स्वाभिमान - लघुकथा - 32 Pranjal Shrivastav द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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स्वाभिमान - लघुकथा - 32

1.-"बेरोजगार"

प्राइवेट इंस्टीट्यूट में इंटरव्यू के बाद राधिका को रुकने के लिए कहा गया था।पाँच सालों की बेरोजगारी और तंगहाली ने उच्च शिक्षित राधिका के आत्मविश्वास को हिला दिया था फिर भी उसने इस नौकरी में सफलता के लिए बहुत प्रयास किया था और इंटरव्यू में अपनी तरफ से बेहतर प्रदर्शन किया था।उसे हर हाल में यह नौकरी चाहिए थी।स्व.पिता की छोटी सी पेंशन से इस बढ़ती मँहगाई में वृद्ध माँ और छोटे भाई के साथ गुजारा कर पाना अब बिल्कुल संभव नहीं था।

राधिका यह सब सोच ही रही थी कि डायरेक्टर सर ने उसे अपने केबिन में बुलवा भेजा।

'बधाई हो राधिका, इस पद के लिये

आपका चयन कर लिया गया है।ये

नियुक्ति पत्र है, इसे पढ़कर अपने हस्ताक्षर कर दीजिए'-उन्होंने कहा

'जी, बहुत-बहुत धन्यवाद'- आश्चर्यमिश्रित खुशी से राधिका की आँखें छलक आई।

नियुक्ति पत्र लेकर वह सामने की खाली कुर्सी पर बैठकर उसे पढ़ने लगी।

'आपको पता है, हमारे पास एक से बढ़कर एक प्रतिभागी थे, लेकिन मुझे

आप इस पद के लिए सबसे अच्छी लगी।'

'धन्यवाद सर, -राधिका ने भरसक अपनी खुशी छुपाते हुए कहा

'हालांकि समिति में कुछ लोग तुम्हारे पाँच साल का अंतराल होने से तुम्हारा विरोध भी कर रहे थे लेकिन मैने सभी को मना लिया।'

'बहुत धन्यवाद सर'-राधिका ने नम्रता से कहा।

पत्र पढ़ते हुए अंतिम बिंदु पर राधिका की नजर अटकी जिसमें लिखा था कि

ऑफिस के काम से आपको कभी-कभी शहर से बाहर भी जाना पड़ सकता है जिसमे आपको कोई दिक्कत नहीं होगी।

अचानक से चौंकी वह, सर की तेज आवाज अचानक धीमी हो गई थी..-'मैं तुम्हारे लिए इतना कुछ कर सकता हूँ तो क्या तुम मेरे लिए..'

'जी सर, बताईये क्या करना है'

'कुछ नहीं बस..अभी कुछ दिनों के लिए मेरी पत्नी मायके गई हुई है तो मैं चाहता था तुम मुझे कंपनी देती..यहीं शहर के

नजदीक किसी होटल में...किसी को पता नहीं चलेगा, मैं यकीन दिलाता हूँ..'

राधिका का सिर तेजी से चकराने लगा। नौकरी पाने की अथाह खुशी अब दर्द में बदल गई थी। बहुत मुश्किल से खुद को सँभाल कर और सारी हिम्मत जुटाकर वह खड़ी हुई और नियुक्ति पत्र के टुकड़े-टुकड़े कर के मेज पर फेंकती हुई बोली-'तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इतनी घटिया बात करने की।मैं मजबूर सही लेकिन फिर भी मेरा स्वाभिमान बिकाऊ नहीं है।'

'तो बैठी रहो तुम जिंदगी भर बेरोजगार।'-डायरेक्टर अपना अपमान बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था।

'हाँ, मुझे बेरोजगार रहना पसंद है।'-लगभग चीखते हुए राधिका बोली और आँखों में आँसू लिए लड़खड़ाते कदमों से कक्ष से बाहर निकल गई।

***

2-'मेरा घर'

'देखो नेहा, सीधी सी बात है अगर यहाँ रहना है तो दीपिका के साथ एडजस्ट करना पड़ेगा, मैं अगले हफ्ते उसे यहाँ ला रहा हूँ।'-राजेश ने नेहा से कहा।

'यह क्या तरीका है राजेश, एक पत्नी के होते हुए तुम दूसरी औरत को घर में नहीं ला सकते।'-नेहा आक्रोश से भर उठी।

'मैं जो चाहे कर सकता हूँ। यह मेरा घर है तुम्हारा नहीं।वैसे भी इतने सालों में तुम मुझे एक बच्चा तक नहीं दे पाई। माँ भी मेरी दूसरी शादी कराना चाहती है।'

'पर राजेश इसमें सारी मेरी गलती तो नहीं, हमारी शादी को सिर्फ चार साल हुए हैं आगे हमारा बच्चा हो भी सकता हैं।'

'लेकिन मेरा दिल जो तुमसे हट गया है, उसका क्या करूँ।'

'राजेश मैं कहाँ जाऊँगी'-नेहा भरे गले से बोली।

'मैं कब कह रहा हूँ तुम्हें घर छोड़ने के लिए।तुम चाहो तो यहीं रहो पर दीपिका भी यही रहेगी। देख लो जैसा तुम्हें ठीक लगे'-राजेश यह कहकर बाहर निकल गया।

