हिम स्पर्श - 8 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हिम स्पर्श - 8

वफ़ाई पूरा दिवस मरुभूमि में भटकती रही, किन्तु कुछ भी उसे आकृष्ट नहीं कर सका। वही अकेला मरुस्थल, अंतहिन मार्ग, रेत के ढग, ठंडी-सुखी हवा, बिना बादल का गगन, साफ और खुल्ली दिशाएँ, तेज सूर्य प्रकाश और मौन। वफ़ाई मिलती रही इन सब से। दिवस ढलते ढलते वफ़ाई थक गई, निराश हो गई।

वह लौट आई उसी घर में जहां उसने कल रात बिताई थी। रात बिताने के लिए उसे उस घर से अधिक उचित कोई स्थल नहीं मिला।

घर अभी भी वैसा ही था जैसा वह छोड़ गई थी। प्रत्येक वस्तु अपने स्थान पर थी, कुछ भी नहीं बदला था। ना तो कोई घर में गया था ना ही कोई घर के समीप से गुजरा था। वफ़ाई घर में प्रवेश कर गई।

वह दर्पण देखने को ललचाई, उसने दर्पण में देखा, उसे अच्छा लगा, वह खुश हो गई।

“कोई तो है मेरे साथ, चाहे वह मेरा प्रतिबिंब ही क्यूँ ना हो। मेरी छाया, मेरे प्रतिबिंब तुम तो मेरे साथ रहोगे ना?” वफ़ाई दर्पण को देखती रही।

वह खुलकर हंसी, उसने पहाड़ का गीत गया, अपने आप से बातें की, कुछ शब्दों -जिसका अर्थ उसे भी नहीं ज्ञात था- के साथ ज़ोर से चीखी। वह उस क्षण का आनंद उठाने लगी। पूरे दिवस में यही तो वह क्षण थे जब वह खुश थी।

करने के लिए वफ़ाई के पास कोई काम नहीं था। केवल समय व्यतीत करना था और पुर्णिमा के दिवस की प्रतीक्षा करनी थी।

कक्ष से बाहर निकल कर उसने गगन की तरफ देखा। गगन स्थिर था, वहाँ भी कुछ गतिमान नहीं था।

“गगन कैसे गतिमान हो सकता है? गगन तो खाली खाली होता है, तो वह स्थिर ही रहेगा। गगन ने अपना रंग भी नहीं बदला है। गहरा नीला आकाश।” वफ़ाई बड़बड़ाई, “हे आकाश, तुम तो उस बच्चे की कोरी पाटी जैसे ही हो जो लिखना नहीं जानता, जिसके पास शब्द नहीं है, जिसके पास गणित के अंक नहीं है, जिसके पास कुछ भी ज्ञान नहीं है। तुम बड़े ही मूर्ख प्रतीत होते हो।“

वफ़ाई ने पश्चीमाकाश की तरफ देखा। केवल सूर्य ही एक मात्र वस्तु थी सारे गगन में। सूरज अभी भी पूर्ण प्रकाशित था। सूर्यास्त होने में अभी समय था। धूप के कारण मरुभूमि थोड़ी उष्ण थी।

अचानक वफ़ाई हंस पड़ी, खुलकर हंसने लगी। उसने मुक्त हास्य किया। उसका हास्य मरुभूमि में व्याप गया, प्रतिध्वनि बनकर वफ़ाई के कानों में गूंजने लगा। उसके ह्रदय में खुशी की तरंग बहने लगी।

“आज मैं सूर्यास्त के क्षण नहीं चुकुंगी, इस मरुभूमि की संध्या का आनंद लूँगी।“

सूर्य अस्त होने की दिशा में बढ़ने लगा, उस की गति तेज हो गई।

“जब घर समीप होता है तब बच्चा तेज चलता है। सूर्य, तुम भी वैसे ही बच्चे हो।“

वफ़ाई ने शीघ्रता से केमरा लिया और डूबते सूरज की, गगन की और संध्या की तस्वीरें लेने लगी। गगन अभी भी वैसा ही था, शुष्क और रंगहिन।

