लौट आओ दीपशिखा - 5 Santosh Srivastav द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

लौट आओ दीपशिखा - 5

लौट आओ दीपशिखा

उपन्यास

संतोष श्रीवास्तव

अध्याय पाँच

चाँगथाँग वैली में झील के ऊपर कुछ काली पूँछ वाले परिंदे उड़ रहे थे| काली गर्दन वाले सारस भी थे|लद्दाख़ में इन्हें समृद्धि का प्रतीक माना जाता है और इसीलिए बौद्ध मठों की दीवारों पर इन्हें उकेरा जाता है| दीपशिखा ने चलती कार में ही इस दृश्य का स्केच बना लिया| नीलकांत उसे मुग्ध आँखों से निहारता रहा|चढ़ाईपर हवा का दबाव काफ़ी कम था| बर्फ़ानी विरल हवा में साँस भरना मुश्किल हो गया| सुलोचना ने कपूर उसके पर्स में रखते हुए कहा था- “चढ़ाई पर इसकी ज़रुरत पड़ेगी| सूँघती रहना| यह एक अच्छा ऑक्सीजनवाहक है|”

उसने पर्स में से कपूर की एक टिकिया नीलकांत को दी, दूसरी खुद सूँघने लगी| साँसें नॉर्मल हो गईं|

“कपूर मेरे पास भी है| हमें तो रात दिन की भागदौड़ यह सब सिखा देती है पर आप?”

“कुछखबरें तो हम भी रखते हैं|” दीपशिखा अब नीलकांत के संग सहज हो रही थी|

लम्बेरोमाँचक सफ़र के बाद पैंगोग झील सामने थी| मोरपंखी रंगों वाली झील..... दीपशिखा ने कार से उतरते ही दूरबीन आँखों से सटा ली| नीला, हरा, बैंगनी, पीला, गाढ़ा नीला..... इतनेरंगों का पानी..... आश्चर्य?पीछे पर्वतों का सौंदर्य अद्भुत था| दो तीन रंग के पर्वत झील को अपनी गोद में समेटे थे| दूर चुशूल था..... वह लैंड जिसके इस पार भारत और उस पार चीन है| सर्दियों मेंझील जम जाती है| पाँच फीट तक की गहराई में पानी ठोसबर्फ़ बन जाता है| तब उस पर फौजी गाड़ियाँ चलती हैं जो सीमा पर सैनिक शिविर में सामान पहुँचाती हैं| इतने ठंडे, सुनसान इलाके में सैनिक देश की रक्षा के लिए डटे रहते हैं|”

फिल्म के शॉट्स रेडी थे| धूप में चौकोर बोर्ड सरीखे कैमरे चौंधियाई रोशनी में पलकें बंद कर लेने को मजबूर कर रहे थे| हीरो हीरोइन पर एक गाना फिल्माया गया| गाने के तीन अंतरे में से एक ही अंतरा शूट हो पाया कि लंच टाइम हो गया| सबके लिए पैक्ड लंच था| वह नीलकांत और हीरो हीरोइन के साथ बैठकर लंच लेने लगी| सैनिकों ने उनके लिए टैंट की व्यवस्था कर दी थी और पूरी टीम के लिए फौजकी तरफ़ से कॉफ़ी बन रही थी|

“बोर तो नहीं हो रही हैं दीपशिखा जी?” नीलकांत के सवाल पर दीपशिखा ने चौंकते हुए कहा- “क्याऽऽ इतने खूबसूरत इलाके में कोई बोर हो सकता है भला|”

“नहीं, मैं शूटिंग में बिज़ी हूँ और आप अकेली, इसलिए पूछा|”

“चित्रकार को अकेलापन वरदान लगता है| काशमैं कैनवास ले आती तो बात ही और थी|”

“अरे, लेआतीं न|”

वह कॉफ़ी की चुस्कियाँ भरती रही|

आधे घंटे बाद शूटिंग फिर शुरू हो गई| वह अपनी स्केच बुक को लेकर रंग बिरंगे पर्वतों और झील के सौंदर्य में डूबगई|

सूर्यास्त के पहले नीचे उतर जाना है| नामग्याल जल्दी मचा रहा था| बहरहाल पैकअप करते करते धूप ढलने लगी थी|

डिनर के लिए फिर नीलकांत का ऑफर..... दीपशिखा क्यों इतनी मजबूर थी उसके सामने कि उसके हर प्रस्ताव पर रज़ामंदी की मोहर लगा देती| कहीं उसके चोट खाए दिल पर नीलकांत मलहम बनकर तो नहीं आ गया था?

