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मोजार्ट ऑफ़ इंडिया

२२ फरवरी २००९,जगह "कोडक थिएटर" हॉलीवुड, लॉस एन्जेलस और मौका था ऑस्कर अवार्ड्स का,हॉलीवुड और कई फ़िल्मी जगत के बड़े-बड़े दिग्गज और हस्तियाँ मौजूद थीं, अभी समय आया है "बेस्ट ओरिजिनल स्कोर" मतलब "बेस्ट म्यूजिक डायरेक्टर" के विजेता को घोषित करने का! सभी की सांसें अटकी हुई थी पर, जैसे ही नाम घोषित हुआ वहाँ बैठे सभी दिग्गजो ने तालियों की गड़गड़ाहट से उस छोटे से कद के बन्दे का उठकर स्वागत किया, जिससे हम हिन्दुस्तानियों का सीना गर्व से और चौड़ा हो गया।

वो और कोई नहीं बल्कि बॉलीवुड और दक्षिण भारत के मशहूर संगीतकार "ऐ.आर रहमान" थे, जिन्हें हॉलीवुड फिल्म "स्लम डॉग मिलियनेर" फ़िल्म में "जय हो" और "ओ साया" जैसे जबरदस्त गीतों को बनाने के लिए यह सुनहरा अवार्ड मिला था और इसी के साथ वो एशिया तथा भारत के पहले ऐसे व्यक्ति बने जिन्हें जानदार संगीत देने के लिए ऑस्कर अवार्ड और ग्लोबल म्यूजिक अवॉर्ड मिला था। ऐ.आर रहमान का इस मुकाम तक पहुंचना कोई चमत्कार या इत्तेफाक नहीं था, बल्कि उनका शुरुआत से ही संगीत के प्रति लगाव और अथक परिश्रम का परिणाम था।

ऐ.आर रहमान बचपन से ही संगीत के सुंदर से वातावरण में पले-बड़े थे, क्योंकि दादा जी से लेकर पिताजी सब संगीत के क्षेत्र में किसी ना किसी ढंग से जुड़े हुए थे। दादा जी भजन मंडली में गाया करते थे, तो पिता आर.के शेखर तमिल और मलयाली म्यूजिक इंडस्ट्री में संगीतकार और म्यूजिक कडंक्टर थे। वे स्वतंत्र रूप से फिल्मों में संगीत देने के लिए दिन-रात संघर्ष किया करते थे।

ऐ.आर रहमान का जन्म ६ जनवरी १९६७ को चेन्नई मे "ऐ.एस दिलीप" के रूप मे "आर.के शेखर" और "करीमा बेगम" के घर मे हुआ था।दिलीप के अलावा घर में उनकी तीन बहने भी थीं। पिता के संगीतकार होने के कारण उनका लगाव भी संगीत की तरफ बढ़ने लगा था। दिलीप अपने पिता के साथ बचपन से ही उनके स्टूडियो में जाया करते थे और कई छोटे-बड़े वाद्ययंत्र बजाते थे। एक बार जब संगीतकार "सुदर्शनम्" ने इस छोटे से दिलीप को बड़ी ही आसानी से "हारमोनियम" बजाते देखा तो चौंक गए और उन्होंने मन ही मन भविष्यवाणी कर ली की एक ना एक दिन दिलीप अपने पिता की विरासत को और ऊँची चोटी पर ले जायेगा। बाद में "सुदर्शनम्" ने उन्हें संगीत सीखने की सलाह दी और उनकी सलाह को स्वीकारा और केवल चार साल की छोटी सी उम्र से "प्यानो" सीखने लगे थे।उन्होने संगीत की शुरूआती शिक्षा मास्टर "धनराज" से ली।

सब अच्छा चल रहा था परिवार में, खुशहाली थीं, पिताजी की पहली फिल्म आने वाली थीं, जिसमे उन्होने स्वतंत्र रूप से संगीत दिया था, लेकिन हर रोज देर रात तक कठिन परिश्रम और संघर्ष करने के कारण उन्हें पेट से संबंधित बीमारी हो गई और उनके पिताजी को कई अस्पतालों में ले जाया गया, लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ा। प्रार्थना और यज्ञ करवाये गए, लेकिन एक दिन जब दिलीप की माँ करीमा जी ने एक मुस्लिम पीर "शैख़ अब्दुल क़ादरी जिलानी" को बुलाया तो उन्होंने पेट का ऑपरेशन ना करवाने की सलाह दी और भगवान पर भरोसा रखने को कहा, लेकिन दिलीप के पिता ना माने और पीर के कहे अनुसार ऑपरेशन करवाने के कारण वे चल बसें। आखिरी समय मे जब वे अस्पताल में थे, तब भी अपनी पहली फिल्म के संगीत के लिए काम करते रहते थे। कई लोग कहते हैं की इतनी बड़ी सफलता हासिल करने के कारण किसी ने आर.के शेखर पर काला जादू कर दिया था, लेकिन सच्चाई तो यह थीं की वो अब नहीं रहे थे और छोटे-छोटे बच्चों को छोड़ कहीं दूर चले गए थे।

