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स्वामी केशवानंद

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स्वामी केशवानन्द

एक था बालक बीरमा। गरीब किसान घर से। मां खेत में काम करती तो पिता अपने ऊंट पर सामान लाद कर यहां वहां पहुंचाया करते। बालक के जिम्मे था गऊओं को लेकर खेत-खेत घूम कर उन्हंे चराना। बालक को दिन भर के लिये मिलता कुछ पीने का पानी और खाने के लिये एक या दो मुठ्ठी ग्वार की फली। पहनने के लिए छोटे से कपड़े की एक लंगोटी। वक्त को यह भी नामंजूर हुआ। एक दिन वही चैदह वर्षीय बालक अनाथ हो गया। अनाथ को कोई सहारा नहीं मिला तो वह घर से निकल चला। राजस्थान से पंजाब की ओर रूख किया। यहां वहां भटकते बीरमा को फाजिल्का (पंजाब) में शरण मिली - एक साधु आश्रम में। महन्त कुशलदास गुरू बने और पढाई शुरू हुई बीरमा की। अब तक पढाई का ‘क’ न जानने वाले बीरमा के लिये यह वरदान था। दिन ब दिन उनका संस्कृत ज्ञान बढता गया। एक दिन अपने गुरू के साथ बीरमा कुंभ के मेले में गये। वहां संस्कृत में पढने-बोलने की एक प्रतियोगिता में बीरमा ने भाग लिया। उनका वाचन सुनकर लोग हैरान हो गये। एक महाशय ने तो कह भी दिया - अरे, यह तो दूसरा ‘स्वामी केशवानन्द’ है। कोई स्वामी केशवानन्द पहले हो चुके थे, उनके संस्कृत ज्ञान की सब प्रशंसा करते थे।
अब बीरमा नहीं, वह युवक बन गया स्वामी केशवानन्द। साधु आश्रम फाजिल्का के महन्त और गुरू कुशलदास के देहावसान के बाद स्वामी केशवानन्द को बनाया गया महन्त । स्वामी केशवानन्द ने आश्रम की आय का सदुपयोग शुरू किया। अबोहर फाजिल्का के गांवों में पन्द्रह स्कूल खोले। वहां पढने लगे किसानों और आम ग्रामीणों के बच्चे। स्कूल सफलता से चलने लगे।
साधु आश्रम की ही घटना है। वहां रावलदीन नाम का एक माली काम करता था। आश्रम में शहर से उपहार स्वरूप मिठाई और अन्य खाद्य सामग्री आती रहती थी। एक दिन ढेर सारी मिठाइयां आई। स्वामी जी के आदेश से साधु आश्रम के सभी निवासियों में वितरित की गई। कुछ समय बाद स्वामी जी घूमते हुए आश्रम के बाग और माली के निवास स्थान की तरफ चले गये। स्वामी जी ने देखा, माली रावलदीन रोटियां बना रहा है। स्वामी जी को आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा - रावलदीन, आज तो आश्रम में बहुत ही मिठाइयां और खाने का सामान आया है, तुम्हें नहीं मिला? उस माली रावलदीन ने जवाब दिया - स्वामी जी, मिठाई, नमकीन खाने से मेरी जीभ चटोरी हो जायेगी। चटोरी जीभ इन्सान को गुलाम बना देती है। मैं जीभ का गुलाम नहीं बनना चाहता । इसलिये कभी भी आश्रम में आये खाद्य पदार्थों को नहीं लेता। अपनी बनाई रूखी सूखी ही खाता हूं।
स्वामी जी ने मन ही मन रावलदीन को गुरू मान लिया और उम्र भर अपनी जीभ को चटोरी नहीं बनने दिया। इसी तरह एक और घटना थी। स्वामी जी उन दिनों भारत भ्रमण पर थे। उन्हें प्यास लगी तो घर के दरवाजे पर बैठी एक वृद्धा से पानी मांगा। वृद्धा ने कहा - मेरे से उठा नहीं जा रहा । पानी तो उस घड़े में है। तुम स्वयं ले लो... ठहरो, पहले यह बताओ तुम्हारी जाति क्या है?