हफ़्ते भर के लिए आई थी दीपशिखा लेकिन नीलकांत के साथ दस दिन कहाँ चले गये पता ही नहीं चला| हर बार शूटिंग में दीपशिखा नीलकांत के संग होती, जब लौटती तो स्केच बुक चित्रों से भरी होती| प्रकृति को उसने बहुत नज़दीक से महसूस किया यहाँ| रंग-बिरंगे पर्वतों के ईश्वर द्वारा बनाए लैंडस्केप को उतनी ही खूबसूरती से उतारना..... बर्फ़ की कठोरता के संग कोमलता भी महसूस करना..... अद्भुत दरख़्तों से बतियाना..... बौद्ध मठों में लामाओं का कठोर जीवन..... बौद्ध धर्मावलम्बियों की बौद्ध धर्म में इतनी आस्था है कि वे दस वर्ष की उम्रमें ही अपने पुत्र को मठ को सौंप देते हैं|उन्हें पता है कि उसका बचपन छिन रहा है और वह सांसारिक सुखों से वंचित किया जा रहा है| अब उसे सारा जीवन वरिष्ठ लामा की देखभाल में बितानाहै और बौद्ध भिक्षु बनना है जिसमें कहीं भी उसकी मर्ज़ी को स्थान नहीं है|बौद्धधर्मावलम्बीनिर्वाण धम्मचक्र घुमाते हैं और यह मान लेते हैं कि उन्हेंजीवन मरण के चक्र से मुक्ति मिल गई|अगर सभी ऐसा मान लें तो एक दिन तो यह संसार मनुष्यविहीन होजाएगा| तब क्याहोगा? घबरा गई दीपशिखा|

एयरपोर्ट पर नीलकांत की टीम का वह भी एक हिस्सा बनकर जब हवाई जहाज में बैठी तो अपने बाजू वाली सीट पर नीलकांत को ही पाया|नीलकांतअपना कार्ड उसे दे रहा था- "पहुँचकरशायद वक़्त न मिले| हमें कार्गोबेल्ट में सामान के लिए काफ़ी देर रुकना पड़ता है| बॉम्बे पहुँचकर संपर्क में ज़रूर रहना| मेरेलिये ये दस दिन बहुत कीमती थे|”

“जी.....”

“ऑफ़कोर्स..... फिल्म की शूटिंग पूरी हो जाना एक वजह थी और एक वजह आप| इस चंद्रप्रदेश में मैं ऐसे चाँद की उम्मीद से तो नहीं आया था न|”

कहते हुए उसने लाड़ से देखा उसे| वह भीतर ही भीतर पिघलने लगी|

पीपलवाली कोठी के अपने कमरे में जब वह तरोताज़ा होकर सुलोचना के हाथ के बने गर्मागर्म भजिए खा रही थी तो सुलोचना ने उसके चहरे को ग़ौर से देखा, अब वहाँ पहले वाली उदासी-अवसाद न था बल्कि एक चमक थी जो अक़्सर पतझड़ के बाद बहार आने पर पेड़ों के पत्तों में होती है| नई कोंपलों पर जब धूप की किरनें पड़ती हैं तो पूरा जंगल चमक उठता है| सुलोचना जाने को मुड़ीं..... कहीं उनकी ही नज़र न लग जाए उनकी बिटिया पर-

“बैठो न माँ..... इतने दिनों बाद लौटी हूँ मैं| वहाँ की बातें तो रात को सोते समय बताऊँगी| अभी चित्र तो देख लो| फ्रांस में एग्ज़िवीशन की पूरी तैयारी कर ली है मैंने|”

सुलोचनादीपशिखा के पंखों का वजन तौलने लगीं|सोचने लगीं जब ये पेट में थी तो वे किन ख़यालों में डूबी रहती थीं..... चित्रकार के तो नहीं ही|

नीलकांतमुम्बई पहुँच चुका था क्योंकि सुबह-सुबह उसी का फोन था- “कैसी हैं दीपशिखा जी?”

“जी, आप कैसे हैं?”

“एकदम रिलैक्स मूड में| अगले महीने शूटिंग के लिए पेरिस जाना है| वहीं के लिए ऊर्जा जुटा रहा हूँ|”

“क्याऽऽ पेरिस!! आप पेरिस जा रहे हैं?”