पिता की मृत्यु हुई तब दिलीप केवल "नौ" साल के ही थे। अब परिवार की आर्थिक स्थिति और बिगड़ने लगी थीं। परिवार को गरीबी का सामना भी करना पड़ा और अपने परिवार को सँभालने का काम इस छोटे बच्चे पर आ पड़ा था।

आर्थिक स्थिति को सँभालने के लिए दिलीप की माँ ने उनके पति के सारे वाद्ययंत्र किराये पर दे दिए और दिलीप भी छोटी सी उम्र में कई "म्यूजिक बैंड" में शामिल हो गया।जिसके कारण वे कक्षा ग्यारहवीं से ज्यादा स्कूली शिक्षा नहीं ले पाए। धीरे-धीरे उन्होंने कई मशहूर संगीतकार "एम.एस विश्वनाथ", "इल्लयराजा", "रमेश नायडू" और "राज कोठी" के "संगीत मंडली" में काम किया। उन्होंने वहाँ कई और वाद्ययंत्र सीखे जैसे "गिटार" और "प्यानो" आदि। इसी प्रकार वे भी औपचारिक रूप से संगीत जगत में शामिल हो गए। उस समय उन्होंने अलग-अलग टी.वी प्रोग्राम के लिए भी काम किया, उनके इसी प्रयासों के कारण उन्हें "ट्रीनिटी कॉलेज ऑफ़ म्यूजिक" से स्कोलरशीप भी मिली, जहाँ उन्होंने "वेस्टर्न क्लासिकल" म्यूजिक की डिग्री हासिल की और बाद में वे भारतीय संगीत को और ऊँचाईयों तक ले जाने के प्रयासों में लग गए।

कई टी.वी शॉ में संगीत देने के अलावा उन्होंने कई स्थानीय म्यूजिक बैंड जैसे "रूट्स" और "मैजिक" के लिए भी काम किया और बाद में उन्होंने "नेवेसिस एवेन्यू" के नाम से अपना खुद का बैंड भी शुरू किया, जहाँ उनके मित्र "शिवामणि", "जॉन एन्थोनी" "सुरेश पीटर" और "जोजुआ राजा" भी उनके साथ जुड़े हुए थे। इसी दौरान इल्लयराजा की संगीत मंडली के एक सदस्य की सलाह पर टी.वी विज्ञापनों में करियर बनाने लगे और उन्होंने अपना पहला म्यूजिकल जिंगल "एल्विन वॉचेस" के लिए बनाया। ये जिंगल इतना सफल हुआ की उन्हें कई और कंपनी की तरफ से भी ऑफर आने लगे।

इसी दौरान साल १९९२ में मशहूर फिल्म निर्देशक "मणिरत्नम" ने इनका काम देखा और उनसे प्रभावित हुए, जिससे उन्होंने, उन्हें अपनी फिल्म "रोज़ा" में संगीत देने का ऑफर दिया। "रोज़ा" के कई गीत मशहूर हुए, खास तौर पर "दिल है छोटा सा छोटी सी आशा" यह गीत लोगो को गुनगुनाने पर मजबूर कर देता था। उन्हें इस फिल्म के लिए "नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड" और "सिल्वर लोटस अवॉर्ड" भी मिला। फिल्म की सफलता के बाद में उन्हें कई और फिल्मे भी ऑफर होने लगी। "इंदिरा","बोम्बे", "सपने", "मिस्टर रोमियो" और "लव बर्ड्स" उनकी दूसरी चुनिंदा दक्षिण भारतीय फिल्में थीं।

