स्वाभिमान - लघुकथा - 47 Sushma Gupta द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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स्वाभिमान - लघुकथा - 47

1.

लघुकथा: क्या कहेंगे लोग

"तुम्हें क्या लगता है, आज वो आऐगा ?"

रास्ते की तरफ खुलती खिड़की ने घर की बैठक के दरवाज़े से पूछा।

"हाँ, आज वो जरूर आऐगा ।"

"तुम्हे इतना यकीन कैसे है?"

"पाँच दशक से देख रहा हूँ, इंसान की प्रवृत्ति समझने लगा हूँ ।‌ आदमी-औरत प्रेम में पड़ते हैं फिर बहुत अरमान लेकर शादी करते हैं । समय के साथ आपसी प्रेम दरक जाता है और पूरा जीवन बच्चों में गर्क कर देते हैं । "

"गर्क क्यों कहा ? अपने बच्चों के लिए तो सभी करते हैं ।"

"हाँ, पर ये इतना क्यों कर देते हैं कि बच्चे उस करे को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझ नाशुकरे हो जाते हैं ।"

"रवि नाशुकरा है ?"

"यकीनन।"

"फिर तुम्हें क्यों लगता है वो आऐगा ?"

"हा हा, सबसे बड़ा रोग क्या कहेंगे लोग । माँ कब से फोन कर रही थी पापा बीमार है, आजा, पर लाटसाहब कह देता छुट्टी नहीं मिली । बाप के निधन पर भी नाट गया कमबख्त की टिकट नहीं हो पाई । माँ को बोला ये मकान बेच लो और सब कर उसके पास विदेश आ जाओ । "

"फिर?"

"फिर कुछ नहीं, माँ ने मकान बेच कर अपने लिए गंगा किनारे वाले आश्रम में आजीवन इंतजाम कर लिया । इसे फोन करा घर से कुछ अपना चाहिए तो ले जा, वो सब सामान बेच कर जा रही हैं । अब हड़बड़ा गया है । मकान जयदाद तो हाथ से गई ही ऊपर से जगहसाई अलग कि बेटे को होते माँ वृद्धा आश्रम में रहेगी।"

"लो आ रहे हैं लाटसाहब।"

घर के बाहर कार आ कर रूकी और वो अधिरता से अंदर बढ़ा । सामने माँ कुर्सी पर पापा की तस्वीर लिए बैठी थी । न दुआ, न सलाम, न प्रणाम, सीधा आरोप ।

"क्यों इस उम्र में इतना हठ मां ? किस बात का इतना अभिमान के मेरे होते आश्रम चल दी ?"

माँ ने कुछ पल बेटे को देखा और ठंडे लहज़े में बोली

"स्वाभिमान ।"

"क्या!!" वो अवाक् था ।

"अभिमान नहीं स्वाभिमान । मेरा सब ज़रूरी सामान आश्रम शिफ्ट हो चुका । मैं जा रही हूँ । तुम्हारे बचपन की कुछ तस्वीरें और खिलौने पड़े हैं, चाहिए हो तो ले जाना, मेरे वो किसी काम के नहीं। न चाहिए हो तो घर बंद कर चाबी साथ वाली सुधा को दे जाना । नया मकान मालिक कल आ कर कब्जा ले लेगा । चलती हूँ मेरी टैक्सी आ गई है । खुश रहना।"

वो चली गई, खिड़की और दरवाज़े की आँखें नम थी और रवि की अब भी 'सिर्फ़ अपमानित' ।

***

  • - लघुकथा: इज्जत का धंधा
  • "आए हाए बड़ा खूबसूरत है रे तू, खूब सुंदर दुल्हन मिले । निकाल तो पचास रूपल्ली जेब से ।"

    ताली पीटते हुए रानी किन्नर ने कार में बैठे लड़के से कहा

    कार रेड लाइट पर रूकी थी । लडके ने बहुत ध्यान से रानी को देखा । रानी यूँ तो किन्नर थी, पर थी बेहद खूबसूरत, गोरा रंग, नीली आँखें, छरहरा बदन । वो अगर वैसा भेष न बना कर रखे तो उसे किन्नर कहना नामुमकिन है ।

    "क्यों री, सचमुच हिजड़ा ही है न तू?"

    "क्या बाबू, किन्नर भी कोई शौकिया बन कर घुमता है क्या?"

    "अच्छा, ले मेरा कार्ड रख, रात ढले इस पते पर आ जाइओ, फिर कभी भीख नहीं मांगनी पडेगी।"

    उसने एक आंख दबाते हुए उसे कुटिल मुस्कान से कहा

    रानी कुछ पल कार्ड अलट-पलट कर देखती रही फिर बोली

    "गाड़ी साइड तो ले जरा।"

    कार साइड खड़ी कर वो लड़का कार से उतरते हुए बोला

    "वैसे तू है बहुत सुंदर।"

    "धंधा कराएगा मुझसे? " रानी ने सीधा पूछा ।

    "धंधा क्या? काम तो काम है । तेरे जैसे को क्या फ़र्क पडता है । मोटे आसामी है मेरे सब क्लाइंट । हमेशा से ए वन माल स्पालाई करता रहा हूँ । आज कल गे और समलैंगिक बहुत बढ़ जाने से तेरे जैसो की डिमांड भी बहुत बढ़ गई है । मोटे नोट कमाएगी। भीख मांगने से तो अच्छा है ।"