“हाँऽऽ..... उसमें इतना आश्चर्य क्यों? फिल्म के अंतिम शॉट्स वहीं के तो लेने हैं|”

“ओह..... अगले महीने शायद मैं भी पेरिस.....”

“क्याऽऽ फिर वही इत्तिफ़ाक़..... भई वाह, कमाल हो गया|”

“जी हाँ नीलकांत जी| हमारा ग्रुप तो कब से पेरिस में एग्ज़ीवीशन प्लान किये हुए है| मैं कल ही मुम्बई लौट कर इसे अंतिम रूप दूँगी और वीज़ा के लिए एप्लाई करूँगी|”

“इस जद्दोजहद में मत पड़िए| आपकी पूरी टीम को वीज़ा दिलाने का ज़िम्मा मेरा| आप मुम्बई आईये फिर मिलते हैं|”

एक सनसनी सी फैल गई दीपशिखा के तनबदन में| उसका ख़्वाब इतनी जल्दी साकार होगा सोचा न था उसने| वह खुशी में भरकर सुलोचना से लिपट गई- “माँ, फ्रांस में एग्ज़ीवीशनका पक्का हो गया| मुझे कल ही मुम्बई लौटना होगा|”

सुलोचना के चेहरे पर बनावटी गुस्सा था- “यह क्या दीपू, अभी आईं, अभी चल दीं|”

“माँ, इस वक़्त मत रोको मुझे..... अगर मौक़ा हाथ से गया तो क्या पता दोबारा चांस न मिले| माँ प्लीज़|”

जो सपना उसकी आँखों में पल रहा था उसके रेशमी सिरों ने पूरा आसमान थाम रखा था| मानो आसमान नहीं कैनवास हो| फ्रांस के चित्रकारों की नक़ल की एक प्रदर्शनी उसने मुम्बई में फ्रेंच दूतावास में देखी थी| उन्हें देखकर मूल चित्रों को देखने की मन में जो लालसाजागी तभी से उसका पूरा ग्रुप फ्रांस जाने और अपने चित्रों की प्रदर्शनी लगाने की धुन में लगा है| ‘अंकुर ग्रुप ऑफ़ आर्ट’ बड़ी सक्रियता से काम कर रहा है|

मुम्बई इस बार वह अकेली ही आई| सुलोचना और यूसुफ़ ख़ान ने मान लिया था कि दीपशिखा अपने तरीके से अपनी ज़िन्दग़ी जीना चाहती है और अगर ज़्यादा दखलंदाज़ी की तो हो सकता है वे बेटी से ही हाथ धो बैठें|

आते ही उसने सारे मित्रों को फोन लगाए, नीलकांत को भी- “आ गई हूँ|”

“वेलकम दीपशिखा, इस वक़्त मीटिंग में हूँ| शाम को बात करेंगे|”

शाम को सारे मित्र घर आ गये| दाई माँ और महेश काका जुटे थे रसोई घर में, पावभाजीऔर गुलाब जामुन की ख़ास फरमाइश थी|

“बड़ी खुशबू आ रही है| क्या कुछ ख़ास बनाया जा रहा है?” शेफ़ाली ने दीपशिखा को बाहों में भर लिया|

“क्यों नहीं..... मेरे दोस्त भी तो ख़ास हैं|”

मुकेश को छोड़कर कहना चाहा शेफ़ाली ने पर वह दीपशिखा के चेहरे की खुशी को उदासी में नहीं बदलना चाहती थी|हो जाता है ऐसा ज़िन्दग़ीमें..... ज़िन्दग़ी के सफ़र में कई बार अजनबी मिल जाते हैं और सफ़र अधूरा छोड़कर बिछुड़ जाते हैं| ज़रूरी तो नहीं कि अंत तक साथ दिया जाये|जितना साथ दिया, उतनाक़ीमती लम्हों के कोष में समा जाता है|जब कभी फुरसत होगी कोष खोला जायेगा|

शेफ़ाली रसोईघर में गई और गरम-गरम गुलाब जामुन मुँह में भर लिया| दाई माँ हँसने लगीं| वह हँसी तो चाशनी होठों के इर्द गिर्द बह आई|

सभी आ चुके थे, भूखे प्यासे..... सबसे पहले खाने पर टूट पड़े फिर इत्मीनान से पेरिस में लगाई जाने वाली प्रदर्शनी पर एकाग्र हुए|

