स्वाभिमान - लघुकथा - 33 Rachana Agarwal Gupta द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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स्वाभिमान - लघुकथा - 33

" इम्तहान "

आज बच्चों को पढ़ाते वक़्त, अचानक अपने आप से मुलाकात हो गई।

"अरे सुमन क्या हुआ, सिर्फ दस मिनट बचे हैं टेस्ट खत्म होने में, जल्दी पूरा करो"

"जी...जी मैम, बस यह थ्योरम नही बन रहा"

"मेहनत नही करोगी तो और क्या होगा"

मैने कह तो दिया, पर तुरंत ही अतीत की परछाई ज़हन में घूमने लगी।

आठवी कक्षा में थी मै, एक औसत छात्रा।कुछ विषयों में अच्छी, तो कुछ में केवल उत्तीर्ण होने लायक, और गणित! बाप रे!

किसी हौवे से कम ना था मेरे लिए। इम्तेहान हों या छोटी सी क्लास टेस्ट, बस ईश्वर का नाम ही याद आता। डांट भी पड़ती थी।

एकबार ठान लिया, कि डर पर जीत हासिल करनी ही होगी, और फिर क्या था, रात-दिन जुट गयी

क्लास टेस्ट हुई, और मेरी धड़कने दोगुनी रफ्तार से चलने लगी।

गणित के शिक्षक सभी को बुलाकर टेस्ट कापी दे रहे थे, किसीको शाबाश कहते, तो किसी को डाँट पड़ती, कोई तो चपत खाकर लौटता, इसबार मेरा नाम पुकारा गया,

" अरे ये तो कमाल ही हो गया, वाह 50 में पूरे 42 अंक आये हैं इसबार तुम्हारे" बड़े विचित्र तरीके से कहा था उन्होने, जब तक मैं खुश होती, अचानक बोल पड़े

"अच्छा, तुम तो रिंकी के बगल में बैठी थी, नंबर तो आने ही थे !

रिंकी हमारे कक्षा की अव्वल छात्रा थी, और मेरी अच्छी दोस्त।

उसदिन के बाद फिर मैं उसके साथ कभी नही बैठी।

"मैम ये बन गया"

सुमन के पुकारने पर मेरी तंद्रा टूटी, और मैं एक अनजाने स्नेह से उसकी तरफ मुस्कुराते हुए देखने लगी।

***

"केयरलेस ब्यूटी"

"जरा देखो तो, कैसी लग रही हूँ?" "कैसी मतलब, ठीक ही लग रही हो."

"मतलब, तुम्हें कुछ खास नही लग रहा !!"

" .. ये लीपा पोति !!हा हा हा..."

"तुमसे तो पूछना ही बेकार है, बात मत करना मुझसे, अकेले ही चले जाओ, मुझे नही जाना तुम्हारे साथ...."

"यही तो मै भी चाहता हूँ, के हम जाएँ, घर पर ही रूक जाएँ....

तुम औरतों का क्या, पार्टियों में जाने के नाम से तो बस कहर ढाने के लिए तैयार हो जाती हो, हालत तो हमारी...."

"बस बस ज्यादा बातें मत बनाओ,

वैसे जलकुकड़े तो हो."

मैं क्यूँ जलने लगा , मैं तुम्हारी पड़ोसन हूँ क्या..."

"याद है मुझे, शर्मा जी की बेटी की शादी वाले दिन, दो लोगों ने जरा हँस कर बात क्या कर ली, जनाब के सिर में दर्द होने लगा, और घर ले आए थे"

"हाँ यार, सच तो है, मेरे सिवाय कोई तुम्हें देखे, तुमसे हँस के बाते करे, बर्दाश्त नही होता, और वो मेहता का बच्चा बड़ा चांस मार रहा था..."

"ह्मममम समझ रही हूँ..."

"पर सच कहू तो मुझे तुम यूँ सजी धजी ज्यादा नही भाती.

सुबह सुबह जब तुम उठती हो, खुले उलझे बालों को समेटते हुए, तुम्हारी वो अधखुलि सूजी हुई आँखें.… एक अलग ही निखार होता है, जिसे सिर्फ और सिर्फ मैं देख सकता हूँ, तुम्हें खुद नही मालूम कि तुम कितनी खूबसूरत लगती हो तब...."

बस बस ज्यादा रोमांटिक होने की जरूरत नही, देर हो रही है चलिए. चलो....

***

"मंदोदरी"

"श्यामा श्यामा...

क्या हुआ, तेरी ये हालत! अरि बोल "

बाजार से लौटते ही मंदा ने अपनी नौकरानी की उधड़ी हुई देह को संभालते हुए पूछा।

"मालकिन मालकिन..."

सिसकति हुई श्यामा कुछ कह नही पायी।

"रो मत, मुझे बता तो सही किसने तेरे साथ"

"सा...साब ने मुझे...."

