स्वाभिमान - लघुकथा - 34 Ratnkumar Sambhria द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

स्वाभिमान - लघुकथा - 34

स्वाभिमान

रत्नकुमार सांभरिया की तीन लघुकथाएँ

1 - वजूद

भरी जवानी में विधवा हो गई रमिया को जमींदार की टहलुवई पति से विरासत में मिली। उसके लिए श्रम और भूख एक-दूसरे के पर्याय थे। दिनभर खटना नियति होने के बावजूद रमिया ने एक गुस्ताखी की। वह छः वर्षीय अपने इकलौते बेटे को स्कूल भेजने लग गई।

रमिया ज़मींदार के आँगन में झाडू-बुहारी कर रही थी। उसने हवेली की छाया में टाट का एक टुकड़ा बिछाया हुआ था। लड़का उस पर बैठा प्रवेषिका पढ़ने में तल्लीन था। ज़मींदार पीठ पर हाथ बाँधे बरामदे में टहल रहा था। उसकी नज़रें रमिया के अध्ययनरत् लड़के पर थीं, एकटक। लड़के के हाथ की किताब उसकी आँख की फांँस थी। दम्भ, ईष्र्या और क्रोध से उसके नेत्र आग्नेय थे।

ज़मींदार बाघ जैसी निगाह लड़के को घूरता-गुर्राता रहा। लम्बी साँस मारी, जैसे जलकर धुआँ निकला हो। वह लम्बे क़दम रखता आक्रोष दबाए लड़के के पास आ खड़ा हुआ था। लड़के के हाथ की किताब छीन कर उसने कुत्सा से कहा-‘‘बेटे, बेकार की माथापच्ची में क्या रखा है ? काम में अपनी माँ का हाथ बँटा।‘‘

उसने जेब से एक रुपया निकाला और लड़के के हाथ पर रखकर उसे सहलाया-‘‘ले, यह पैसे ले जा और टाॅफी खा आ। और देख, बरामदे में जूठे बरतन पड़े हैं न, उनको लाकर टंकी के नीचे धो ले।‘‘

लड़के ने रुपया वापस फेंक दिया और ज़मींदार के हाथ से अपनी किताब झटक कर पुनः पढ़ने लग गया था, यथावत।

हतप्रभ ज़मींदार ने रुपया उठा लिया। उलट-पुलट उसे दोनों पहलू विस्मित नेत्रों से अनवरत निहारता रहा। वह जितनी गौर से देखता, रुपया उसे उतना ही धुंधला नज़र आता।

एकाएक उसकी आँखें एक करिष्मा देखने की कायल थी। रुपया शनैः शनै ठीकरी में तब्दील हो रहा था। सुरसा के शरीर की तरह बढ़ती ठीकरी उसके हाथ से छूट गई और टुकड़े-टुकड़े हो गई थी।

***

2 - योद्धा

गेहूँवर्णी एक श्वान था। तन का गठीला, मन का हठीला, दीदादिलेर। जहाँ का वाषिंदा, वहाँ का शेर। मजाल मोहल्ले के श्वान उधर सूँघ जाएँ।

आदतन घूमता-घामता वह मैदान में चला गया। वहाँ लगे वितान से आती भाँति-भाँति के श्वानों की गंध उसके नाथूनों से टकराई। यह गंध गली-मोहल्ले की गंध से भिन्न थी।

मन में अप्रतिम जिज्ञासा लिए वह उसी ओर बढ़ गया था।

वहाँ श्वान-प्रदर्षनी लगी थी। उसमें पामेरियन, एल्सेसियन, डाबरमैन, बुलडाग, बौसर, गेटडेन, डेल्मेसियन, काकर स्पेनियन, ल्हासा, एप्सो, डेचहंड, लेबराडोर और शताधिक क्रास-ब्रीड के श्वान शामिल थे। श्वानों के मालिक उनको थपक-थपक फूले नहीं समा रहे थे, टामी, बाबी, पम्पी, पप्पी, राजू, राजा, बेबी....प्रथम खिताब जीतकर नाम पाएगा।

गंवई श्वान की समझ में कुछ नहीं आया, आखिर माजरा क्या है। शनैः शनैः उसकी प्रज्ञा के पट खुल गए। वह दर्षक-दीर्घा से बाहर निकला और अपनी देह को दो-तीन फड़फड़ी दीं। उसके घने गहरे बालों से रेत का भभूका उठा और इधर-उधर फैलकर हवा में विलीन हो गया। उपस्थित श्वानों ने हिकारत से अपने नकसोर सुड़सुड़ाये।