“मेरी थीम तो लगभग पूरी हो चुकी है| महीने भर बाद हमें कूच करना है|” दीपशिखा उत्साह से भरी पूरी थी|

“कला के मैदान के लिए|” सना खिलखिलाई|

“बिना हार जीत की परवाह किये|” एंथनी भी मूड में आ गया| देर रात तक सबने प्रदर्शनी की फाइल फाइनल कर ली| तय हुआ कि कल स्टूडियो में सब अपने-अपने पासपोर्ट औररुपएदीपशिखा के पास जमाकर देंगे| सब चले गये शेफ़ाली को छोड़कर|

“सच बता दीपशिखा, कोईमिल गया क्या? तेरा चेहरा एक क़िताब है, जिसे मैं पढ़ सकती हूँ|”

जाने क्यों दीपशिखा का मन लड़खड़ा गया| उसका ध्यान शेफ़ाली के इस सवाल पर नीलकांत की ओर क्यों गया?

“नहीं जानती शेफ़ाली पर तेरे सवाल के साथ ही नीलकांत क्यों याद आया समझ नहीं पा रही हूँ|” और उसने लद्दाख़ में नीलकांत के साथ बिताए दिनों को शेफ़ाली के सामने ब्यौरेवार रख दिया| उसे लगा जैसे वह पंख सी हलकी हो आसमान में तैर रही है| एक बिजली सी ज़रूर कौंधी मुकेश की यादों की पर बिजली की तरह ही उसके धोखे के काले बादलों में समा भी गई|

“मैं मिलना चाहूँगी नीलकांत से..... बस देखा भर है भोपाल के एग्ज़ीवीशन में जब वे तेरे सारे चित्रों को ख़रीद रहा था| मुझे वह कला का पारखी लगा था|”

लेकिनशेफ़ालीइसलिए भी मिलना चाहती थी कि कहीं उसकी भोली भाली सखी दोबारा न छली जाये|

“मिला दूँगी..... कलाकार तो है ही वह..... फिल्मों का निर्देशक जो ठहरा|”

शेफ़ालीदीपशिखाकेगले लग दरवाज़े की ओर बढ़ी- चलती हूँ, अपनाध्यान रखना|”

शेफ़ाली के जाते ही नीलकांत का फोन..... मानो प्रतीक्षा ही कर रहा था कि कब दीपशिखा अकेली हो|

“क्याकर रही हो?”

“कुछ नहीं..... अभी-अभी दोस्त विदा हुए हैं|प्रदर्शनी प्लान कर ली है| कल सब अपना पासपोर्ट ले आयेंगे|मैं परसों आपको वीज़ा के लिए दे दूँगी|”

“लेकिन उससे पहले मिलोगी नहीं?”

“कब?”

“कल शामहम गेटवे ऑफ़ इंडिया चलेंगे| थोड़ी देर बोटिंग फिर ताज में डिनर|”

वह सकुचा गई| दिल के हर कोने में द्वंद्व मचने लगा| वह दिल की सुने या दिमाग़ से काम ले|

“चुप क्यों हो दीपशिखा..... इतना सोचती क्यों हो? ज़िन्दग़ीजीने के लिए है और अच्छे, सच्चेदोस्त मुश्किल से मिलते हैं|”

उसकेटूटेदिल पर इन शब्दों ने मलहम का काम किया|

“मैं आऊँगी नीलकांत|”

उसने हिम्मत बटोरकर उसका नाम लिया| नीलकांत की आवाज़ भी लरज गई- “थैंक्यू..... डियर, मिलते हैं फिर|”

स्टूडियो में नशा तारी था| यह नशा दीपशिखा सहित सभी चित्रकारों ने विगत दो वर्षों के साथ से अर्जित किया था| मुकेश की कमी अब खलती नहीं थी| वैसे भी कलाकार भावुक होते हैं| सोच लिया कि रही होगी कोई मजबूरी मुकेश की वरना कौन अपने उभरते करियर कोठोकर मारता है| दोपहर को एंथनी ने बीयर मँगाई थी- “आज हम एक-एक जाम मुकेश को अलविदा कहने का लेंगे और फिर काम में तल्लीनता से जुट जाएँगे|” “हाँ, मेरी स्केच बुक और दिमाग़ में फीड लद्दाख़ की प्रकृति..... बस मुझे उसके साथ खुद को जोड़ देना है| वहाँ के रंग बिरंगे पर्वत, सुनहले पत्तों वाले पेड़, मोरपंखी झील, काली पूँछ वाले सारस सब उड़ते, फिसलते, लुढ़कते..... नदी, झील, पहाड़, मैदान, समँदर लाँघते मेरे चित्रों मेंआ बसें..... मेरे कैनवास पर फैलकर अपनी मंज़िल पा लें..... यूँ लगे जैसे वे अपनी लम्बीयात्रा की थकान उतार रहे हों, सुस्ता रहे हों.....”