स्वामी जी ने घड़े की तरफ देखा - एक कुत्ता उसी घड़े से सटकर सोया हुआ था।
स्वामी जी ने उस ओर इशारा करते हुए कहा - तुम्हारे घड़े से चिपक कर कुत्ता सोया है। मेरी जाति उससे उत्तम है। क्योंकि मैं इन्सान हूं।
वृद्धा कुछ शर्मिन्दा हुई और बोली - तुम पानी ले सकते हो। स्वामी जी पानी लेने लगे तो देखा, घड़े में किसी छोटे बच्चे का जूता गिरा हुआ है। उसे देखकर तो वृद्धा को और भी शर्म आई।
इन मामूली दिखने वाली घटनाओं से स्वामी जी ने ऐसे सबक सीखे, जिन्हें जिंदगी भर नहीं भूले और दूसरों को भी सिखाने के रचनात्मक प्रयास किये।स्वामी केशवानद ज्यादा समय तक साधुआश्रम के महंत नहीं रहे। उन्होंने महंत की गद्दी अपने एक गुरूभाई को सौंपी और देश की सही स्थिति समझने के लिये भारत भ्रमण शुरू कर दिया। भारत भ्रमण के दौरान ही उन्होंने सीखा कि जातिवाद, अनपढता, विदेशी शासन भारतीयों के लिये अभिशाप है। इनसे मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति होगी। उन्होंने यह भी जाना कि संस्कृत या अंग्रेजी नहीं, हिंदी में ही इस देश की संपर्क भाषा, राष्ट्र भाषा होने की क्षमता है।
वापस आकर स्वामी जी ने अबोहर फाजिल्का क्षेत्र में अपने इन संकल्पों की पूर्ति के प्रयास शुरू कर दिये। लगभग पन्द्रह गांवों में स्कूल खुलवाए, अबोहर में हिंदी परीक्षाओं के केन्द्र खुलवाए और स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेना शुरू किया। दो बार अंग्रेजों की जेल में भी कई महीनों के लिये बंद किये गये। अबोहर में साहित्य सदन की स्थापना की, उसमें एक विशाल पुस्तकालय की स्थापना भी की।
उन्हीं दिनों अर्थात् 1917 में संगरिया (राजस्थान) में एक विद्यालय की स्थापना हुई। संस्थापक चै. बहादुरसिंह भोभिया ने अपने जीवन की अंतिम घड़ी अर्थात् सन् 1924 तक इसे चलाया। उनके देहावसान के बाद छह साल तक उनके श्रद्धालुओं ने स्कूल को चलाने के प्रयास किये। परन्तु एक समय आ गया जब संचालक इसे बंद करने की सोचने लगे। बंद करने से पहले संचालकों ने इलाके के लोगों की एक बैठक बुलाई। इस बैठक में स्वामी केशवानन्द भी पहुंच गये। स्कूल बंद करने का प्रस्ताव आया तो बोले - क्या स्कूल इसलिये खोला जाता है कि बाद में उसे बंद कर दिया जाए?
उन्होंने स्कूल बंद करने के प्रस्ताव का डटकर विरोध किया। परिणाम यह निकला कि स्कूल चलाए रखने की जिम्मेदारी स्वामी जी के कंधों पर आ गई। स्वामी जी किसी चुनौती से घबराने वाले नहीं थे। उन्होंने यह चुनौती स्वीकार कर ली। लेकिन स्कूल चलाना आसान नहीं था। यह 1932 का समय था। तब संगरिया तो क्या दूर-दूर तक कोइ पढा लिखा इन्सान नजर नहीं आ रहा था। स्कूल में पढाने के लिये अध्यापक सुदूर उत्तरप्रदेश से बुलाए गए।
स्कूल के उन दिनों में इस क्षेत्र में पेयजल का घोर अभाव था। स्कूल और छात्रावास में स्वामी जी को पानी-मैनेजमैंट लागू करना पड़ा। फलस्वरूप छात्रों को पीने का पानी तो मिला ही, पेड़ पौधों के जन्मने के कारण क्षेत्र भी हरा भरा होने लगा। उन दिनों नहाते या कपड़े धोते समय साबुन-डिटरजेंट के इस्तेमाल का रिवाज नहीं था। इसलिये प्रत्येक पेड़ या पौधे के पास एक पत्थर रख दिया गया। छात्रों, अध्यापकों से कहा गया कि आप सभी इन पत्थरों पर बैठकर नहायेंगे, यहीं कपड़े, धोएंगे ताकि पानी सीधा पेड़ या पौधे की जड़ के पास जाए।
पानी बचाना जरूरी था। पानी लाने के उन दिनों के साधन थे बैलगाड़ी पर रखी टंकी, ऊंट की पीठ पर रखे घड़े या फिर सिर पर घड़ा रखकर। पानी भी चार किलोमीटर दूर गांव चैटाला से लाना पड़ता था क्योंकि पीने के पानी का कुंआ वहीं था।