"श्यामा !!"

मंदा चीख पड़ी,

पर जब वह रिक्शा से उतर रही थी, पति रंजीत का नशे में धूत उसे ढकेलते हुए मेन गेट से निकलना, सारी घटना बंया कर रहा था। उसने माथे से पसीना पोंछा, और फिर एक बार खून का घूँट पी कर रह गई।

"हाँ मालकिन साहब ने ही..."

"चुप हो जा, कुछ भी नही हुआ है,

हाँ कुछ भी नही"

बदहवास सी मंदा जल्दी जल्दी श्यामा का हुलिया उसके कपड़े सब ठीक करती हुई बोली, ये ले पाँच हजार रूपये, किसी से कुछ मत कहना और कल से काम पर आने की जरूरत नही है"

श्यामा एकदम से चूप कुछ सकपकाई सी अपने आँसू पोंछते हुए बोली

"रखो मैडम.. रखो अपना पैसा, थाने में काम आएगा

और हाँ, जाना कल मेरे मरद के पास, मैं तेरे को पन्दरा हजार देगी"

***

"सोने की कैद"

"मानव, तनु का फोन आया था, कल रजिस्ट्रेशन की आखिरी तारीख है, आज कॉलेज चलते हैं, फॉर्म आज ही भर देंगे।" आन्या ने ट्रेन से उतरते ही, सामने खड़े मानव से कहा।

कॉलेज में दो साल तो इन दोनो की दोस्ती रही, फिर मानव आन्या को चाहने लगा, और आन्या के इनकार पर दीवानगी की सारी हदें पार करने लगा, खुद को चोट पहुंचाना, मरने की धमकी, और भी जाने क्या क्या।

"आन्या, मानव मर जाएगा उसने पूरे एक हफ्ते से कुछ नही खाया है" कॉलेज के दूसरे दोस्तो ने बताया, तो आन्या एकदम सिहर उठी, उसे मानव से प्रेम था या नही, उस बात से परे उसे उस वक़्त सिर्फ मानव को बचाने का खयाल था, और उसने उसे हाँ कह दी।

फिर क्या था, अब मानव के पैर जमीन पर कहाँ पड़ने वाले थे, वह आन्या को प्रेमिका नही पत्नी समझने लगा, हर तरह के प्रेम के पहरों में बांध दिया, जैसे वो चाहता वैसे कपडे पहनने पड़ते उसे, जिस रास्ते वो कहता वहीं चलना होता।

कोई और लड़का पसंद करे, इसलिए कॉलेज जाना बंद करवा दिया, और कॉलेज का पूरा समय वो दोनो पार्क या स्टेशन पर बैठ कर बिताने लगे।

और आन्या उसकी कोई बात मानने से मना करती तो वो मरने की धमकी देता, प्यार तो बेइंतेहा था, पर पाबंदियां हद पार कर चुकी थी।

खुद पढ़ता, उसे पढ़ने देता और बेकार बातों में उलझाए रखता।

और आज, आज तो हद की भी हद पार हो गयी, जब मानव ने कहा

"तुम चलो तो पहले।"

"अरे कहाँ, कॉलेज तो इस तरफ है!" आन्या ने आग्रह करते हुए कहा।

" आन्या, हम इस साल एग्ज़ाम नही देंगे।" मानव ने जैसे फैसला सुनाया।

"क्या? होश में तो हो! चलो जल्दी।" कह कर आन्या मानव को हाथ से पकड़कर खींचने लगी, तो मानव ने ज़ोर से हाथ झटका और एकदम चिढ़ते हुए बोला।

" मेरी तैयारी नही है, मैं फेल हो जाऊंगा, और तुम पास हो जाओगी तो हम अलग हो जाएंगे, मिल नही पाएंगे।"

"मानव तुम क्या कह रहे हो, साल बर्बाद नही करना मुझे, अभी वक़्त है तुम मन लगाकर पढोगे तो पास हो जाओगे।" अब आन्या किसी अप्रत्याशित भय से रुआँसी हो गयी।

" मैने कह दिया तो बस कह दिया कोई परीक्षा नही देनी है।" मानव एकदम चीखा।

" तुम्हे नही देनी सही, पर मैं..."

"मैं? मैं क्या, कहो" मानव ने आन्या को बीच में ही रोक दिया और हिंसक होते हुए चीखने लगा।

" मैं परीक्षा दूँगी! और शायद यही परीक्षा मेरे जीवन का मुक्ति मार्ग बनेगी।मैने तुम्हारे प्यार की कद्र की और तुम्हे हाँ की, पर इसका मतलब ये नही कि मेरे जीवन का हर निर्णय लेने का अधिकार मैंने तुम्हें दे दिया। " और आन्या मानव का हाथ एक झटके से छुड़ाती हुई, उसकी आँखों मे झाँक कर कॉलेज चल दी।

***

रचना अग्रवाल गुप्ता