कितना कुछ सोच लेते हैं ना हम ... जब कुछ नया करने की उमंग हमारे मन में होती है। ऐसा ही कुछ हुआ मेरे साथ भी। बचपन से ही किताबों से बड़ा लगाव रहा है मुझे। उन्हें बड़ा संभाल कर रखती आई हूं। जैसे लोग तिजोरी में खज़ाना रखते हैं, वैसे ही मैं भी अपनी किताबों को तिजोरी में संभाल कर रख लेती हूं। कभी तो बहुत डांट भी खाई है मां से, कि भला कोई किताबों को भी रखता है तिजोरी में। जैसे जैसे बड़ी होती गई लिखने की चाहत बढ़ती गई। कभी स्कूल में तो कभी कॉलेज में निबंध प्रतियोगिता में भाग लेने लगी। कई उपहार भी मिले, साथ में तारीफें भी। फिर क्या था, लिखते रहने का शौक कब आदत बन गई पता ही नहीं चला। एक दिन यूं ही इंटरनेट चलाते समय एक मंच मिल गया.... मातृभारती। जब उसे खंगाला तो पता चला, यही तो एक जरिया है मेरे सपने को पूरा करने का। फिर क्या था... मिल गई सपनों को उड़ान। याद है मुझे सुबह के ५ बजे थे, हल्की सर्दियां भी शुरु हो गईं थीं। मेरी आंख खुली तो सोचा इंटरनेट पे समाचार देख लूं। एक दम से मातृभारती ऐप दिखा, तो उसे सहेज के ऐसे रख लिया जैसे वो मेरी कोई जरूरी अंकसूची हो। ओर लिखना शुरु कर दिया। मां ने "सुबह हो गई है" कहकर आवाज भी लगाई। पर मैं कहां सुनने वाली थी। मेरे सपनों का मंच मिला था, कहां इतने जल्दी लिखना बंद करती। कहानी पूरी करते करते, १० बज गए। ओर कहानी भेज दी मातृभारती मंच पअर। लेकिन दिमाग ओर दिल की फक्कड़ मैं.... सब अंग्रेजी के अक्षर में लिख बैठी। फिर क्या था... कहानी को प्रकाशित होने से रोक दिया गया। ओर एक संदेश मिला मुझे कि हिंदी के शब्दों में लिखा जाए। सारी मेहनत पर पानी फिर गया। मैं ठहरी जुनूनी। सोचा फिर मेहनत करके लिखूंगी। और फिर लिखना शुरू किया। कहानी फिर लिख गई। जमा भी कर ली गई।पर संदेश पाने की चाहत में पूरा दिन निकल गया। शाम हो चली। बार बार मोबाइल देखती, कि कहीं कोई संदेश तो नहीं आया। फिर मोबाईल में हल्की घंटी बजती है। देखने पर पता चला कि जिसका इंतजार बेसब्री से किया जा रहा है वो पल आ गया। मेरी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। मेरी कहानी के प्रकाशन की तारीख जो मिल गई थी। मां ,पिताजी , रिश्तेदार, दोस्तों , सबको बता डाला। ऐसा लगा मानो मेरी मंजिल का वो रास्ता मिल गया, जहां मेरे सपने मेरा इंतजार कर रहे हैं। बधाइयां मिली। और मैं खुश होती.... मेरी कहानी को एक मंच जो मिल गया था। और खुश होती भी क्यों नहीं... मेरी खुशी इतनी थी कि मैं सारे काम छोड़कर एक ओर कहानी लिखने बैठ गई। उस पूरे दिन में दो कहानियां लिख दी। ना दिन का पता चला और ना ही शाम का। दूसरी कहानी लिखते लिखते रात हो गई थी। और नाम बार बार याद आ रहा था ... मातृभारती। लिखते लिखते पहली बार मेरा पूरा दिन भी तो इसी उधेड़बुन में गुजरा था कि क्या सच में ऐसा मंच भी है जो हमारी कहानी को लोगों तक पहुंचाने में हमारी मदद करेगा। शुक्रगुजार हूं मैं पूरी मातृभारती टीम की, जिसने हम लोगों को ऐसा मंच प्रदान किया जो लोगों के सपने पूरे करने में उनकी मदद कर रहा है। धन्यवाद मातृ भारती टीम।