"दिलीप" अब "ऐ.आर रहमान" बन चुके थे, वे अब रुकने वाले नहीं थे!फिर क्या?उन्होंने राम गोपाल वर्मा की फिल्म "रंगीला" से बॉलीवुड में प्रवेश किया और बाद में "दिल से", "ताल", "फिज़ा", "लगान", "स्वदेस" और "रंग दे बसंती" जैसी कई फिल्मों में संगीत दिया। उनकी यह खासियत रही है कि वे अपने संगीत में भारतीय शास्त्रीय संगीत और पश्चिमी संगीत का खूब अच्छे से मिश्रण करने में माहिर रहे हैं, इसलिए तो चाहे वो दिल से फिल्म का "चल छैय्यां छैय्यां" गाना हो, "उर्वशी उर्वशी हो", "चंदा रे" हो, "ये हसीन वादियाँ" हो, लगान का "ओ पालन हारे" हो, या ताल फिल्म का "इश्क बिना क्या जीना यारो?" आदि गाने बहुत ही लोकप्रिय बने। इनमें से "चल छैय्यां छैय्यां" तो इतना लोकप्रिय हुआ की "बी.बी.सी वर्ल्ड सर्विसिस" ने इस गाने को साल २००३ मे दुनिया के दस सबसे बहेतरीन गानो की सूची मे इसे शामिल किया और इससे भी दिलचस्प बात यह है कि ऐ.आर रहमान ने इस गाने के संगीत का उपयोग अपनी पहली होलीवुड फिल्म "इनसाइड मेन" मे भी किया!

ऐ.आर रहमान ने कई प्रसिद्ध गीतकार जैसे जावेद अख्तर, गुलज़ार और बाली के साथ भी काम किया।

ऐ.आर रहमान केवल फिल्मी गीतों को बनाने में उस्ताद हो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, इसका सबूत यह की उन्होंने सन् १९९७ में "सोनी म्यूज़िक इंडिया" से जुड़कर सबसे लोकप्रिय और हर भारतीयों के दिलों में प्रवेश करने वाला नॉन-फिल्मी एल्बम "वंदे मातरम्" बनाया, जिसमें उन्होंने "माँ तुझे सलाम" गीत स्वयं ही गाया। उन्होंने यह गीत भारत की आज़ादी की पचासवीं सालगिरह के स्वर्ण अवसर पर बनाया था। यह गाना इतना लोकप्रिय हुआ की उस समय में सबसे ज्यादा बिकने वाला नॉन-फिल्मी एल्बम बन गया।
ऐ.आर रहमान के कठिन परिश्रम के चलते अब तो उन्हें हॉलीवुड से भी ओफर आने लगे थे, उन्होंने "इनसाइड मेन" "लॉर्ड्स ऑफ़ वॉर" "डिवाइन इंटरवेंशन" के लिए भी संगीत दिया।

साल २००८ उनके लिए व्यस्त और सुनहरा समय था, जब उन्होंने दो बॉलीवुड फिल्म "जाने तू या जाने ना" और "जोधा अकबर" के लिए और हॉलीवुड फिल्म "स्लम डॉग मिलियनेर" के लिए संगीत दिया। उन तीनों फिल्मों के संगीत इतने हिट हुए की बॉलीवुड से उन्हें "आइफा" अवार्ड और स्लम डॉग मिलियनेर के लिए उन्हें २ सबसे प्रतिष्ठित "ऑस्कर" अवॅार्ड मिले, जिनसे उन्होंने ने भारतीय संगीत को विश्व पटल पर लाने का काम किया।

उन्होंने कई और बॉलीवुड फिल्म जैसे "दिल्ली-६", "रोबोट", "रॉकस्टार", "जब तक है जान", "रांझणा", "हाईवे", "तलाश" और "ओके जानू"आदि फिल्मों में अपने संगीत का जादू चलाया। इनमें से विशेष तौर पर फिल्म "रॉकस्टार" के "सड्डा हक़" और "नादान परिन्दे" ये दो गाने इतने प्रसिद्ध हुए की उन्हें "भारत का रॉकस्टार" कहा जाने लगा!

उन्हें कई अवार्ड्स, जैसे ४ नेशनल अवॅार्ड्स, ६ तमिलनाडु स्टेट फ़िल्म अवार्ड्स, १५ फिल्मफेर अवार्ड्स, १६ फिल्मफेर अवार्ड्स साउथ भी मिल चुके हैं। उनके संगीत जगत में किये गए सराहनीय काम के लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा "पद्म श्री" से भी सम्मानित किया गया।

आज उनका एशिया का सबसे बेहतरीन और नई-नई तकनीकों से लैस "पञ्चाथन रिकॉर्ड ईन" के नाम से चेन्नई में म्यूजिक स्टूडियो हैं, जिसकी शुरुआत उन्होंने १९९२ में ही कर दी थी।