    'चटाक' रानी ने उस लड़के को झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिया, वो सिर्फ़ देखने में नाज़ुक थी, हाथ तो इतना भारी कि लड़का ज़मीन पर पड़ा दर्द से बिलबिलाने लगा।

    "साले, भीख भी शौक से नहीं मांगती, तुम लोगों का अंधविश्वास है कि हम जैसो की दुआ फलती है तो दुआ देकर पैसा मांगती पेट पालने को । नौकरी कर के भी कमा लेती अगर तुम जैसे लोग स्कूल साथ पढने देते, इज्जत की नौकरी देते । सब जगह से दुत्कार के ज़लील कर-कर के भगा देते हो । हमें रात को बिस्तर पर.... पर तुम सुअर जात पढ़ा - खिला नही सकते साथ में, जो हम भी इज्जत से कमा खा लें। धंधा कराएगा साला । अभी इतना आँख का पानी नहीं मरा बे । तुम लोग मानो न मानो इज्जत हमारे लोगों की भी होती है । "

    गुस्से से उफनती रानी ने लडके पर थूका और आगे बढ़ गई ।

    ***

  • लघुकथा :एक्स फैक्टर
  • "क्या यार रवि, जल्दी कर । आज तो तेरा प्रमोशन पक्का है। बड़े पापड़ बेलें है बेटा।"

    वो मोज़े पहनता हुआ खुद से ही बात कर रहा था।

    ताले में चाॅबी लगाई तो हाथ से छूट कर गिर पड़ी ।

    "अबे इतना नर्वसा काहे रिया है, सब सही होगा। कल ही तो बोस की बीवी को इम्पोर्टिड परफ्यूम खरीद के दिए हो । वैसे कमबख्त है तो बहुत एवईं सी पर हम भी तो तारीफ कर-कर के, कर-कर के गोभी के फूल सा खिला दिए हैं । अपने पति से हमारी सिफारिश तो जरूर करेगी। बोस सब काम तो उससे पूछ कर करता है फिर । जब ऑफिस आती है सब ऊथल-पुथल कर जाती है । रियल बोस तो वो ही है ।"

    13 नंबर की बस में बैठते-बैठते वापस नीचे उतर गया।

    "पहले बोस के घर चलता हूँ । मैं तो लेट हो ही गया हूँ पर वो साला बहुत समय का पाबंद है, वो तो निकल लिया होगा। ज़रा सुमन मैडम को खिलाता चलूं। फिर एक्स का डीयो लगाया है कुछ तो फायदा हो । पक्का मेरी तरफ आकर्षित हो के रहेगी । ये औरतें जाने इतनी बेवकूफ क्यों होती हैं । ज़रा झूठी तारीफ कर दो के लट्टू।"

    घर के गेट पर ताला लगा था

    "है तेरे की। देर में और देर । कोई फायदा नही हुआ ।"

    वो झुंझलाता हुआ ऑटो स्टैंड की तरफ बढ़ा ।

    "बस से गया तो और लेट हो जाऊंगा । काश सुमन घर पर होती । कैसे भी करके उसके नजदीक चला ही जाता। मुझ सा खूबसूरत मर्द उस औसत सी औरत को इतनी अटैंशन दे तो कौन न मर मिटेगी ।"

    वो अपनी समझदारी पर मन ही मन इतराया ।

    ऑफिस में एंटर करते ही रामधनी बोला

    "सर आपकी टेबल पर एक जरूरी लैटर रखा है । बड़े साहब ने अर्जैंट बोल कर दिया है। देख लेना ।"

    "हाँ-हाँ देख लूंगा । और जरा सलाम ठोकने की आदत डाल साले । मैनेजर होने वाला हूँ ।"

    रामधनी बुद्धू सा सिर हिला कर चला गया।

    "मजा आ गया । घुसते ही शुभ समाचार। पक्का प्रमोशन लैटर होगा। रात भी तो इतना बढ़िया मैसेज करा था तारीफ के पुलिंदे बांधता।"

    एनवलप पर लिखा था

    'ट्रांसफर लैटर'

    "ट्रांसफर लैटर।" वो भौचक्का रह गया

    "अबे रामधनी, अबे ये क्या है बे? गलत टेबल पर रख गया क्या ? मेरा तो प्रमोशन लैटर होगा।"

    "सर प्रमोशन आपका नही, दिव्या मैडम का हुआ है । वो देखा ।"

    शीशे के केबिन में दिव्या बोस को चहकती इठलाती थैंक्स की झड़ी लगा रही थी । बोस उसकी पीठ थपथपा रहे थे।

    "साली, ब्लडी प्रोस्टिट्यूट ...

    सारा काम बिगाड़ दिया। ये औरतों भी कितनी घाघ होती हैं, स्वाभिमान नाम की तो कोई चीज़ ही नहीं इनमें ।"

    वो बड़बड़ाता हुआ अपना ट्रांसफर लैटर देखने लगा ।

    ***

    डॉ सुषमा गुप्ता