राजेश की बातें सुनकर नेहा स्तब्ध हो गई उसे समझ में नहीं रहा था कि राजेश कैसे इतना बदल गया और उसकी माँ भी इस बेशर्मी में कैसे उसका साथ दे रही थी। हो सकता है इसी बहाने दोनों उससे छुटकारा पाना चाहते हों। कुछ भी हो इस घर में इस तरह रहना उसके लिए संभव नहीं था।परेशान हो कर उसने माँ को फोन लगाया तो माँ भी उसके लिए काफी दुखी हुई लेकिन जब उसने मायके रहने की बात की तो उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से मना करते हुए कहा-'बेटा, अब ये घर तेरे भाई, भाभी का है। तुझे तो भाभी के स्वभाव का पता है, मैं खुद बड़ी मुश्किल से इस बुढापे में अपना गुजारा कर रही हूँ। तू कुछ दिनों के लिये आना चाहे तो भले आजा।'

'लेकिन माँ, ये कुछ दिनों की तो बात नहीं। मैं ऐसे तो राजेश के साथ नहीं रह सकती। पुलिस-कोतवाली करूँ तो उसमें भी समय लगता है और राजेश की तो वैसे ही बहुत पहचान है।'

'तू देख ले बेटा, तुझे जैसा ठीक लगे, मैं तो अब बूढ़ी हो चुकी हूँ।मेरे वश का कुछ नहीं है।'-माँ ने अपनी बेबसी जाहिर की।

'ठीक है माँ, तू परेशान मत हो।मैं देखती हूँ।'-यह कहते हुए नेहा ने फोन रख दिया।

नेहा को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे।बचपन से लेकर शादी तक अपना मान कर वह वर्षों जिस मायके में रही, वह उसका घर नहीं।शादी के बाद जिस घर को सजाने, सँवारने, बनाने में उसने अपना तन, मन सब समर्पित कर दिया वो भी उसका घर नहीं..तो फिर उसका घर कौन सा है.. अचानक उसके मन से आवाज आई, जिस घर को वह अपने परिश्रम से, अपने रुपयों से खुद खरीदेगी, वही शायद उसका घर होगा।धीरे-धीरे उसकी आँखों की चमक बढ़ती गई और उसने आखिर निर्णय ले ही लिया।शादी से पहले उसने डिप्टी

कलेक्टर बनने का सपना देखा था और काफी तैयारी भी की थी लेकिन घर वालों के दबाव में आकर उसे जल्दी शादी करनी पड़ी, आज शायद तालों में बंद उस सपने को फिर से खोलने का वक्त आ गया था।

अपने पास के कुछ जेवर बेचकर उसने एक महिला आवासगृह में रहने का इंतजाम किया।संयोगवश वहाँ वार्डन पद की एक जगह खाली थी और वहाँ की संचालिका महोदय भी बहुत सहृदय थी, वह नेहा के सरल स्वभाव से बहुत प्रभावित हुई, जिससे उसे वहाँ वार्डन की अस्थायी नौकरी मिल गई।

अपना सामान घर से ले जाते हुए फिर राजेश से उसका सामना हुआ।

'तो तुम घर छोड़कर जा रही हों।देखना पछताओगी एक दिन और वापस यहीं लौट कर आओगी।' - राजेश का अहंकार बोला।

'हाँ, मैं तुम्हारा ये घर छोड़कर जा रही हूँ, जहाँ पर मेरा मान नहीं, वहाँ मुझे अब और नहीं रहना लेकिन इतनी आसानी से तुम्हें भी आजादी नहीं मिलेगी जल्दी ही मेरे वकील का नोटिस तुम्हें मिल जाएगा।'-इतना कहकर नेहा ने पूरे आत्मविश्वास से ससुराल की चौखट के बाहर पैर रखा।उसे पता था कि उसकी मंजिल बहुत दूर और बेहद कठिन थी लेकिन उसने मेहनत करने से कब हार मानी थी।अबतक दूसरों के घर को बनाने, सँवारने में की थी, अब अपने घर को बनाने के लिए करना है।उसने अपनी मंजिल की ओर पहला कदम बढ़ा लिया था।सामने नई सुबह की लालिमा चारों ओर फैल रही थी।

***

3 - "प्यार और स्वाभिमान"

लगभग दस सालों बाद आज राज भोपाल जा रहा था।ट्रेन में सामने की सीट पर एक प्रोढ़ के साथ बैठी लगभग पाँच साल की बच्ची के चेहरे को देखकर अचानक उसे अपनी पूर्व प्रेमिका मेघा की याद आ गई।खिड़की से बाहर देखते हुए मेघा के साथ बिताया हुआ समय उसकी आँखों में चलचित्र की तरह चलने लगा।

