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इश़्क - ख़त

आषाढ़ का माह था ! गर्मी अपने चर्म पर थी ! सूरज भी पूरे जोश में निकलता था , जब भी किसी के शीर्ष की दिशा में आता मानो उसकी सारी उर्जा खींच लिया करता था ! पक्षी पसीने से गर्मी में जगह-जगह जल ढूंढते फिर रहे है ! जलाशय सूखने लगे है , पेड़ों के पत्ते शाखाएं छोड़ने लगे थे !  मनुष्य तो मानो बिना पंखे कूलर इत्यादि के रह ही ना पाए !
   शाम के वक्त मौसम थोड़ा सुहाना होने लगा था गांव के लोग अक्सर बाहर सोया करते थे ! कोई सत्तू बनाता , कोई माटी से घर को पोता करता था ! शहरी लोग भी तरह-तरह के टोटके अपनाते थे ! छतों को शाम होते ही पानी से धो दिया जाता था ताकि ठंडक हो जाए ! 
   सुबह के 8:00 बज चुके थे, ललिता अभी तक सो रही थी ! अलार्म को बार-बार बंद करती और ऊंघ के फिर सो जाती थी ! कुछ देर बाद मां की आवाज कानों में पड़ी "ललिता उठ जाओ आज दफ्तर नहीं जाना , चलो उठो वरना फिर तुम ही कहती हो कि मां तुम ने उठाया नहीं इसलिए आज फिर  डांट पड़ेगी !"
" हां मॉ उठ रही हूं , आप खाना तैयार कीजिए ! " ललिता ने उंघती हुई आवाज में कहा !
 मां खाना तैयार करने चली जाती है ! इधर ललिता उंघते हुए उठ रही थी कि तकिए के नीचे एक पत्र पर उसका हाथ गया ! उसने आंखों को मला और मीठी मुस्कान से उसे पढ़ना शुरू किया -
" डिअर ललिता,
अक्सर तुमसे मिलने को मन हो जाया करता है ! तुम्हारी आंखें , तुम्हारे होंठ, नजरें झुका कर शर्माने वाली अदा , मुझे बहुत भाती है ! यही कारण है कि दिल चाहता है कि तुम्हें अपनी आंखों से ओझल भी न होने दूं ! इस बीते 5 माह में जितनी बार भी सांस लेता था तो मानो मन ही मन तुम्हें ही याद कर रहा था ! तुम एक पल को भी मुझसे दूर ना थी ! तुम्हारे पिछले पत्र में जो सब तुमने कहा वह सारी बातें मैंने गांठ मार ली थी ! समय पर भोजन करना , व्यायाम ,प्रातः काल की सैर और वह जो तुमने कहा था कि गीली घासो पर नग्न पैरों से चलने पर नेत्रों की ज्योति तेज होती है , मैंने उसका भी ध्यान रखा ! लेकिन अब इस परिश्रम का लाभ भी उठाना है ! मैं वापस आ रहा हूं, इस शुक्रवार प्रातः 9:00 बजे तक मैं घर आ जाऊंगा ! उसके बाद थोड़ा आराम करूंगा ! तुम भी अपने दफ्तर का काम निपटा लेना और फिर रात्रि में हम छत पर मिलेंगे ! अकेले में , जब सब सो जाएंगे ! सारी दुनिया से परे सिर्फ हम और तुम ! उस चांद की शीतल रोशनी में एक दूसरे का आलिंगन करेंगे ! तब मैं घंटों तक तुम्हारे नेत्रों को देखूंगा और कोशिश करूंगा तुम्हारी नजर से खुद को देखने की !
मां का भी खत आया था ,कुछ दिन पहले ! उन्होंने लिखा था कि इस बार जब तुम आओगे तो तुम्हारे रिश्ते के बारे में सोचेंगे ! अभी हमने किसी से बात नहीं की है , यदि तुम्हें कोई लड़की पसंद हो तो हमें अवश्य बताना ! इसलिए सोचता हूं कि मां से तुम्हारे बारे में भी बात कर लूंगा ! मुझे आशा है सब मान जाएंगे ! वैसे भी तुम अक्सर घर आती हो ! और स्नेह भी तो सभी को है तुमसे , इसलिए यह कार्य कठिन न होगा ! तुम मेरा इंतजार करना और तैयार रहना शुक्रवार की रात को !