“ए दीपशिखा मोहतरमा..... अब चित्र बनाते-बनाते कविता न करने लगना वरना सारे सपने यहीं के यहीं धरे रह जाएँगे|”

“सना बेगम..... क्यातुम्हें नहीं पता कि दीपशिखा के चित्र उसके नीचे लिखी कविता की दो पंक्तियों से ही जाने जाते हैं?”

“हाँ, उसी पर तो मर मिटा वोनीऽऽऽऽ”

“शेफ़ालीऽऽऽ” दीपशिखा ने आँखें तरेरीं|

सब उत्सुकता से दीपशिखा को छेड़ने लगे..... “कौन..... कौन बता न..... ये नी कौन है|”

दीपशिखा के चेहरे पर बनावटी रोष था- “इसी से पूछो..... ईडियट.....”

शेफ़ाली ने अपने कान पकड़कर तौबा की..... फिर सब हँसते खिलखिलाते बीयर की मदहोशी में डूब गये|

शाम लौटते परिंदों की चहचहाहट लिए हाजीअली के समँदर को सिंदूरी कर रही थी| कुछपरिंदे लहरों पर छोटी-छोटी काग़ज़की नावों सरीखेडोल रहे थे| जैसी वह बचपन में बनाती थी| वह और शेफ़ाली..... और बरसते पानी के जमाव पर तैराती थीं|

“तू गंगा की मौज मैं जमुना की धारा.....” दोनों भीग-भीग कर नाचतीं, कपड़े तरबतर और माली काका की प्यार भरी डाँट..... “चलो बच्चियों..... क्या बीमार पड़ना है|”

दीपशिखा मुस्कुराई|

“क्या हुआ?” शेफ़ाली ने उसकी ओर ग़ौर से देखा- “ये तेरा बेमतलब मुस्कुराना..... कहीं.....”

“फिर वही..... मैं तो तेरे साथ बिताए बचपन के दिन याद कर रही थी| कितना कुछ बदल गया| तब हम कागज़ की नावें बनाते थे| पानी पर हमारे जहाजचलते थे, बचपन कितना मालामाल था|”

“और आज रंगों से खेल रहे हैं| खेल तब भी था, आज भी है| फ़र्क़ बस हमारी उम्र और नज़रिये का है|” जाने कहाँ से हवा में तैरताभूखा पत्ता आया और दीपशिखा की सैंडिल में उलझ गया|वह उसे निकालने को झुकी ही थी कि कार के ब्रेक ने उसे चौंका दिया|सामने नीलकांत अपनी लम्बी खूबसूरत गाड़ी में था| काले काँच की खिड़की से भी वह उसे देख पा रही थी| दरवाज़ा खुला| नीलकांत ने सिर बाहर निकाला|

“हाऽऽय..... कमइन|”

“मेरी सखी से मिलिए..... शेफ़ाली..... ग्रेट पेंटर|”

नीलकांत कार से बाहर आया| शेफ़ाली ने नमस्कार करते हुए कहा- “नीलकांतजी?”

“ओ..... आप मुझे जानती हैं?”

“आप भूल गये| हम भोपाल में आर्ट गैलरी में मिले थे जहाँ आपने दीपशिखा के सारे चित्र ख़रीदे थे|”

“ओ.के. ..... याद आया| अच्छा लगा आपसे मिलकर और यह जानकर किआप दीपशिखा की बेस्ट फ्रेंड हैं| चलिए एक-एक कप कॉफ़ी|”

शेफ़ाली का मन तो था पर वह दीपशिखा को नीलकांत के साथ का मौका देना चाहती थी| अपनी टूटे दिल की सखी को जीने का हौसला देना चाहती थी| चाहती थी उसे कोई ऐसा साथी मिल जाए जिससे वह अपने जज़्बातों को, एहसासों को शेयर कर सके|

“थैंक्स..... पर मैं घर जाऊँगी| इस वक़्त मुझे पेरिस को फोकस करना है| मैंने कठिन थीम चुनी है|”

दीपशिखा समझ गई| बेहद लाड़ से उसने शेफ़ाली की ओर देखा और कार में नीलकांत की बगल वाली सीट पर बैठ गई|

“अच्छी है तुम्हारी सखी..... अल्हड़ सी, मासूम|”

“कहीं आप उसे लेकर फिल्म इल्म बनाने का तो नहीं सोच रहेहैं?”

