जिए तो ज़रा बस एक पल - Vandna Sharma द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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जिए तो ज़रा बस एक पल -

जिए तो ज़रा बस एक पल -

{ पहाड़ी स्त्रियों को समर्पित }
इचक दाना -विचक दाना
सुनो क्या कहता है मीठा दाना
रंग लाई अपनी मेहनत
देंगी गवाही गेंहू की ये कलियाँ
लहलहाती फसल हमारी
सींचा इसे हमने अपने सपनो से
सुनो सखी मान गयी है सारी दुनिया
हँस-हँस कर गारही हैं कलियाँ
जीवन रोपती मेहनतकश स्त्रियां
जीवन काटती हैं मेहनतकश स्त्रियां
सुनो सखी !सबको ज़रा बताना
इचक दाना -विचक दाना
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मानो या न मानो
बहुत कुछ है
कहने को
आपके मन में भी
कुछ मेरे मन में भी
ये बात और है
तुम सुनना नहीं चाहते
ना अपने दिल की
ना मेरे दिल की
कुछ गलत हूँ मैं भी
तो कुछ तुम भी
साथ ना चले तुम
न चले हम
रास्ता भी एक
मंजिल भी एक
तो क्यों ना चले
साथ -साथ
हम-तुम ,तुम-हम
बोलो ना -----
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मंजिल सामने है
राह का भी ज्ञान है
फिर क्यों पग उस राह से अनजान है
एक अजीब सा भय मन को बांधे है
लगता है कभी
ना नीचे धरती है ,ना ऊपर आसमान है
खंड -खंड हुई ज़िंदगी
जोड़ना इनको क्या इतना आसान है
अजीब मोड़ है ज़िंदगी का
लिखा तो बहुत ,फिर भी कोरा कागज
सोचकर मन ये बहुत हैरान है
अनजाने चेहरों के बीच
ढूंढती आँखे खुद अपनी पहचान है
मंजिल सामने है
फिर क्यों पग उस राह से अनजान है
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गूंजता रहता है सारे दिन
बच्चों की किलकारियों से एक पार्क
मेरे घर की खिड़की से झांकता हुआ
कुछ गुनगुनाता रहता है
कर देता है भांग मेरी ख़ामोशी
इधर -उधर भागते ,दौडते बच्चे
कितने बेफिक्र ,मस्त
कोई चिंता नहीं
कुछ खोने का डर नहीं
कुछ पाने की लालसा नहीं
जो कुछ है
बस यही एक पल है
इसी पल को जीना चाहते हैं
काश हम बड़े भी
बस एक इस पल को जीना सीख जाए
तो कोई शिकायत ना रहे
किसी को किसी से
बस ये पल और
इस पल में सारी ज़िंदगी ---
जिए तो ज़रा बस एक पल ------
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अचानक से आये एक वायुयान ने
माचा दी हलचल आकाश में
इधर -उधर उड़ने लगे
बैचेन हो परिंदे
खो अपनी स्वभाभिक चाल
हो गए अपने समहू से दूर
हे निष्ठुर मानव
क्या ज़मीन कम लगी तुझे
धरती पे क्या कम था तेरा आतंक
कि कर दी दखल
तूने परिंदो के जहाँ में
कम से कम इस जहाँ को तो बक्शा होता
निसंदेह मानव ने प्रगति का इतिहास रचा है
पर किस कीमत पर ?
कभी क्यों नहीं सोचा
प्रकृति से पन्गा ना ले मानव
क्रोध इसका पचा नहीं पायेगा
अब भी वक़्त है ,संभल जा
धरती को बचा ,प्रकृति को सजा ----