तब तक के लिए बहुत सारा प्यार तुम्हारे लिए???
-  तुम्हारा श्याम "

नित्य ही ललिता श्याम के इस पत्र को पढ़ा करती थी ! और इस तरह से पढ़कर अपना दिन शुरू करती थी ! आज शुक्रवार है , इसलिए उसके चेहरे पर अलग ही तेज है वह उस खत को मोड़कर अपने बैग में रख लेती है और नहाने चली जाती है ! उसने आज वही सूट पहनने को सोचा है जो उसके जन्मदिवस पर श्याम ने उसे दिया था और फिर उसके बाद ही श्याम कोलकाता चला गया था ! ललिता ने सोचा हुआ था कि जब श्याम वापस आएगा तो वह वही सूट पहने गी क्योंकि इस सूट में उसे देखने का , निहारने का एकमात्र हक सिर्फ श्याम को ही है !
 तैयार होकर और एक खुश चेहरे के साथ ललिता घर से निकल गई ! और फिर दफ्तर में भी जाकर खुशी खुशी काम करने लगी ! उसके मन में रात्रि का उत्साह , उमंग भर रहा था ! वह चाहती थी कि रात जल्दी हो जाए ! घर की छतें मिली होने के कारण रोज मिलना हो जाया करता था , परंतु पिछले 5 माह से शाम को ना देख पाई ! यह 5 माह अनेकों शताब्दियों से महसूस हुए , ऐसे जैसे कोई प्यासा मरुस्थल  में भटकता फिर रहा हो और श्याम को देखना उसके लिए जैसे तरुवर की छाया जैसा हो जिस के करीब मीठे पानी का एक जलाशय बहता हो ! वह बार-बार अपने बैग से आइना निकाल कर खुद को निहार रही थी , वह किसी भी प्रकार की कोई कमी ना चाहती थी ! आज समय भी धीरे बीत रहा था ! अभी केवल दो ही बजे हैं , यदि उसका बस चलता तो वह आज दफ्तर की छुट्टी कर लेती कह देती कि बीमार हूं ! ना आ सकूंगी ! काम को निपटाने की जल्दी और घर समय से लौटने के असमंजस में वह हर काम गलत कर रही थी !
और इस काम की उधेड़बुन में आखिर 6:00 बज ही गए है, अब दफ्तर छोड़ने का समय हो चुका था उत्साह से ललिता ने अपनी फाइलों को बंद किया और खुशी-खुशी गुनगुनाती सी चल दी अपने घर की ओर !

" अरे बेटा तू आ गई ! तेरी राह तकती थी ! तू बैठ , सुनील अभी तक आया नहीं है ! मैं पंसारी की दुकान से मसाले ले आती हूं ! तू मुह हाथ धो ले़! तब तक मैं बाजार से सब्जी ले आऊंगी तू तब तक दिया जला देना ! " - कुछ इस तरह मॉ ने उसका स्वागत किया, और कह कर चली गई ! ललिता ने जवाब में "ठीक है मां" कहां और लग गई अपने काम में !
बार-बार ललिता काम करते हुए दरवाजे की तरफ देखती थी कि काश एक तो झलक मिल जाए श्याम की ! वैसे तो वह  मंदिर में दीया जला रही थी लेकिन उसका ध्यान मंदिर वाले श्याम पर नहीं बल्कि उस श्याम पर था जिसका वह 5 माह इंतजार कर रही थी !