वफ़ाई ने खींची हुई तसवीरों को केमरे में देखा। वह निराश हो गई। केमरे से बातें करने लगी, “जानु, तुमने यह क्या कर दिया? सभी तस्वीरें एक सी लगती है। मैं उसे हटा देती हूँ।“ वफ़ाई तसवीरों को हटाने लगी। दो चार तस्वीरें हटाने के बाद वफ़ाई ने अपना निर्णय बदल दिया। सभी तसवीरों को बचा के रख लिया।

मरुभूमि की दूसरी रात भी वफ़ाई ने उसी घर में बिता दी। और दो दिवस वफ़ाई मरुभूमि में घूमती रही किन्तु पहले दो दिनों की भांति वह निराश ही रही। ना कोई मिला उसे ना कोई घटना घटी। तीसरी और चोथी रात्रि भी वफ़ाई ने उसी घर में बिताई।

चार दिवस मरुभूमि में घूमने से जो अनुभव मिले उसे वफ़ाई लिखने लगी।

“यहाँ की कुछ बातें भिन्न है।

एक, यहाँ सूर्योदय प्रतिदिन होता है। सूरज का उगना यहाँ सामान्य घटना है। और वहाँ, पहाड़ पर सूरज दिनों तक, हफ्तों तक और कई बार तो महीनों तक अद्रश्य रहता है।

दो, गगन सपाट, सूखा, साफ एवं रंगहीन रहता है। गगन में किसी भी रंग के दाग नहीं होते हैं। वह स्थिर रहता है।

तीन, मरुभूमि भी रंगहीन और शुष्क है। सब कुछ जड़ सा गतिहिन है, संवेदना हिन है।

चार, इन चार दिनों में मेरा जीवन भी एक सा और अचल रहा है जिसमे कोई गति नहीं है। रेत भी अपने स्थान से हिली तक नहीं, समय भी स्थिर और जड़ सा है। एक मात्र वस्तु जो चलित हो रही है वह है सूर्य, जो निकलता है, गति करता है एवं अस्त हो जाता है। अन्यथा ऐसा लगता है कि पृथ्वी घटना रहित एवं जीवन रहित हो। जीवन के जैसे कोई संकेत ही न हो।

पांच, मैंने मरुभूमि की अनेक तस्वीरें खींची है, किन्तु सब एक समान लगती है। इन चित्रों में कोई विविधता नहीं है। समय कोई भी हो, द्रश्य एक से ही होते हैं।“

वफ़ाई ने किताब, पेन और आँखें बंध कर ली, गहरी सांस ली। वह उठी, पानी और खाने के सामान को जांचा,“इससे तो केवल दो दिनों तक काम चल सकता है।“

वफ़ाई फिर से विचारों में खो गई। विचार जो वफ़ाई के मन से खेल रहे थे, जो मन की शांति को प्रभावित कर रहे थे। सभी विचारों का अपना अपना महत्व था, अपनी अपनी दिशाएँ थी। प्रत्येक विचार वफ़ाई को भिन्न भिन्न दिशा में खींच रहा था। विचारों के सागर ने वफ़ाई के मन में चक्रवात रच दिया।

अंतत: सब शांत हो गया, विचार भी और मन भी। शांत चित्त से वफ़ाई ने निश्चय किया,”यदि कल का दिवस भी बिना किसी घटना के बीत जाएगा तो मैं इस मरुभूमि को छोडकर अपने घर, अपने गाँव और अपने पहाड़ पर लौट जाउंगी।“

