स्वाभिमान - लघुकथा - 29 Madhav Nagda द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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स्वाभिमान - लघुकथा - 29

1 - परिचय

जब से उसका स्थानान्तरण आदेश आया है सब मन ही मन खूब पुलकित हैं| खूबीचन्द चपरासी से लेकर बड़े बाबू खेमराज तक सब| कैसी होगी वह? युवा अधेड़ या वृद्ध? फैशनेबल या सीधी-सादी? दिलफेंक या गुमसुम? गोरी या काली? खूबसूरत या कमसूरत? किसे पसन्द करेगी? वर्मा को या शर्मा को? कौन बनेगा उसका खासमखास? बड़ा बाबू या बॉस? तरह-तरह की अटकलें| तरह-तरह के अनुमान| लोग बार-बार स्थानान्तरण आदेश देखते गोया उसकी उम्र लिखी हो या सूरत दिखती हो या सीरत का अन्दाजा होता हो| आदेश को सूंघते और मुस्कराते मानो कोई अनाम खुशबू उनके नथुनों में बस गई हो|

आखिर वह दिन भी आ गया जब उसने जॉइन किया| सभी ने उसमें अपनी-अपनी कल्पना का कोई न कोई रंग खिलते पाया| वह रूपवान नहीं तो कुरूप भी नहीं थी| कमसिन नहीं तो अधेड़ भी नहीं थी| हँसोड़ तो नहीं किन्तु विनोदी स्वभाव की थी| फैशनेबल होते हुए भी फूहड़ नहीं थी| रंग गेंहुँआं| आंखों में सबके प्रति एक आत्मीय भाव| सभी उसका परिचय पाने को उतावले हो उठे| सो एक परिचय पार्टी ही रख दी गई| औपचारिक परिचय के पश्चात् लोगों ने उससे तरह-तरह के सवाल पूछना शुरू किया| कितने साल की सर्विस हो गई है? इसके पहले कहाँ-कहाँ रही? शिक्षा कहाँ तक? विषय क्या-क्या? रुचियाँ,पसन्द, नापसन्द वगैरह-वगैरह| एक होड़ सी| उसने सबका यथायोग्य शालीनता और विनम्रता से जवाब दिया| फिर भी लोगों की उत्सुकता निःशेष नहीं हो पा रही थी| वर्मा ने पूछा, “आपके हस्बेन्ड का क्या नाम है?”

“मिस्टर कमल|” उसने बेरुखाई से उत्तर दिया, फिर किसी और बात में लग गई|

“आपके हस्बेन्ड क्या करते हैं?”

उसने कोई ध्यान नहीं दिया| शायद जानबूझकर|

“आपके हस्बेन्ड कहाँ हैं आजकल?”

वह उखड़ गई|

“क्या मतलब है? मेरे हस्बेन्ड से क्या लेना है आपको?” उसकी आवाज रुँध सी गई| “क्या मैंने आप लोगों की वाइफ के बारे में कोई सवाल पूछा है....?” आगे वह कुछ नहीं बोल सकी और महफिल को छोड़कर तीर की तरह बाहर निकल गई|

***

2 - नरक स्वीकार

मजबूत और काले जिस्म वाले दो आदमियों ने युवक को पकड़ कर खींचा| थोड़ी ही देर में युवक ने महसूस किया कि वह हवा से भी हल्का होकर ऊपर उठने लगा है| जैसे कि धुंआ या हाइड्रोजन भरा गुब्बारा या कोई पतंग| उसने नीचे झांका| अरे, उसका शरीर तो जमीन पर ही है| आग से बुरी तरह झुलसा हुआ| माँ, बहन, भाई, पिता सब सिर धुन रहे हैं| उसे याद आया | पड़ौस में आग लग गई थी| सभी जान बचाकर बाहर भाग आये| अंदर करुण क्रन्दन हो रहा था, कलेजे को चीर देने वाला| दो मासूम बच्चे फंस गये थे| युवक ने आव देखा न ताव आग की परवाह किये बगैर झपटा और कड़े संघर्ष के पश्चात् दोनों बच्चों को बचाकर ले आया| मगर इस प्रयास में वह बुरी तरह झुलस गया था| शायद मर भी गया है| उसने फिर से भारी-भरकम शरीर और लंबे पीले दाँतों वाले अर्द्धनग्न व्यक्तियों की ओर देखा| हाँ, वह मर गया है| यमदूत उसके जीव को पकड़कर ले जा रहे हैं| कहां ले जायेंगे? क्या स्वर्ग में?

कोई दरबार लगा हुआ था| वह अपने पौराणिक ज्ञान के आधार पर समझ गया कि सिंहासन पर विराजमान बड़ी-बड़ी मूंछों वाला व्यक्ति धर्मराज है| इधर खड़ा सफेद दाढ़ी वाला वृद्ध, जिसके हाथ में लाल रंग की पोथी है, चित्रगुप्त है| और यह चित्रगुप्त के चरणों से कौन लिपटा हुआ है?

“हजूर, माई-बाप|” युवक ने देखा कि यह तो उसके ही शहर का सेठ किरोड़ीमल है| तो यह भी काल-कवलित हो गया?