 एक भूखा अपने भोजन को जिस तरह से तलाशता है ! एक प्यासा जैसे एक कुआं ढूंढता है ! कोई मचला हुआ सा व्यक्ति जैसे अपना चैन ढूंढता है ! वैसे ही ललिता भी बार बार दरवाजे पर जाकर गली में भी देख रही थी कि काश किसी बहाने से श्याम एक बार झलक दिखा दे ! अरे भगवान उसका कोई मित्र ही आ जाए उससे मिलने , जिससे मिलने के कारण श्याम को बाहर आना पड़े और वह अपनी नेत्रों को सुकून दे ले उसकी एक झलक से !
ललिता इसी उधेड़बुन में खोई सी अपना काम कर रही थी कि तभी सुनील आ जाता है ! सुनील उसका बड़ा भाई है जो उससे प्यार तो बहुत करता है , लेकिन उसे यह पसंद नहीं कि उसकी बहन पड़ोस वाले श्याम से बात करें या किसी भी प्रकार का कोई रिश्ता रखें ! वह काफी गुस्सैल स्वभाव का है ! सिर्फ काम की बातें करता है ! मन का प्यार किसी को नहीं दिखाता और गुस्सा हर किसी को दिखाता है ! उसे शक है कि ललिता और श्याम के बीच में किसी प्रकार का कोई रिश्ता है ! और इस शक को यकीन में बदलने के लिए वह अक्सर चाल चलता है उदाहरण के लिए ललिता के सामने शाम की बातें करना और  उसके  चेहरे के आव भाव देखना , वगैरह वगैरह !
सुनील घर में प्रवेश करके ललिता से सिर्फ एक ही बात पूछता है कि " मां का है ?"
" पंसारी की दुकान तक गई है आती होंगी कहती थी कि सब्जी भी लेकर आएंगी "
"अच्छा "
" कहो भैया आज का दिन कैसा रहा ?" 
" दिन तो रोज ऐसा ही था ! बस कुछ देर के लिए अभी नाई की दुकान पर रुक गया था ! तो वहां पता चला कि श्याम आ गया है ! काफी उत्साह में था , लग रहा है इस बार परीक्षा अच्छी हुई है उसकी ! " ( कहकर उसके चेहरे की तरफ देखने लगता है )
" मैं क्या जानू भैया ! मैं तो अभी आई हूं " कहकर ललिता फिर से अपने काम में लग गई ! खुशी उसने अपने मन में ही दबा ली क्योंकि वह जानती थी कि यदि उसके चेहरे पर उसके भैया ने यह भाव देख लिए तो समझ जाएंगे कि आव भाव ऐसे क्यों हैं !  और समस्या बढ़ाने से और अपनी आज़ादी घटाने से बेहतर है की खुशियों को मन के भीतर ही दबा लिया जाए !
कुछ देर बाद मां भी आ गई ! अब ललिता मां का खाने में हाथ बटाने लगी ! बार-बार उसका ध्यान बाहर जा रहा था ! आज काम में उसका मन बिल्कुल ना था ! मॉ ने एक बार कहा भी कि अगर तुम्हारा मन नहीं है तो तुम अपने कमरे में जाकर बैठ सकती हो ! परंतु वह न गई क्योंकि रसोई घर से की खिड़की से बाहर का नजारा साफ दिखता था !
खाना बन चुका था ! पिताजी भी आ चुके थे ! सभी ने खाना खा लिया और सब सोने के लिए अपने अपने कमरे में चले भी गए ! रात ने धीरे-धीरे अभी होना शुरू ही किया था कि ललिता मचलने लगी छत पर जाने के लिए ! परंतु यह सही समय नहीं, शायद अभी पिताजी और भाई जाग रहे होंगे और अगर दोनों में से किसी को भी पता चला तो समस्या बड़ी हो जाएगी ! वैसे यह बहाना तो है कि गर्मी का मौसम है छत पर पानी डालने जा रही हूं पर फिर भी अगर वहां श्याम को देखा तो गुस्सा बढ़ जाएगा !