“फोटो पत्रकार के रूप में घाटी में घटती अनेक घटनाओं को मैंने देखा है। इस के लिए दौड़ भाग करती रहती थी, और कभी कभी तो एक साथ अनेक घटनाएँ होती रहती थी। अधिकांश दिवस घटनाओं से भरपूर रहते थे। पागलों की भांति एक स्थल से दूसरे स्थल तक भागती रहती थी। कभी कभी तो लगता था कि जगत में इतनी सारी घटनाएँ क्यों होती रहती है? क्या कभी विश्व का एक दिवस बिना किसी घटना के नहीं बीत सकता? घटनाओं के पीछे ध्येयहीन भागती रहती थी, थक जाती थी और चाहती थी कि कुछ पल के लिए यह सब रुक जाए, थम जाए और मुझे विराम के कुछ क्षण मिले। किन्तु घटनाएँ कभी नहीं रुकी। और यहाँ? सब कुछ रुका सा है, स्थिर सा है। कोई घटना दिनों तक नहीं घटती, चार चार दिवस व्यतीत हो चुके हैं। मैं घटना के घटने के लिए व्याकुल होकर प्रतीक्षा कर रही हूँ।“ वफ़ाई अपने आप से बात करने लगी। इस एकांत में भी वफ़ाई अपने साथ थी जो उसे आश्वस्त करता था कि कोई तो है उसके साथ। स्वयं से बातें करना उसे अच्छा लगा।

“घटनाओं के रंग होते हैं, कभी श्वेत तो कभी श्याम तो कभी कोई और रंग। किन्तु यदि घटना ही ना घटे तो? तो रंग कहाँ से आएंगे?” वफ़ाई ने स्वयं को प्रश्न किया और स्वयं निरुत्तर रही।

हवा मौन हो गई, गगन भी। समय भी एक शब्द नहीं बोला। दीवारें, द्वार, खिड़कियाँ, रेत, क्षितिज एवं सूरज भी मौन रहा।

वफ़ाई केमरे में कैद मरुभूमि की तसवीरों को फिर से देखने लगी। सब एक सी थी, सब का मन पर प्रभाव भी एक सा था।

“रंग विहीन, घटना विहीन विश्व। एक सा आकाश, एक सी रेत, एक सा मन। कुछ भी तो भिन्न नहीं है।“

“वफ़ाई, यह आत्मा विहीन धरती की एक सी तस्वीरें, एक सी मुद्रायेँ खींच खींच कर मैं तो ऊब गया हूँ। मेरे लेंस विद्रोह पर उतर आए हैं। किसी भी क्षण वह तस्वीर खींचने से मना कर देंगे। एकविधता से थक चुका हूँ मैं। मुझे भिन्न भिन्न रंगों, व्यक्तियों, स्थलों, वस्तुओं, जीवन एवं भावों की झंखना थी, जो सब यहाँ अद्रश्य है।“ केमरे ने विद्रोही सुर कहे।

वफ़ाई ने अनुभव किया कि नीली झांय वाले श्वेत लेंस थोडे से लाल हो गये हैं। उसने फिर से देखा, वह लाल ही दीखाई दिये।

“जानु, तुम इतने क्रोधित क्यों हो? क्या हो गया है तुम्हें?” वफ़ाई ने केमरे को स्नेह से पूछा।

“तुम सब जानती हो। मेरा अस्तित्व रंग और जीवन से भरी तसवीरों के लिए है। रंग और जीवन मेरी आत्मा है। और यह तस्वीरें जो तुमने मुझसे खिंची है वह तो शुष्क है। तुम ही कहो मेरी आत्मा के बिना मैं कैसे जी सकूँगा?” केमरे ने कहा।

वफ़ाई ने केमरे की तरफ स्मित किया, केमरे ने भी जवाबी स्मित किया। वफ़ाई ने केमरे को चूमा और स्नेह से छाती से लगा लिया, जैसे कोई मां अपने बच्चे को अपने आँचल से लगाती हो।

“जानु, मैं भी तो अकेलापन अनुभव कर रही हूँ। किन्तु हम क्या कर सकते हैं?’

