छा डॉक्टर है, लड़का कैसा है वह मुझसे ज्यादा तुम जानती हो। चाहो तो उससे विवाह कर सकती हो। संसार के जिस बंधन से हम दोनों जुड़े थे उन सब बंधनों से तुम मुक्त हो।
मेरे विषय में जानने की अथवा मुझे ढूँढने की व्यर्थ चेष्टा मत करना। मैं हाथ नहीं आने वाला।
प्रसन्न रहो।
जीत।
दिलशाद की आँखों से कुछ बूंदें टपक गई, गालों से होते हुए उस कागज को भी गीला कर गई।
दिलशाद ने स्वयं को संभालने का प्रयास किया। उसने उस व्यक्ति की तरफ देखा। वह व्यक्ति वहां नहीं था। वह उठी, दौड़ी, भागी उस व्यक्ति को पकड़ने। वह अस्पताल के द्वार पर आ गई। दूर मार्ग के पड़ाव से टेक्षी पकड़कर वह व्यक्ति चला गया। मुंबई की गलियों में विलीन हो गया। दिलशाद उसे जाते हुए देखती रही।
कौन था वह? सोचती रही।
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जीत ने अमदवाद से नया मोबाइल फोन और सिम कार्ड लिया। किसी का भी नंबर उसमे नहीं डाला। दूर जाती एक बस में चढ़ गया। वह बस भुज जाती थी। वह भुज से कच्छ के रण में गया, वहीं रुक गया। सारे संसार से अलग, गुप्त और अकेला। कोई नहीं जानता था कि जीत कहाँ गया।