“क्यों? बुरा क्या है? हम फ़िल्म वाले अब इतने भी बेकार नहीं होते|”

“नहीं, मेरा मतलब वो नहीं था| वह चित्रकार है न.....”

“तुमभी तो चित्रकार हो..... पर मेरे दिल की स्टोरी में हीरोइन के लिए मैंने तुम्हें साइन कर लिया है|”

दीपशिखा अव्वल तो समझी नहीं..... जब समझी तो उसके गाल दहक उठे..... वह नज़रें घुमाकर सड़क की ओर देखने लगी| नीलकांत मुस्कुराता रहा, गुनगुनाता रहा| गेटवे ऑफ़ इंडिया में..... समँदर अब काला दिख रहा था| लहरें ऊँची-ऊँची उठ रही थीं.....रेलिंग पर भीड़ ही भीड़.....

“देर कर दी हमने, बोटिंग का वक़्त तो अब नहीं रहा| चलो ताज चलते हैं|”

मुग़लई सजावट वाले केबिन में बैठते हुए नीलकांत एकदम फ्री अंदाज़ में उतर आया- “हाँ तो मोहतरमा, साइनिंगअमाउंट दूँ क्या?”

दीपशिखा भोलीभाली, एकदम मासूम सी, मोहक अंदाज़ में मुस्कुराई- “हमें मंजूर नहीं| पहले हम फिल्म की कहानी सुनेंगे|”

“अच्छाऽऽ.....” वेटर को कॉफ़ी, नाश्ते का ऑर्डर देकर उसने सामने रखे गुलदान में से गुलाब की एक पँखुड़ी तोड़ कर उसकी ओर बढ़ाई..... “तो शुरुआत करें? यह कहानी शुरू होती है लद्दाख़ की इठलाती, बलखाती नदी सिंधु के तट से..... कैमरा ज़ूम..... फोकस..... हीरोइन नदी के पानी में पाँव डुबोए छप-छप कर रही है|पानी की छप-छप में उसके पैरों में पहनी पाजेब की छुन-छुन भी शामिल है|”

“कट्” दीपशिखा ने कहा और हथेली में दबी पँखुड़ी गालों से सहलाई- “हीरो कहाँ है?”

“उसका अक्स तुम्हारी आँखों में है..... मुझे साफ़ दिख रहा है|”

दीपशिखा की काली आँखों में नीलकांत का चेहरा था|

“चलिए..... फ़िल्म पक्की..... साइनिंग अमाउंट तो आप ऑर्डर कर ही चुके हैं| नाश्ता और कॉफ़ी|”

“बऽऽस..... इतना ही, हम तो सॉलिड अमाउंट देंगे|” कहते हुए नीलकांत ने उसकी हथेली चूम ली जिसमें अभी-अभी उसकी दी गुलाब की पँखुड़ी दबी थी और जिसकी खुशबू दोनों के दिलों में महक रही थी|

कॉफ़ी पीते हुए दीपशिखा ने पूछा- “घर में अकेले हैं आप?”

“नहीं” नीलकांतगंभीर हो गया|

“बीवी थी..... लेकिन हमारे बीच अंडरस्टैंडिंग निल..... अब वह अलग रहती है| दो बेटियाँ हैं जिन्हें मैं शनिवार, इतवार को घर ले आता हूँ| कोर्ट ने बस इतनी ही परमीशन दी है|माँ हैं और छोटी बहन..... वह फैशन डिज़ाइनर का कोर्स कर रही है|”

“उसे फिल्मों में नहीं आना है क्या?”