“मुझे अपेक्षा है नए क्षण, नया जीवन, नयी घटनाएँ, नए व्यक्ति, नया स्थल, नयी हवा, नया गगन, नया सूर्य, नया चन्द्र, नयी लहर, नए तरंग, नए... “ जानु बोलता रहा।

“मैं भी वही चाहती हूँ।“

“मैं यह सब की तीव्र झंखना करता हूँ। यदि तुम मुझे यह सब नहीं दे सकती तो हमें लौटना होगा।“

“हमें आने वाली पुर्णिमा तक प्रतीक्षा करनी होगी। जानु, तब तक मेरा साथ दो।“ वफ़ाई ने जानु को विनती की।

“किन्तु वह तो अत्यंत दूर है।”

“मुझे ज्ञात है, किन्तु हम एक अभियान पर हैं, एक कार्य पर हैं, जिसे हमें पूर्ण करना है। इस समय हम उसे छोडकर नहीं जा सकते।“

“वफ़ाई, वापस लौट चलो।“

वफ़ाई कुछ क्षण विचार करके बोली,”जानु, हमें एक और दिवस प्रतीक्षा करनी चाहिए। कल हम मरुभूमि की किसी अज्ञात दिशा में जाएंगे और यदि कहानी फिर भी वही रहती है तो हम लौट जाएंगे।“

“कल भी कुछ नहीं होगा। इतने दिनों से कुछ नहीं हुआ तो कल क्या हो जाएगा? वफ़ाई, तुम हमारा समय और शक्ति व्यर्थ ही ....”

“जब हम जीवन को छोडने के मोड पर होते हैं तभी जीवन अंगड़ाई लेता है और बदल जाता है। हम नहीं जानते कि कौन सा क्षण जीवन को बदल डालेगा। हम सदैव उसी क्षण हार मान लेते हैं जिस क्षण जीवन बदलने वाला होता है। वह क्षण हमारे द्वार पर आ रहा है, जानु। मुझे विश्वास है कि वह क्षण यहीं कहीं हमारे आसपास ही है जो हमें कल अवश्य मिलेगा। कल यहाँ का जीवन बदल जाएगा। हम कल नए जीवन से, नए रंगों से, नए व्यक्ति से भेंट करेंगे। तुम बस कल की प्रतीक्षा करो।“ वफ़ाई ने जानु में उत्साह भरने का प्रयास किया।

“ठीक है। जैसी तुम्हारी इच्छा। किन्तु मैं कल के लिए उत्साहित नहीं हूँ। कल भी कुछ नहीं बदलने वाला है।“

“मैंने कहा ना कि यदि कल कुछ नहीं हुआ तो हम इसे छोडकर लौट जाएंगे।“ वफ़ाई ने जानु को आश्वस्त किया।

“और यदि, जैसे तुम कह रही हो वैसे, कल कुछ हुआ तो?’ जानु ने सुर बदले।

“तो हम उसका भरपूर आनंद लेंगे।“

“और यदि कुछ बुरा हुआ तो?’ जानु भयभीत था।

“जानु, बहादुर बनो। लड़की होकर मैं डर नहीं रही हूँ। तुम्हें तो मेरी हिम्मत बनना है। तुम ...”

“ठीक है।“ जानु ने अपनी आँखें बंध कर ली। वफ़ाई ने जानु को थेले में रख दिया। समय अधिक व्यतीत हो गया था। रात आ चुकी थी। वफ़ाई सोने का प्रयास करने लगी। विचारों के घेरे में घिरी वफ़ाई की खुल्ली आँखेँ कहीं दूर देख रही थी।

कल क्या होगा? कुछ होगा भी? नहीं होगा तो?

“जो भी होगा, देखा जाएगा। मैं इस स्थिति को भिन्न द्रष्टि से देखूँगी और कोई ना कोई कारण ढूंढ लूँगी, पूर्णिमा तक रुक जाने के लिए।“ वफ़ाई ने स्वयं को वचन दिया।

वफ़ाई उठी, बाहर गगन में चाँदनी निखर उठी थी। कुछ क्षण चाँदनी को देखती रही।

“कई दिनों से स्नान नहीं किया है, चल आज स्नान करते हैं।“

वफ़ाई स्नान घर में गई, स्नान की तैयारी करने लगी। कक्ष में जाकर कपड़े उतारने लगी। एक के बाद एक सभी कपड़े उतार दिये। पूर्ण रूप से वफ़ाई अनावृत हो गई। दर्पण में स्वयं के अनावृत शरीर को वफ़ाई ने देखा। पूरे शरीर को ऊपर से नीचे तक देखा। एक एक अंग को देखा, अंग के प्रत्येक घुमाव को देखा। अपने शरीर को, शरीर के सौन्दर्य को और शरीर के लावण्य को वह देखती ही रह गई। स्वयं के प्रतिबिंब से वफ़ाई मोहित हो गई।

