स्वाभिमान - लघुकथा - 48 Vijayanand Singh द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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स्वाभिमान - लघुकथा - 48

1 - नुमाइश

" आपलोग सूट में देखना चाहेंगे या साड़ी में ? " लड़की के पिता ने निरीह भाव से लड़के के पिता से पूछा। वे लोग आज शगुन को देखने आए हुए थे।

शगुन ऊब गयी थी अपनी बार-बार की इस नुमाइश से।वह सोचती थी, पढ़-लिख लेगी तो कम-से-कम इस त्रासद प्रक्रिया से तो बार-बार नहीं गुजरना पड़ेगा उसे।

कितनी कठिनाइयों से तो माँ-बाबूजी ने उसे यूनिवर्सिटी भेजा था। लड़के वालों के इंकार की सूरत में माँ-बाबूजी की आँखों में उतर आए निराशा के भावों को को कितनी बार तो पढ़ा है उसने ! क्या मतलब है ऐसी पढ़ाई का, जो हम लड़कियों को नुमाइश की वस्तु बनने से नहीं रोक सकती ?

सोचते-सोचते उसका ध्यान भंग होता है ड्राइंग रूम से आती लड़के के पिता की आवाज़ से - " देखिए भाई साहब, हमारी कोई च्वाइस नहीं है।न ही हमारा कोई दबाव है। लड़की जिस ड्रेस में ज्यादा कंफर्टेबल महसूस करती हो, वही पहने। "

सुनकर शगुन की आँखों में आत्मसंतोष और आत्मविश्वास की चमक उभर आई थी। उसे सब कुछ अच्छा लगने लगा था।आज उसे पहली बार लगा कि वह नुमाइश की वस्तु नहीं है, और...वह बड़े उत्साह से तैयार होने चली गयी।

***

2 - लंगड़े

" लंगड़े।"

" हाँ। बोलो।"

" कैसे हो तुम ? "

" ठीक हूँ। तुम कैसे हो अपाहिज ? "

" क्या कहा ? अपाहिज ? "

" हाँ। "

" क्यों ? क्या मैं अपाहिज हूँ ? "

" हाँ। बिलकुल। तुम अपाहिज हो। मानसिक रूप से अपाहिज।"

" तुम ऐसा कैसे कह सकते हो लंगड़े.... मेरा मतलब, ललन ? क्या मैं पागल हूँ ? " उसने बुरी तरह चिढ़कर, तिलमिलाकर कहा।

" हाँ। तुम पागल तो नहीं, मगर मानसिक रूप से अपाहिज हो। " ललन ने कहना जारी रखा - "....क्योंकि तुम्हारे अंदर संवेदना नहीं है।अरे..! मैं भी तुम्हारी ही तरह हाथ-पैर से दुरूस्त था। लेकिन एक्सीडेंट में मेरा पैर क्या टूटा, तुम लोगों ने तो मेरा नाम ही लंगड़ा रख दिया..! " ललन की आँखों में आँसू भर आए थे। दिल में दबा-थमा गुबार आज मानो फूट पड़ा था - "...मैं लंगड़ा हूँ ? ठीक से चल नहीं पाता।मगर फिर भी मैंने तुम्हारी तरह कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर ली। तुम्हारे अंग-प्रत्यंग तो सलामत हैं....मगर सोच....? तुम जिस नजर से गाँव की लड़कियों को देखते हो और जैसे-जैसे कमेंट करते हो, उससे तुम्हारी नीयत और मानसिकता का पता चल जाता है।धर्म और जाति के नाम पर तुम लोग जिस तरह की बहस करते हो, उस पर तो घिन आती है।राजनीति के कचरा घर की सड़ांध फैलाकर तुम जैसों ने घर-परिवार-समाज तक को विषाक्त बना रखा है। दारू - शराब - कमीशनखोरी - गोली - बंदूक - हिंसा की खूब बातें करते हो, और कहते हो कि तुम स्वस्थ हो ? अरे...! तुम्हें पता ही नहीं है कि तुम अपाहिज हो चुके हो.… मानसिक रूप से अपाहिज ! भई, मैं तो लंगड़ा ही भला। " लंगड़े ने आत्मविश्वास से उसकी आँखों में आँखें डालकर कहा, और गाँव की ओर मुड़ गया।

अचानक वहाँ खामोशी छा गयी थी।बस, दूर जाती बैशाखी की आवाज़ सुनाई दे रही थी। पुलिया पर बैठे गाँव के सारे लड़के अवाक्, विस्फारित-से..... लंगड़े को जाते देख रहे थे। उनकी बुद्धि, चेतना, तर्क शक्ति.....सब कुंद पड़ गई थी। बैशाखी की " ठक-ठक " की आवाज़ उनके दिलो-दिमाग पर हथौड़े की मानिंद चोट कर रही थी। सब एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे, या मुँह चुरा रहे थे....पता नहीं चल रहा था।

***

3 - आत्मसम्मान

" आइए, मैं आपको छोड़ देता हूँ। कहाँ जाना है आपको ? " अपने हाथों और पैरों के सहारे सड़क पार करते उस व्यक्ति को देखकर उससे रहा नहीं गया, और अपनी गाड़ी से उतरकर वह उसके पास गया था।

उस व्यक्ति ने रूककर ध्यान से उसे देखा - " ...! तो आप मुझे अपनी गाड़ी से छोड़ने जाएँगे ? "

" हाँ। बिलकुल। आइए। बैठिए। " उसने आग्रह पूर्वक अपनी गाड़ी की ओर इशारा करते हुए उससे कहा।

" धन्यवाद सर। मगर मैं आपकी गाड़ी में नहीं बैठ सकता।आप आज अपनी गाड़ी में मुझे बिठाकर ले जाएँगे, और कल अखबारों में हेडलाइन छपेगी.....' पुलिस ऑफिसर की उदारता....उन्होंने एक अपाहिज की मदद की। ' माफ कीजिए एसपी साहब, मुझे उस न्यूज का हिस्सा नहीं बनना है।मुझे किसी की सहानुभूति की भी जरूरत नहीं है। मैं ऐसे ही ठीक हूँ। " हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक उसने कहा और अपने हाथों और पैरों के सहारे सड़क पर आगे बढ़ गया।

एसपी साहब चकित, विस्मित-से....उसे जाते हुए देखते हैं। एक पल को कुछ सोचते हैं और फिर...अपनी गाड़ी छोड़, पैदल ही ऑफिस की ओर चल पड़ते हैं।

***

- विजयानंद विजय