वह बड़े इत्मीनान से प्रर्दषनी में रखी एक खाली टेबुल पर जाकर बैठ गया। उसने गर्वीली नज़रों से अपने दाएँ-बाएँ देखा। फूल कर कुप्पा हुआ। टुकड़खोर कूकरों में कुछ पिद्दी से हैं। कुछ गेंद से हैं। किसी के शरीर पर माँस जरूर है, भीतर हांफी है। कुछ दँतैल हैं, कुछ निपूँछ। इनकी हैसियत! आयातित। जारज।

एक-एक की गर्दन पर क्रमांक की पर्ची चस्पा थी। उसके गले में भी पर्ची बाँध दी गई। निर्णायक मण्डल जब निरीक्षण पर निकला अन्य श्वान अपने मालिकों के इषारों पर घूम-मुड़, उठ-बैठ रहे थे, उसने बड़े आत्मविष्वास के साथ अपनी देहयष्टि का निरीक्षण करा दिया।

परिणाम निकला। उसका क्रमांक प्रथम था। खिताब लेने के लिए जब वह आगे बढ़ा, आब्जेक्षन उठ खड़े हुए। गंवई है। गली का है। आवारा है। बिन मालिक है।

विरोध प्रबल था। निर्णायक मण्डल को अदेर अपना निर्णय बदलना पड़ा। द्वितीय स्थान प्राप्त पामेरियन को प्रथम पुरस्कार देने की घोषणा हुई। अधिकार-हनन, अपमान-बोध और चुनौती। वह अत्यंत क्षोभ से उबल पड़ा था।

पशुपालन मंत्री हाथ में शील्ड लिए खड़े थे। गंवई श्वान ने झपट कर शील्ड को अपने मुँह में भरा। विजयोल्लास से दो-तीन बार कुलाँचंे भरीं और पीठ पर पूँछ रख कर अपनी गली की ओर दौड़ पड़ा था।

***

3 - कोड़ा

‘‘बीबीजी, खड़े-खड़े हमारे पाँव रह गये हैं, हमारी तनखा दे दो, घर जाएँगी हम।’’ पतिया ने तीसरी बार चिरौरी की थी, मालकिन की।

‘‘कितने रुपये बनते हैं, तेरे?’’ उसके स्वर में तुनक थी।

‘‘जो बाबूजी से ठहर थी।’’

‘‘तेरी और बाबूजी की ठहर की तू जाने। बता कितने रुपये लेने हैं, मुझसे?’’

पतिया को बात गहरे काट गई। उसका पति शराबी न होता। गरज अपनी। संयमित कण्ठ कहने लगी-‘‘नौ सौ रुपये दे दो, बीबीजी।’’

‘‘नौ सौ रुपये! पेड़ से झड़ते, पत्ते जो हंै! लेने हो सात सौ ले ले, वरना अपनी राह देख।’’ मालकिन ने ब्लाऊज में खुँसे अपने बटुए में से सात सौ रुपये निकाले और पतिया की ओर उछाल दिए।

पतिया ने मन मारकर सौ-सौ के सात नोट उठा लिए और मुट्ठी में भींचकर अनुनय की-‘‘बीबीजी ज़्यादा नहीं, सौ रुपये और दे दो। हम दो घण्टे सुबह और दो घण्टे शाम खटती हैं।’’

मालकिन ने मुँह में दबी पान की गिलौरी को चुभला और नाक छिनकती बोली-‘‘ऐ री पतिया, देख, तेरी बक-बक सुनने के लिए मेरे पास टेम नहीं है। और सुन, ऐसी मुँहजोर पसंद भी नहीं है, मुझे। कल से पोछा-बर्तन को मत आना।’’

मालकिन उसे बेहद खुदगर्ज और जाहिल लगी। रोकते-रोकते पतिया के अन्दर का आक्रोष रुक नहीं पाया। वह दो क़दम आगे बढ़ी और मालकिन के हाथ में सात सौ रुपये थमाकर तल्ख कण्ठ बोली-‘‘ऐ री बीबीजी, हम तुम्हें पूरे महीने की तनखा दिये देती हैं, तुम एक दिन हमारे घर पोछा-बरतन कर आओ।’’

***

रत्नकुमार सांभरिया