उन्हीं दिनों स्वामी जी का एक श्रद्धालु, स्कूल में आकर रहने लगा था। उसके पास दो ही काम थे - बैलगाड़ी से पानी लाना और स्कूल के कच्चे कमरों की छत्त की मरम्मत करना, गोबर-मिट्टी के मिश्रण से बने गारे से दीवारों की लिपाई करना। एक दिन उस आशाराम की बैलगाड़ी में जोते जाने वाले दो बैलों में से एक की मौत हो गई। स्कूल वाले जल्दी दूसरे बैल का इंतजाम नहीं कर सके। जब तक दूसरा बैल नहीं आया, आशाराम एक बैल की जगह स्वयं को जोत कर पानी लाता रहा । कोई विद्यार्थी प्यासा रह जाये, यह उसे बर्दाश्त नहीं था। जैसे स्वामी जी समर्पित थे, वैसे ही उन्हें साथी मिलते रहे।
स्कूल चलने लगा। स्वामी जी की इच्छा हुई कि अपने बचपन के गांवों को देखा जाये। उस मरूधरा में जाने के तब दो ही साधन थे - ऊंट की सवारी या अपने दो पांव। स्वामी जी ने बचपन के गांव देखने के लिये दोनों साधनों का सहारा लिया। उन्हें यह देखकर हैरानी हुई राजस्थान की मरूधरा में बसा यह ग्रामीण जगत न केवल अंग्रेजों, राजा महाराजाओं का गुलाम है, बल्कि अनपढता, अंधविश्वास, कुरीतियों और निर्धनता के महाजाल में जकड़ा हुआ भी है। उन्होंने तब संकल्प लिया कि अब से आगे केवल यही करूंगा कि गांव गांव में स्कूल खुल जाए। अशिक्षा के अज्ञान का अंधेरा दूर होगा तो दूसरी कमियों से भी मुक्ति मिलेगी।
स्वतंत्रता सेनानी, हिंदी प्रेमी, समाज सुधारक, त्यागमूर्ति स्वामी केशवानन्द अब बन गये स्कूल संस्थापक। उन्होंने अपना यह अभियान सन् 1943 से 1958 तक चलाया। गांव गांव में स्कूल खुलते गये, सफलतापूर्वक चलते रहे। जैसे ही स्कूल रूपी पौधा वटवृक्ष बनने की दिशा में आगे बढता, सरकार उसे संभाल लेती। इस तरह उस मरूधरा में एक-दो-पचास-सौ नहीं, 287 गांवों में स्वामी केशवानन्द जी ने स्कूल स्थापित किये । उन स्कूलों में अध्यापक ऐसे भेजे, जो केवल पढाते नहीं थे, गांव के लोगों को दवाई भी देते थे, उनके धार्मिक-सामाजिक संस्कार भी करवाते थे। इसके लिये उन्होंने संगरिया (राजस्थान) में शिक्षक-प्रशिक्षण शिविर लगाने प्रारंभ किये। ये शिविर बाद में शिक्षक-प्रशिक्षण विद्यालय, शिक्षक-प्रशिक्षण महाविद्यालय तक विकसित हुए। आज भी इनमें एसटीसी, बी.एड., एम.एड., शोध कार्य (पीएच.डी.) नियमित चल रहे हैं। स्वामी जी संगरिया में ही महिला आश्रम, बालिका विद्यालय, बालकों का उच्च माध्यमिक विद्यालय, कृषि, कला, विज्ञान महाविद्यालय तक संस्थानों का विकास किया। संगरिया में सन् 1917 में स्थापित जाट मिडिल स्कूल का नाम 1948 में ग्रामोत्थान विद्यापीठ संगरिया किया गया। सभी विद्यालय-महाविद्यालय इसी के अन्तर्गत स्थापित किये गये। जनता ने उन्हें सम्मान देने में कोई कमी नहीं की। सन् 1952 में उन्हें राज्य सभा का सदस्य बनाया गया। वे 1964 तक राज्य सभा में रहे। इस बीच उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से प्रभावित होकर पं.जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी, श्री लाल बहादुर शास्त्री, चै. चरणसिंह, चै. देवीलाल, अनेक मंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक, साहित्यकार, इतिहासकार, विदेशी मेहमान ग्रामोत्थान विद्यापीठ संगरिया में पधारे और अभिभूत होकर गये।