एक घंटा हो चुका था , सभी कमरों की बत्ती बंद हुए ! अब तक शायद सब सो गए होंगे ! तो यह अच्छा अवसर होगा छत पर जाने के लिए ! अब छत पर चलना चाहिए , उसने सोचा और दबे पांव छत पर चल दी !
" सॉरी सॉरी सॉरी श्याम ! जानती हूं आने में देर हो गई लेकिन सबके जागते आती तो मां शायद भैया को मेरे साथ छत पर भेज देती ! फिर चाहे मैं किसी भी प्रकार के बहाने का प्रयोग करती पर अकेले ना आ पाती ! तुम तो जानते हो भैया और पिताजी तुमसे कितनी नफरत करते हैं ! ठीक तरह से कभी बात भी नहीं करते ! उन्हें तो बस लगता है कि हमारी जाति के ही लोग अच्छे होते हैं ! अरे क्या हुआ अगर तुम छोटी जाति के हो तो ! लेकिन श्याम मुझे लगता है कि भैया को हम पर शक है , तभी तो अक्सर तुम्हारे बारे में बोल कर मेरे चेहरे की तरफ देखते हैं ! और उसमें वह खुशी ढूंढते हैं जो सिर्फ तुम्हारे नाम से आती है ! लेकिन मैं भी उनकी बहन हूं अपना चेहरा अक्सर छुपा लेती हूं ! और ऐसे भाव अंदर ही दबा लेती हूं ! तम्हे याद है श्याम उस दिन जब तुम कोलकाता से लौटे थे तब भी तो यही हुआ था ! भैया जब घर आए तो चुटकी लेकर कह रहे थे कि नाई की दुकान पर किसी ने बताया कि शाम आ गया हैं ! मैंने तब भी चेहरे पर कोई भाव न दिखाया और सिर्फ यही इंतजार करती रही कि कब तुमसे मिलने आऊं और सारा काम करके मैं यहां तुमसे मिलने आई ! तुमने कहा था कि तुम इस सूट में बहुत अच्छी लग रही हो ! मैंने तुम्हारे लिए ही तो यह सूट उस दिन पहना था क्यूंकि उस दिन तुम आने वाले थे ! फिर तुमने मेरी तारीफ करते हुए मेरी लटों को मेरे कानों के पीछे रख दिया था !और मेरे गाल पर प्यारा सा अपने होंठो का स्पर्श भी दिया था ! फिर  मैंने तुम्हें कसकर गले लगा लिया था ! मेरी सांसे बहुत तेज हो गई थी ! उस समय बस ऐसा लगा था कि यह पल यहीं रुक जाए ! और फिर जब मेरी आंखें बंद हुई और तुम मेरें होठों की तरफ बढ़ रहे थे तो मेरी तो सांसे ही रुक गई थी ! आज भी महसूस होती है तुम्हारी वह गर्म आह ! लेकिन तब अचानक पता नहीं कहां से पिताजी और भैया आ गए ! उनके हाथ में तुम्हारा लिखा वही प्रेम - पत्र था जो मैं अक्सर अपने तकिए के नीचे रखा करती थी ! और देखते ही देखते न जाने वह कौन सा तूफान था जो तुम्हें अपने साथ बहा कर ले गया ! पूरा मोहल्ला गली में खड़ा हुआ हमारी छत की तरफ देख रहा था पर किसी ने भी सामने आकर हमारी मदद नहीं की ! मैं रोती रही बिलखती रही और तुमने .... तुमने मेरी ही गोद में अपनी सांसे छोड़ दी ! मैं आज भी नहीं भूली हूं वह शुक्रवार की रात , ना कभी भूलूंगी और इसलिए हर शुक्रवार को यूंही छत पर आकर तुम से बात कर लेती हूं कि काश उस दिन वह सब ना हुआ होता तो तुम आज मेरे साथ होते ! "

आंसूओ की धार नें ललिता के नेत्रों से आज़ादी ले ली ! वह भीगे नयनों से यूं ही तारों को देखकर रोती रही और उन तारों में अपने श्याम को महसूस करके अपने दिल की बातें कहती रही !

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