“नहीं..... उसे फ़िल्मी दुनिया से एलर्जी है| बेटियाँ रिया और दिया एक्टिंग की दीवानी हैं| अभी तो पाँच और सात साल की हैं|”

दीपशिखा को नीलकांत की कुछ इसी तरह की ज़िन्दग़ी का भास सा हो गया था इसलिए वह नॉर्मल बनी रही|ताज से निकलकर नीलकांत ने उसे घर तक छोड़ा, कल मिलने के वादे पर..... “कल सबके पासपोर्ट चाहिए होंगे..... वीज़ा के लिए एप्लाई कर देना है..... टिकटें तो बुक करा ही लेते हैं..... नहीं तो मुश्किल हो जाएगी|”

“हाँ ठीक है..... कल उसी जगह पर पासपोर्ट सहित मैं मिलूँगी|”

“ओ.के. गुडनाइट..... शब-ब-ख़ैर डियर|”

वह मीठी-मीठी गुनगुनाहट लिए लिफ़्ट में आ गई|

सप्ताह बीतते-बीतते जहाँ दीपशिखा के दिल की ओर नीलकांत ने तेज़ी से क़दम बढ़ाए थे वहीं सबको वीज़ा भी मिल गया, टिकटें भी आ गईं अंकुर ग्रुप ऑफ़ आर्ट्स अपने लक्ष्य को पाने में कमर कस करजुटगया|उनके लिए दीपशिखा मेन पॉवर थी| मुम्बई, भोपाल और अब पेरिस में प्रदर्शनी उसी की वजह से हो पा रही थी हालाँकि सबका यह भी मानना था कि दीपशिखा को फूल की तरह इसलिए सहेज कर रखना है क्योंकि वह मुकेश को लेकर एक बड़े छल से गुज़री थी| वह कोमल हृदय की छुई-मुई सी दीपशिखा भीतर ही भीतर कोई रोग न पाल ले इस बात को लेकर सब सतर्क थे| शायद दीपशिखा भी, वह नीलकांत के हर उठे क़दम पर ब्रेक लगा देती|

“क्यों? दीप..... क्यों?”

“तुम मुझे दीप कहते हो नील तो मैं डर जाती हूँ..... इस दीप के अक्षरों ने मुझे खुरच-खुरच कर मिटाया है| लगता है जैसे बहुत क़रीब होना खो देना है, और मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती|”

नीलकांत ने ग़ौर से दीपशिखा को देखा था..... उन आँखों की झील में उसे कुछ कमल खिले तो कुछ मुरझाये नज़र आये थे| वह मुरझाए कमलों को खिला देगा, वह दीपशिखा का होकर रहेगा|

दो महीने तक की किसी भी तारीख़ पर पेरिस में आर्ट गैलरी उपलब्ध नहीं थी| लेकिन नीलकांत की शूटिंग पोस्टपोन नहीं हो सकती थी| करोड़ों दाँव पर लगे थे| तय हुआ बाकी चित्रकार सोलह जुलाई की फ़्लाइट लेंगे और दीपशिखा नीलकांत के साथ ही फ्रांस जाएगी ताकि वहाँ का इंतज़ाम अपनी नज़रों के सामने करपाये|

प्रदर्शनी की तैयारी की वजह से वह पीपल वाली कोठी भी नहीं जा पाई| सुलोचना और यूसुफ़ ख़ान को ही उसे सी ऑफ़ करने मुम्बई आना पड़ा| जाने से दो दिन पहले वह शेफ़ाली को लेकर नीलकांत के संग हीरा पन्ना में शॉपिंग करती रही| सुलोचना और यूसुफ़ ख़ान भी एक बड़ा सूटकेस भर कर कपड़े ले आये|

“उधर ज़रुरत पड़ेगी| महीनेभर रुकोगी न तुम?”

“वो तो ठीक है माँ पर शॉपिंग तो मैंने भी कर ली है|”

“तो क्या हुआ, सिलेक्टकर लेते हैं|”

सुलोचना ने दाई माँ को आवाज़ दी- “दोनों सूटकेस के कपड़े पलँग पर निकाल कर रखो और इस बड़े वाले सूटकेस पर यह स्लिप चिपका दो|”

दीपशिखा के नाम वाली स्लिप सूटकेस परचिपकाई गई| कपड़े सुलोचना ने ही सिलेक्ट किये| दीपशिखा देखती रही..... ‘बेशक़, माँ की पसंद लाजवाब है, हर एक ड्रेस के साथ मैचिंग जूलरी, वो भी सिम्पल मगर रिच लुक वाली.....’ गरम कपड़ों का अलग सूटकेस तैयार हुआ| बेटी पहली बार विदेश जा रही है, वो भी अकेले| रात दो बजे तक समझाती रहीं..... हिदायतों की लिस्ट लम्बी थी| दीपशिखा ऊँघती रही|