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बालकनी ,एक ऐसी जगह

बालकनी
हर घर में होती है
बालकनी ,एक ऐसी जगह
जहाँ से खुलती है विचारो की खिड़की
दिखायी देता है सारा आसमान
मिलते हैं मेरे सपनो को पंख
बतिआने आती है एक नन्ही चिड़िया
दूर पेड़ पर करतब दिखाती नन्ही गिलहरी
एक ऐसी जगह
जहाँ अक्सर आती हैं महिलाएं
अपने केश सँवारने
युवा अपने फोन पर बतियाने
बुजुर्ग अपनी यादों के किस्से सुनाने
बच्चे आते हैं नयी दुनिया को समझने
कुछ सामान बाहर फेंकते है
कुछ अंदर तोड़-फोड़ करते हैं
बालकनी से झांक झांक कर
राहगीरों को आवाज़ लगाते हैं
कभी बंदर -कभी चिड़िया
ज़ोर ज़ोर चिल्लाते हैं
एक ऐसी जगह
जहाँ छिपाते हैं कुछ अपने आंसू
मिटाते हैं कुछ अपनी उदासी
जलाते हैं कुछ अपना क्रोध
जब शांत हो जाता है मन
हल्का सा मुस्काते हैं
और बतियाते हैं ---एक कप कॉफी लेकर
बतियाती है उनके साथ
बालकनी ------

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तुम नहीं समझोगे
तन्हाई में भी एक नशा है
इंतज़ार का भी अपना मज़ा है
कभी किसी के लिए मिटकर देखो
सबकुछ खोने में भी एक मज़ा है
समय कभी नहीं ठहरता ,पर
कुछ पल के लिए ठहर कर देखो तुम
कभी खुद को भुलाकर देखो तुम
शब्दो से परे एहसास की दुनिया में जाकर देखो तुम
सिर्फ फलक को ही न देखो
कभी इस ज़मी को भी प्यार से देखो तुम
अपने अंदाज़ से रोज़ जीते हो अपनी ज़िंदगी
आज मेरी तरह जीकर देखो तुम
कभी खुद को भुलाकर देखो तुम
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माँ क्या तू मुझको जन्म ना देगी
तेरी ही परछाई हु माँ
क्या तू भी मेरा साथ ना देगी
माँ बस ज़रा सी हिम्मत कर
तू शक्ति है तू दुर्गा है
यूँ ना दुनिया से डर
माँ क्या मेरा साथ देगी
तू चाहे तो मैं दुनिया में आ सकती हूँ
तेरी हर खवाइश पूरी कर सकती हूँ
क्या मुझको तू आवाज़ न देगी
माँ क्या तू मुझको जन्म ना देगी
सारी दुनिया को मैं जानू
तेरा अंश हूँ तुझको पहचानूँ
तेरी कोख में सुरक्षित खुद को पाया
एक तू है जिसने अपनाया
क्या मुझे अपने ख्वाब ना देगी
क्या तू मुझको जन्म ना देगी
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मनुष्य के जन्म के साथ ही
शुरू हो जाता है बढ़ना
रिश्तो का मायाजाल
कुछ महीने तक बच्चा सिर्फ
माँ को जानता है
बाद में जुड़ते चले जाते हैं रिश्ते
पापा ,भाई -बहिन ,चाचा ताऊ
बुआ मौसी मामी। ......
और जैसे -जैसे होता है बड़ा
छूटने लगते हैं रिश्ते
एक उम्र आती है ऐसी
जब पति -पत्नी को अपने सिवा
सब रिश्ते बेमानी लगते हैं
क्या स्वार्थ पर टिका होता है हर रिश्ता
बस माँ -बाप का प्यार निस्वार्थ होता है ?
वक़्त के साथ सभी रिश्ते
लगते हैं छूटने
रह जाता है बस एक सहारा
पति पत्नी बन जाते हैं
जब एक -दूजे सहारा
सोचते है तब ज़िंदगी में
क्या जीता क्या हारा
अजीब होते हैं रिश्ते ???
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निराशा में आशा की किरण है मेरी माँ
मेरा विश्वास ,मेरी ताक़त है मेरी माँ
मेरी शान मेरी पहचान है मेरी माँ
मैं हमेशा खुश रहूं ,आगे बढूं
बस यही एक चाह है उनकी
मेरी ख़ामोशी भी सुन लेती है मेरी माँ
दर्द मुझे और रो देती है मेरी माँ
कितना भी लड़ूँ माँ से
लाख दुआएं देती मेरी माँ
पतझड़ में बसंत एहसास है
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किसी ने कहा पहाड़ तोडना मुश्किल है
किसी ने कहा समुद्र चीरना मुश्किल है
पर सबसे मुश्किल है
इस दुनिया को खुश करना
अजीब है ये दुनिया
अजीब है इसके नियम
किसी की जान जाए तो जाए
खोट निकालना आदत है इसकी
जिस दुनिया ने 'सीता मैया 'को भी ना छोड़ा
की व्यंग्यवाणो की वर्षा
रामजी ने जानकी को छोड़ा
कोई खुश क्यों है ?
कोई दुखी क्यों है ?दुनिया को चैन ना आये
कहीं की ईट कहीं का रोड़ा
भानुमति ने कुनबा जोड़ा
क्यों हुआ ?कैसे हुआ
ये धुनुष किसने तोडा
भीड़ ने कभी परिवर्तन नहीं किया
इतिहास गवाह है
क्रांति हुई ,युग बदला
तो किसी एक ने साहस किया है
एक चिंगारी ही चीर देती है अँधेरा
जीना है तो कर दुनिया किनारा
ज़िंदगी तेरी है बस जिए जा
झुकेगी दुनिया तू बस बढे जा