आज जब उनसे पूछा जाता हैं वे "दिलीप" से "ऐ.आर रहमान" कैसे बने? तो वे किस्सा बताते हैं कि पिता के मरने के ठीक दस साल बाद जब उनकी छोटी बहन बीमार हुई थीं, तो कई अस्पतालों में बताया पर बचने की कोई उम्मीद नहीं थीं, लेकिन माँ के "सूफ़ीयान" अर्थात् "सूफ़ीज़म" में बढ़ते विश्वास के कारण उन्होंने उन्हीं "मुस्लिम पीर" को बुलाया जिन्होंने ने उनके पति अर्थात ऐ.आर रहमान के पिता को ऑपरेशन ना कराने की सलाह दी थी। इन्हीं मुस्लिम पीर की वजह से रहमान की बहन की बीमारी कम होती गई और वो बच गयी,इसी की वजह से रहमान और उनके परिवार का "सूफ़ीज़म" के प्रति लगाव व विश्वास और बढ़ने लगा और अपना नाम दिलीप से "अल्लाह रक्खा रहमान" कर दिया। उनके अनुसार "सूफ़ीज़म" से उन्हें एक शांति की अनुभूति होती हैं और आज भी जब आप उनके स्टूडियो मे जायेंगे तो प्रवेश द्वार पर उन्हीं "पीर साहब" की तस्वीर दिखेगी। उनका सूफ़ीज़म के प्रति इतना लगाव है की वे कई खूबसूरत सूफ़ी संगीत बना चुकें हैं, जिसकी झलक आपको "रॉकस्टार" फिल्म के गाने "कूं फाया" मे भी देखने को मिलेगी।

उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे मे बात की जाए तो उन्होंने वर्ष १९९२ मे सायरा बानू से निकाह किया, जिनसे उन्हे तीन बच्चे भी हैं।

रहमान का बचपन से ही सबसे पसंदीदा वाद्ययंत्र "सिन्थेसाइज़र" रहा है, क्योंकि वह संगीत और तकनीक दोनों से लैस हुआ करता है। शायद यही एक वजह रही होगी कि उनका नई-नई तकनीकों में भी लगाव रहा है। वे संगीत और तकनीक दोनो का अद्भुत मिश्रण करके बहुत ही अव्वल दर्जे का संगीत बनाते हैं।

वे संगीत के साथ-साथ कई अच्छे कार्य भी करते हैं, जैसे की उनका "स्टॉप टीबी पार्टनरशिप" और "सेव दी चिल्ड्रन" जैसे नेक कामों से जुड़ाव इत्यादि।

उनकी एक और दिलचस्प बात यह हैं की वे बचपन में "इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर" बनना चाहते थे, लेकिन कठिन परिस्थितियाँ अगर उनके जीवन में ना आती तो आज हमें यह बेहतरीन संगीतकार नहीं मिल पाता! शायद उनके द्वारा बनाया गाया मशहूर और "अवॉर्ड वीनिंग" गीत "जय हो" उनके जीवन के लिए सार्थक हैं।

अगर आप उनके संगीत को ध्यान से सुनेंगे तो यह महसूस होगा कि उन्होंने समग्र प्रकृति की आत्माओं को एक धागे में पिरो लिया हो। वे अपने संगीत में भारतीय शास्त्रीय वाद्य यन्त्र जैसे की शहनाई, सितार, तबला, संतूर, मृदंग और वीणा का भी बखूबी ढंग से उपयोग करते हैं, जो उनके संगीत को औरों से काफी अलग और शानदार बनाता है ।

वर्तमान समय में वे बतौर निर्देशक और लेखक के तौर "ले मस्क" के नाम से म्यूज़िकल और इंटरनेशनल फिल्म बनाने में व्यस्त हैं।

सही मायने मे ऐ.आर रहमान ने भारतीय संगीत को विश्व स्तरीय बनाया हैं, जिसका उदाहरण आपको उनके संगीत और नई-नई तकनीकों से लैस स्टूडियो से देखने को मिलेगा।

इस प्रकार छोटी सी उम्र में पिताजी के निधन और इसके बाद परिवार में आयी गरीबी से उभर कर कठिन परिश्रम करना, अपने बल पर संगीत के क्षेत्र में नई-नई ऊँचाईयों को प्राप्त करना और अपनी प्रतिभा से भारत का नाम रोशन करना, इसी के कारण ऐ.आर रहमान भारत के चुनिन्दा लोगों में से एक हैं और भारत का "अनमोल हीरा" हैं।

तो इसीलिए जिस तरह ओस्ट्रियन संगीतकार "मोजार्ट" ने संगीत को नया रूप देने का बेहतरीन काम किया था, उसी प्रकार ऐ. आर रहमान के भारतीय संगीत को नया रंग-रूप देने की वजह से उन्हें "मोजार्ट ऑफ़ इंडिया" कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। इसी वजह से कहानी का यह शीर्षक सच्चा भी हैं और सार्थक भी!

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