“हजूर, माई-बाप| म्हारी अशोकनगर वाली कोठी आप रख लो मगर म्हने नरक में मत भेजो|” किरोड़ीमल गिड़गिड़ा रहा था|

युवक को हँसी आ गई| यमदूतों ने हँसने से मना किया और बोले, “तेरा भी नम्बर लगने वाला है|”

चित्रगुप्त ने किरोड़ीमल को गिड़गिड़ाते देख फिर से लाल पोथी के पन्ने पलटे|

किरोड़ीमल को स्कूल और मंदिर बनाने के पुण्यस्वरूप स्वर्ग में भेज दिया गया| युवक जानता था कि सेठ ने यह पुण्य अपने काले धन की कमाई से अर्जित किया है| वह छटपटाया| यमदूतों ने उसे पुनः डपटा, “चुप्प! तेरा भी नंबर लगने वाला है|”

उसका भी नंबर लगा| चित्रगुप्त ने खाता देखा और धर्मराज की ओर मुखातिब हुए, “इस युवक ने विधाता के कार्य में व्यवधान उत्पन्न किया है|”

“कैसे?” धर्मराज ने गंभीर वाणी में पूछा|

“कर्मफल के आधार पर दो बच्चों की मौत जलने से लिखी थी| मगर इस जीव ने अपने पुरुषार्थ से बच्चों को बचाकर घोर पाप किया है| अगर इस तरह मनुष्य कानून-व्यवस्था अपने हाथ में लेने लगे तो...|”

दरबार में सन्नाटा छा गया| युवक के माथे पर सलवटें उभर आयीं|

“तुम्हें कुछ कहना है? यदि अपने किये पर पछतावा हो तो क्षमा याचना कर सकते हो| हम दण्ड में कमी पर विचार करेंगे| अन्यथा तुम्हें कुंभीपाक नरक में जाना पड़ेगा |” धर्मराज बोले|

“मुझे आपके कुम्भीपाक, रौरव और तमाम तरह के और भी नरक स्वीकार हैं| मैं अपनी आंखों के सामने किसी को तड़प-तड़पकर जान देते हुए नहीं देख सकता| मुझे अपने किये पर कोई पछतावा नहीं है|” युवक की आवाज में विचित्र तरह की खनक थी| उसके चेहरे पर प्रकटे तेज के सम्मुख वहां उपस्थित सभी की आभा फीकी पड़ गई|

***

3 - रिसेप्शन

राजेश को लड़की पसंद आ गई और वह ज़िद पर उतर आया, वरना सिन्हा साहब ऐसा टटपूंजिया समधी कभी ‘पास’ नहीं करते | अब देखो, यह क्या कोई रिसेप्शन है ? लोहे की कुर्सियाँ ! खैर छोड़ो कुर्सी के किस्से को | मगर अल्पाहार ? ऐसा तो हमारे ऑफिस का चपरासी भी पसंद नहीं करेगा |

“अरे भाई रामलालजी, जरा इधर आना तो |” सिन्हा साहब ने समधी को आवाज़ दी | रामलालजी हाथ बांधे दौड़े चले आये |

“यह क्या है ?” सिन्हा साहब ने प्लेट आगे की | रामलालजी ने समझा कोई ‘हवाई जहाज’ उतर गई है | कहा, “जी, मैं अभी दूसरी प्लेट मंगाता हूँ | अरे नवीन..|” रामलालजी ने बेटे को पुकारा, मगर सिन्हा साहब बीच में ही दहाड़े, “रामलालजी, आपको इस बात की जरा भी तमीज नहीं कि रिसेप्शन कैसे किया जाता है ? बरात में कितने बड़े-बड़े लोग आये हैं ! कितना ऊंचा स्टैण्डर्ड है उनका ! क्या वे यह कचरा खायेंगे ? अभी से यह हाल है तो आगे क्या होगा ? मैं आप लोगों की औकात अच्छी तरह जानता था, मगर अपना ही खून नालायक निकला |”

रामलालजी का चेहरा विवर्ण हो गया | वे हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगे | नवीन ने आकर अपने पिता को सम्भाला, “पिताजी, चलिए यहाँ से | गिड़गिड़ाने की कोई जरूरत नहीं है | मैं अभी इनको औकात दिखता हूँ |”

“नहीं बेटा, नहीं | झगड़ा मत करना |”

नवीन ने अपनी जेब से दस-दस रुपये की बिलकुल नई गड्डी निकाली | धागा तोड़कर पंखे के पास गया और गड्डी बिखेर दी | दूसरे ही क्षण दस-दस के नोट पंडाल में नाच रहे थे | देखते ही देखते अफरा-तफरी मच गयी | बरातीगण नोट पकड़ने के लिए उचकने लगे | एक हाथ में प्लेट और दूसरा हाथ ऊंचा हवा में | कोई-कोई तो लोहे की कुर्सियों पर भी चढ़ गए | उनमें से कुछ संतुलन बिगड़ने से नीचे गिर पड़े |

नवीन सीधा सिन्हा साहब के पास पहुँचा, “समधी जी, देख लिया अपने बरातियों का स्टैण्डर्ड ?” समधी जी ने नज़रें झुकाकर कुर्सी का हत्था थाम लिया |

***