वफ़ाई ने दर्पण के सामने कई अंगड़ाइयाँ ली। अनेक कामुक मुद्राएं रचती रही, स्वयं को देखती रही। स्वयं के स्नेह में, मोह में प्रवाहित हो गई।

उतारकर कुर्सी पर रखे कपड़े में से एक कपड़ा नीचे गिर गया। वफ़ाई का ध्यान भंग हो गया।

“क्या घर में कोई है? कौन होगा?” वह दौड़ी और कपड़ा उठाकर अनावृत शरीर को ढंकने का व्यर्थ प्रयास करने लगी। वफ़ाई ध्यान पूर्वक सब तरफ देखने लगी। वहाँ कोई नहीं था।

“तो यह कपड़ा गिरा कैसे?” वफ़ाई चिंतित हो गई।

हवा का दूसरा तेज टुकड़ा खुली खिड़की से अंदर प्रवेश कर गया। वफ़ाई के अनावृत शरीर को छु गया। कुर्सी पर पड़े दूसरे कपड़े को गिराता चला गया।

“ओह, तो यह काम हवा का था? कितनी निर्लज्ज है यह हवा भी? किसी सुंदर यौवना को अकेली देखि नहीं कि बस चली आती है छेड़ने। और यदि वह यौवना मेरी भांति अनावृत हो तो? पूरे शरीर को छू जाती है। मेरे प्रत्येक अंग को छू गई यह हवा। तुम्हें लज्जा नहीं आती एक यौवना के नग्न शरीर को ऐसे स्पर्श करते हुए? इतनी निर्लज्ज कैसे हो गई तुम?” वफ़ाई ने झूठा रोष दिखाया।

वह स्नान घर में गई। द्वार विहीन स्नान घर में स्नान करके भीगे अनावृत शरीर के साथ ही घर में प्रवेश कर गई। फिर जा खड़ी हो गई दर्पण के सामने।

भीगा अनावृत शरीर वफ़ाई को और कामुक बना रहा था। वह स्वयं को देखकर स्वयं की तरफ आकृष्ट हो गई, उत्तेजित हो गई।

वफ़ाई देर तक वैसे ही स्वयं को निहारती रही। धीरे धीरे शरीर पर ठहरी पानी की बुँदे सूखने लगी। दो तीन बूंदें छाती के मध्य में खुल्ली दो पहाड़ियों के बीच की घाटी में रुक गई थी। वह अभी भी सुखी नहीं थी। वफ़ाई दर्पण में उसे देखती रही, फिर अचानक उसने उन बूंदों पर उंगली से प्रहार किया। पानी की बूंदें बिखर कर दोनों पहाड़ियों पर फ़ेल गई। दोनों पहाड़ियों की काली चोटी भीग गई, उन्नत हो गई। एक प्रवाह सारे शरीर में प्रवाहित हो गया। वफ़ाई कंपित हो गई।

“ऐसे अनावृत होना और अनावृत ही रहना कितना मनभावन लगता है? कितना सहज है? हम क्यों कपड़े पहनकर आवृत हो जाते हैं? क्या हम नैसर्गिक नहीं रह सकते? कितना अनुपम सौन्दर्य होता है अनावृत तन का? आज तो मैं अनावृत ही रहूँगी।“ वह अनावृत ही रही। घर से बाहर निकली और चाँदनी के नीचे खड़ी हो गई। अनावृत वफ़ाई अनावृत चाँदनी में नहाती रही, देर तक।

फिर घर में लौट गई, सो गई। गहरी नींद में सो गई, किसी चिंता से मुक्त। ना तो उसे कल की चिंता थी ना उसे अनावृत होने की। और ना ही उसे इस अवस्था में कोई देख लेगा उसकी चिंता थी। वह सोती रही, देर तक।