राज और मेघा दोनों भोपाल में बाहर से आए थे, राज अपनी नौकरी के लिए तो मेघा अपनी पढ़ाई के लिए। एक प्रोग्राम में मुलाकात के बाद दोनों ही एक दूसरे को पसंद करने लगे थे। यूँ तो राज को मेघा की हर बात पसंद थी लेकिन बस एक बात उसे खटकती थी, मेघा जिद्दी होने की हद तक स्वाभिमानी थी। वो उससे कभी कुछ नहीं लेती थी, यहाँ तक कि खाने-पीने की चीजों में भी खर्च बाँट लेती थी। उसे याद है एक बार कितने मन से वह अपना प्रमोशन मिलने की खुशी में उसके लिए बैंगनी रंग का एक सुंदर सा सूट लाया था लेकिन मेघा ने उसे लेने से यह कहकर मना कर दिया-'सॉरी राज, मुझे तुमसे इतना कीमती गिफ्ट नहीं लेना ठीक नहीं लगता।'

'अरे यार, मैंने तो इसकी कीमत भी ठीक से नहीं देखी बस तुम्हारे लिए अच्छा लगा तो खरीद लिया, पहनकर देखो ना तुम पर कितना अच्छा लगेगा, मैं कितने मन से तुम्हारे लिए लाया हूँ'-राज मनुहार करता रहा।

'नहीं राज, ज़िद मत करो, इससे मेरे स्वाभिमान को ठेस पहुँचती है'-मेघा ने दृढता से कहा।

इसके आगे राज कुछ ना कह सका और उदास मन से वो सूट वापस ले आया।

एक दिन ऑफिस में उसे मेघा की सहेली का फोन आया कि मेघा का एक्सीडेंट हो गया है।वह भागा-भागा अस्पताल पहुँचा तो पता चला कि मेघा का तुरंत ऑपरेशन कराना बेहद जरुरी है जिसमें लगभग एक लाख रुपये तुरंत लगने थे।उसने मेघा से जब रुपये देने की बात की तो मेघा ने उसे मना करते हुए कहा कि-'पापा को खबर कर दी है, वो बस आने ही वाले हैं।'

राज के बार-बार कहने पर भी जब मेघा नहीं मानी तो राज आखिर वापस लौट आया।इस बार उसके स्वाभिमान को ठेस पहुँची थी-'क्या मैं इतना गैर हूँ कि इतनी मुश्किल में भी मैं मेघा के काम नहीं आ सकता, क्या मेरा उस पर कोई हक नही,

क्या मुझ पर उसका कोई हक नहीं, कहीं

ऐसा तो नहीं कि वो मुझे प्यार ही नहीं करती, अगर वो इतनी ही अपनी बेवजह की ज़िद, स्वाभिमान और बेगानापन रखेगी तो शादी के बाद भी साथ में कैसे निबाह कर पाएँगे '-बस यही सोचते-सोचते उसने मेघा से दूर जाने का निर्णय कर लिया।उसके फोन उठाने बंद कर दिए, अपना फोन नंबर भी बदल लिया,

यहाँ तक कि गुस्से में उससे मिले बिना दूसरे शहर में अपना ट्रांसफर भी करा लिया लेकिन हकीकत में वह मेघा को कभी नहीं भूल पाया।

'मम्मी'-बच्ची की आवाज से अचानक राज की तंद्रा भंग हुई।राज ने मुड़कर देखा तो उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ, सामने मेघा धीरे-धीरे चल कर थोड़ा लँगड़ाते हुए सी आ रही थी।मेघा को आता देख वह प्रोढ़ बच्ची को उसे सौंपता हुआ बोला-'तुम जरा देखो इसे,

मै अभी आता हूँ।'

मेघा की नजर जब राज पर पड़ी तो वह भी चौंक गई।सामान्य अभिवादन के बाद मेघा ने ही शिकायती लहजे में राज से कहा-'तुमने तो पलट कर भी मेरा हाल नहीं पूछा, उस दिन पापा को आने में काफी देर हो गई थी तो ऑपरेशन ठीक से नहीं हो सका और आज भी चलने में तकलीफ होती है।पापा फिर मुझे अपने साथ घर ले गए। कुछ साल बाद मोहन जी से मेरी शादी कर दी।हाँ, इनकी उम्र थोड़ी ज्यादा है और ये विधुर भी हैं

लेकिन कोई सामान्य व्यक्ति मुझसे शादी करने को तैयार नहीं था और पापा को भी अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी थी।वैसे इनका स्वभाव बहुत अच्छा है, बहुत ख्याल रखते हैं मेरा।फिर थोड़ा रुक कर मेघा ने पूछा और तुमने शादी की?

'नहीं, तुम्हारी जैसी कोई मिली ही नहीं '-हँसी और उदासी के मिश्रित स्वर में राज ने कहा।

तभी राज को मेघा के पति आते दिखे, वह फिर खिड़की से बाहर देखने लगा और मेघा बच्ची का सिर सहलाने लगी।ट्रेन आगे बढ़ रही थी और आँखों में आँसू लिए दोनों सोच रहे थे-यह कैसा स्वाभिमान? इससे किसका मान बढ़ा?

***

मौलिक, स्वरचित अप्रकाशित।

प्रांजल श्रीवास्तव,