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क्या कहे इसे
दीवानगी ,पागलपन या अदम्य साहस
मूर्खता तो नहीं कह सकते
जब सोच- समझकर खुद पिया जाता है ज़हर
पता है इस राह की मंजिल नहीं
पर रास्ते बहुत खूबसूरत है
और इंसान जाता है उसी राह
खुद को बर्बाद करने की हिम्मत
सब में कहाँ होती है
तो क्या कहा जाये इसे
मोहबत ,इबादत या कुछ और
इतना मनोबल होता है ु उस समय
दहकते अंगारो पर भी उसे
पथ की दहकता नहीं
किसी की ख़ुशी दिखाई है
हँसते -हँसते लुटा देता है अपना सबकुछ
किसी एक के चेहरे पर लाने को मुस्कान
आज तक नहीं कर पाया परिभाषित
कोई भी इंसान
क्या है ये ?खुद मिटकर भी
देना दुसरो को मुस्कान
प्रेम ,इश्क़ ,चाहत और भी
हैं कई इसके नाम

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पागल होती है लड़कियां
बिन सोचे समझे किसी से भी
प्यार कर लेती है
फिर उसकी ख़ुशी के लिए
हो जाती है बर्बाद
कुछ नहीं बचता उनके पास
कभी नहीं सोचती अपने बारे में
रात -दिन खटती रहती है मशीन की तरह
ना तेल-पानी की ज़रूरत ,न रख -रखाव की
चौबीस घंटे कोल्हू के बैल की तरह निरंतर
परिवार रूपी धुरी के चारों ओर घूमती रहती है
कभी पति की चिंता ,कभी सास की सेवा
कभी भाई का दुःख याद आता है
कभी बहन के सपने पुरे करने का ख्याल
कभी माँ -बाप का फ़र्ज़ याद आता है
सचमुच पागल ही तो होती है लड़कियां
इन सबसे परे कभी नहीं सोच पाती
अपने अस्तित्व के बारे में
वो क्यों है ?क्या है उनका होना
और एक दिन इसी तरह
सो जाती है चिर निद्रा में
इसी तरह रात -दिन घिसते -घिसते
पागल ही तो होती हैं। ........

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कभी पागलपन भी ज़रूरी है
होश में रहे जब तक ,सहते रहे सब
ना की शिकायत किसी से
पर जब होश खोये तो
क्रांति हुई ,जागी जनता
कुछ करना है ,या मरना है
पाना नहीं सब कुछ खोना है
एक बूँद सागर से मिलने को फ़ना हो गयी
तोड़ सारी हदें मीरा दीवानी हो गयी
जब -जब होश गवाया इंसान ने
धरती डोली अम्बर चकराया
कान्हा ने गीता का संदेस सुनाया
कभी -कभी बेड़िया दाल देती है बुद्धि
लाभ -हानि के चक्र्व्यूह में फंसा देती है बुद्धि
पर एक क्षण का पागलपन इतिहास बना देता है
किसी को भगत सिंह ,किसी को राँझा बना देता है
होश में रहकर भी कहीं होश खो जाये
तो सोचना कभी ए दोस्तों
ज़रूरी नहीं समझदारी हर वक़्त ज़िंदगी मे
जीने के लिए कुछ खास पल
कभी कभी पागलपन भी ज़रूरी है