अक्षर, शिक्षा, स्कूल, काॅलेज के साथ-साथ जीवन के अन्य पहलुओं, आवश्यकताओं की तरफ भी स्वामी जी ने पूरा ध्यान दिया। जगह-जगह हरियाली, पानी-बचत, पर्यावरण रक्षा, सफाई रखने का न केवल प्रचार किया बल्कि रचनात्मक कार्य कर उदाहरण भी पेश किया। संगरिया स्थित संस्था ग्रामोत्थान विद्यापीठ को नन्दन कानन बना दिया । विभिन्न किस्म के पेड़ पौधे लगाये। इनमें अनेक औषधीय पौधे भी थे। लोगों के स्वास्थ्य सुधार पर भी पूरा ध्यान दिया। संगरिया में न केवल औषधालय, आयुर्वेद शिक्षा की स्थापना की, दवाओं की पूर्ति के लिये रसायनशाला की स्थापना भी की।
लोगों को मानसिक रूप से सक्षम बनाने, उन्हें अपने गौरवशाली अतीत से परिचित करवाने के लिये कला, इतिहास, लोक कला और पुरातत्व की दुर्लभ सामग्री से युक्त विशाल संग्रहालय की स्थापना की । यह संग्रहालय अपनी चार विशाल गैलरियों, छह विशाल कक्षों में सुसज्जित सामग्री से आज भी दर्शकों को मोहित कर रहा है।
कुरीतियों और नशे के विरूद्ध अभियान चलाना तो उनके दैनिक कार्य में शामिल था।
उनके द्वारा स्थापित संस्थाओं में शिक्षा प्राप्त कर अनेक छात्रों ने अपने भावी जीवन में उल्लेखनीय प्रगति की।
स्वामी केशवानंद जी के विचारों में कट्टरता नहीं थी। उन्होंने लोकमान्य तिलक द्वारा लिखी पुस्तक गीता रहस्य को कई बाद पढा। गीता पढने की प्रेरणा भी दी। उन्हें सिख गुरूओं की शिक्षाओं में भी आस्था थी। गुरूवाणी का पाठ करना उन्हें पसंद था। स्वामी दयानंद और आर्य समाज से तो प्रभावित थे ही। हां,उनमें कट्टरता भी थी। अशिक्षा, अनपढता, अंधविश्वास, अकर्मण्यता, सांप्रदायिकता, जातिवाद आदि के खिलाफ उनके मन मस्तिष्क में कट्टरता थी।
स्वामी केशवानन्द जी ने अपने जीवन में कभी आराम नहीं किया। 13 सितम्बर 1972 को अपनी योजनाओं की पूर्ति के लिये सहायता लेने दिल्ली गये थे। तालकटोरा रोड पर पैदल चलते हुए गिर पड़े और वहीं अंतिम सांस ली। अपने निजी प्रचार से इतने दूर थे कि पुलिस ने एक लावारिस साधु समझकर शव को उठाया। बाद में पहचान होने पर उन्हें पूर्ण सम्मान मिला।
वैसे स्वामी केशवानंद हमारी ही तरह के एक सिर, दो हाथ और दो पांव के एक इंसान थे। पर उनके बहुआयामी व्यक्तित्व, उनके चमत्कृत करते अनगिनत कार्य - लगता है जैसे सहस्रबाहु हों।
क्या थे स्वामी केशवानंद? क्या-क्या किया था उन्होंने? इसकी अभी न पूरी गणना हुई है, न मूल्यांकन। फिर भी स्वामी केशवानंद थे -
 भीषण अकाल एवं अभाव के हाथों अनाथ हुआ एक बालक।
 गांव-गांव में गीता और गुरवाणी के प्रचारक।
 शिक्षा प्रचारक ।
 शिक्षा संस्थाओं के संस्थापक सैंकड़ों की संख्या में।
 स्वतंत्रता सेनानी। दो बार जेल गये, सौ बार अंग्रेजों का विरोध किया।
 महान हिन्दी सेवक।
 अनेक छात्रावासों के संस्थापक
 अनेक पुस्तकालयों/वाचनालयों के संस्थापक।
 स्वतंत्रता से पूर्व ही प्रौढ़ शिक्षा का अभियान चलाने वाले।
 अनेक पुस्तकों के प्रकाशक।
 आयुर्वेद विद्यालय, औषधालय एवं रसायनशाला के संस्थापक।
 समाज सुधारक, कुरीति उन्मूलन, नशा मुक्ति एवं जातिवाद मिटाने के पुरोधा।
 अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग की प्रगति के रचनात्मक सहयोगी।
 पर्यावरण की रक्षा के लिये जीवन भर कार्य करने वाले।
 कला, पुरातत्व और इतिहास के अनूठे संग्रहालय के संस्थापक और 12 वर्ष तक राज्य सभा के सदस्य।
एक ही सांस में गिन लिये गये ये कार्य करने के लिए स्वामी केशवानंद ने 90 वर्ष की पूरी जिंदगी समर्पित कर दी थी।
क्या ऐसे महापुरूषों को हम ‘हीरा’ नहीं कह सकते? वास्तव में स्वामी केशवानन्द थे जेम्स आॅफ इंडिया.... ए ग्रेट इंडियन।
(गोविन्द शर्मा)
ग्रामोत्थान विद्यापीठ, संगरिया - 335063
जिला हनुमानगढ़ (राजस्थान)
मोबाइल नं. - 9414482280
MyBlog- www.govindsharmawriter.com

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