मध्यरात्रि तीन बजे की फ़्लाइट थी|

“गाड़ी भेजूँ?” नीलकांत ने पूछा|

“नही, माँ, पापापूरा फ्रेंड सर्किल सी ऑफ़ करने आ रहा है एयरपोर्ट|”

“ग्यारह, साढ़े ग्यारह तक हर हाल मेंपहुँच जाना| हमें कस्टम में ज़्यादा समय लगेगा..... लगेज तुम्हारा भी बहुत होगा|”

“हाँ..... पेंटिंग का सारा सामान भी तो है|”

उसके दोस्तों के हाथों में पीले फूलों से भरी डंडियाँ थीं| ये पीला रंग उसका पीछा क्यों नहीं छोड़ता? क्यों ज़िन्दग़ी के हर खूबसूरत मोड़ पर धमक आता है और वह बिखर जाती है| वह जो स्वयं को नकारते हुए बस वही नहीं रह जाती है जोवह है| वह अतीत को दफ़न कर देना चाहती है..... अतीत सब कुछ भराहोने के बावजूद उसे ख़ाली कर देता है अक़्सर|

“क्या शेफ़ाली..... और किसी रंग के फूल नहीं थे फ्लोरिस्ट के पास?”

“इस रंग से लड़ना सीखो दीपशिखा, इसे भुलाने की कोशिश बेकार की कोशिश है| सामना करो इसका|”

दीपशिखा की आँखों में पानी तैर आया- “सामना ही तो कर रही हूँ शेफ़ाली.....”

सुलोचना और यूसुफ़ ख़ान को लगा बेटी बिदाई के ग़म में भावुक हो रही है| सुलोचना ने उसे गले से लगा लिया- “गॉड ब्लेस यू..... मेरी गुड़िया|”

ट्रॉली खींचती वह अकेली एयरपोर्ट के अंदर चली गई| अकेला, लम्बासफ़र जैसे दूर-दूर तक कहीं कोई नहीं, बस है तो वह..... उसके क़दमों के निशान पीछे छूटते गये..... अदृश्य| नीलकांत ने उसे बाहों में भरकर माथे पर चूम लिया- “अच्छी लग रही हो|”

पेरिस! दीपशिखा के सपनों का पेरिस| उसकी बलवती इच्छा को राह दी नीलकांत ने वरना यह क्या इतना सहज था? एयरपोर्ट के बाहर फिल्म की पूरी यूनिट तीन कोच में समा गई| नीलकांत के लिए कार थी| महँगे पाँच सितारा होटल में उनके कमरे पहले से बुक थे| एयरपोर्ट से होटल तक का रास्ता,वह खिड़की के बाहर देख ज़रूर रही थी लेकिन जैसे स्वप्नदृश्य में खोई थी| पिकासो, सेजाँ..... आधुनिक चित्रकार के तीर्थ पेरिस को वह नज़रों में भरे ले रही थी| स्वप्न गलियों से गुज़रतीगलियाँ पक्की, घुमावदार, दोनों किनारों पर लगे बैंगनी और सफ़ेद फूलों से लदे दरख़्त|

“मैंने प्लान कर लिया है मैं यहाँ क्या-क्या देखूँगी|” उसने नीलकांत से कहा जो बड़ी देर से फोन पर बिज़ी था| ठंड बेतहाशा थी, कार अपेक्षाकृत गर्म थी फिर भी ठंड महसूस हो रही थी| होटल पहुँचने में काफ़ी वक्त लग रहा था|

“होटल पहुँचकर तो मैं पहले तुम्हें देखूँगा|” नीलकांत ने शरारत से कहा|

“मुझे?” उसने अपनी मासूम निगाहें नीलकांत पर टिका दीं, वह खिलखिलाकर हँसा|

“हाँऽऽऽ तुम्हें ही तो..... अभी देखा कहाँ है?”

वह कुम्हला गई, नीलकांत भी क्या मुकेश की तरह बस जिस्म ही चाहता है उसका?

“क्या यार, मज़ाक कर रहा था, सीरियसली..... जोकिंग| हाँ बताओ, क्या-क्या देखोगी?”

“यहाँ के म्यूज़ियम, कला के स्कूल, गैलरियाँ, कला स्टूडियो और पोंपेदू सेंटर|” उसने उत्साहित होकर कहा|