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मेरा घर कुछ ऐसा हो
जहाँ आती हो सूरज की पहली किरण
जहाँ सुनाई दे पक्षियों का कलरव
जहाँ से दिखाई दे हरियाली ,खुला आसमान
चाँद ,सूरज ,तारे
जहाँ एक कोना हो मेरी किताबों का
जहाँ मैं बुन सकूँ अपने सपने
कर सकूँ मैं सृजन
रच सकू कोई रचना
जहाँ मिल सके विचारों को उड़ान
जहाँ अभिव्यक्ति की हो स्वंत्रता
नर -नारी की हो समानता
मानवता ही धर्म हो
पर -सेवा ही कर्म हो
जहाँ बच्चे भरते हो किलकारी
जहाँ बेटियां हो सबसे प्यारी
जहाँ पा सकू मैं स्वम् को
अपने अस्तित्व को अपने स्वाभिमान को
कुछ ऐसा हो----मेरा घर

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बस यु ही
लड़ते -झगड़ते ,रूठते -मनाते
समय कुछ यूँ उड़ गया पंख लगाकर
कैसे -कैसे मोड़ आये ज़िंदगी के
कभी हंसकर रोये
कभी रोकर मुस्कराये
कभी की शरारतें
कभी कट गयी रातें
बातों ही बातों में
कितनी दूर चले आये हम
यूँ ही चलते -चलते
वो लड़कपन ,वो बचपन
जाने कहाँ खो गया
कुछ रिश्ते बदल गए
कुछ हम बदल गए
कुछ बदल गयी ये ज़िंदगानी
एक -दूजे से बात करने के लिए
बहाना ढूंढते हैं आज
क्यों इतना व्यस्त सब हो गए??

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बगावत
क्यों नहीं सोच पाती लड़कियां
सिर्फ अपने बारे में
क्यों सुख ढूंढती हैं वो पुरुष की अधीनता में
क्यों चाहिए पुरुष का कन्धा
दुःख हल्का करने के लिए
क्यों नहीं निकल पाती इस चक्र्व्यूह से
क्यों नहीं नकार देती पुरुषो का अस्तित्व
क्यों हर बार बस हारकर खुश हो जाती है
ऐसा क्या है जो उन्हें रोके रखता है
इस भ्र्म की दुनिया से बाहर नहीं आने देता
क्यों नहीं अलग दुनिया बनाती अपने लिए
क्यों समपर्ण में ही अपनी जीत समझती है
एक बार बगावत करके तो देखे
काँप जाएगी ये दुनिया नारी शक्ति से
नारी अबला नहीं शक्ति है
फिर क्यों अनजान रहती है खुद से
जिस दिन नकार दिया नारी ने
पुरुषो का अस्तित्व
प्रलय आ जाएगी
जीवन नष्ट हो जायेगा
त्राहि त्राहि करता बेचारा पुरुष नज़र आएगा

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कोशिश बहुत की रोकने की
यादों की उफनती लेहरो को
पर बहुत ज़िद्दी हैं वो
और उफनती है और उफनती हैं
जैसे लहरें साथ लाती हैं अपने
कोई सीप ,कोई नन्हा मोती
उसी तरह तुम्हारी यादें
साथ लाती हैं
कुछ अनकही -अनछुई खुशबुए
और भीग जाती हैं पलके
उन यादों में
जैसे कोई लहर छू जाती है पैरों को
और सिहर जाता है मन
एक अनजाने डर से
डर ,तुम्हे खोने का
डर सपने टूटने का
लेहरो में बिखर जाने का डर
पर ए दोस्त !
संजोकर रखूंगी मैं इन यादों को
जैसे किताब में रखी है गुलाब की सुखी पत्तियां
पर उनकी खुशबु आज भी भर देती है ताजगी से मुझे
तुम्हारी यादों की खुशबु
उसी तरह मुझे ताजगी देती रहेगी
खोलूंगी जब भी मैं अपनी यादों के पन्ने
और
उन पर लिखा होगा तुम्हारा नाम
तुम्हारी यादें !

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